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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे
त्रयोदशोऽध्यायः ॥ शिवपार्वतीसंवादः -
पार्वती और परमेश्वरका दार्शनिक संवाद, शिवका पार्वतीको अपनी सेवाके लिये आज्ञा देना, पार्वतीका महेश्वरकी सेवामें तत्पर रहना - भवान्युवाच किमुक्तं गिरिराजाय त्वया योगिस्तपस्विना । तदुत्तरं शृणु विभो मत्तो ज्ञानिविशारद ॥ १ ॥ तपश्शक्त्यान्वितःशम्भो करोषि विपुलं तपः । तव बुद्धिरियं जाता तपस्तप्तुं महात्मनः ॥ २ ॥ सा शक्तिः प्रकृतिर्ज्ञेया सर्वेषामपि कर्मणाम् । तया विरच्यते सर्वं पाल्यते च विनाश्यते ॥ ३ ॥ भवानी बोलीं-हे योगिन ! आपने तपस्वी होकर भी मेरे पितासे क्या कह दिया । हे ज्ञानविशारद ! उसका उत्तर मुझसे सुनिये । हे शम्भो ! आप तपकी शक्तिसे सम्पन्न होकर ही महातपस्या कर रहे हैं और [उसी महाशक्तिकी ही प्रेरणासे] तपस्या करनेके लिये आप महात्माको ऐसी बुद्धि प्राप्त हुई है । सभी कर्मोको करनेवाली उस शक्तिको ही प्रकृति जानना चाहिये, उसीके द्वारा सबकी सृष्टि, पालन और संहार होता है ॥ १-३ ॥ कस्त्वं का प्रकृतिःसूक्ष्मा भगवंस्तद्विमृश्यताम् । विना प्रकृत्या च कथं लिङ्गरूपी महेश्वरः ॥ ४ ॥ अतः हे भगवन् ! आप कौन हैं और सूक्ष्म प्रकृति क्या है, इसका आप विचार करें । प्रकृतिके बिना लिंगरूपी महेश्वर किस प्रकार रह सकते हैं ? ॥ ४ ॥ अर्चनीयोऽसि वन्द्योऽसि ध्येयोऽसि प्राणिनां सदा । प्रकृत्या च विचार्येति हृदा सर्वं तदुच्यताम् ॥ ५ ॥ आप प्रकृतिके ही कारण सदा प्राणियोंके लिये अर्चनीय, बन्दनीय और चिन्तनीय हैं [इस बातको] हृदयसे विचारकर ही आप वह सब कहिये ॥ ५ ॥ ब्रह्मोवाच पार्वत्यास्तद्वचः श्रुत्वा महोतिकरणे रतः । सुविहस्य प्रसन्नात्मा महेशो वाक्यमब्रवीत् ॥ ६ ॥ ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] पार्वतीजीके उस वचनको सुनकर महती लीला करनेमें रत रहनेवाले प्रसन्नचित्त महेश्वर हँसकर कहने लगे- ॥ ६ ॥ महेश्वर उवाच तपसा परमेणेव प्रकृतिं नाशयाम्यहम् । प्रकृत्या रहितः शम्भुरहं तिष्ठामि तत्त्वतः ॥ ७ ॥ तस्माच्च प्रकृतेःसद्भिर्न कार्यःसङ्ग्रहः क्वचित् । स्थातव्यं निर्विकारैश्च लोकाचारविवर्जितैः ॥ ८ ॥ महेश्वर बोले-मैं उत्तम तपस्याद्वारा ही प्रकृतिका नाश करता हूँ और वस्तुतः प्रकृतिसे रहित होकर ही शम्भुके रूपमें स्थित रहता हूँ । अतः सत्पुरुषोंको कभी भी प्रकृतिका संग्रह नहीं करना चाहिये और लोकाचारसे दूर तथा विकाररहित रहना चाहिये ॥ ७-८ ॥ ब्रह्मोवाच इत्युक्ता शम्भुना तात लौकिकव्यवहारतः । सुविहस्य हृदा काली जगाद मधुरं वचः ॥ ९ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे तात ! जब शम्भुने लौकिक व्यवहारके अनुसार यह बात कही, तब काली मनही-मन हँसकर यह मधुर वचन कहने लगीं- ॥ ९ ॥ काल्युवाच यदुक्तं भवता योगिन्वचनं शंकर प्रभो । सा च किं प्रकृतिर्न स्यादतीतस्तां भवान्कथम् ॥ १ ० ॥ एतद्विचार्य वक्तव्यं तत्त्वतो हि यथातथम् । प्रकृत्या सर्वमेतच्च बद्धमस्ति निरन्तरम् ॥ ११ ॥ तस्मात्त्वया न वक्तव्यं न कार्यं किञ्चिदेव हि । वचनं रचनं सर्वं प्राकृतं विद्धि चेतसा ॥ १२ ॥ काली बोलीं-हे योगिन् ! हे शंकर ! हे प्रभो ! आपने जो बात कही है, क्या वह प्रकृति नहीं है, आप उससे परे कैसे हैं ? इन सबका तात्त्विक दृष्टिसे ठीकठीक विचार करके ही आपको बोलना चाहिये । यह सब कुछ सदा प्रकृतिसे बँधा हुआ है । इसीलिये आपको न तो बोलना चाहिये और न कुछ करना ही चाहिये; क्योंकि कहना और करना सब व्यवहार प्रकृति ही हैऐसा अपनी बुद्धिसे समझिये ॥ १०-१२ ॥ यच्छृणोषि यदश्नासि यत्पश्यसि करोषि यत् । तत्सर्वं प्रकृतेः कार्यं मिथ्यावादो निरर्थकः ॥ १३ ॥ प्रकृतेः परमश्चेत्त्वं किमर्थं तप्यसे तपः । त्वया शम्भोऽधुना ह्यस्मिन्गिरौ हिमवति प्रभो ॥ १४ ॥ प्रकृत्या गिलितोऽसि त्वं न जानासि निजं हर । निजं जानासि चेदीश किमर्थं तप्यसे तपः ॥ १५ ॥ आप जो कुछ सुनते, खाते, देखते और करते हैं, वह सब प्रकृतिका ही कार्य है । इसे मिथ्या कह देना निरर्थक है । हे प्रभो ! शम्भो ! यदि आप प्रकृतिसे परे हैं, तो इस समय इस हिमवान् पर्वतपर आप तपस्या किसलिये कर रहे हैं । हे हर ! प्रकृतिने आपको निगल लिया है, अत: आप अपनेको नहीं जानते । हे ईश ! यदि आप अपनेको जानते हैं, तो किसलिये तप करते हैं ॥ १३-१५ ॥ वाग्वादेन च किं कार्यं मम योगिंस्त्वया सह । प्रत्यक्षे ह्यनुमानस्य न प्रमाणं विदुर्बुधाः ॥ १६ ॥ हे योगिन् ! मुझे आपके साथ वाद-विवाद करनेकी क्या आवश्यकता है । विद्वान् पुरुष प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध होनेपर अनुमान प्रमाणको नहीं मानते ॥ १६ ॥ इन्द्रियाणां गोचरत्वं यावद्भवति देहिनाम् । तावत्सर्वं विमन्तव्यं प्राकृतं ज्ञानिभिर्धिया ॥ १७ ॥ किं बहूक्तेन योगीश शृणु मद्वचनं परम् । सा चाहं पुरुषोऽसि त्वं सत्यं सत्यं न संशयः ॥ १८ ॥ जो कुछ प्राणियोंकी इन्द्रियोंका विषय होता है, वह सब ज्ञानी पुरुषोंको बुद्धिसे विचारकर प्राकृत ही मानना चाहिये । हे योगीश ! बहुत कहनेसे क्या लाभ ! मेरी उत्तम बात सुनिये । मैं वह प्रकृति हूँ और आप पुरुष हैं । यह सत्य है, सत्य है, इसमें संशय नहीं है ॥ १७-१८ ॥ मदनुग्रहतस्त्वं हि सगुणो रूपवान्मतः । मां विना त्वं निरीहोऽसि न किञ्चित्कर्तुमर्हसि ॥ १९ ॥ पराधीनःसदा त्वं हि नानाकर्मकरो वशी । निर्विकारी कथं त्वं हि न लिप्तश्च मया कथम् ॥ २० ॥ प्रकृतेः परमोऽसि त्वं यदि सत्यं वचस्तव । तर्हि त्वया न भेतव्यं समीपे मम शंकर ॥ २१ ॥ मेरे अनुग्रहसे ही आप सगुण और साकार माने गये हैं । मेरे बिना आप निरीह हैं और कुछ भी करने में समर्थ नहीं हैं । आप जितेन्द्रिय होनेपर भी प्रकृतिके अधीन हो नाना प्रकारके कर्म करते हैं, तब आप फिर निर्विकार कैसे हैं और मझसे लिप्त कैसे नहीं हैं ? हे शंकर ! यदि आप प्रकृतिसे परे हैं और यदि आपका वचन सत्य है, तो मेरे समीप रहनेपर भी आपको डरना नहीं चाहिये ॥ १९-२१ ॥ ब्रह्मोवाच इत्याकर्ण्य वचस्तस्याः साङ्ख्यशास्त्रोदितं शिवः । वेदान्तमतसंस्थो हि वाक्यमूचे शिवां प्रति ॥ २२ ॥ ब्रह्माजी बोले-पार्वतीका सांख्यशास्त्रके अनुसार कहा हुआ वचन सुनकर भगवान् शिव वेदान्तमतमें स्थित हो शिवासे यह वचन कहने लगे- ॥ २२ ॥ श्रीशिव उवाच इत्येवं त्वं यदि ब्रूषे गिरिजे साङ्ख्यधारिणी । प्रत्यहं कुरु मे सेवामनिषिद्धां सुभाषिणि ॥ २३ ॥ यद्यहं ब्रह्म निर्लिप्तो मायया परमेश्वरः । वेदान्तवेद्यो मायेशस्त्वं करिष्यसि किं तदा ॥ २४ ॥ श्रीशिव बोले-सुन्दर भाषण करनेवाली है गिरिजे ! यदि आप सांख्यमतको धारण करके ऐसा कहती हैं, तो प्रतिदिन मेरी अनिषिद्ध सेवा कीजिये, यदि मैं ब्रह्म, मायासे निर्लिप्त, परमेश्वर, वेदान्तसे जाननेयोग्य तथा मायापति हूँ, तब आप क्या करेंगी ? ॥ २३-२४ ॥ ब्रह्मोवाच इत्येवमुक्त्वा गिरिजां वाक्यमूचे गिरिं प्रभुः । भक्तानुरञ्जनकरो भक्तानुग्रहकारकः ॥ २५ ॥ ब्रह्माजी बोले-गिरिजासे इस प्रकार कहकर भक्तोंको प्रसन्न करनेवाले तथा भक्तोंपर अनुग्रह करनेवाले भगवान् शिव हिमवान्से कहने लगे- ॥ २५ ॥ शिव उवाच अत्रैव सोऽहं तपसा परेण गिरे तव प्रस्थवरेऽतिरम्ये । चरामि भूमौ परमार्थभाव- स्वरूपमानन्दमयं सुलोचयन् ॥ २६ ॥ तपस्तप्तुमनुज्ञा मे दातव्या पर्वताधिप । अनुज्ञया विना किञ्चित्तपः कर्तुं न शक्यते ॥ २७ ॥ शिवजी बोले-हे गिरे ! मैं यहीं आपके अत्यन्त रमणीय श्रेष्ठ शिखरकी भूमिपर उत्तम तपस्याके द्वारा आनन्दमय परमार्थ स्वरूपका विचार करता हुआ विचरण करूँगा । पर्वतराज ! आप मुझे यहाँ तपस्या करनेकी अनुमति दें, आपकी आज्ञाके बिना कोई तप नहीं किया जा सकता है ॥ २६-२७ ॥ ब्रह्मोवाच एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य देवदेवस्य शूलिनः । प्रणम्य हिमवाञ्छम्भुमिदं वचनमब्रवीत् ॥ २८ ॥ ब्रह्माजी बोले-देवाधिदेव शूलधारी शिवकी यह बात सुनकर हिमवान्ने शम्भुको प्रणाम करके यह वचन कहा- ॥ २८ ॥ हिमवानुवाच त्वदीयं हि जगत्सर्वं सदेवासुरमानुषम् । किमप्यहं महादेव तुच्छो भूत्वा वदामि ते ॥ २९ ॥ हिमवान् बोले-हे महादेव ! देवता, असुर और मनुष्योंसहित सम्पूर्ण जगत् तो आपका ही है, मैं तुच्छ होकर आपसे क्या कहूँ ॥ २९ ॥ ब्रह्मोवाच एवमुक्तो हिमवता शंकरो लोकशंकरः । विहस्य गिरिराजं तं प्राह याहीति सादरम् ॥ ३० ॥ ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] हिमवान्के इस प्रकार कहनेपर लोककल्याणकारी भगवान् शंकरने हँसकर आदरपूर्वक उन गिरिराजसे कहा-अब आप जाइये ॥ ३० ॥ शंकरेणाभ्यनुज्ञातःस्वगृहं हिमवान्ययौ । सार्द्धं गिरिजया वै स प्रत्यहं दर्शने स्थितः ॥ ३१ ॥ पित्रा विनापि सा काली सखीभ्यां सह नित्यशः । जगाम शंकराभ्याशं सेवायै भक्तितत्परा ॥ ३२ ॥ निषिषेध न तां कोऽपि गणो नन्दीश्वरादिकः । महेशशासनात्तात तच्छासनकरः शुचिः ॥ ३३ ॥ । शंकरजीकी आज्ञा पाकर हिमवान् गिरिजाके साथ अपने घर लौट गये । तबसे वे गिरिजाके साथ प्रतिदिन उनका दर्शन करने लगे । काली अपने पिताके बिना भी दोनों सहेलियोंके साथ नित्य भक्तिपरायण होकर सेवाके लिये शंकरके पास जाती थीं । हे तात ! महेश्वरके आदेशसे उनकी आज्ञाका पालन करनेवाले पवित्र नन्दीश्वर आदि कोई भी गण उन्हें रोकते नहीं थे ॥ ३१-३३ ॥ साङ्ख्यवेदान्तमतयः शिवयोः शिवदः सदा । संवादः सुखकृच्चोक्तोऽभिन्नयोः सुविचारतः ॥ ३४ ॥ गिरिराजस्य वचनात्तनयां तस्य शंकरः । पार्श्वे समीपे जग्राह गौरवादपि गोपरः ॥ ३५ ॥ विशेष विचार करनेपर परस्पर अभिन्न होते हुए भी सांख्य और वेदान्तमतवाले शिवा तथा शिवका संवाद [सभीके लिये सदा कल्याणदायक तथा सुखकर कहा गया है । इन्द्रियातीत भगवान् शंकरने गिरिराजके कहनेसे उनका गौरव मानकर उनकी पुत्रीको अपने पास रहकर सेवा करनेके लिये स्वीकार कर लिया ॥ ३४-३५ ॥ उवाचेदं वचः कालीं सखीभ्यां सह गोपतिः । नित्यं मां सेवतां यातु निर्भीता ह्यत्र तिष्ठतु ॥ ३६ ॥ एवमुक्त्वा तु तां देवीं सेवायै जगृहे हरः । निर्विकारो महायोगी नानालीलाकरः प्रभुः ॥ ३७ ॥ इदमेव महद्धैर्य्यं धीराणां सुतपस्विनाम् । विघ्नवन्त्यपि सम्प्राप्य यद्विघ्नैर्न विहन्यते ॥ ३८ ॥ भगवान् शंकरने सखियोसहित पार्वतीसे कहा कि तुम नित्य मेरी सेवा करो तथा चली जाओ अथवा निर्भय होकर यहाँ रहो । इस प्रकार कहकर निर्विकार, महायोगी तथा अनेक प्रकारकी लीलाएँ करनेवाले भगवान् शंकरने अपनी सेवाके लिये उन देवीको रख लिया । धैर्यशाली तथा परम तपस्वियोंका यह महान् धैर्य ही है, जो विघ्नकारक वस्तुओंको ग्रहणकर भी विघ्नोंसे विनष्ट नहीं होता है ॥ ३६-३८ ॥ ततः स्वपुरमायातो गिरिराट् परिचारकैः । मुमोदातीव मनसि सप्रियः स मुनीश्वर ॥ ३९ ॥ हे मुनीश्वर ! तत्पश्चात् गिरिराज अपने सेवकोंके साथ अपने स्थानको चले आये और अपनी प्रियाके साथ मनमें परम आनन्दित हुए ॥ ३९ ॥ हरश्च ध्यानयोगेन परमात्मानमादरात् । निर्विघ्नेन स्वमनसा त्वासीच्चिन्तयितुं स्थितः ॥ ४० ॥ भगवान् शंकर भी आदरपूर्वक ध्यान-योगके द्वारा निर्विज मनसे परमात्माका चिन्तन करने लगे ॥ ४० ॥ काली सखीभ्यां सहिता प्रत्यहं चन्द्रशेखरम् । सेवमाना महादेवं गमनागमने स्थिता ॥ ४१ ॥ काली भी प्रतिदिन सखियोंसहित चन्द्रशेखर महादेवकी सेवा करती हुई वहाँ जाने-आने लगीं ॥ ४१ ॥ प्रक्षाल्य चरणौ शम्भोः पपौ तच्चरणोदकम् । वह्निशौचेन वस्त्रेण चक्रे तद्गात्रमार्जनम् ॥ ४२ ॥ वे भगवान् शंकरके चरणोंको धोकर उस चरणोदकका पान करती थीं और आगसे [तपाकर] शुद्ध किये हुए वस्त्रसे उनके शरीरको पोंछा करती थीं ॥ ४२ ॥ षोडशेनोपचारेण सम्पूज्य विधिवद्धरम् । पुनःपुनः सुप्रणम्य ययौ नित्यं पितुर्गृहम् ॥ ४३ ॥ एवं संसेवमानायां शंकरं ध्यानतत्परम् । व्यतीयाय महान्कालश्शिवाया मुनिसत्तम ॥ ४४ ॥ कदाचित्सहिता काली सखीभ्यां शंकराश्रमे । वितेने सुन्दरं गानं सुतालं स्मरवर्द्धनम् ॥ ४५ ॥ वे नित्यप्रति षोडशोपचारसे विधिवत् भगवान् हरकी पूजाकर बारंबार उन्हें प्रणामकर अपने पिताके घर चली जाती थीं । हे मुनिसत्तम ! इस प्रकार ध्यानमें तत्पर भगवान् शंकरकी सेवा करती हुई उन शिवाका बहुत समय व्यतीत हो गया । वे कभी अपनी सखियोंके साथ भगवान् शंकरके आश्रममें तालसे समन्वित प्रेमवर्धक सुन्दर गान करती थीं ॥ ४३-४५ ॥ कदाचित्कुशपुष्पाणि समिधं नयति स्वयम् । सखीभ्यां स्थानसंस्कारं कुर्वती न्यवसत्तदा ॥ ४६ ॥ वे कभी कुशा, पुष्प तथा समिधाएँ स्वयं लाती र्थी और सखियोंके साथ आश्रमका सम्मान करती थीं ॥ ४६ ॥ कदाचिन्नियता गेहे स्थिता चन्द्रभृतो भ्रृशम् । वीक्षन्ती विस्मयामास सकामा चन्द्रशेखरम् ॥ ४७ ॥ वे कभी नियमपूर्वक शंकरजीके आश्रममें रहकर सकाम भावसे शंकरजीको देखती हुई उन्हें आश्चर्यचकित कर दिया करती थीं ॥ ४७ ॥ ततस्तप्तेन भूतेशस्तां निःसङ्गां परिस्थिताम् । सोऽचिन्तयत्तदा वीक्ष्य भूतदेहे स्थितेति च ॥ ४८ ॥ भगवान् शिवने अपनी तपस्याके बलसे नि:संग रहनेवाली उस कालीको देखकर पंचतत्त्वके शरीरमें रहनेवाली अपनी पूर्वजन्मकी भार्या समझ लिया ॥ ४८ ॥ नाग्रहीद्गिरिशः कालीं भार्यार्थे निकटे स्थिताम् । महालावण्यनिचयां मुनीनामपि मोहिनीम् ॥ ४९ ॥ फिर भी शिवजीने मुनियोंको भी मोहित कर देनेवाली तथा महासौन्दर्यकी राशिस्वरूप उन कालीको अपनी पत्नीके रूपमें ग्रहण नहीं किया ॥ ४९ ॥ महादेवः पुनर्दृष्ट्वा तथा तां संयतेद्रियाम् । स्वसेवने रतां नित्यं सदयःसमचिन्तयत् ॥ ५० ॥ यदैवैषा तपश्चर्याव्रतं काली करिष्यति । तदा च तां ग्रहीष्यामि गर्वबीजविवर्जिताम् ॥ ५१ ॥ महादेवजी भगवतीको इस प्रकार जितेन्द्रिय होकर नित्यप्रति अपनी सेवामें संलग्न देखकर दयापूर्वक विचार करने लगे कि जब यह तपस्याका व्रत करेगी, तब अभिमान-बीजसे रहित इस कालीको ग्रहण करूँगा ॥ ५०-५१ ॥ ब्रह्मोवाच इति सञ्चिन्त्य भूतेशो द्रुतं ध्यानसमाश्रितः । महयोगीश्वरोऽभूद्वै महालीलाकरः प्रभुः ॥ ५२ ॥ ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार विचार करके बड़ी-बड़ी लीलाएँ करनेवाले महायोगीश्वर भूतेश्वर भगवान् शिव शीघ्र ही ध्यानमें तत्पर हो गये ॥ ५२ ॥ ध्यानासक्तस्य तस्याथ शिवस्य परमात्मनः । हृदि नासीन्मुने काचिदन्या चिन्ता व्यवस्थिता ॥ ५३ ॥ हे मुने ! ध्यानमें मग्न उन परमात्मा शंकरके मनमें किसी अन्य चिन्ताका उदय नहीं हुआ ॥ ५३ ॥ काली त्वनुदिनं शम्भुं सद्भक्त्या समसेवत । विचिन्तयन्ती सततं तस्य रूपं महात्मनः ॥ ५४ ॥ काली भी उन्हीं परमात्मा शंकरके स्वरूपका चिन्तन करती हुई भक्तिपूर्वक निरन्तर उनकी सेवा करने लगीं ॥ ५४ ॥ हरो ध्यानपरः कालीं नित्यं प्रैक्षत सुस्थिताम् । विस्मृत्य पूर्वचिन्तां तां पश्यन्नपि न पश्यति ॥ ५५ ॥ भगवान् शिव ध्यानमें स्थित हो पूर्व चिन्ताओंको भूलकर सुस्थित कालीको देखा करते थे, वस्तुत: वे उन्हें देखते हुए भी नहीं देखते थे ॥ ५५ ॥ एतस्मिन्नन्तरे देवाः शक्राद्या मुनयश्च ते । ब्रह्माज्ञया स्मरं तत्र प्रेषयामासुरादरात् ॥ ५६ ॥ तेन कारयितुं योगं काल्या रुद्रेण कामतः । महावीर्येणासुरेण तारकेण प्रपीडिताः ॥ ५७ ॥ इसी समय महापराक्रमी तारकासुरसे अत्यन्त पीड़ित इन्द्र आदि देवताओं तथा मुनियोंने उन रुद्रके साथ कालीका कामभावसे योग करानेके लिये ब्रह्माजीकी आज्ञासे कामदेवको आदरपूर्वक वहाँ भेजा ॥ ५६-५७ ॥ गत्वा तत्र स्मरः सर्वमुपायमकरोन्निजम् । चुक्षुभे न हरः किञ्चित्तं च भस्मीचकार ह ॥ ५८ ॥ कामदेवने वहाँ जाकर अपना समस्त उपाय लगाया, परंतु शिव कुछ भी विक्षुब्ध नहीं हुए और उन्होंने उसे भस्म कर दिया ॥ ५८ ॥ पार्वत्यपि विगर्वाभून्मुने तस्य निदेशतः । ततस्तपो महत्कृत्वा शिवं प्राप पतिं सती ॥ ५९ ॥ हे मुने ! पार्वतीका भी अभिमान नष्ट हो गया और तत्पश्चात् नारदजीके उपदेशानुसार घोर तपस्या करके उन सतीने शिवको पतिरूपमें प्राप्त किया ॥ ५९ ॥ बभूवतुस्तौ सुप्रीतौ पार्वतीपरमेश्वरौ । चक्रतुर्देवकार्यं हि परोपकरणे रतौ ॥ ६० ॥ इस प्रकार परमेश्वर एवं पार्वती परम प्रसन्न हो गये और परोपकारमें परायण होकर देवकार्यको पूर्ण करने लगे ॥ ६० ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखण्डे पार्वतीपरमेश्वरसंवादवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुब्रसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें पार्वती और परमेश्वरका संवादवर्णन नामक तेरहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १३ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |