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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे

सप्तदशोऽध्यायः ॥

इन्द्रकामदेवसंवादः -
इन्द्रके स्मरण करनेपर कामदेवका उपस्थित होना, शिवको तपसे विचलित करनेके लिये इन्द्रद्वारा कामदेवको भेजना -


ब्रह्मोवाच
गतेषु तेषु देवेषु शक्रः सस्मार वै स्मरम् ।
पीडितस्तारकेनाति दैत्येन च दुरात्मना ॥ १ ॥
आगतस्तत्क्षणात्कामः सवसन्तो रतिप्रियः ।
सावलेपो युतो रत्या त्रैलोक्य विजयी प्रभुः ॥ २ ॥
ब्रह्माजी बोले-उन देवताओंके चले जानेपर दुरात्मा तारकासुरसे अत्यन्त पीड़ित हुए इन्द्रने कामका स्मरण किया । उसी समय वसन्तको साथ लेकर रतिपति त्रैलोक्यविजयी समर्थ कामदेव रतिके साथ साभिमान वहाँ उपस्थित हुआ ॥ १-२ ॥

प्रणामं च ततः कृत्वा स्थित्वा तत्पुरतः स्मरः ।
महोन्नतमनास्तात साञ्जलिः शक्रमब्रवीत् ॥ ३ ॥
हे तात ! प्रणाम करके उनके समक्ष खड़ा होकर हाथ जोड़कर वह महामनस्वी काम इन्द्रसे कहने लगा- ॥ ३ ॥

काम उवाच
किं कार्यं ते समुत्पन्नं स्मृतोऽहं केन हेतुना ।
तत्त्वं कथय देवेश तत्कर्तुं समुपागतः ॥ ४ ॥
काम बोला-हे देवेश ! आपको कौन-सा कार्य आ पड़ा है, आपने किस कारणसे मेरा स्मरण किया है, उसे शीघ्र ही कहिये, मैं उसे करनेके लिये ही यहाँ उपस्थित हुआ हूँ ॥ ४ ॥

ब्रह्मोवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य कन्दर्पस्य सुरेश्वरः ।
उवाच वचनं प्रीत्या युक्तं युक्तमिति स्तुवन् ॥ ५ ॥
ब्रह्माजी बोले-उस कामके इस वचनको सुनकर बहुत अच्छा, बहुत अच्छा-यह कहकर देवराज प्रेमपूर्वक यह वचन कहने लगे- ॥ ५ ॥

शक्र उवाच
तव साधु समारम्भो यन्मे कार्यमुपस्थितम् ।
तत्कतुर्मुद्यतोऽसि त्वं धन्योऽसि मकरध्वज ॥ ६ ॥
इन्द्र बोले-मेरा जिस प्रकारका कार्य उपस्थित हुआ है, उसको करने में तुम्हीं समर्थ हो, हे मकरध्वज । तुम धन्य हो, जो उसे करनेके लिये उद्यत हो ॥ ६ ॥

प्रस्तुतं शृणु मद्वाक्यं कथयामि तवाग्रतः ।
मदीयं चैव यत्कार्यं त्वदीयं तन्न चान्यथा ॥ ७ ॥
मित्राणि मम सन्त्येव बहूनि सुमहान्ति च ।
परं तु स्मर सन्मित्रं त्वत्तुल्यं न हि कुत्रचित् ॥ ८ ॥
मेरे प्रस्तुत वाक्यको सुनो, मैं तुम्हारे सामने कह रहा हूँ, मेरा जो कार्य है, वह तुम्हारा ही है, इसमें सन्देह नहीं है । मेरे बहुत से महान् मित्र हैं, किंतु हे काम ! तुम्हारे समान उत्तम मित्र कहीं भी नहीं है ॥ ७-८ ॥

जयार्थं मेऽद्वयं तात निर्मितं वज्रमुत्तमम् ।
वज्रं च निष्फलं स्याद्वै त्वं तु नैव कदाचन ॥ ९ ॥
हे तात ! विजय प्राप्त करनेके लिये मेरे पास दो ही उपाय हैं, एक वन और दूसरे तुम, जिसमें वज्र तो [कदाचित्] निष्फल भी हो जाता है, किंतु तुम कभी निष्फल होनेवाले नहीं हो ॥ ९ ॥

यतो हितं प्रजायेत ततः को नु प्रियः परः ।
तस्मान्मित्रवरस्त्वं हि मत्कार्यं कर्तुमर्हसि ॥ १० ॥
जिससे अपना हित हो, उससे प्रिय और कौन हो सकता है ? इसलिये तुम मेरे सर्वश्रेष्ठ मित्र हो, तुम अवश्य ही मेरा कार्य सम्पन्न कर सकते हो ॥ १० ॥

मम दुःखं समुत्पन्नमसाध्यं चापि कालजम् ।
केनापि नैव तच्छक्यं दूरीकर्तुं त्वया विना ॥ ११ ॥
समयानुसार मेरे सामने असाध्य दुःख उत्पन्न हो गया है, तुम्हारे अतिरिक्त कोई भी उसे दूर करने में समर्थ नहीं है ॥ ११ ॥

दातुः परीक्षा दुर्भिक्षे रणे शूरस्य जायते ।
आपत्काले तु मित्रस्याशक्तौ स्त्रीणां कुलस्य हि ॥ १२ ॥
विनये सङ्‌कटे प्राप्तेऽवितथस्य परोक्षतः ।
सुस्नेहस्य तथा तात नान्यथा सत्यमीरितम् ॥ १३ ॥
दुर्भिक्ष पड़नेपर दानीको, युद्धस्थलमें शूरवीरकी, आपत्तिकालमें मित्रकी, असमर्थ होनेपर स्त्रियोंकी तथा कुलकी, नम्रतामें तथा संकटके उपस्थित होनेपर सत्यकी और उत्तम स्नेहकी परीक्षा परोक्षकालमें होती है, यह अन्यथा नहीं है, यह सत्य कहा गया है ॥ १२-१३ ॥

प्राप्तायां वै ममापत्ताववार्यायां परेण हि ।
परीक्षा च त्वदीयाऽद्या मित्रवर्य भविष्यति ॥ १४ ॥
हे मित्रवर्य ! दूसरेके द्वारा दूर न की जा सकनेवाली मेरी इस विपत्तिके आ पड़नेपर आज तुम्हारी परीक्षा होगी ॥ १४ ॥

न केवलं मदीयं च कार्यमस्ति सुखावहम् ।
किं तु सर्वसुरादीनां कार्यमेतन्न संशयः ॥ १५ ॥
सुखकी प्राप्ति करानेवाला यह कार्य केवल मेरा ही नहीं है, अपितु यह सभी देवता आदिका कार्य है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ १५ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्येतन्मघवद्वाक्यं श्रुत्वा तु मकरध्वजाः ।
उवाच प्रेमगंभीरं वाक्यं सुस्मितपूर्वकम् ॥ १६ ॥
ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार इन्द्रके इस वचनको सुनकर कामदेव मुसकराते हुए प्रेमयुक्त वचन कहने लगा- ॥ १६ ॥

काम उवाच
किमर्थमित्थं वदसि नोत्तरं वच्म्यहं तव ।
उपकृत्कृत्रिमं लोके दृश्यते कथ्यते न च ॥ १७ ॥
काम बोला-हे देवराज ! आप इस प्रकारकी बातें क्यों कर रहे हैं ? मैं आपको उत्तर नहीं दे सकता । बनावटी मित्र ही लोकमें देखे जाते हैं, वास्तविक उपकारीके विषयमें कुछ कहा नहीं जाता है ॥ १७ ॥

सङ्कटे बहु यो ब्रूते स किं कार्यं करिष्यति ।
तथापि च महाराज कथयामि शृणु प्रभो ॥ १८ ॥
जो [मित्र] संकटमें बहुत बातें करता है, वह क्या कार्य करेगा, फिर भी हे महाराज ! हे प्रभो ! मैं कुछ कह रहा हूँ, उसे आप सुनें ॥ १८ ॥

पदं ते कर्षितुं यो वै तपस्तपति दारुणम् ।
पातयिष्याम्यहं तं च शत्रुं ते मित्र सर्वथा ॥ १९ ॥
क्षणेन भ्रंशयिष्यामि कटाक्षेण वरस्त्रियाः ।
देवर्षिदानवादींश्च नराणां गणना न मे ॥ २० ॥
हे मित्र ! जो आपका पद छीननेके लिये कठोर तपस्या कर रहा है, मैं आपके उस शत्रुको तपसे सर्वथा च्युत कर दूंगा । चाहे वह देवता, ऋषि एवं दानव आदि कोई हो, उसे क्षणभरमें सुन्दर स्त्रीके कटाक्षसे भ्रष्ट कर दूंगा, फिर मनुष्योंकी तो मेरे सामने कोई गणना ही नहीं है ॥ १९-२० ॥

वज्रं तिष्ठतु दूरे वः शस्त्राण्यन्यान्यनेकशः ।
किं ते कार्यं करिष्यन्ति मयि मित्र उपस्थिते ॥ २१ ॥
ब्रह्माणं वा हरिं वापि भ्रष्टं कुर्यां न संशयः ।
अन्येषां गणना नास्ति पातयेयं हरं त्वपि ॥ २२ ॥
आपके वज्र और अन्य बहुत-से शस्त्र दूर ही रहें । मेरे-जैसे मित्रके रहते वे आपका क्या कार्य कर सकते हैं । मैं ब्रह्मा तथा विष्णुको भी विचलित कर सकता हूँ । [अधिक क्या कहूँ] मैं शंकरको भी भ्रष्ट कर सकता हूँ, औरोंकी तो गणना ही नहीं है ॥ २१-२२ ॥

पञ्चैव मृदवो बाणास्ते च पुष्पमया मम ।
चापस्त्रिधा पुष्पमयः शिञ्जिनी भ्रमरार्ज्जिता ॥ २३ ॥
बलं सुदयिता मे वै वसन्तः सचिवः स्मृतः ।
अहं पञ्चबलो देवा मित्रं मम सुधानिधिः । २४ ॥
सेनाधिपश्च शृङ्‌गारो हावभावाश्च सैनिकाः ।
सर्वे मे मृदवः शक्र अहं चापि तथाविधः ॥ २५ ॥
मेरे पास पाँच ही कोमल बाण हैं और वे भी पुष्पनिर्मित हैं, तीन प्रकारवाला मेरा धनुष भी पुष्पमय है, उसकी डोरी भ्रमरोंसे युक्त है । मेरा बल सुन्दर स्वी है तथा वसन्त मेरा सचिव कहा गया है । हे देव ! इस प्रकार मैं पंचबल [पाँच बलोंवाला] हूँ । चन्द्रमा मेरा मित्र है, शृंगार मेरा सेनापति है और हाव भाव मेरे सैनिक हैं । हे इन्द्र ! ये सभी मेरे उपकरण मृदु हैं और मैं भी उसी प्रकारका हूँ ॥ २३-२५ ॥

यद्येन पूर्यते कार्यं धीमांस्तत्तेन योजयेत् ।
मम योग्यं तु यत्कार्यं सर्वं तन्मे नियोजय ॥ २६ ॥
जिससे जो कार्य पूर्ण हो, बुद्धिमान् व्यक्तिको चाहिये कि उसको उसी कार्यमें नियुक्त करे । अतः [हे इन्द्र !] मेरे योग्य जो भी कार्य हो, उसमें आप मुझे नियुक्त करें ॥ २६ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्येवं तु वचस्तस्य श्रुत्वा शक्रः सुहर्षितः ।
उवाच प्रणमन्वाचा कामं कान्तासुखावहम् ॥ २७ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] इस प्रकार उसके वचनको सुनकर इन्द्र अत्यन्त प्रसन्न हो उठे और वाणीसे सत्कार करते हुए वे स्त्रियोंको सुख देनेवाले कामसे कहने लगे- ॥ २७ ॥

शक्र उवाच
यत्कार्यं मनसोद्दिष्टं मया तात मनोभव ।
कर्त्तुं तत्त्वं समर्थोऽसि नान्यस्मात्तस्य सम्भवः ॥ २८ ॥
शक्र बोले-हे तात ! हे कामदेव ! मैंने जो कार्य [अपने] मनमें सोचा है, उसे करनेमें केवल तुम ही समर्थ हो, वह कार्य दूसरेसे होनेवाला नहीं है ॥ २८ ॥

शृणु काम प्रवक्ष्यामि यथार्थं मित्रसत्तम ।
यदर्थे च स्पृहा जाता तव चाद्य मनोभव ॥ २९ ॥
तारकाख्यो महादैत्यो ब्रह्मणो वरमद्‌भुतम् ।
अभूदजेयः सम्प्राप्य सर्वेषामपि दुःखदः ॥ ३० ॥
हे काम ! हे मित्रवर्य ! हे मनोभव ! जिस कार्यके लिये आज तुम्हारी आवश्यकता हुई है, उसे मैं यथार्थ रूपसे कह रहा हूँ, तुम उसे सुनो । इस समय तारक नामक महादैत्य ब्रह्मासे अद्‌भुत वरदान पाकर अजेय हो गया है और सभीको पीड़ा पहुँचा रहा है ॥ २९-३० ॥

तेन सम्पीड्यते लोको नष्टा धर्मा ह्यनेकशः ।
दुःखिता निर्जराः सर्वे ऋषयश्च तथाखिलाः ॥ ३१ ॥
वह सारे संसारको पीड़ा दे रहा है, [उसके कारण] सभी धर्म भी नष्ट हो गये हैं, सभी देवता तथा ऋषिगण दुःखित हैं ॥ ३१ ॥

देवैश्च सकलैस्तेन कृतं युद्धं यथाबलम् ।
सर्वेषां चायुधान्यत्र विफलान्यभवन्पुरा ॥ ३२ ॥
देवताओंने अपने बलके अनुसार उससे युद्ध भी किया, किंतु सभीके शस्त्र उसके सामने व्यर्थ हो गये ॥ ३२ ॥

भग्नः पाशो जलेशस्य हरिं चक्रं सुदर्शनम् ।
तत्कुण्ठितमभूत्तस्य कण्ठे क्षिप्तं च विष्णुना ॥ ३३ ॥
एतस्य मरणं प्रोक्तं प्रजेशेन दुरात्मनः ।
शम्भोर्वीर्योद्‌भवाद्‌बालान्महायोगीश्वरस्य हि ॥ ३४ ॥
एतत्कार्यं त्वया साधु कर्तव्यं सुप्रयत्नतः ।
ततःस्यान्मित्रवर्याति देवानां नः परं सुखम् ॥ ३५ ॥
वरुणका पाश टूट गया और विष्णुके द्वारा उसके कण्ठपर प्रहार किया गया, किंतु उनका वह सुदर्शन चक्र भी कुण्ठित हो गया । ब्रह्माजीने दुरात्मा दैत्यकी मृत्युका निर्धारण महायोगीश्वर शिवके वीर्यसे उत्पन्न हुए पुत्रके द्वारा किया है । अब तुम्हें प्रयत्नपूर्वक इस कार्यको अच्छी तरह करना चाहिये । हे मित्र ! इस कार्यसे देवताओंको महान् सुख होगा ॥ ३३-३५ ॥

ममापि विहितं तस्मात्सर्वलोकसुखावहम् ।
मित्रधर्मं हृदि स्मृत्वा कर्तुमर्हसि साम्प्रतम् ॥ ३६ ॥
अतः तुम हृदयमें मित्रधर्मका स्मरण करके मेरे लिये भी हितकर तथा सभी लोकोंको सुख देनेवाले इस कार्यको इसी समय सम्पन्न करो ॥ ३६ ॥

शम्भुःस गिरिराजे हि तपः परममास्थितः ।
स प्रभुर्नापि कामेन स्वतन्त्रः परमेश्वरः ॥ ३७ ॥
वे परमेश्वर प्रभु कामनासे परे हैं । वे शम्भु इस समय हिमालयपर्वतपर परम तप कर रहे हैं ॥ ३७ ॥

तत्समीपे च देवार्थं पार्वती स्वसखीयुता ।
सेवमाना तिष्ठतीति पित्राज्ञप्ता मया श्रुतम् ॥ ३८ ॥
मैंने ऐसा सुना है कि उनके समीप ही पार्वती अपने पितासे आज्ञा लेकर अपनी सखियोंके साथ उन्हें प्रसन्नकर अपना पति बनानेके उद्देश्यसे सेवापरायण रहती हैं ॥ ३८ ॥

यथा तस्यां रुचिस्तस्य शिवस्य नियतात्मनः ।
जायते नितरां मार तथा कार्यं त्वया ध्रुवम् ॥ ३९ ॥
इति कृत्वा कृती स्यास्त्वं सर्वं दुःखं विनङ्‌क्ष्यति ।
लोके स्थायी प्रतापस्ते भविष्यति न चान्यथा ॥ ४० ॥
हे काम ! इस प्रकारका उपाय करना चाहिये, जिससे कि चित्तको वशमें रखनेवाले शिवजीकी अभिरुचि पार्वतीमें हो जाय । ऐसा करके तुम कृतकृत्य हो जाओगे और सारा दुःख नष्ट हो जायगा । तुम्हारी कीर्ति भी संसारमें चिरस्थायी हो जायगी, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३९-४० ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्तस्य तु कामो हि प्रफुल्लमुखपङ्‌कजः ।
प्रेम्णोवाचेति देवेशं करिष्यामि न संशयः ॥ ४१ ॥
ब्रह्माजी बोले-इन्द्रके इस प्रकार कहनेपर कामदेवका मुखकमल खिल उठा और उसने प्रेमपूर्वक इन्द्रसे कहा-मैं [आपका यह कार्य] निःसन्देह करूँगा ॥ ४१ ॥

इत्युक्त्वा वचनं तस्मै तथेत्योमिति तद्वचः ।
अग्रहीत्तरसा कामः शिवमायाविमोहितः ॥ ४२ ॥
यत्र योगीश्वरःसाक्षात्तप्यते परमं तपः ।
जगाम तत्र सुप्रीतः सदारः सवसन्तकः ॥ ४३ ॥
शिवकी मायासे मोहित कामदेवने उनके वचनको 'ओम्'-ऐसा कहकर शीघ्रतापूर्वक स्वीकार कर लिया । तत्पश्चात् जहाँ साक्षात् योगीश्वर शंकर कठोर तप कर रहे थे, वहाँ प्रसन्नचित्त होकर अपनी पत्नी तथा वसन्तको साथ लेकर कामदेव पहुंच गया । ४२-४३ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये
पार्वतीखण्डे शक्रकामसंवादवर्णनं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुनसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें इन्द्रकामदेवसंवादवर्णन नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १७ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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