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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे
एकोनविंशोऽध्यायः ॥ शिवेन कामदेवविनाशः -
भगवान् शिवकी नेत्रज्वालासे कामदेवका भस्म होना और रतिका विलाप, देवताओद्वारा रतिको सान्त्वना प्रदान करना और भगवान् शिवसे कामको जीवित करनेकी प्रार्थना करना - नारद उवाच ब्रह्मन्विधे महाभाग किं जातं तदनन्तरम् । कथय त्वं प्रसादेन तां कथां पापनाशिनीम् ॥ १ ॥ नारदजी बोले-हे ब्रह्मन् ! हे विधे ! हे महाभाग ! इसके अनन्तर फिर क्या हुआ ? आप मुझपर दयाकर इस पापको विनष्ट करनेवाली कथाका पुनः वर्णन कीजिये ॥ १ ॥ ब्रह्मोवाच श्रूयतां सा कथा तात यज्जातं तदनन्तरम् । तव स्नेहात्प्रवक्ष्यामि शिवलीलां मुदावहाम् ॥ २ ॥ धैर्यस्य व्यसनं दृष्ट्वा महायोगी महेश्वरः । विचिचिन्त मनस्येवं विस्मितोऽतिततः परम् ॥ ३ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे तात ! इसके अनन्तर जो हुआ, उसे आप सुनें । मैं आपके स्नेहवश आनन्ददायक शिवलीलाका वर्णन करूंगा । [हे नारद !] उसके बाद महायोगी महेश्वर [अपने] धैर्यके नाशको देखकर अत्यन्त विस्मित हो मनमें इस प्रकार विचार करने लगे ॥ २-३ ॥ शिव उवाच किमु विघ्नाः समुत्पन्नाः कुर्वतस्तप उत्तमम् । केन मे विकृतं चित्तं कृतमत्र कुकर्मिणा ॥ ४ ॥ कुवर्णनं मया प्रीत्या परस्त्र्युपरि वै कृतम् । जातो धर्मविरोधोऽत्र श्रुतिसीमा विलङ्घिता ॥ ५ ॥ शिवजी बोले-मैं तो उत्तम तपस्या कर रहा था, उसमें विघ्न कैसे आ गया ! किस कुकर्मीने यहाँ मेरे चित्तमें विकार पैदा कर दिया है ! मैंने दूसरेकी स्त्रीके विषयमें प्रेमपूर्वक निन्दित वर्णन किया । यह तो धर्मका विरोध हो गया और शास्त्रमर्यादाका उल्लंघन हुआ ॥ ४-५ ॥ ब्रह्मोवाच विचिन्त्येत्थं महायोगी परमेशः सतां गतिः । दिशो विलोकयामास परितः शङ्कितस्तदा ॥ ६ ॥ वामभागे स्थितं कामं ददर्शाकृष्टबाणकम् । स्वशरं क्षेप्तुकामं हि गर्वितं मूढचेतसम् ॥ ७ ॥ ब्रह्माजी बोले-तब सज्जनोंके एकमात्र रक्षक महायोगी परमेश्वर शिव इस प्रकार विचारकर शंकित हो सम्पूर्ण दिशाओंकी ओर देखने लगे । इसी समय वामभागमें बाण खींचे खड़े हुए कामपर उनकी दृष्टि पड़ी । वह मूढ़चित्त मदन अपनी शक्तिके गर्वसे चूर होकर पुनः अपना बाण छोड़ना ही चाह रहा था ॥ ६-७ ॥ तं दृष्ट्वा तादृशं कामं गिरीशस्य परात्मनः । सञ्जातः क्रोधसंमर्दस्तत्क्षणादपि नारद ॥ ८ ॥ हे नारद ! उस अवस्थामें कामपर दृष्टि पड़ते ही परमात्मा गिरीशको तत्काल क्रोध उत्पन्न हो गया ॥ ८ ॥ कामः स्थितोऽन्तरिक्षे स धृत्वा तत्सशरं धनुः । चिक्षेपास्त्रं दुर्निवारममोघं शंकरे मुने ॥ ९ ॥ बभूवामोघमस्त्रं तु मोघं तत्परमात्मनि । समशाम्यत्ततस्तस्मिन्सङ्कुद्धं परमेश्वरे ॥ १० ॥ हे मुने ! इधर, आकाशमें बाणसहित धनुष लेकर खड़े हुए कामने भगवान् शंकरपर अपना दुर्निवार तथा अमोघ अस्त्र छोड़ दिया । परमात्मा शिवपर वह अमोघ अस्त्र व्यर्थ हो गया । कुपित हुए परमेश्वरके पास जाते ही वह शान्त हो गया ॥ ९-१० ॥ मोघीभूते शिवे स्वेऽस्त्रे भयमापाशु मन्मथः । चकम्पे च पुरः स्थित्वा दृष्ट्वा मृत्युञ्जयं प्रभुम् ॥ ११ ॥ सस्मार त्रिदशान्सर्वान्छक्रादीन्भयविह्वलः । स स्मरो मुनिशार्दूल स्वप्रयासे निरर्थके ॥ १२ ॥ तदनन्तर भगवान् शिवपर अपने अस्वके व्यर्थ हो जानेपर मन्मथको बड़ा भय हुआ । भगवान् मृत्युंजयको देखकर उनके सामने खड़ा होकर वह काँप उठा । हे मुनिश्रेष्ठ ! वह कामदेव अपने प्रयासके निष्फल हो जानेपर भयसे व्याकुल होकर इन्द्र आदि सभी देवताओंका स्मरण करने लगा ॥ ११-१२ ॥ कामेन सुस्मृता देवाः शक्राद्यास्ते मुनीश्वर । आययुः सकलास्ते हि शम्भुं नत्वा च तुष्टुवुः ॥ १३ ॥ हे मुनीश्वर ! कामदेवके स्मरण करनेपर वे इन्द्र आदि सब देवता आ गये और शम्भुको प्रणामकर उनकी स्तुति करने लगे ॥ १३ ॥ स्तुतिं कुर्वत्सु देवेषु कुद्धस्याति हरस्य हि । तृतीयात्तस्य नेत्राद्वै निःससार ततो महान् ॥ १४ ॥ ललाट मध्यगात्तस्मात्सवह्निर्द्रुतसम्भवः । जज्वालोर्ध्वशिखो दीप्तः प्रलयाग्निसमप्रभः ॥ १५ ॥ देवता स्तुति कर ही रहे थे कि कुपित हुए भगवान् शिवके ललाटके मध्यभागमें स्थित तृतीय नेत्रसे बड़ी भारी आगकी ज्वाला तत्काल प्रकट होकर निकली । वे ज्वालाएँ ऊपरकी ओर उठ रही थीं । वह आग धू-धू करके जलने लगी । उसकी ज्योति प्रलयाग्निके समान मालूम पड़ती थी ॥ १४-१५ ॥ उत्पत्य गगने तूर्णं निष्पत्य धरणी तले । भ्रामं भ्रामं स्वपरितः पपात मेदिनीं परि ॥ १६ भस्मसात्कृतवान्साधो मदनं तावदेव हि । यावच्च मरुतां वाचः क्षम्यतां क्षम्यतामिति ॥ १७ ॥ वह चाला तत्काल ही आकाशमें उछलकर पृथ्वीपर गिरकर फिर अपने चारों ओर चक्कर काटती हुई कामदेवपर जा गिरी । हे साधो ! क्षमा कीजिये, क्षमा कीजिये, यह बात जबतक देवताओंने कही, तबतक उस आगने कामदेवको जलाकर राख कर दिया ॥ १६-१७ ॥ हते तस्मिन्स्मरे वीरे देव दुःखमुपागताः । रुरुदुर्विह्वलाश्चातिक्रोशंतः किमभूदिति ॥ १८ ॥ श्वेताङ्गा विकृतात्मा च गिरिराजसुता तदा । जगाम मन्दिरं स्वं च समादाय सखीजनम् ॥ १९ ॥ क्षणमात्रं रतिस्तत्र विसञ्ज्ञा साऽभवत्तदा । भर्तृमृत्युजदुःखेन पतिता सा मृता इव ॥ २० ॥ उस वीर कामदेवके मारे जानेपर देवताओंको बड़ा दुःख हुआ । वे व्याकुल होकर, यह क्या हुआ, इस प्रकार कहकर जोर-जोरसे चीत्कार करते हुए रोने-बिलखने लगे । उस समय घबरायी हुई पार्वतीका समस्त शरीर सफेद पड़ गया और वे सखियोंको साथ लेकर अपने भवनको चली गयीं । [कामदेवके जल जानेपर] रति वहाँ क्षणभरके लिये अचेत हो गयी । पतिके मृत्युजनित दुःखसे वह मरी हुईकी भाँति पड़ी रही ॥ १८-२० ॥ जातायां चैव सञ्ज्ञायां रतिरत्यन्तविह्वला । विललाप तदा तत्रोच्चरन्ती विविधं वचः ॥ २१ ॥ [थोड़ी देरमें] चेतना आनेपर अत्यन्त व्याकुल होकर वह रति उस समय तरह-तरहकी बातें कहती हुई विलाप करने लगी ॥ २१ ॥ रतिरुवाच किं करोमि क्व गच्छामि किं कृतं दैवतैरिह । मत्स्वामिनं समाहूय नाशयामासुरुद्धतम् ॥ २२ ॥ हा हा नाथ स्मर स्वामिन्प्राणप्रिय सुखप्रद । इदं तु किमभूदत्र हा हा प्रिय प्रियेति च ॥ २३ ॥ रति बोली-मैं क्या करूं ? कहाँ जाऊँ ? देवताओंने यह क्या किया, मेरे उद्धत स्वामीको बुलाकर उन्होंने नष्ट करा दिया । हाय ! हाय ! हे नाथ ! हे स्मर ! हे स्वामिन् ! हे प्राणप्रिय ! हे सुखप्रद ! हे प्रिय ! हे प्रिय ! यह यहाँ क्या हो गया ? ॥ २२-२३ ॥ ब्रह्मोवाच इत्थं विलपती सा तु वदन्ती बहुधा वचः । हस्तौ पादौ तदास्फाल्य केशानत्रोटयत्तदा ॥ २४ ॥ ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार रोती-बिलखती और अनेक प्रकारकी बातें कहती हुई वह हाथ-पैर पटककर सिरके बालोंको नोंचने लगी ॥ २४ ॥ तद्विलापं तदा श्रुत्वा तत्र सर्वे वनेचराः । अभवन्दुःखिताःसर्वे स्थावरा अपि नारद ॥ २५ ॥ एतस्मिन्नन्तरे तत्र देवाः शक्रादयोऽखिलाः । रतिमूचुः समाश्वास्य संस्मरन्तो महेश्वरम् ॥ २६ ॥ हे नारद ! उस समय उसका विलाप सुनकर वहाँ रहनेवाले समस्त वनवासी तथा सभी स्थावर प्राणी भी दुखी हो गये । इसी बीच इन्द्र आदि समस्त देवता महेश्वरका स्मरण करते हुए रतिको आश्वस्त करके उससे कहने लगे- ॥ २५-२६ ॥ देवा ऊचुः किञ्चिद्भस्म गृहीत्वा तु रक्ष यत्नाद्भयं त्यज । जीवयिष्यति स स्वामी लप्स्यसे त्वं पुनः प्रियम् ॥ २७ ॥ देवता बोले-थोड़ा-सा भस्म लेकर उसे यत्नपूर्वक रखो और भय छोड़ दो । वे स्वामी महादेवजी [कामदेवको] जीवित कर देंगे और तुम पतिको पुनः प्राप्त कर लोगी ॥ २७ ॥ सुखदाता न कोप्यस्ति दुःखदाता न कश्चन । सर्वोऽपि स्वकृतं भुङ्क्ते देवाञ्शोचसि वै वृथा ॥ २८ ॥ कोई न सुख देनेवाला है और न कोई दुःख ही देनेवाला है । सब लोग अपनी करनीका फल भोगते हैं । तुम देवताओंको दोष देकर व्यर्थ ही शोक करती हो ॥ २८ ॥ ब्रह्मोवाच इत्याश्वास्य रतिं देवाः सर्वे शिवमुपागताः । सुप्रसाद्य शिवं भक्त्या वचनं चेदमब्रुवन् ॥ २९ ॥ ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार रतिको समझाबुझाकर सब देवता भगवान् शिवके समीप आये और उन्हें भक्तिसे प्रसन्न करके यह वचन कहने लगे- ॥ २९ ॥ देवा ऊचुः भगवञ्छ्रूयतोमेतद्वचनं नः शुभं प्रभो । कृपां कृत्वा महेशान शरणागतवत्सल ॥ ३० ॥ देवता बोले-हे भगवन् ! हे प्रभो ! हे महेशान ! हे शरणागतवत्सल ! आप कृपा करके हमारे इस शुभ वचनको सुनिये ॥ ३० ॥ सुविचारय सुप्रीत्या कृतिं कामस्य शंकर । कामेनैतत्कृतं यत्र न स्वार्थं तन्महेश्वर ॥ ३१ ॥ हे शंकर ! आप कामदेवके कृत्यपर भलीभाँति अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक विचार कीजिये । हे महेश्वर ! कामने जो यह कार्य किया है, इसमें उसका कोई स्वार्थ नहीं था ॥ ३१ ॥ दुष्टेन पीडितैर्देवैस्तारकेणाऽखिलैर्विभो । कर्म तत्कारितं नाथ नान्यथा विद्धि शंकर ॥ ३२ ॥ हे विभो ! दुष्ट तारकासुरसे पीड़ित हुए सब देवताओंने मिलकर उससे यह कार्य कराया है । हे नाथ ! हे शंकर ! इसे आप अन्यथा न समझें ॥ ३२ ॥ रतिरेकाकिनी देव विलापं दुःखिता सती । करोति गिरिश त्वं च तामाश्वासय सर्वदा ॥ ३३ ॥ सब कुछ प्रदान करनेवाले हे देव ! हे गिरिश ! साध्वी रति अकेली अति दुखी होकर विलाप कर रही है, आप उसे सान्त्वना प्रदान कीजिये ॥ ३३ ॥ संहारं कर्तुकामोऽसि क्रोधेनानेन शंकर । दैवतैः सह सर्वेषां हतवांस्तं यदि स्मरम् ॥ ३४ ॥ हे शंकर ! यदि इस क्रोधके द्वारा आपने कामदेवको मार डाला, तो हम यही समझेंगे कि आप देवताओंसहित समस्त प्राणियोंका अभी संहार कर डालना चाहते हैं ॥ ३४ ॥ दुःखं तस्या रतेर्दृष्ट्वा नष्टप्रायाश्च देवताः । तस्मात्त्वया च कर्त्तव्यं रत्या शोकापनोदनम् ॥ ३५ ॥ उस रतिका दुःख देखकर देवता नष्टप्राय हो गये हैं । इसलिये आपको रतिका शोक दूर कर देना चाहिये ॥ ३५ ॥ ब्रह्मोवाच इत्याकर्ण्य वचस्तेषां प्रसन्नो भगवाञ्छिवः । देवानां सकलानां च वचनं चेदमब्रवीत् ॥ ३६ ॥ ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] उन सम्पूर्ण देवताओंका यह वचन सुनकर भगवान् शिव प्रसन्न हो गये और यह वचन कहने लगे- ॥ ३६ ॥ शिव उवाच देवाश्च ऋषयः सर्वे मद्वचः शृणुतादरात् । मत्कोपेन च यज्जातं तत्तथा नान्यथा भवत् ॥ ३७ ॥ अनङ्गस्तावदेव स्यात्कामो रतिपतिः प्रभुः । यावच्चावतरेत्कृष्णो धरण्यां रुक्मिणीपतिः ॥ ३८ ॥ शिवजी बोले-हे देवताओ और ऋषियो ! आप सब आदरपूर्वक मेरी बात सुनिये । मेरे क्रोधसे जो कुछ हो गया है, वह तो अन्यथा नहीं हो सकता, तथापि रतिका शक्तिशाली पति कामदेव तभीतक अनंग रहेगा, जबतक रुक्मिणीपति श्रीकृष्णका धरतीपर अवतार नहीं हो जाता ॥ ३७-३८ ॥ द्वारकायां यदा स्थित्वा पुत्रानुत्पादयिष्यति । तदा कृष्णस्तु रुक्मिण्यां काममुत्पादयिष्यति ॥ ३९ ॥ जब श्रीकृष्ण द्वारकामें रहकर पुत्रोंको उत्पन्न करेंगे, तब ये रुक्मिणीके गर्भसे कामको भी जन्म देंगे ॥ ३९ ॥ प्रद्युम्ननाम तस्यैव भविष्यति न संशयः । जातमात्रं तु तं पुत्रं शम्बरः संहरिष्यति ॥ ४० ॥ हृत्वा प्रास्य समुद्रे तं शम्बरो दानवोत्तमः । मृतं ज्ञात्वा वृथा मूढो नगरं स्वं गमिष्यति ॥ ४१ ॥ तावच्च नगरं तस्य रते स्थेयं यथासुखम् । तत्रैव स्वपतेः प्राप्तिः प्रद्युम्नस्य भविष्यति ॥ ४२ ॥ उस कामका ही नाम [उस समय] प्रद्युम्न होगा, इसमें संशय नहीं है । उस पुत्रके जन्म लेते ही शम्बरासुर उसे हर लेगा । हरण करके दानवश्रेष्ठ मूर्ख शम्बर उसे समुद्र में फेंककर और उसे मरा हुआ जानकर वृथा ही अपने नगरको लौट जायगा । हे रते ! तुम्हें उस समयतक शम्बरासुरके नगरमें सुखपूर्वक निवास करना चाहिये, वहींपर तुम्हें अपने पति प्रद्युम्नकी प्राप्ति होगी ॥ ४०-४२ ॥ तत्र कामो मिलित्वा तं हत्वा शम्बरमाहवे । भविष्यति सुखी देवाः प्रद्युम्नाख्यः स्वकामिनीम् ॥ ४३ ॥ हे देवताओ ! वहाँ युद्धमें उस शम्बरासुरका वध करके कामदेव अपनी पत्नीको प्राप्त करके सुखी होगा ॥ ४३ ॥ तदीयं चैव यद्द्रव्यं नीत्वा स नगरं पुनः । गमिष्यति तया सार्द्धं देवाः सत्यं वचो मम ॥ ४४ ॥ हे देवताओ ! प्रद्युम्न नामधारी वह काम शम्बरासुरका जो भी धन होगा, उसे लेकर उस रतिके साथ [अपने] नगरमें जायगा, मेरा यह कथन सर्वथा सत्य होगा ॥ ४४ ॥ ब्रह्मोवाच इति श्रुत्वा वचः शम्भोर्देवा ऊचुः प्रणम्य तम् । किञ्चिदुच्छ्वसिताश्चित्ते करौ बद्ध्वा नताङ्गकाः ॥ ४५ ॥ ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] शिवजीकी यह बात सुनकर देवताओंके चित्तमें कुछ उल्लास हुआ और वे सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर उनसे कहने लगे- ॥ ४५ ॥ देवा ऊचुः देवदेव महादेव करुणासागर प्रभो । शीघ्रं जीवय कामं त्वं रक्ष प्राणान् रतेर्हर ॥ ४६ ॥ देवता बोले-हे देवदेव ! हे महादेव ! हे करुणासागर ! हे प्रभो ! हे हर ! आप कामदेवको शीघ्र जीवित कर दीजिये तथा रतिके प्राणोंकी रक्षा कीजिये ॥ ४६ ॥ ब्रह्मोवाच इत्याकर्ण्यामरवचः प्रसन्नः परमेश्वरः । पुनर्बभाषे करुणासागरः सकलेश्वरः ॥ ४७ ॥ ब्रह्माजी बोले-देवताओंकी यह बात सुनकर सबके स्वामी करुणासागर परमेश्वर शिव प्रसन्न होकर पुनः कहने लगे- ॥ ४७ ॥ शिव उवाच हे देवाःसुप्रसन्नोऽस्मि जीवयिष्यामि चान्तरे । कामः स मद्गणो भूत्वा विहरिष्यति नित्यशः ॥ ४८ ॥ शिवजी बोले-हे देवताओ ! मैं बहुत प्रसन्न हूँ, मैं कामको सबके हृदयमें जीवित कर दूंगा और वह सदा मेरा गण होकर विहार करेगा ॥ ४८ ॥ नाख्येयमिदमाख्यानं कस्यचित्पुरतःसुराः । गच्छत स्वस्थलं दुःखं नाशयिष्यामि सर्वतः ॥ ४९ ॥ हे देवताओ ! आपलोग इस आख्यानको किसीके सामने मत कहियेगा, आपलोग अपने स्थानको जाइये, मैं सब प्रकारसे [आपलोगोंक] दुःखका नाश करूँगा ॥ ४९ ॥ ब्रह्मोवाच इत्युक्त्वान्तर्दधे रुद्रो देवानां स्तुवतां तदा । सर्वे देवाः सुप्रसन्ना बभूवुर्गतविस्मयाः ॥ ५० ॥ ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार कहकर रुद्रदेव देवताओंके स्तुति करते-करते ही अन्तर्धान हो गये । तब सभी देवता अत्यन्त प्रसन्न तथा सन्देहरहित हो गये ॥ ५० ॥ ततस्तां च समाश्वास्य रुद्रस्य वचने स्थिताः । उक्त्वा वचस्तदीयं च स्वं स्वं धाम ययुर्मुने ॥ ५१ ॥ कामपत्नी समादिष्टं नगरं सा गता तदा । प्रतीक्षमाणा तं कालं रुद्रादिष्टं मुनीश्वर ॥ ५२ ॥ हे मुने ! तदनन्तर रुद्रकी बातपर भरोसा करके वे देवता रतिको आश्वासन देकर तथा उससे उनका वचन कहकर अपने-अपने धामको चले गये । हे मुनीश्वर ! तब वह कामपत्नी शिवके बताये हुए नगरको चली गयी तथा रुद्रके बताये गये समयकी प्रतीक्षा करने लगी ॥ ५१-५२ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखण्डे कामनाशवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय कनसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें कामनाशवर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १९ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |