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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे
षड्विंशोऽध्यायः ॥ पार्वती-जटिलसंवादः -
पार्वतीकी परीक्षा लेनेके लिये भगवान् शिवका जटाधारी ब्राह्मणका वेष धारणकर पार्वतीके समीप जाना, शिव-पार्वती-संवाद ब्रह्मोवाच गतेषु तेषु मुनिषु स्वं लोकं शंकरः स्वयम् । परीक्षितुं तपो देव्या ऐच्छत्सूतिकरः प्रभुः ॥ १ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! उन मुनियोंके अपनेअपने लोक चले जानेपर जगत्सष्टा प्रभु शिवने स्वयं पार्वतीके तपकी परीक्षा लेनेकी इच्छा की ॥ १ ॥ परीक्षा छद्मना शम्भुर्द्रष्टुं तां तुष्टमानसः । जाटिलं रूपमास्थाय स ययौ पार्वतीवनम् ॥ २ ॥ प्रसन्नचित्त वे शिवजी परीक्षाके बहाने उन्हें देखनेके लिये जटाधारीरूप धारणकर पार्वतीके वनमें गये ॥ २ ॥ अतीव स्थविरो विप्रदेहधारी स्वतेजसा । प्रज्वलन्मनसा हृष्टो दण्डी छत्री बभूव सः ॥ ३ ॥ उन्होंने प्रसन्न मनसे बूढ़े ब्राह्मणका वेष धारण किया और अपने तेजसे देदीप्यमान हो दण्ड तथा छत्र धारण कर लिया था ॥ ३ ॥ तत्रापश्यत्स्थितां देवीं सखीभिः परिवारिताम् । वेदिकोपरि शुद्धां तां शिवामिव विधोः कलाम् ॥ ४ ॥ वहाँपर उन्होंने सखियोंसे घिरी हुई उन विशुद्ध पार्वतीको वेदीपर बैठी हुई साक्षात् चन्द्रकलाके समान देखा ॥ ४ ॥ शम्भु निरीक्ष्य तां देवीं ब्रह्मचारिस्वरूपवान् । उपकण्ठं ययौ प्रीत्या तदाऽसौ भक्तवत्सलः ॥ ५ ॥ तब ब्रह्मचारीका रूप धारण किये हुए वे भक्तवत्सल शिव उन देवीको देखकर प्रेमपूर्वक उनके समीप गये ॥ ५ ॥ आगतं तं तदा दृष्ट्वा ब्राह्मणं तेजसाद्भुतम् । अपूजयच्छिवा देवी सर्वपूजोपहारकैः ॥ ६ ॥ सुसत्कृतं संविधाभिः पूजितं परया मुदा । पार्वती कुशलं प्रीत्या पप्रच्छ द्विजमादरात ॥ ७ ॥ उस अपूर्व तेजस्वी ब्राह्मणको आया हुआ देखकर शिवादेवीने सभी प्रकारकी पूजासामग्रीसे उनका पूजन किया । इस प्रकार भलीभांति पूजासत्कार करनेके अनन्तर पार्वतीजी प्रसन्नताके साथ उस ब्राह्मणसे आदरपूर्वक कुशल पूछने लगी- ॥ ६-७ ॥ पार्वत्युवाच ब्रह्मचारिस्वरूपेण कस्त्वं हि कुत आगतः । इदं वनं भासयसे वद वेदविदां वर ॥ ८ ॥ पार्वती बोलीं-हे ब्राहाण ! ब्रह्मचारीका स्वरूप धारण किये हुए आप कौन हैं और कहाँसे आये हैं ? आप इस वनको प्रकाशित कर रहे हैं । हे वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ! यह सब मुझसे कहिये ॥ ८ ॥ विप्र उवाच अहमिच्छाभिगामी च वृद्धो विप्रतनुःसुधीः । तपस्वी सुखदोऽन्येषामुपकारी न संशयः ॥ ९ ॥ ब्राह्मण बोले-मैं वृद्ध ब्राह्मणका शरीर धारण किये अपने इच्छानुसार चलनेवाला एक बुद्धिमान् तपस्वी हूँ, मैं दूसरोंको सुख देनेवाला तथा उनका उपकार करनेवाला हूँ, इसमें संशय नहीं है ॥ ९ ॥ का त्वं कस्यासि तनया किमर्थं विजने वने । तपश्चरसि दुर्धर्षं मुनिभिः प्रपदैरपि ॥ १० ॥ तुम कौन हो और किसकी कन्या हो, इस निर्जन वनमें अकेली रहकर इतनी कठिन तपस्या क्यों कर रही हो, जो मुनियोंके लिये भी दुष्कर है ॥ १० ॥ न बाला न च वृद्धासि तरुणी भासि शोभना । कथं पतिं विना तीक्ष्णं तपश्चरसि वै वने ॥ ११ ॥ कि त्वं तपस्विनी भद्रे कस्यचित्सहचारिणी । तपस्वी स न पुष्णाति देवि त्वां च गतोऽन्यतः ॥ १२ ॥ तुम न तो बाला हो, न ही वृद्धा, तुम तो सर्वथा तरुणी जान पड़ती हो । पतिके बिना इस वनमें इतनी कठोर तपस्या क्यों कर रही हो ? हे भद्रे ! क्या तुम किसी तपस्वीकी सहचारिणी हो, जो इतनी घोर तपस्यामें निमग्न हो । क्या वह तपस्वी तुम्हारा पोषण नहीं करता अथवा तुम्हें छोड़कर अन्यत्र चला गया है ? ॥ ११-१२ ॥ वद कस्य कुले जाता कः पिता तव का विधा । महासौभाग्यरूपा त्वं वृथा तव तपोरतिः ॥ १३ ॥ तुम किसके कुलमें उत्पन्न हुई हो, तुम्हारे पिता कौन हैं तथा तुम्हारा क्या नाम है, यह बताओ, तुम तो सौभाग्य-शालिनी हो, तपस्या में तुम्हारी आसक्ति तो व्यर्थ ही है ॥ १३ ॥ किं त्वं वेदप्रसूर्लक्ष्मीः किं सुरूपा सरस्वती । एतासु मध्ये का वा त्वं नाहं तर्कितुमुत्सहे ॥ १४ ॥ क्या तुम वेदोंकी जन्मदात्री सावित्री हो या महालक्ष्मी हो अथवा सुन्दर रूप धारण किये हुए सरस्वती हो ! इनमें तुम कौन हो ! मैं अनुमान नहीं कर पा रहा हूँ ॥ १४ ॥ पार्वत्युवाच नाहं वेदप्रसूर्विप्र न लक्ष्मीश्च सरस्वती । अहं हिमाचलसुता साम्प्रतं नाम पार्वती ॥ १५ ॥ पार्वती बोलीं-हे विप्र ! न तो मैं सावित्री हूँ. न महालक्ष्मी और न ही सरस्वती ही हूँ । मैं हिमालयकी पुत्री हूँ और मेरा वर्तमान नाम पार्वती है ॥ १५ ॥ पुरा दक्षसुता जाता सती नामान्यजन्मनि । योगेन त्यक्तदेहाऽहं यत्पित्रा निन्दितः पतिः ॥ १६ ॥ अत्र जन्मनि सम्प्राप्तः शिवोऽपि विधिवैभवात् । मां त्यक्त्वा भस्मसात्कृत्य मन्मथं स जगाम ह ॥ १७ ॥ प्रयाते शंकरे तापोद्विजिताहं पितुर्गृहात् । आगता तपसे विप्र सुदृढा स्वर्णदीतटे ॥ १८ ॥ पूर्वजन्ममें मैं दक्षकी कन्या थी, उस समय मेरा नाम सती था । मेरे पिताने मेरे पतिकी निन्दा की थी, इसलिये मैंने [योगमार्गका अवलम्बनकर] अपना शरीर त्याग दिया था । मैंने इस जन्ममें भी भाग्यवश शिवजीको ही प्राप्त किया, परंतु वे कामदेवको जलाकर मुझे छोड़कर चले गये । हे विप्र ! शंकरजीके चले जानेपर मैं कष्टसे उद्विग्न हो गयी और तपके लिये दृढ़ होकर पिताके घरसे गंगाके तटपर चली आयी ॥ १६-१८ ॥ कृत्वा तपः कठोरं च सुचिरं प्राणवल्लभम् । न प्राप्याग्नौ विविक्षन्ती त्वां दृष्ट्वा संस्थिता क्षणम् ॥ १९ ॥ बहुत समयतक कठोर तपस्या करनेके बाद भी मेरे प्राणवल्लभ सदाशिव मुझे प्राप्त नहीं हुए. इस कारण मैं अग्निमें प्रवेश करना चाहती थी, किंतु आपको देखकर क्षणमात्रके लिये रुक गयी ॥ १९ ॥ गच्छ त्वं प्रविशाम्यग्नौ शिवेनाङ्गीकृता न हि । यत्र यत्र जनुर्लप्स्ये वरिष्यामि शिवं वरम् ॥ २० ॥ अब आप जाइये । शिवजीने मुझे अंगीकार नहीं किया, इसलिये मैं अब अग्निमें प्रवेश करूंगी । मैं जहाँ-जहाँ जन्म लूँगी, वहाँ भी शिवको ही वररूपमें प्राप्त करूंगी ॥ २० ॥ ब्रह्मोवाच इत्युक्त्वा पार्वती वह्नौ तत्पुरः प्रविवेश सा । निषिध्यमाना पुरतो ब्राह्मणेन पुनः पुनः ॥ २१ ॥ वह्निप्रवेशं कुर्वत्याः पार्वत्यास्तत्प्रभावतः । बभूव तत्क्षणं सद्यो वह्नि श्चन्दनपङ्कवत् ॥ २२ ॥ क्षणं तदन्तरे स्थित्वा ह्युत्पतन्ती दिवं द्विजः । पुनः पप्रच्छ सहसा विहसन्सुतनुं शिवः ॥ २३ ॥ ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार कहकर पार्वती ब्रह्मचारीद्वारा बारम्बार निषेध करनेपर भी अग्निमें प्रवेश कर गयीं । पार्वतीके अग्निमें प्रवेश करते ही उनकी तपस्याके प्रभावसे वह अग्नि उसी समय शीघ्र ही चन्दनके समान शीतल हो गयी । क्षणभर अग्निमें रहनेके बाद ज्यों ही वे द्युलोक जानेको उद्यत हुईं, तब [विप्ररूप] शिव हँसते हुए उन सुन्दरांगीसे सहसा पूछने लगे- ॥ २१-२३ ॥ द्विज उवाच अहो तपस्ते किं भद्रे न बुद्धं किञ्चिदेव हि । न दग्धो वह्निना देहो न च प्राप्तं मनीषितम् ॥ २४ ॥ द्विज बोले-हे भद्रे ! तुम्हारी यह कैसी तपस्या है ? मुझे तो तुम्हारी इस तपस्याका कुछ भी फल नहीं जान पड़ता । इस अग्निने तुम्हारे शरीरको भी नहीं जलाया और तुम्हारा मनोरथ भी प्राप्त नहीं हुआ ॥ २४ ॥ अतः सत्यं निकामं वै वद देवि मनोरथम् । ममाग्रे विप्रवर्यस्य सर्वानन्दप्रदस्य हि ॥ २५ ॥ यथाविधि त्वया देवि कीर्त्यतां सर्वथात्मना । तस्मान्मैत्री च सञ्जाता कार्यं गोप्यं त्वया न हि ॥ २६ ॥ इसलिये हे देवि ! सब प्रकारका आनन्द प्रदान करनेवाले मुझ विप्रवरके सामने तुम अपना मनोरथ ठीकसे कहो, हे देवि ! तुम पूर्णरूपसे इस बातको यथाविधि कह दो । [परस्पर बातचीतसे] हमारीतुम्हारी मित्रता हो गयी, अतः तुम्हें इस बातको गोपनीय नहीं रखना चाहिये ॥ २५-२६ ॥ किमिच्छसि वरं देवि प्रष्टुमिच्छाम्यतः परम् । त्वयेव तदसौ देवि फलं सर्वं प्रदृश्यते ॥ २७ ॥ हे देवि ! इसके पश्चात् मैं पूछना चाहता हूँ कि तुम कौन सा वरदान चाहती हो ? हे देवि ! मुझे सारे वरदानका फल तुम्हींमें दिखायी पड़ रहा है ॥ २७ ॥ परार्थे च तपश्चेद्वै तिष्ठेत्तु तप एव तत् । रत्नं हस्ते समादाय हित्वा काचस्तु सञ्चितः ॥ २८ ॥ यह तपस्या यदि तुमने दूसरेके लिये की है, तो वह सारा-का-सारा तुम्हारा तप व्यर्थ हो गया और तुमने हाथमें रत्नको लेकरके उसे खोकर पुन: काँच धारण किया ॥ २८ ॥ ईदृशं तव सौन्दर्यं कथं व्यर्थीकृतं त्वया । हित्वा वस्त्राण्यनेकानि चर्मादि च धृतं त्वया ॥ २९ ॥ तत्सर्वं कारणं ब्रूहि तपसस्त्वस्य सत्यतः । तच्छ्रुत्वा विप्रवर्योऽहं यथा हर्षमवाप्नुयाम् ॥ ३० ॥ इस प्रकारकी अपनी सुन्दरता तुमने व्यर्थ क्यों कर दी ? अनेक प्रकारके वस्त्र त्यागकर तुमने यह मृगचर्म क्यों धारण किया ? इसलिये तुम इस तपस्याका सारा कारण सत्य-सत्य बताओ, जिससे कि उसे सुनकर ब्राह्माणों में श्रेष्ठ मैं प्रसन्नता प्राप्त करूँ ॥ २९-३० ॥ ब्रह्मोवाच इति पृष्टा तदा तेन सखीं प्रैरयताम्बिका । तन्मुखेनैव तत्सर्वं कथयामास सुव्रता ॥ ३१ ॥ ब्रह्माजी बोले-जब इस प्रकार उस ब्राह्मणने पार्वतीसे पूछा, तब उन सुव्रताने अपनी सखीको प्रेरित किया और उसके मुखसे सारा वृत्तान्त कहलवाया ॥ ३१ ॥ तया च प्रेरिता तत्र पार्वत्या विजयाभिधा । प्राणप्रिया सुव्रतज्ञा सखी जटिलमब्रवीत् ॥ ३२ ॥ तदनन्तर उस पार्वतीसे प्रेरित होकर पार्वतीको प्राणोंके समान प्रिय तथा उत्तम व्रतको जाननेवाली विजया नामकी सखी उस ब्रह्मचारीसे कहने लगी- ॥ ३२ ॥ सख्युवाच शृणु साधो प्रवक्ष्यामि पार्वतीचरितं परम् । हेतुं च तपसः सर्वं यदि त्वं श्रोतुमिच्छसि ॥ ३३ ॥ सखी बोली-हे साधो ! यदि आप इस पार्वतीका श्रेष्ठ चरित्र एवं इसकी तपस्याका समस्त कारण जानना चाहते हैं, तो मैं उसे कहूँगी, आप सुनें ॥ ३३ ॥ सखा मे गिरिराजस्य सुतेयं हिमभूभृतः । ख्याता वै पार्वती नाम्ना सा कालीति च मेनका ॥ ३४ ॥ यह मेरी सखी पर्वतराज हिमालयकी पुत्री है और पार्वती नामसे प्रसिद्ध है । इसकी माता मेनका है ॥ ३४ ॥ ऊढेयं न च केनापि न वाञ्छति शिवात्परम् । त्रीणि वर्षसहस्राणि तपश्चरणसाधिनी ॥ ३५ ॥ तदर्थं मेऽनया सख्या प्रारब्धं तप ईदृशम् । तदत्र कारणं वक्ष्ये शृणु साधो द्विजोत्तम ॥ ३६ ॥ हित्वेन्द्रप्रमुखान्देवान् हरिं ब्रह्माणमेव च । पतिं पिनाकपाणिं वै प्राप्तुमिच्छति पार्वती ॥ ३७ ॥ अभीतक इसका विवाह किसीके साथ नहीं हुआ है, यह शिवजीको छोड़कर दूसरेको अपना पति नहीं बनाना चाहती । यह तीन हजार वर्षसे तपस्या कर रही है । हे साधो ! हे द्विजोत्तम ! उन्हींके लिये मेरी सखीने ऐसा तप आरम्भ किया है, इसका भी कारण मैं आपसे कहती हूँ आप सुनें । यह पार्वती इन्द्रादि प्रमुख देवताओं एवं ब्रह्मा, विष्णु आदिको छोड़कर केवल पिनाकपाणि शंकरको ही पतिरूपमें प्राप्त करनेकी इच्छा करती है ॥ ३५-३७ ॥ इयं सखी मदीया वै वृक्षानारोपयत्पुरा । तेषु सर्वेषु सञ्जातं फलपुष्पादिकं द्विज ॥ ३८ ॥ हे द्विज ! तपस्या प्रारम्भ करनेके पूर्व मेरी सखीने जिन वृक्षोंको लगाया था, उन सबमें फूल, फल आदि आ गये हैं [अतः प्रतीत होता है कि मेरी सखीके मनोरथ पूर्ण होनेका समय आ गया है । ] ॥ ३८ ॥ रूपसार्थाय जनककुलालङ्करणाय च । समुद्दिश्य महेशानं कामस्यानुग्रहाय च ॥ ३९ ॥ मत्सखी चादराद्देशात्तपस्तपति दारुणम् । मनोरथः कुतस्तस्या न फलिष्यति तापस ॥ ४० ॥ यह मेरी सखी नारदजीके उपदेशानुसार अपने रूपको सार्थक करनेके लिये, अपने पिताके कुलको अलंकृत करनेके लिये और कामदेवपर अनुग्रह करनेके लिये महेश्वरके उद्देश्यसे कठिन तप कर रही है, हे तापस ! क्या इसका मनोरथ सफल नहीं होगा ? ॥ ३९-४० ॥ यत्ते पृष्टं द्विजश्रेष्ठ मत्सख्या मनसीप्सितम् । मया ख्यातं च तत्प्रीत्या किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि ॥ ४१ ॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! आपने मेरी सखीके जिस मनोरथको पूछा था, उसे मैंने प्रीतिपूर्वक कह दिया, अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ४१ ॥ ब्रह्मोवाच इत्येवं वचनं श्रुत्वा विजयाया यथार्थतः । मुने स जटिलो रुद्रो विहसन्वाक्यमब्रवीत् ॥ ४२ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! विजयाकी इस यथार्थ बातको सुनकर वे जटाधारी रुद्र हँसते हुए यह वचन कहने लगे- ॥ ४२ ॥ जटिल उवाच सख्येदं कथितं तत्र परिहासोनुमीयते । यथार्थं चेत्तदा देवी स्वमुखेनाभिभाषताम् ॥ ४३ ॥ जटिल बोले-सखीके द्वारा जो यह कहा गया है, वह तो परिहास मालूम पड़ता है, यदि यह यथार्थ है, तो देवी अपने मुखसे कहें ॥ ४३ ॥ ब्रह्मोवाच इत्युक्ते च तदा तेन जटिलेन द्विजन्मना । उवाच पार्वती देवी स्वमुखेनैव तं द्विजम् ॥ ४४ ॥ ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार जब जटाधारी ब्राह्मणने कहा, तब पार्वतीदेवी अपने मुखसे ही उन ब्राह्मणसे कहने लगी ॥ ४४ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखण्डे शिवाजटिलसंवादो नाम षड्विंशोध्यायः ॥ २६ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें शिवाजटिलसंवादवर्णन नामक छब्बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २६ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |