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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे

विंशोऽध्यायः ॥

वडवानलचरितम् -
शिवकी क्रोधाग्निका वडवारूप-धारण और ब्रह्माद्वारा उसे समुद्रको समर्पित करना -


नारद उवाच
विधे नेत्रसमुद्‌भूतवह्निज्वाला हरस्य सा ।
गता कुत्र वद त्वं तच्चरित्रं शशिमौलिनः ॥ १ ॥
नारदजी बोले-हे विधे ! भगवान हरके [तृतीय] नेत्रसे निकली हुई वह अग्निकी ज्वाला कहाँ गयी ? आप चन्द्रशेखरके उस चरित्रको कहिये ॥ १ ॥

ब्रह्मोवाच
यदा भस्म चकाराशु तृतीयनयनानलः ।
शम्भोः कामं प्रजज्वाल सर्वतो विफलस्तदा ॥ २ ॥
बहाजी बोले-[हे नारद !] जब भगवान् रुद्रके तीसरे नेत्रसे प्रकट हुई अग्निने कामदेवको शीघ्र ही जलाकर राख कर दिया, उसके अनन्तर वह बिना किसी प्रयोजनके ही सब ओर फैलने लगी ॥ २ ॥

हाहाकारो महानासीत्त्रैलोक्ये सचराचरे ।
सर्वदेवर्षयस्तात शरणं मां ययुर्द्रुतम् । ३ ॥
चराचर प्राणियोसहित तीनों लोकोंमें महान् हाहाकार मच गया । हे तात ! तब सम्पूर्ण देवता और ऋषि शीघ्र ही मेरी शरणमें आये ॥ ३ ॥

सर्वे निवेदयामासुस्तद्दुखं मह्यमाकुलाः ।
सुप्रणम्य सुसंस्तुत्य करौ बद्ध्वा नताननाः ॥ ४ ॥
उन सबने व्याकुल होकर मस्तक झुकाकर दोनों हाथ जोड़कर मुझे प्रणामकर विधिवत् मेरी स्तुति करके अपना दुःख निवेदन किया ॥ ४ ॥

तच्छ्रुत्वाहं शिवं स्मृत्वा तद्धेतुं सुविमृश्य च ।
गतस्तत्र विनीतात्मा त्रिलोकावनहेतवे ॥ ५ ॥
उसको सुनकर शिवका स्मरणकर और उसके हेतुका भलीभाँति विचारकर तीनों लोकोंकी रक्षा करनेके लिये मैं विनीत भावसे वहाँ पहुँचा ॥ ५ ॥

सन्दग्धुकामः स शुचिज्वालामालातिदीपितः ।
स्तम्भितोऽरं मया शम्भुप्रसादाप्तसुतेजसा ॥ ६ ॥
वह अग्नि ज्वालामालासे अत्यन्त उद्दीप्त हो जगत्को जला देनेके लिये उद्यत थी, परंतु भगवान् शिवकी कृपासे प्राप्त हुए उत्तम तेजके द्वारा मैंने उसे तत्काल स्तम्भित कर दिया ॥ ६ ॥

अथ क्रोधमयं वह्निं दग्धुकामं जगत्त्रयम् ।
वाडवान्तकमार्षं च सौम्यज्वालामुखं मुने ॥ ७ ॥
हे मुने ! मैंने त्रिलोकीको दग्ध करनेकी इच्छा रखनेवाली उस क्रोधमय अग्निको सौम्य ज्वालामुखवाले घोड़ेके रूपमें परिवर्तित कर दिया ॥ ७ ॥

तं वाडवतनुमहं समादाय शिवेच्छया ।
सागरं समगां लोकहिताय जगतां पतिः ॥ ८ ॥
भगवान् शिवकी इच्छासे उस वाडव-शरीरवाली अग्निको लेकर जगत्पति मैं लोकहितके लिये समुद्रके पास गया ॥ ८ ॥

आगतं मां समालोक्य सागरः साञ्जलिर्मुने ।
धृत्वा च पौरुषं रूपमागतः संनिधिं मम ॥ ९ ॥
हे मुने ! मुझे आया हुआ देखकर समुद्र एक दिव्य पुरुषका रूप धारण करके हाथ जोड़कर मेरे पास आया ॥ ९ ॥

सुप्रणम्याथ मां सिन्धुः संस्तूय च यथा विधि ।
स मामुवाच सुप्रीत्या सर्वलोकपितामहम् ॥ १० ॥
मुझ सम्पूर्ण लोकोंके पितामहकी भलीभाँति स्तुति करके वह सिन्धु मुझसे प्रसन्नतापूर्वक कहने लगा- ॥ १० ॥

सागर उवाच
किमर्थमागतोऽसि त्वं ब्रह्मन्नत्राखिलाधिप ।
तन्निदेशय सुप्रीत्या मत्वा मां च स्वसेवकम् ॥ ११ ॥
सागर बोला-हे ब्रह्मन् ! हे सर्वेश्वर ! आप यहाँ किसलिये आये हैं ? मुझे अपना सेवक समझकर आप प्रीतिपूर्वक उसे कहिये ॥ ११ ॥

अथाहं सागरवचः श्रुत्वा प्रीतिपुरःसरम् ।
प्रावोचं शंकरं स्मृत्वा लौकिकं हितमावहन् ॥ १२ ॥
सागरकी बात सुनकर शंकरका स्मरण करके लोकहितका ध्यान रखते हुए मैं उससे प्रसन्नतापूर्वक कहने लगा- ॥ १२ ॥

ब्रह्मोवाच
शृणु तात महाधीमन्सर्वलोकहितावह ।
वच्म्यहं प्रीतितःसिन्धो शिवेच्छाप्रेरितो हृदा ॥ १३ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे तात ! हे महाबुद्धिमान् ! सम्पूर्ण लोकोंके हितकारी ! हे सिन्धो ! मैं शिवकी इच्छासे प्रेरित हो हृदयसे प्रीतिपूर्वक तुमसे कह रहा हूँ, सुनो ॥ १३ ॥

अयं क्रोधो महेशस्य वाडवात्मा महाप्रभुः ।
दग्ध्वा कामं द्रुतं सर्वं दग्धुकामोऽभवत्ततः ॥ १४ ॥
यह महेश्वरका क्रोध है, जो महान् शक्तिशाली अश्वके रूपमें यहाँ उपस्थित है । यह कामदेवको दग्ध करके शीघ्र सम्पूर्ण जगत्को जला डालनेके लिये उद्यत हो गया था ॥ १४ ॥

प्रार्थितोऽहं सुरैः शीघ्रं पीडितैः शंकरेच्छया ।
तत्रागत्य द्रुतं तं वै तात स्तम्भितवाञ्शुचिम् ॥ १५ ॥
वाडवं रूपमाधत्त तमादायागतोऽत्र ह ।
निर्दिशामि जलाधार त्वामहं करुणाकरः ॥ १६ ॥
हे तात ! तब पीड़ित हुए देवताओंने शंकरको इच्छासे मेरी प्रार्थना की और मैंने शीघ्र वहाँ आकर अग्निको स्तम्भित किया । फिर इसने घोड़ेका रूप धारण किया और इसे लेकर मैं यहाँ आया । हे जलाधार ! [जगत्पर] दया करनेवाला मैं तुम्हें यह आदेश दे रहा हूँ ॥ १५-१६ ॥

अयं क्रोधी महेशस्य वाडवं रूपमाश्रितः ।
ज्वालामुखस्त्वया धार्यो यावदाभूतसम्प्लवम् ॥ १७ ॥
महेश्वरके इस क्रोधको, जो घोड़ेका रूप धारण करके मुखसे ज्वाला प्रकट करता हुआ खड़ा है, तुम प्रलयकालपर्यन्त धारण किये रहो ॥ १७ ॥

यदात्राहं समागम्य वत्स्यामि सरितां पते ।
तदा त्वया परित्याज्यः क्रोधोऽयं शाङ्‌करोऽद्‌भुतः ॥ १८ ॥
हे सरित्पते ! जब मैं यहाँ आकर निवास करूंगा, तब तुम शंकरके इस अद्‌भुत क्रोधको छोड़ देना ॥ १८ ॥

भोजनं तोयमेतस्य तव नित्यं भविष्यति ।
यत्नादेवावधार्योऽयं यथा नोपैति चान्तरम् ॥ १९ ॥
तुम्हारा जल ही इसका प्रतिदिनका भोजन होगा । तुम यत्नपूर्वक इसे धारण किये रहना, जिससे यह अन्यत्र न जा सके ॥ १९ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्तो हि मया सिन्धुरङ्‌गीचक्रे तदा ध्रुवम् ।
ग्रहीतुं वाडवं वह्निं रौद्रं चाशक्यमन्यतः ॥ २० ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] इस प्रकार मेरे कहनेपर समुद्रने [रुद्रके क्रोधाग्निरूप] वडवानलको धारण करना स्वीकार किया, जो दूसरेके लिये असम्भव था ॥ २० ॥

ततः प्रविष्टो जलधौ स वाडवतनुः शुचिः ।
वार्योघान्सुदहंस्तस्य ज्वालामालाभिदीपितः ॥ २१ ॥
उसके अनन्तर वाडव शरीरवाली वह अग्नि समुद्र में प्रविष्ट हुई और ज्वालामालाओंसे प्रदीप्त हो उस सागरकी जलराशिका दहन करने लगी ॥ २१ ॥

ततःसन्तुष्टचेतस्कः स्वं धामाहं गतो मुने ।
अन्तर्धानमगात्सिन्धुर्दिव्यरूपः प्रणम्य माम् ॥ २२ ॥
स्वास्थ्यं प्राप जगत्सर्वं निर्मुक्तं तद्‌भवाद्‌भयात् ।
देवा बभूवुः सुखिनो मुनयश्च महामुने ॥ २३ ॥
हे मुने ! तदनन्तर सन्तुष्टचित्त होकर मैं अपने धामको चला आया और दिव्य रूपधारी वह समुद्र मुझे प्रणाम करके अन्तर्धान हो गया । महामुने ! रुद्रकी उस क्रोधाग्निके भयसे छूटकर सम्पूर्ण जगत् स्वस्थताका अनुभव करने लगा और देवता तथा मुनिगण सुखी हो गयो । २२-२३ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये
पार्वतीखण्डे वडवानलचरितं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुजसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें वडवानलचरितवर्णन नामक बीसौं अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २० ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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