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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे

चतुर्दशोऽध्यायः ॥

तारकवज्रांगयोरुपत्तिस्तत्तपोवर्णनञ्च -
तारकासुरकी उत्पत्तिके प्रसंगमें दितिपुत्र वज्रांगकी कथा, उसकी तपस्या तथा वरप्राप्तिका वर्णन -


नारद उवाच
विष्णुशिष्य महाशैव सम्यगुक्तं त्वया विधे ।
चरितं परमं ह्येतच्छिवायाश्च शिवस्य च ॥ १ ॥
नारदजी बोले-हे विष्णुशिष्य ! हे महाशैव ! हे विधे ! आपने यह शिवा एवं शिवजीके परम पवित्र चरित्रका अच्छी तरहसे वर्णन किया ॥ १ ॥

कस्तारकासुरो ब्रह्मन्येन देवाः प्रपीडिताः ।
कस्य पुत्रस्य वै ब्रूहि तत्कथां च शिवाश्रयाम् ॥ २ ॥
भस्मी चकार स कथं शंकरश्च स्मरं वशी ।
तदपि ब्रूहि सुप्रीत्याऽद्‌भुतं तच्चरितं विभोः ॥ ३ ॥
हे ब्रह्मन् ! तारकासुर कौन था, जिसने देवताओंको दुःखित किया, वह किसका पुत्र था, शिवजीसे सम्बन्धित उस कथाको [आप मुझसे] कहिये । जितेन्द्रिय शंकरने किस प्रकार कामदेवको भस्म किया ? भगवान् शंकरके इस अद्‌भुत चरित्रका भी प्रसन्नतापूर्वक वर्णन कीजिये ॥ २-३ ॥

कथं शिवा तपोऽत्युग्रं चकार सुखहेतवे ।
कथं प्राप पतिं शम्भुमादिशक्तिर्जगत्परा ॥ ४ ॥
जगत्से परे आदिशक्ति पार्वतीने किस प्रकार अत्यन्त कठोर तप किया और अपने सुखके लिये उन्होंने शंकरको किस प्रकार पतिरूपमें प्राप्त किया ? ॥ ४ ॥

एतत्सर्वमशेषेण विशेषेण महाबुध ।
ब्रूहि मे श्रद्दधानाय स्वपुत्राय शिवात्मने ॥ ५ ॥
हे महाज्ञानी ! आप मुझ श्रद्धावान् तथा शिवभक्त अपने पुत्रसे यह सम्पूर्ण चरित्र विशेष रूपसे कहिये ॥ ५ ॥

ब्रह्मोवाच -
पुत्रवर्य महाप्राज्ञ सुरर्षे शंसितव्रतः ।
वच्म्यहं शंकरं स्मृत्वा सर्वं तच्चरितं शृणु ॥ ६ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे पुत्रवर्य ! हे महाप्राज्ञ ! हे सुर ! हे प्रशंसनीय व्रतवाले ! मैं शंकरका स्मरणकर उनके सम्पूर्ण चरित्रका वर्णन कर रहा हूँ, आप सुनें ॥ ६ ॥

प्रथमं तारकस्यैव भवं संशृणु नारद ।
यद्वधार्थं महा यत्नः कृतो दैवैः शिवाश्रयैः ॥ ७ ॥
हे नारद ! सबसे पहले आप तारकासुरकी उत्पत्तिको सुनें, जिसके वधके लिये देवताओंने शिवका आश्रय लेकर बड़ा यत्न किया था ॥ ७ ॥

मम पुत्रो मरीचिर्यः कश्यपस्तस्य चात्मजः ।
त्रयोदशमितास्तस्य स्त्रियो दक्षसुताश्च याः ॥ ८ ॥
मेरे पुत्र जो मरीचि थे, उनके पुत्र कश्यप हुए । उनकी तेरह स्त्रियाँ थीं, जो दक्षकी कन्याएँ थीं ॥ ८ ॥

दितिर्ज्येष्ठा च तत्स्त्री हि सुषुवे सा सुतद्वयम् ।
हिरण्यकशिपुर्ज्येष्ठो हिरण्याक्षोऽनुजस्ततः ॥ ९ ॥
उनकी सबसे बड़ी पत्नी दिति थी, उसके दो पुत्र हुए । उनमें हिरण्यकशिपु ज्येष्ठ तथा हिरण्याक्ष छोटा था ॥ ९ ॥

तौ हतौ विष्णुना दैत्यौ नृसिंहक्रोडरूपतः ।
सुदुःखदौ ततो देवाः सुखमापुश्च निर्भयाः ॥ १ ० ॥
भगवान् विष्णुने नृसिंह तथा वराहरूप धारणकर अत्यन्त दुःख देनेवाले उन दोनोंका वध किया । तत्पश्चात् देवगण निर्भय और सुखी रहने लगे ॥ १० ॥

दितिश्च दुःखिताऽऽसीत्सा कश्यपं शरणं गता ।
पुनःसंसेव्य तं भक्त्या गर्भमाधत्त सुव्रता ॥ ११ ॥
तद्विज्ञाय महेन्द्रोऽपि लब्धच्छिद्रो महोद्यमी ।
तद्‌गर्भं व्यच्छिनत्तत्र प्रविश्य पविना मुहुः ॥ १२ ॥
तद्‌व्रतस्य प्रभावेण न तद्‌गर्भो ममार ह ।
स्वपन्त्या दैवयोगेन सप्त सप्ताभवन्सुताः ॥ १३ ॥
इससे दिति दुखी हुई और वह कश्यपकी शरणमें गयी । उस पतिव्रताने उनकी सेवाकर भक्तिपूर्वक पुनः गर्भ धारण किया । यह जानकर महान् परिश्रमी देवराज इन्द्रने अवसर पाकर उसके गर्भमें प्रविष्ट होकर वज्रसे उसके गर्भके टुकड़े-टुकड़े कर दिये । किंतु उसके व्रतके प्रभावसे उसका गर्भ नहीं मरा और दैवयोगसे सोती हुई उसके गर्भसे उनचास पुत्र उत्पन्न हुए ॥ ११-१३ ॥

देवा आसन्सुतास्ते च नामतो मरुतोऽखिलाः ।
स्वर्गं ययुस्तदेन्द्रेण देवराजात्मसात्कृताः ॥ १४ ॥
पुनर्दितिः पतिं भेजेऽनुतप्ता निजकर्मतः ।
चकार सुप्रसन्नं तं मुनिं परमसेवया ऽ १५ ॥
वे सभी पुत्र मरुत् नामके देवता हुए और स्वर्गको चले गये । देवराजने उन्हें अपना लिया । तब दिति अपने कर्मसे अनुतप्त हो पुन: उनकी सेवा करने लगी और उसने महान् सेवासे उन मुनिको प्रसन्न कर लिया ॥ १४-१५ ॥

कश्यप उवाच -
तपः कुरु शुचिर्भूत्वा ब्रह्मणश्चायुतं समाः ।
चेद्‌भविष्यति तत्पूर्वं भविता ते सुतस्तदा ॥ १६ ॥
कश्यप बोले-हे भद्रे ! यदि तुम पवित्र होकर ब्रह्माके दस हजार वर्षपर्यन्त तपस्या करो, तो तुम्हारे गर्भसे पुन: महापराक्रमी पुत्रका जन्म हो सकता है ॥ १६ ॥

तथा दित्या कृतं पूर्णं तत्तपःश्रद्धया मुने ।
ततः पत्युः प्राप्य गर्भं सुषुवे तादृशं सुतम् ॥ १७ ॥
हे मुने ! दितिने श्रद्धाके साथ जब तपस्या पूरी की, तब अपने पतिसे गर्भ धारणकर वैसा ही पुत्र उत्पन्न किया ॥ १७ ॥

वज्राङ्‌गनामा सोऽभूद्वै दितिपुत्रोऽमरोपमः ।
नामतुल्यतनुर्वीरः सुप्रताप्युद्‌भवाद्‌बली ॥ १८ ॥
दितिका वह पुत्र देवताओंके समान था, वह वांग नामसे विख्यात हुआ । उसका शरीर नामके अनुसार ही [वज्रके समान] था । वह जन्मसे महाप्रतापी और बलवान् था ॥ १८ ॥

जननीशासनात्सद्यः स सुतो निर्जराधिपम् ।
बलाद्धृत्वा ददौ दण्डं विविधं निर्जरानपि ॥ १९ ॥
दितिः सुखमतीवाप दृष्ट्‍वा शक्रादिदुर्दशाम् ।
अमरा अपि शक्राद्या जग्मुर्दुःखं स्वकर्मतः ॥ २० ॥
उस पुत्रने अपनी माताकी आज्ञासे बलपूर्वक देवराज इन्द्र तथा देवताओंको भी पकड़कर अनेक प्रकारका दण्ड दिया । इस प्रकार इन्द्र आदिकी दुर्दशा देखकर दिति बहुत प्रसन्न हुई तथा इन्द्र आदि देवता अपनेअपने कर्मफलके अनुसार बड़े दुखी हुए ॥ १९-२० ॥

तदाहं कश्यपेनाशु तत्रागत्य सुसामगीः ।
देवानत्याजयंस्तस्मात्सदा देवहिते रतः ॥ २१ ॥
तब देवताओंकी सदा भलाई करनेवाले मैंने कश्यपको साथ लेकर वहाँ पहुँचकर शान्तिकी बात कहकर देवताओंको उस वांगसे छुड़ाया ॥ २१ ॥

देवान्मुक्त्वा स वज्राङ्‌गस्ततः प्रोवाच सादरम् ।
शिवभक्तोऽतिशुद्धात्मा निर्विकारः प्रसन्नधीः ॥ २२ ॥
तत्पश्चात् शुद्धात्मा, निर्विकार वह शिवभक्त वांग देवताओंको मुक्त करके प्रसन्नचित्त होकर आदरपूर्वक कहने लगा- ॥ २२ ॥

वज्राङ्‌ग उवाच -
इन्द्रो दुष्टः प्रजाघाती मातुर्मे स्वार्थसाधकः ।
स फलं प्राप्तवानद्य स्वराज्यं हि करोतु सः ॥ २३ ॥
वज्रांग बोला-यह इन्द्र बड़ा स्वार्थी और दुष्ट है । इसने ही मेरी माताकी सन्तानोंको नष्ट किया है, इसको अपने कर्मका फल मिल गया, अब यह अपना राज्यपालन करे ॥ २३ ॥

मातुराज्ञावशाद्‌ब्रह्मन्कृतमेतन्मयाखिलम् ।
न मे भोगाभिलाषो वै कस्यचिद्‌भुवनस्य हि ॥ २४ ॥
हे ब्रह्मन् ! यह सारा कार्य मैंने माताकी आज्ञासे किया है । मुझे किसी भुवनके भोगकी अभिलाषा नहीं है ॥ २४ ॥

तत्त्वसारं विधे ब्रूहि मह्यं वेदविदांवर ।
येन स्यां सुसुखी नित्यं निर्विकारः प्रसन्नधीः ॥ २५ ॥
हे वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ब्रह्मन् ! आप मुझे वेदतत्त्वका सार बताइये, जिससे मैं सदा परम सुखी, विकाररहित तथा प्रसन्नचित्त हो जाऊँ ॥ २५ ॥

तच्छ्रुत्वाहं मुनेऽवोचं सात्त्विको भाव उच्यते ।
तत्त्वसार इति प्रीत्या सृजाम्येकां वरां स्त्रियम् ॥ २६ ॥
हे मुने ! यह सुनकर मैंने उससे कहा-जो सात्त्विक भाव है, वही तत्त्वसार है । मैंने [तुम्हारे लिये] प्रसन्नतापूर्वक एक सुन्दर स्त्रीका निर्माण किया है ॥ २६ ॥

वराङ्‌गीं नाम तां दत्त्वा तस्मै दितिसुताय वै ।
अयां स्वधाम सुप्रीतः कश्यपस्तत्पितापि च ॥ २७ ॥
उस वरांगी नामवाली स्त्रीको मैंने उस दितिपुत्रको प्रदानकर उसके पिताको अत्यन्त प्रसन्नकर मैं अपने घर चला गया और कश्यप भी अपने स्थानको लौट गये ॥ २७ ॥

ततो दैत्यः स वज्राङ्‌गः सात्विकं भावमाश्रितः ।
आसुरं भावमुत्सृज्य निर्वैरः सुखमाप्तवान् ॥ २८ ॥
तब वह दैत्य वज्रांग सात्त्विक भावसे युक्त हो गया और राक्षसी भावको छोड़कर वैररहित हो सुख भोगने लगा ॥ २८ ॥

न बभूव वराङ्‌ग्या हि हृदि भावोथ सात्विकः ।
सकामा स्वपतिं भेजे श्रद्धया विविधं सती ॥ २९ ॥
किंतु वरांगीके हृदयमें सात्विक भावका उदय नहीं हुआ और वह सकाम होकर श्रद्धापूर्वक अपने पतिकी अनेक प्रकारसे सेवा करने लगी ॥ २९ ॥

अथ तत्सेवनादाशु सन्तुष्टोऽभून्महाप्रभुः ।
स वज्राङ्‌गः पतिस्तस्या उवाच वचनं तदा ॥ ३० ॥
वरांगीका पति महाप्रभु वह वज्रांग उसकी सेवासे सन्तुष्ट हो गया और उससे कहने लगा- ॥ ३० ॥

वज्राङ्‌ग उवाच
किमिच्छसि प्रिये ब्रूहि किं ते मनसि वर्तते ।
तच्छ्रुत्वानम्य तं प्राह सा पतिं स्वमनोरथम् ॥ ३१ ॥
वज्रांग बोला-हे प्रिये ! तुम क्या चाहती हो, तुम्हारे मनमें क्या [विचार है ? मुझे बताओ । तब उसने विनम्र होकर पतिसे अपने मनोरथको कहा- ॥ ३१ ॥

वराङ्‌ग्युवाच
चेत् प्रसन्नोऽभवस्त्वं वै सुतं मे देहि सत्पते ।
महाबलं त्रिलोकस्य जेतारं हरिदुःखदम् ॥ ३२ ॥
वरांगी बोली-हे सत्पते ! यदि आप [मुझसे] प्रसन्न हैं, तो मुझे ऐसा पुत्र दीजिये, जो महाबली, त्रिलोकीको जीतनेवाला तथा इन्द्रको दुःख देनेवाला हो ॥ ३२ ॥

ब्रह्मोवाच
इति श्रुत्वा प्रियावाक्यं विस्मितोऽभूत्स आकुलः ।
उवाच हृदि स ज्ञानी सात्विको वैरवर्जितः ॥ ३३ ॥
ब्रह्माजी बोले-अपनी पत्नीका यह वचन सुनकर वह व्याकुल तथा आश्चर्यचकित हो गया । वैररहित, ज्ञानी एवं सात्त्विक वह वज्रांग अपने मनमें सोचने लगा- ॥ ३३ ॥

प्रियेच्छति विरोधं वै सुरैर्मे न हि रोचते ।
किं कुर्यां हि क्व गच्छेयं कथं नश्ये न मे पणः ॥ ३४ ॥
मेरी प्रिया देवताओंसे विरोध करना चाहती है, परंतु मुझे यह अच्छा नहीं लगता । अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ और कौन ऐसा उपाय करूँ, जिससे मेरी प्रतिज्ञा नष्ट न हो ॥ ३४ ॥

प्रियामनोरथश्चैव पूर्णः स्यात्‌त्रिजगद्‌भवेत् ।
क्लेशयुङ्नितरां भूयो देवाश्च मुनयस्तथा ॥ ३५ ॥
यदि प्रियाका मनोरथ पूर्ण होता है, तो तीनों लोक कष्टमें पड़ जायेंगे तथा देवता और मुनि भी दुखी हो जायेंगे ॥ ३५ ॥

न पूर्णः स्यात्प्रिया कामस्तदा मे नरको भवेत् ।
द्विधापि धर्महानिर्वै भवतीत्यनुशुश्रुवान् ॥ ३६ ॥
परंतु यदि प्रियाका मनोरथ पूर्ण नहीं हुआ, तो मुझे नरक भोगना पड़ेगा । दोनों ही प्रकारसे धर्मकी हानि होगी, ऐसा मैंने [धर्मशास्त्रोंसे] सुना है ॥ ३६ ॥

वज्राङ्‌ग इत्थं बभ्राम स मुने धर्मसङ्‌कटे ।
बलाबलं द्वयोस्तत्र विचिचिन्त च बुद्धितः ॥ ३७ ॥
हे मुने ! इस तरह धर्मसंकटमें पड़ा हुआ वह वज्रांग भ्रममें पड़ गया, वह अपनी बुद्धिसे दोनों बातोंके उचित-अनुचित [पक्षों]-पर विचार करने लगा ॥ ३७ ॥

शिवेच्छया स हि मुने वाक्यं मेने स्त्रियो बुधः ।
तथास्त्विति वचः प्राह प्रियां प्रति स दैत्यराट् ॥ ३८ ॥
हे मुने ! [उस समय] उस बुद्धिमान् वज्रांगने शिवकी इच्छासे स्त्रीकी बात मान ली । उस दैत्यराजने प्रियासे कहा-ठीक है, ऐसा ही होगा ॥ ३८ ॥

तदर्थमकरोत्तीव्रं तपोन्यद्दुष्करं स तु ।
मां समुद्दिश्य सुप्रीत्या बहुवर्षं जितेन्द्रियः ॥ ३९ ॥
तत्पश्चात् उसने इस निमित्त जितेन्द्रिय होकर मेरे उद्देश्यसे बहुत वर्षांतक प्रीतिपूर्वक तप किया ॥ ३९ ॥

वरं दातुमगां तस्मै दृष्ट्‍वाहं तत्तपो महत् ।
वरं ब्रूहि ह्यवोचं तं सुप्रसन्नेन चेतसा ॥ ४० ॥
तब उसका महातप देखकर उसे वर प्रदान करनेके लिये मैं गया और प्रसन्नमनसे मैंने उससे कहा-वर माँगो ॥ ४० ॥

वज्राङ्‌गस्तु तदा प्रीतं मां दृष्ट्‍वा खे स्थितं विभुम् ।
सुप्रणम्य बहुस्तुत्वा वरं वव्रे प्रियाहितम् ॥ ४१ ॥
उस समय वांगने प्रसन्न हुए मुझ विभुको आकाशमें स्थित देखकर प्रणाम करके नाना प्रकारकी स्तुतिकर प्रियाके लिये हितकारी वर माँगा ॥ ४१ ॥

वज्राङ्‌ग उवाच
सुतं देहि स्वमातुर्मे महाहितकरं प्रभो ।
महाबलं सुप्रतापं सुसमर्थं तपोनिधिम् ॥ ४२ ॥
वज्रांग बोला-हे प्रभो ! आप मुझे ऐसा पुत्र दीजिये, जो अपनी माताका तथा मेरा परम हित करनेवाला, महाबली, महाप्रतापी, सर्वसमर्थ और तपोनिधि हो ॥ ४२ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्य च तद्वाक्यं तथास्त्वित्यब्रवं मुने ।
अया स्वधाम तद्दत्त्वा विमनाः संस्मरच्छिवम् ॥ ४३ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! उसका यह वचन सुनकर मैंने 'तथास्तु' कहा और इस प्रकार उसे वर देकर शिवका स्मरण करते हुए उदास होकर मैं अपने स्थानको लौट आया ॥ ४३ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां
तृतीये पार्वतीखण्डे तारकोत्पत्तौ वज्राङ्‌गोत्पत्तितपोवर्णनं
नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें तारककी उत्पत्तिके प्रसंगमें बांगकी उत्पत्ति और उसकी तपस्याका वर्णन नामक चौदहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १४ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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