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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे
षोडशोऽध्यायः ॥ तारकासुरभीतानां देवानां कृते शिवेन सान्त्वनादानम् -
तारकासुरसे उत्पीड़ित देवताओंको ब्रह्माजीद्वारा सान्त्वना प्रदान करना - ब्रह्मोवाच अथ ते निर्जराःसर्वे सुप्रणम्य प्रजेश्वरम् । तुष्टुवुः परया भक्त्या तारकेण प्रपीडिताः ॥ १ ॥ ब्रह्माजी बोले- उसके बाद तारकासुरसे पीड़ित वे समस्त देवता मुझ प्रजापतिको भलीभाँति प्रणामकर परम भक्तिसे स्तुति करने लगे ॥ १ ॥ अहं श्रुत्वा&मरनुतिं यथार्थां हृदयङ्गमाम् । सुप्रसन्नतरो भूत्वा प्रत्यवोचं दिवौकसः ॥ २ ॥ देवताओंकी यथार्थ एवं हृदयग्राही सरस स्तुति सुनकर अत्यन्त प्रसन्न होकर मैंने उन देवताओंसे कहा- ॥ २ ॥ स्वागतं स्वाधिकारा वै निर्विघ्नाः सन्ति वः सुराः । किमर्थमागता यूयं मंत्रं सर्वे वदन्तु मे ॥ ३ ॥ इति श्रुत्वा वचो मे ते नत्वा सर्वे दिवौकसः । मामूचुर्नतका दीनास्तारकेण प्रपीडिताः ॥ ४ ॥ हे देवताओ ! आपलोगोंका स्वागत है । आपलोगोंकि अधिकार निर्विघ्न तो हैं ? आप सब यहाँ किस निमित्त आये हैं, मुझसे कहिये । मेरी यह बात सुनकर तारकासुरसे पीड़ित वे सभी देवता मुझे प्रणाम करके विनयी हो दीनतापूर्वक मुझसे कहने लगे- ॥ ३-४ ॥ देवा ऊचुः लोकेश तारको दैत्यो वरेण तव दर्पितः । निरस्यास्मान्हठात्स्थानान्यग्रहीन्नो बलात्स्वयम् ॥ ५ ॥ भवतः किमु न ज्ञातं दुःखं यन्नः उपस्थितम् । तद्दुःखं नाशय क्षिप्रं वयं ते शरणं गताः ॥ ६ ॥ देवता बोले-हे लोकेश ! आपके वरदानसे अभिमानमें भरे हए तारक असुरने हठपूर्वक हमलोगोंको अपने स्थानोंसे वंचितकर उन्हें बलपूर्वक स्वयं ग्रहण कर लिया है । हमलोगोंके समक्ष जो दुःख उपस्थित हुआ है, क्या आप उसे नहीं जानते हैं ? हमलोग आपकी शरणमें आये हैं, उस दुःखका शीघ्र निवारण कीजिये ॥ ५-६ ॥ अहर्निशं बाधतेऽस्मान्यत्र तत्रास्थितान्स वै । पलायमानाः पश्यामो यत्र तत्रापि तारकम् ॥ ७ ॥ हमलोग जहाँ कहीं भी जाते हैं, वह असुर रातदिन हमलोगोंको पीड़ित करता है । हम जहाँ भी भागकर जाते हैं, वहाँ तारकको ही देखते हैं ॥ ७ ॥ तारकान्नश्च यद्दुःखं सम्भूतं सकलेश्वर । तेन सर्वे वयं तात पीडिता विकला अति ॥ ८ ॥ हे सर्वेश्वर ! हमलोगोंके समक्ष तारकासुरसे जैसा भय उपस्थित हो गया है, वह दुःख सहा नहीं जा रहा है । हमलोग उसी पीड़ासे अत्यन्त व्याकुल हैं ॥ ८ ॥ अग्निर्यमोथ वरुणो निर्ऋतिर्वायुरेव च । अन्ये दिक्पतयश्चापि सर्वे यद्वशगामिनः ॥ ९ ॥ सर्वे मनुष्यधर्माणःसर्वेः परिकरैर्युताः । सेवन्ते तं महादैत्यं न स्वतन्त्राः कदाचन ॥ १० ॥ अग्नि, यम, वरुण, निऋति, वायु एवं अन्य समस्त दिक्पाल उसके वशमें हो गये हैं । सभी देवता अपने समस्त परिकरोंसहित मनुष्यधर्मा हो गये हैं और उसकी सेवा करते हैं । वे किसी प्रकार भी स्वतन्त्र नहीं हैं ॥ ९-१० ॥ एवं तेनार्दिता देवा वशगास्तस्य सर्वदा । तदिच्छाकार्यनिरताः सर्वे तस्यानुजीविनः ॥ ११ ॥ इस प्रकार उससे पीड़ित होकर सभी देवता सदा उसके वशवर्ती हो गये हैं और उसकी इच्छाके अनुसार कार्य करते हैं तथा उसके अनुजीवी हो गये हैं ॥ ११ ॥ यावत्यो वनिताः सर्वा ये चाप्यप्सरसां गणाः । सर्वांस्तानग्रहीद्दैत्यस्तारकोऽसौ महाबली ॥ १२ ॥ उस महाबली तारकने जितनी भी सुन्दर स्त्रियाँ हैं तथा अप्सराएँ हैं, उन सबको ग्रहण कर लिया है ॥ १२ ॥ न यज्ञाःसंप्रवर्तन्ते न तपस्यन्ति तापसाः । दानधर्मादिकं किञ्चिन्न लोकेषु प्रवर्त्तते ॥ १३ ॥ तस्य सेनापतिः क्रौञ्चो महापाप्यस्ति दानवः । स पातालतलं गत्वा बाधतेत्यनिशं प्रजाः ॥ १४ ॥ तेन नस्तारकेणेदं सकलं भुवनत्रयम् । हृतं हठाज्जगद्धातः पापेनाकरुणात्मना ॥ १५ ॥ वयं च तत्र यास्यामो यत्स्थानं त्वं विनिर्दिशेः । स्वस्थास्तद्वारितास्तेन लोकनाथसुरारिणा ॥ १६ ॥ त्वं नो गतिश्च शास्ता च धाता त्राता त्वमेव हि । वयं सर्वे तारकाख्यवह्नौ दग्धाःसुविह्वलाः ॥ १७ ॥ अब यज्ञ-याग सम्पन्न नहीं होते, तपस्वी लोग तपस्या भी नहीं कर पाते । लोकोंमें दान, धर्म आदि कुछ भी नहीं हो रहा है । उसका सेनापति दानव क्राँच अत्यन्त पापी है । वह पाताललोकमें जाकर प्रजाओंको निरन्तर पीड़ित करता है । हे जगद्धाता ! उस निष्करुण तथा पापी तारकने हमारे सम्पूर्ण त्रिलोकको बलपूर्वक अपने वशमें कर लिया है । अब आप ही जो स्थान बतायें, वहाँ हमलोग जायें । हे लोकनाथ ! उस देवशत्रुने हमलोगोंको अपने-अपने स्थानोंसे हटा दिया है । अब आप ही हमलोगोंके शरणदाता हैं । आप ही हमारे शासक, रक्षक तथा पोषक हैं । हम सभी लोग तारक नामक अग्निमें दग्ध होकर बहुत व्याकुल हो रहे हैं । १३-१७ ॥ तेन क्रूरा उपाय नः सर्वे हतबलाः कृताः । विकारे सांनिपाते वा वीर्यवन्त्यौषधानि च ॥ १८ ॥ जिस प्रकार सन्निपात नामक विकारमें बलवान् औषधियाँ भी निष्फल हो जाती हैं, उसी प्रकार उसने हमारे सभी कठोर उपायोंको निष्फल कर दिया है ॥ १८ ॥ यत्रास्माकं जयाशा हि हरिचक्रे सुदर्शने । उत्कुण्ठितमभूत्तस्य कण्ठे पुष्पमिवार्पितम् ॥ १९ ॥ भगवान् विष्णुके जिस सुदर्शन नामक चक्रसे हमलोगोंको विजयकी आशा थी, वह उसके कण्ठमें पुष्पके समान लगकर कुण्ठित हो गया है ॥ १९ ॥ ब्रह्मोवाच - इत्येतद्वचनं श्रुत्वा निर्जराणामहं मुने । प्रत्यवोचं सुरान्सर्वांस्तत्कालसदृशं वचः ॥ २० ॥ । ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! देवताओंके इस वचनको सुनकर मैं सभी देवताओंसे समयोचित बात कहने लगा- ॥ २० ॥ ममैव वचसा दैत्यस्तारकाख्यः समेधितः । न मत्तस्तस्य हननं युज्यते हि दिवौकसः ॥ २१ ॥ ततो नैव वधो योग्यो यतो वृद्धिमुपागतः । विष वृक्षोऽपि संवर्ध्य स्वयं छेत्तुमसाम्प्रतम् ॥ २२ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे देवगणो ! मेरे वरदानके कारण ही वह तारक नामक दैत्य बलवान् हुआ है । अत: मेरे द्वारा उसका वध उचित नहीं है । जिसके द्वारा वह वृद्धिको प्राप्त हुआ है, उसीसे उसका वध उचित नहीं है । विषवृक्षको भी बढ़ाकर उसे स्वयं काटना अनुचित है ॥ २१-२२ ॥ युष्माकं चाखिलं कार्यं कर्तुं योग्यो हि शंकरः । किन्तु स्वयं न शक्तो हि प्रतिकर्तुं प्रचोदितः ॥ २३ ॥ शिवजी ही आपलोगोंका सारा कार्य कर सकनेयोग्य हैं, किंतु वे स्वयं कुछ नहीं करेंगे, प्रेरणा करनेपर वे इसका प्रतीकार करने में समर्थ हैं ॥ २३ ॥ तारकाख्यस्तु पापेन स्वयमेष्यति सङ्क्षयम् । यथा यूयं संविदध्वमुपदेशकरस्त्वहम् ॥ २४ ॥ तारकासुर स्वयं अपने पापसे नष्ट होगा । मैं जैसा उपदेश करता हूँ, वैसा आपलोग करें ॥ २४ ॥ न मया तारको वध्यो हरिणापि हरेण च । नान्येनापि सुरैर्वापि मद्वरात्सत्यमुच्यते ॥ २५ ॥ शिववीर्यसमुत्पन्नो यदि स्यात्तनयः सुराः । स एव तारकाख्यस्य हन्ता दैत्यस्य नापरः ॥ २६ ॥ मेरे वरके प्रभावसे न मैं, न विष्णु, न शंकर, न दूसरा कोई और न सभी देवता ही तारकका वध कर सकते हैं, यह मैं सत्य कह रहा हूँ । हे देवताओ ! यदि शिवजीके वीर्यसे कोई पुत्र उत्पन्न हो, तो वही तारक दैत्यका वध कर सकता है, दूसरा नहीं ॥ २५-२६ ॥ यमुपायमहं वच्मि तं कुरुध्वं सुरोत्तमाः । महादेवप्रसादेन सिद्धिमेष्यति स ध्रुवम् ॥ २७ ॥ सती दाक्षायणी पूर्वं त्यक्तदेहा तु याभवत् । सोत्पन्ना मेनका गर्भात्सा कथा विदिता हि वः ॥ २८ ॥ हे श्रेष्ठ देवताओ ! मैं जो उपाय बता रहा हूँ, उसे आपलोग कीजिये, वह उपाय महादेवजीकी कृपासे अवश्य सिद्ध होगा । पूर्वकालमें जिन दक्षकन्या सतीने [दक्षके यज्ञमें] अपने शरीरका त्याग किया था, वे ही [इस समय] मेनाके गर्भसे उत्पन्न हुई हैं, यह बात आपलोगोंको ज्ञात ही है ॥ २७-२८ ॥ तस्या अवश्यं गिरिशः करिष्यति करग्रहम् । तत्कुरुध्वमुपायं च तथापि त्रिदिवौकसः ॥ २९ ॥ हे देवगणो ! महादेवजी उनका पाणिग्रहण अवश्य करेंगे, तथापि आपलोग भी उसका उपाय करें ॥ २९ ॥ तथा विधध्वं सुतरां तस्यां तु परियत्नतः । पार्वत्यां मेनकायां वै रेतः प्रतिनिपातने ॥ ३० ॥ आपलोग यत्नपूर्वक ऐसा उपाय कीजिये कि मेनाकी पुत्री पार्वतीमें शिवजीके वीर्यका आधान हो ॥ ३० ॥ तमूर्ध्वरेतसं शम्भुं सैव प्रच्युतरेतसम् । कर्तुं समर्था नान्यास्ति तथा काप्यबला बलात् ॥ ३१ ॥ ऊर्ध्वरेता शंकरको च्युतवीर्य करनेमें वे ही समर्थ हैं, कोई अन्य स्त्री समर्थ नहीं है ॥ ३१ ॥ सा सुता गिरिराजस्य साम्प्रतं प्रौढयौवना । तपस्यंतं हिमगिरौ नित्यं संसेवते हरम् ॥ ३२ ॥ पूर्ण यौवनवाली वे गिरिराजपुत्री इस समय हिमालयपर तपस्या करते हुए शंकरकी नित्य सेवा करती हैं ॥ ३२ ॥ वाक्याद्धिमवतः कालीं स्वपितुर्हठतः शिवा । सखीभ्यां सेवते सार्द्धं ध्यानस्थं परमेश्वरम् ॥ ३३ ॥ तामग्रतोऽर्च्चमानां वै त्रैलोक्ये वरवर्णिनीम् । ध्यानसक्तो महेशो हि मनसापि न हीयते ॥ ३४ ॥ अपने पिता हिमवान्के कहनेसे वे काली शिवा अपनी दो सखियोंके साथ ध्यानपरायण परमेश्वर शिवकी हठपूर्वक सेवा कर रही हैं । सेवामें तत्पर उन त्रैलोक्य-सुन्दरीको सामने देखकर ध्यानमग्न महेश्वर मनसे भी विचलित नहीं होते ॥ ३३-३४ ॥ भार्यां समीहेत यथा स कालीं चन्द्रशेखरः । तथा विधध्वं त्रिदशा न चिरादेव यत्नतः ॥ ३५ ॥ स्थानं गत्वाथ दैत्यस्य तमहं तारकं ततः । निवारयिष्ये कुहठात्स्वस्थानं गच्छतामराः ॥ ३६ ॥ इत्युक्त्वाहं सुरान्शीघ्रं तारकाख्यासुरस्य वै । उपसङ्गम्य सुप्रीत्या समाभाष्येदमब्रवम् ॥ ३७ ॥ हे देवताओ । वे चन्द्रशेखर जिस प्रकार कालीको भार्यारूपमें स्वीकार करें, आपलोग शीघ्र ही वैसा प्रयत्ल करें । मैं भी उस दैत्यके स्थानपर जाकर उस तारकको दुराग्रहसे रोकूँगा । हे देवताओ ! अब आपलोग अपने स्थानको जाइये । देवताओंसे इस प्रकार कहकर मैं शीघ्र ही तारक नामक असुरके पास जाकर उसे प्रेमपूर्वक बुलाकर कहने लगा- ॥ ३५-३७ ॥ ब्रह्मोवाच - तेजोसारमिदं स्वर्गं राज्यं त्वं परिपासि नः । यदर्थं सुतपस्तप्तं वाञ्छसि त्वं ततोऽधिकम् ॥ ३८ ॥ ब्रह्माजी बोले-[हे तारक !] तुम तेजोंके सारस्वरूप इस स्वर्गका राज्य कर रहे हो । जिसके लिये तुमने उत्तम तपस्या की थी, उससे भी अधिककी इच्छा रखते हो ॥ ३८ ॥ वरश्चाप्यवरो दत्तो न मया स्वर्गराज्यता । तस्मात्स्वर्गं परित्यज्य क्षितौ राज्यं समाचर ॥ ३९ ॥ मैंने [तुम्हें] इससे छोटा ही वर दिया था, मैंने तुम्हें स्वर्गका राज्य नहीं दिया था, इसलिये तुम स्वर्गका राज्य छोड़कर पृथिवीपर राज्य करो ॥ ३९ ॥ देवयोग्यानि तत्रैव कार्याणि निखिलान्यपि । भविष्यत्यरसुरश्रेष्ठ नात्र कार्या विचारणा ॥ ४० ॥ हे असुरश्रेष्ठ । इसमें तुम किसी प्रकार विचार मत करो, वहाँ भी बहुत-से देवताओंके योग्य कार्य हैं ॥ ४० ॥ इत्युक्त्वाहं च सम्बोध्यासुरं तं सकलेश्वरः । स्मृत्वा शिवं च सशिवं तत्रान्तर्धानमागतः ॥ ४ १ ॥ तारकोऽपि परित्यज्य स्वर्गं क्षितिमथाभ्यगात् । शोणिताख्य पुरे स्थित्वा सर्वराज्यं चकार सः ॥ ४२ ॥ देवाःसर्वेऽपि तच्छुत्वा मद्वाक्यं सुप्रणम्य माम् । शक्रस्थानं ययुः प्रीत्या शक्रेण सुसमाहिताः ॥ ४३ ॥ सभीका ईश्वर मैं इस प्रकार उस असुरसे कहकर और उसे समझाकर शिवासहित शिवका ध्यान करके वहीं अन्तर्धान हो गया । उसके बाद तारक भी स्वर्गको छोड़कर पृथिवीपर आ गया और वह शोणित नामक नगरमें रहकर राज्य करने लगा । सभी देवगण भी मेरा वचन सुनकर मुझे सादर प्रणाम करके समाहितचित्त हो इन्द्रके साथ इन्द्रपुरीको गये । ४१-४३ ॥ तत्र गत्वा मिलित्वा च विचार्य च परस्परम् । ते सर्वे मरुतः प्रीत्या मघवन्तं वचोऽब्रुवन् ॥ ४४ ॥ वहाँ जाकर मिल करके आपसमें विचार करके उन सब देवताओंने इन्द्रसे प्रेमपूर्वक कहा- ॥ ४४ ॥ देवा ऊचुः शम्भोर्यथा शिवायां वै रुचिजायेत कामतः । मघवंस्ते प्रकर्तव्यं ब्रह्मोक्तं सर्वमेव तत् ॥ ४५ ॥ देवता बोले-हे इन्द्र ! जिस प्रकार भगवान् शंकर सकाम होकर शिवाकी अभिलाषा करें, ब्रह्माजीके द्वारा बताया हुआ वह सारा प्रयत्न आपको करना चाहिये ॥ ४५ ॥ ब्रह्मोवाच इत्येवं सर्ववृत्तान्तं विनिवेद्य सुरेश्वरम् । जग्मुस्ते सर्वतो देवाः स्वं स्वं स्थानं मुदान्विताः ॥ ४६ ॥ ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार इन्द्रसे सम्पूर्ण वृत्तान्त निवेदित करके वे देवता प्रसन्नतापूर्वक सब ओर अपने-अपने स्थानको चले गये ॥ ४६ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखण्डे देवसान्त्वनवर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें देवसान्त्वनवर्णन नामक सोलहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १६ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |