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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे

पञ्चविंशोऽध्यायः ॥

सप्तर्षिकृता पार्वतीपरीक्षा -
भगवान् शंकरकी आज्ञासे सप्तर्षियोंद्वारा पार्वतीके शिवविषयक अनुरागकी परीक्षा करना और वह वृत्तान्त भगवान् शिवको बताकर स्वर्गलोक जाना


नारद उवाच
गतेषु तेषु देवेषु विधि विष्ण्वादिकेषु च ।
सर्वेषु मुनिषु प्रीत्या किं बभूव ततः परम् ॥ १ ॥
किं कृतं शम्भुना तात वरं दातुं समागतः ।
कियत्कालेन च कथं तद्वद प्रीतिमावह ॥ २ ॥
नारदजी बोले-[हे ब्रह्मन् !] उन ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं तथा सभी मुनियों के प्रेमपूर्वक चले जानेपर फिर क्या हुआ ? हे तात ! शिवने क्या किया और फिर कितने समयके बाद तथा किस प्रकार वर देनेके लिये आये, उसे बताइये और प्रीति प्रदान कीजिये ॥ १-२ ॥

ब्रह्मोवाच
गतेषु तेषु देवेषु ब्रह्मादिषु निजाश्रमम् ।
तत्तपःसु परीक्षार्थं समाधिस्थोऽभवद्‌भवः ॥ ३ ॥
ब्रह्माजी बोले-उन ब्रह्मा आदि देवताओंके अपने अपने आश्रमोंको चले जानेपर पार्वतीकी तपस्याकी परीक्षा करनेके लिये शिवजी समाधिस्थ हो गये ॥ ३ ॥

स्वात्मानमात्मना कृत्वा स्वात्मन्येव व्यचिन्तयत् ।
परात्परतरं स्वस्थं निर्माय निरवग्रहम् ॥ ४ ॥
उन्होंने अपने आत्मासे ही परमात्मामें परात्पर, निरवग्रह, आत्मस्थित ज्योतिको धारणकर विचार किया ॥ ४ ॥

तद्वस्तुभूतो भगवानीश्वरो वृषभध्वजः ।
अविज्ञातगतिःसूतिःस हरः परमेश्वरः ॥ ५ ॥
वस्तुत: वे शिव ही भगवान्, ईश्वर, वृषभध्वज, अविज्ञातगति, जगत्स्रष्टा, हर एवं परमेश्वर हैं ॥ ५ ॥

ब्रह्मोवाच
गिरिजा हि तदा तात तताप परमं तपः ।
तपसा तेन रुद्रोऽपि परं विस्मयमागतः ॥ ६ ॥
समाधेश्चलितः सोऽभूद्‌भक्ताधीनोऽपि नान्यथा ।
वसिष्ठादीन्मुनीन्सप्त सस्मार सूतिकृद्धरः ॥ ७ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे तात ! उसी समय पार्वतीने भी महाघोर तपस्या प्रारम्भ की, उस तपसे शंकर भी अत्यन्त विस्मित हो गये । भक्तोंके अधीन रहनेवाले वे समाधिसे विचलित हो गये । तब उन जगत्सष्टा हरने वसिष्ठादि सप्तर्षियोंका स्मरण किया ॥ ६-७ ॥

सप्तापि मुनयः शीघ्रमाययुःस्मृति मात्रतः ।
प्रसन्नवदनाः सर्वे वर्णयन्तो विधिं बहु ॥ ८ ॥
वे सभी सप्तर्षि भी शिवजीके स्मरण करते ही प्रसन्नमुख होकर अपने भाग्यकी बहुत सराहना करते हुए वहाँ शीघ्र ही उपस्थित हो गये । उन महेश्वरको प्रणाम करके वे हर्षपूर्वक गद्‌गद वाणीसे हाथ जोड़कर तथा सिर झुकाकर स्तुति करने लगे । ८-९ ॥

प्रणम्य तं महेशानं तुष्टुवुर्हर्षनिर्भराः ।
वाण्या गद्‌गदया बद्धकरा विनतकन्धराः ॥ ९ ॥
सप्तर्षय ऊचुः
देवदेव महादेव करुणासागर प्रभो ।
जाता वयं सुधन्या हि त्वया यदधुना स्मृताः ॥ १० ॥
सप्तर्षि बोले-हे देवदेव ! हे महादेव ! हे करुणासागर । हे प्रभो ! हमलोग धन्य हो गये, जो आपने आज हमलोगोंका स्मरण किया ॥ १० ॥

किमर्थं संस्मृता वाथ शासनं देहि तद्धि नः ।
स्वदाससदृशीं स्वामिन्कृपां कुरु नमोऽस्तु ते ॥ ११ ॥
हे नाथ ! आपने किसलिये स्मरण किया है, हमलोगोंको आज्ञा दीजिये । हे स्वामिन् ! अपने दासके समान ही हमलोगोंपर कृपा कीजिये, आपको प्रणाम है ॥ ११ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्य नीनां तु विज्ञप्तिं करुणानिधिः ।
प्रोवाच विहसन्प्रीत्या प्रोत्फुल्लनयनाम्बुजः ॥ १२ ॥
ब्रह्माजी बोले-मुनियोंकी इस विज्ञप्तिको सुनकर विकसित कमलके समान नेत्रोंवाले वे करुणानिधि हँसते हुए प्रेमपूर्वक कहने लगे- ॥ १२ ॥

महेश्वर उवाच
हे सप्तमुनयस्ताताः शृणुतारं वचो मम ।
अस्मद्धितकरा यूयं सर्वज्ञानविचक्षणाः ॥ १३ ॥
महेश्वर बोले-हे सप्तर्षिगण ! आपलोग सभी प्रकारके ज्ञानमें विचक्षण हैं तथा मेरा हित करनेवाले हैं । हे तात ! मेरी बात शीघ्र सुनिये ॥ १३ ॥

तपश्चरति देवेशी पार्वती गिरिजाऽधुना ।
गौरीशिखरसञ्ज्ञे हि पर्वते दृढमानसा ॥ १४ ॥
इस समय गौरीशिखर नामक पर्वतपर देवेशी पार्वती गिरिजा अत्यन्त दृढ़ चित्तसे तपस्या कर रही है ॥ १४ ॥

मां पतिं प्राप्तुकामा हि सा सखीसेविता द्विजाः ।
सर्वान्कामान्विहायान्यान्परं निश्चयमागता ॥ १५ ॥
हे ऋषियो ! सखियोंसे सेवित उसने अपनी समस्त कामनाओंका त्यागकर बड़ी दृढ़ताके साथ मुझे अपना पति बनानेके लिये निश्चय कर लिया है ॥ १५ ॥

तत्र गच्छत यूयं मच्छासनान्मुनिसत्तमाः ।
परीक्षां दृढतायास्तत्कुरुत प्रेमचेतसः ॥ १६ ॥
हे मुनिश्रेष्ठो ! आपलोग मेरी आज्ञासे वहाँ जाइये और उसके प्रेम एवं दृढ़ताकी परीक्षा कीजिये ॥ १६ ॥

सर्वथा छलसंयुक्तं वचनीयं वचश्च वः ।
न संशयः प्रकर्तव्यः शासनान्मम सुव्रताः ॥ १७ ॥
हे सुव्रतो ! मेरी आज्ञा है कि आपलोग उससे सर्वथा छलयुक्त वचन कहिये, इसमें संशय न कीजिये ॥ १७ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्याज्ञप्ताश्च मुनयो जग्मुस्तत्र द्रुतं हि ते ।
यत्र राजति सा दीप्ता जगन्माता नगात्मजा ॥ १८ ॥
तत्र दृष्ट्‍वा शिवा साक्षात्तपःसिद्धिरिवापरा ।
मूर्ता परमतेजस्का विलसन्ती सुतेजसा ॥ १९ ॥
ब्रह्माजी बोले-शिवजीकी आज्ञा प्राप्तकर मुनिगण उसी समय उस स्थानपर गये, जहाँ जगन्माता पार्वती तपस्या कर रही थीं । उन लोगोंने वहाँ साक्षात् दूसरी तपःसिद्धिके समान, तेजसे देदीप्यमान और परमतेजकी मूर्तिस्वरूपा पार्वतीको देखा ॥ १८-१९ ॥

हृदा प्रणम्य तां ते तु ऋषयः सप्त सुव्रताः ।
सन्नता वचनं प्रोचुः पूजिताश्च विशेषतः ॥ २० ॥
हे सुव्रतो ! उन सप्तर्षियोंने हृदयसे पार्वतीको प्रणाम करके उनसे विशेष रूपसे सत्कृत हो विनम्र होकर यह वचन कहा- ॥ २० ॥

ऋषय ऊचुः
शृणु शैलसुते देवी किमर्थं तप्यते तपः ।
इच्छसि त्वं सुरं कं च किं फलं तद्वदाधुना ॥ २१ ॥
ऋषिगण बोले-हे शैलसुते ! देवि ! सुनो, तुम किस उद्देश्यसे तपस्या कर रही हो ? तुम किस देवताको प्रसन्न करना चाहती हो और क्या फल चाहती हो, उसे इस समय बताओ ॥ २१ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्ता सा शिवा देवी गिरीन्द्रतनया द्विजैः ।
प्रत्युवाच वचःसत्यं सुगूढमपि तत्पुरः ॥ २२ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] जब उन सप्तर्षियोंने इस प्रकार देवी पार्वतीसे कहा, तब वे सत्य तथा अत्यन्त गोपनीय वचन उनके सामने कहने लगीं- ॥ २२ ॥

पार्वत्युवाच
मुनीश्वराःसंशृणुत मद्वाक्यं प्रीतितो हृदा ।
ब्रवीमि स्वविचारं वै चिन्तितो यो धिया स्वया ॥ २३ ॥
पार्वती बोलीं-हे मुनीश्वरो ! मैंने अपनी बुद्धिसे जो विचार किया है, उसे आपके समक्ष प्रकट करती हूँ । आपलोग प्रेमपूर्वक मेरी बात सुनें ॥ २३ ॥

करिष्यथ प्रहासं मे श्रुत्वा वाचो ह्यसम्भवाः ।
सङ्‌कोचो वर्णनाद्विप्रा भवत्येव करोमि किम् ॥ २४ ॥
हे विप्रो ! आपलोग मेरी असम्भव बात सुनकर परिहास करेंगे, इसलिये उसे कहनेमें भी मुझे संकोच हो रहा है, पर मैं क्या करूँ ? आपलोगोंके पूछनेपर कह रही हूँ ॥ २४ ॥

इदं मनो हि सुदृढमवशं परकर्मकृत् ।
जलोपरि महाभित्तिं चिकीर्षति महोन्नताम् ॥ २५ ॥
सुरर्षेः शासनं प्राप्य करोमि सुदृढं तपः ।
रुद्रः पतिर्भवेन्मे हि विधायेति मनोरथम् ॥ २६ ॥
अपक्षो मन्मनः पक्षी व्योम्नि उड्डीयते हठात् ।
तदाशां शंकरस्वामी पिपर्त्तु करुणानिधिः ॥ २७ ॥
मेरा यह मन बड़ी दृढ़तासे हठपूर्वक दूसरेके वशमें हो गया है और जलके ऊपर बहुत ऊँची दीवार उठाना चाहता है । सदाशिव ही पति हों-ऐसा मनोरथ लेकर देवर्षि नारदकी आज्ञा प्राप्त करके मैं अति कठोर व्रत कर रही हूँ । इसमें मेरे मनरूपी पक्षीको यद्यपि पंख नहीं हैं, फिर भी यह हठपूर्वक आकाशमें उड़ना चाहता है । करुणासागर स्वामी शंकर मेरी उस आशाको पूर्ण करें ॥ २५-२७ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तस्या विहस्य मुनयश्च ते ।
संमान्य गिरिजां प्रीत्या प्रोचुश्छलवचो मृषा ॥ २८ ॥
ब्रह्माजी बोले-उनकी यह बात सुनकर वे मुनि गिरिजाका सम्मान करके हँसकर प्रेमपूर्वक मिथ्या तथा छलयुक्त वचन कहने लगे ॥ २८ ॥

ऋषय ऊचुः
न ज्ञातं तस्य चरितं वृथापण्डितमानिनः ।
देवर्षेः क्रूरमनसः सुज्ञा भूत्वाप्यगात्मजे ॥ २९ ॥
ऋषिगण बोले-हे पर्वतराजपुत्रि ! बुद्धिमती होकर भी तुमने व्यर्थ ही अपनेको पण्डित माननेवाले तथा क्रूर चित्तवाले उस देवर्षि नारदका चरित्र नहीं जाना है ॥ २९ ॥

नारदः कूटवादी च परचित्तप्रमंथकः ।
तस्य वार्त्ताश्रवणतो हानिर्भवति सर्वथा ॥ ३० ॥
तत्र त्वं शृणु सद्‌बुध्या चेतिहासं सुशोभितम् ।
क्रमात्त्वां बोधयन्तो हि प्रीत्या तमुपधारय ॥ ३१ ॥
वह नारद तो मिथ्यावादी और दूसरेके चित्तको भुलावेमें डालनेवाला है, उसकी बात सुननेसे सर्वथा हानि ही होती है । उस नारदके सम्बन्धमें एक सुन्दर इतिहास हमलोग कह रहे हैं, उसको तुम उत्तम बुद्धिसे सुनो और प्रेमपूर्वक उसे अपने हदयमें धारण करो ॥ ३०-३१ ॥

ब्रह्मपुत्रो हि यो दक्षःसुषुवे पितुराज्ञया ।
स्वपत्न्यामयुतं पुत्रानयुङ्‌क्त तपसि प्रियान् ॥ ३२ ॥
ब्रह्माके पुत्र दक्षने अपने पिताकी आज्ञासे अपनी पत्नीसे दस हजार प्रिय पुत्र उत्पन्न किये और उनको तपस्यामें नियुक्त किया । तपस्याके लिये प्रतिज्ञा करके वे दक्षपुत्र पश्चिम दिशामें नारायण सरोवरपर गये, नारद भी वहाँ पहुँच गये । उन नारदने उन्हें मिथ्या उपदेश देकर विरक्त कर दिया और उनकी आज्ञासे वे पुनः अपने पिताके घर लौटकर नहीं आये ॥ ३२-३४ ॥

ते सुताः पश्चिमदिशि नारायणसरो गताः ।
तपोऽर्थे ते प्रतिज्ञाय नारदस्तत्र वै ययौ ॥ ३३ ॥
कूटोपदेशमाश्राव्य तत्र तान्नारदो मुनिः ।
तदाज्ञया च ते सर्वे पितुर्न गृहमाययुः ॥ ३४ ॥
तच्छ्रुत्वा कुपितो दक्षः पित्राश्वासितमानसः ।
उत्पाद्य पुत्रान्प्रायुङ्‌क्त सहस्रप्रमितांस्ततः ॥ ३५ ॥
तेऽपि तत्र गताः पुत्रास्तपोर्थं पितुराज्ञया ।
नारदोऽपि ययौ तत्र पुनस्तत्स्वोपदेशकृत् ॥ ३६ ॥
यह समाचार सुनकर दक्ष अत्यन्त व्याकुल हो उठे । ब्रह्मदेवने उन्हें धैर्य प्रदान किया । तदनन्तर उन्होंने पुनः एक हजार पुत्र उत्पन्न किये और उन पुत्रोंको भी तपकार्यमें नियुक्त किया । वे भी अपने पिताकी आज्ञासे वहीं तप करनेके लिये गये । पुनः नारद वहाँ पहुँच गये और उन्हें भी अपना उपदेश दिया ॥ ३५-३६ ॥

ददौ तदुपदेशं ते तेभ्यो भ्रातृपथं ययुः ।
आययुर्न पितुर्गेहं भिक्षुवृत्तिरताश्च ते ॥ ३७ ॥
इत्थं नारदसद्वृत्तिर्विश्रुत्ता शैलकन्यके ।
अन्यां शृणु हि तद्वृत्तिं वैराग्यकरणीं नृणाम् ॥ ३८ ॥
[उसका उपदेश मानकर] वे भी अपने भाइयोंके मार्गपर चले गये और भिक्षावृत्तिमें संलग्न हो गये । वे पुनः अपने पिताके घर नहीं आये । नारदका यह चरित्र है, जो जगत्में प्रसिद्ध है । हे शैलपुत्रि ! मनुष्योंको विरक्त करनेवाले उनके अन्य चरित्रको भी सुनो ॥ ३७-३८ ॥

विद्याधरश्चित्रकेतुर्यो बभूव पुराऽकरोत् ।
स्वोपदेशमयं दत्त्वा तस्मै शून्यं च तद्‌गृहम् ॥ ३९ ॥
प्रह्लादाय स्वोपदेशान्हिरण्यकशिपोः परम् ।
दत्त्वा दुखं ददौ चायं परबुद्धिप्रभेदकः ॥ ४० ॥
पूर्व समयमें एक विद्याधर था, जो चित्रकेतु नामका राजा हुआ था । उसको भी इसी नारदने उपदेश देकर उसका घर सूना कर दिया । प्रह्लादको उपदेश देकर हिरण्यकशिपुसे नाना प्रकारके दुःख दिलवाये । इस प्रकार वह [उलटा उपदेश देकर] दूसरोंको बुद्धि फेर देता है ॥ ३९-४० ॥

मुनिना निजविद्या यच्छ्राविता कर्णरोचना ।
स स्वगेहं विहायाशु भिक्षां चरति प्रायशः ॥ ४१ ॥
इस नारदने कानोंको प्रिय लगनेवाली अपनी विद्या जिन-जिन लोगोंको सुनायी, वे शीघ्र ही प्रायः अपना घर छोड़कर भिक्षा माँगने लगे ॥ ४१ ॥

नारदो मलिनात्मा हि सर्वदो ज्ज्वलदेहवान् ।
जानीमस्तं विशेषेण वयं तत्सहवासिनः ॥ ४२ ॥
वे नारद यद्यपि देखनेमें बड़े सज्जन लगते हैं, किंतु उनका मन मलिन है, हमलोग उनके साथ रहनेके कारण उनका चरित्र विशेषरूपसे जानते हैं ॥ ४२ ॥

बकं साधुं वर्णयन्ति न मत्स्यानत्ति सर्वथा ।
सहवासी विजानीयाच्चरित्रं सहवासिनाम् ॥ ४३ ॥
बगुलेके श्वेत वर्ण शरीरको देखकर सब लोग उसे साधु कहते हैं । फिर भी क्या वह मछली नहीं खाता । साथमें रहनेवाला ही साथ रहनेवालोंका [वास्तविक] चरित्र जानता है ॥ ४३ ॥

लब्ध्वा तदुपदेशं हि त्वमपि प्राज्ञसंमता ।
वृथैव मूर्खीभूता तु तपश्चरसि दुष्करम् ॥ ४४ ॥
तुम तो परम बुद्धिमती हो, फिर कैसे उनके उपदेशमें फैसकर मूखोंकी तरह कठिन तपस्यामें लग गयी ! ॥ ४४ ॥

यदर्थमीदृशं बाले करोषि विपुलं तपः ।
सदोदासी निर्विकारो मदनारिर्न संशयः ॥ ४५ ॥
हे बाले ! यह परम दुःखकी बात है कि तुम जिसे अपना पति बनानेके लिये इतना कठिन तप कर रही हो, वह कामदेवका शत्रु है और उदासीन तथा निर्विकार है ॥ ४५ ॥

अमंगलवपुर्धारी निर्लज्जोऽसदनोऽकुली ।
कुवेषी प्रेतभूतादिसङ्‌गी नग्नौ हि शूलभृत् ॥ ४६ ॥
वह अमंगल वेष धारण करनेवाला शिव निर्लज है, उसके घरका तथा कुलका आज तक किसीको पता नहीं है, वह कुवेषी, भूत एवं प्रेतादिका साथ करनेवाला, त्रिशूल धारण करनेवाला और नग्न रहनेवाला है ॥ ४६ ॥

स धूर्तस्तव विज्ञानं विनाश्य निजमायया ।
मोहयामास सद्युक्त्या कारयामास वै तपः ॥ ४७ ॥
उस धूर्त नारदने अपनी मायासे तुम्हारे ज्ञानको नष्ट करके बड़ी युक्तिसे तुम्हें मोहित कर दिया और तुमसे तपस्या करवायी ॥ ४७ ॥

ईदृशं हि वरं लब्ध्वा किं सुखं सम्भविष्यति ।
विचारं कुरु देवेशि त्वमेव गिरिजात्मजे ॥ ४६ ॥
ऐसे वरको प्राप्तकर तुम्हें क्या सुख मिलेगा ? हे देवेशि ! हे पार्वति ! तुम्ही विचार करो ॥ ४८ ॥

प्रथमं दक्षजां साध्वी विवाह्य सुधिया सतीम् ।
निर्वाहं कृतवान्नैव मूढः किञ्चिद्दिनानि हि ॥ ४९ ॥
तां तथैव स वै दोषं दत्त्वात्याक्षीत्स्वयं प्रभुः ।
ध्यायन्स्वरूपमकलमशोकमरमत्सुखी ॥ ५० ॥
एकलः परनिर्वाणो ह्यसङ्‌गोऽद्वय एव च ।
तेन नार्याः कथं देवि निर्वाहः सम्भविष्यति ॥ ५१ ॥
मूढ़ शिवने सद्‌बुद्धिसे दक्षकन्या सतीसे पहले विवाह करके कुछ दिन भी उसका निर्वाह नहीं किया और सतीको ही दोष लगाकर उसका स्वयं त्याग कर दिया । वे तो अपने अकल, अशोक स्वरूपका ध्यान करते हुए सुखी होकर रमण करते रहे । वे तो अकेले, परनिर्वाण, असंग तथा अद्वैत हैं, हे देवि ! उनके साथ स्त्रीका निर्वाह किस प्रकार सम्भव होगा ? ॥ ४९-५१ ॥

अद्यापि शासनं प्राप्य गृहमायाहि दुर्मतिम् ।
त्यजास्माकं महाभागे भविष्यति च शं तव ॥ ५२ ॥
अब भी तुम हमारी बात मानकर घर चली जाओ और अपनी दुर्बुद्धिका त्याग कर दो । हे महाभागे ! [ऐसा करनेसे] तुम्हारा कल्याण होगा ॥ ५२ ॥

त्वद्योग्यो हि वरो विष्णुःसर्वसद्‌गुणवान्प्रभुः ।
वैकुण्ठवासी लक्ष्मीशो नानाक्रीडाविशारदः ॥ ५३ ॥
तुम्हारे योग्य वर विष्णु हैं, सभी सद्‌गुणोंसे सम्पन्न वे प्रभु वैकुण्ठमें निवास करनेवाले, लक्ष्मीके ईश और नाना प्रकारकी क्रीड़ाओंमें कुशल हैं ॥ ५३ ॥

तेन ते कारयिष्यामो विवाहं सर्वसौख्यदम् ।
इतीदृशं त्यज हठं सुखिता भव पार्वति ॥ ५४ ॥
हमलोग तुम्हारा विवाह उन विष्णुसे करायेंगे, वह विवाह सब प्रकारके सुखोंको देनेवाला है । हे पार्वति ! तुम इस प्रकारके हठका परित्याग करो और सुखी हो जाओ ॥ ५४ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्येदं वचनं श्रुत्वा पार्वती जगदम्बिका ।
विहस्य च पुनः प्राह मुनीन्ज्ञान विशारदान् ॥ ५५ ॥
ब्रह्माजी बोले-इस वचनको सुनकर जगदम्बा पार्वती हँसकर उन ज्ञानविशारद मुनियोंसे पुनः कहने लगों- ॥ ५५ ॥

पार्वत्युवाच
सत्यं भवद्‌भिः कथितं स्वज्ञानेन मुनीश्वराः ।
परन्तु मे हठो नैव मुक्तो भवति वै द्विजाः ॥ ५६ ॥
पार्वती बोलीं-हे मुनिगण ! आपलोग यद्यपि अपने विचारसे सत्य कह रहे हैं, किंतु हे द्विजो ! मेरा हठ नहीं छूटेगा ॥ ५६ ॥

स्वतनोः शैलजातत्वात्काठिन्यं सहजं स्थितम् ।
इत्थं विचार्य सुधिया मां निषेद्धुं न चार्हथ ॥ ५७ ॥
पर्वतसे उत्पन्न होनेके कारण मेरे इस शरीरमें काठिन्य एवं हठका होना स्वाभाविक है, ऐसा अपनी बुद्धिसे विचारकर हे ब्राह्मणो ! मुझे तपस्यासे मना मत कीजिये ॥ ५७ ॥

सुरर्षेर्वचनं पथ्यं त्यक्ष्ये नैव कदाचन ।
गुरूणां वचनं पथ्यमिति वेदविदो विदुः ॥ ५८ ॥
मेरे लिये नारदजीका वचन सर्वथा हितकर है, मैं उनका परित्याग कदापि नहीं करूंगी । वेदवेत्ता विद्वान् कहते हैं कि गुरुका वचन कल्याणकारी होता है । ५८ ॥

गुरूणां वचनं सत्यमिति येषां दृढा मतिः ।
तेषामिहामुत्र सुखं परमं नासुखं क्वचित् ॥ ५९ ॥
जिन लोगोंने बुद्धिसे यह निश्चित किया है कि गुरुके वचन सर्वदा सत्य हैं, उनको इस लोक तथा परलोकमें सदैव सुख प्राप्त होता है । उन्हें कभी दुःख होता ही नहीं ॥ ५९ ॥

गुरूणां वचनं सत्यमिति यद्धृदये न धीः ।
इहामुत्रापि तेषां हि दुखं न च सुखं क्वचित् ॥ ६० ॥
जिन लोगोंकि हृदयमें यह विचार नहीं है कि गुरुओंका वचन सत्य होता है, उन्हें इस लोक एवं परलोकमें दुःख ही दुःख होता है, उन्हें सुख कभी नहीं होता ॥ ६० ॥

सर्वथा न परित्याज्यं गुरूणां वचनं द्विजाः ।
गृहं वसेद्वा शून्यं स्यान्मे हठः सुखदः सदा ॥ ६१ ॥
हे ब्राह्मणो ! गुरुओंके वचनका किसी प्रकार त्याग नहीं करना चाहिये । चाहे घर बसे अथवा उजड़े-यह हठ मुझे सदा सुख देनेवाला है ॥ ६१ ॥

यद्‌भवद्‌भिः सुभणितं वचनं मुनिसत्तमाः ।
तदन्यथा तद्विवेकं वर्णयामि समासतः ॥ ६२ ॥
हे मुनिसत्तमो ! आपलोगोंने जो वचन कहा है, उस विषयमें मैं संक्षेपमें अपना विचार प्रकट करती हूँ ॥ ६२ ॥

गुणालयो विहारी च विष्णुःसत्यं प्रकीर्तितः ।
सदाशिवोऽगुणः प्रोक्तस्तत्र कारण मुच्यते ॥ ६३ ॥
शिवो ब्रह्माविकारः स भक्तहेतोर्धृताकृतिः ।
प्रभुतां लौकिकीं नैव सन्दर्शयितुमिच्छति ॥ ६४ ॥
अतः परमहंसानां धार्यये सुप्रिया गतिः ।
अवधूतस्वरूपेण परानन्देन शम्भुना ॥ ६५ ॥
आपलोगोंने जो विष्णुको सर्वगुणसम्पन्न, वैकुण्ठमें विहार करनेवाला तथा सदाशिवको निर्गुण एवं निर्विकार कहा है, वह सत्य ही है, इसका कारण मैं आपलोगोंको बताती हूँ । शिव परब्रह्म एवं विकाररहित हैं, वे भक्तोंके लिये ही शरीर धारण करते हैं । वे प्रभु कभी भी सांसारिक प्रभुता दिखानेकी इच्छा नहीं करते । अतः परमानन्द शम्भु अवधूतस्वरूपसे परमहंसोंकी प्रिय गति धारण करते हैं । ६३-६५ ॥

भूषूणादिरुचिर्मायार्लिप्तानां ब्रह्मणो न च ।
स प्रभुर्निर्गुणोऽजो निर्मायोऽलक्ष्यगतिर्विराट् ॥ ६६ ॥
मायामें लिप्त रहनेवालोंको ही भूषणादिमें अभिरुचि होती है, ब्रह्मको किसी प्रकारकी कोई अभिरुचि नहीं होती । वे सदाशिव प्रभु निर्गुण, अज, मायारहित, अलक्ष्यगति एवं विराट् हैं ॥ ६६ ॥

धर्मजात्यादिभिःशम्भुर्नानुगृह्णाति वै द्विजाः ।
गुरोरनुग्रहेणैव शिवं जानामि तत्त्वतः ॥ ६७ ॥
चेच्छिवः स हि मे विप्रा विवाहं न करिष्यति ।
अविवाहा सदाहं स्यां सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥ ६८ ॥
हे द्विजो ! धर्म, जाति आदिके द्वारा ही शम्भुका अनुग्रह नहीं होता है, मैं तो गुरुके अनुग्रहसे ही शिवको तत्त्वपूर्वक जानती हूँ । हे ब्राह्मणो ! यदि शंकर मेरे साथ विवाह नहीं करेंगे, तो मैं सर्वदा अविवाहित रहूँगी, यह मैं सत्य-सत्य कहती हूँ ॥ ६७-६८ ॥

उदयति यदि भानुः पश्चिमे दिग्विभागे
    प्रचलति यदि मेरुः शीततां याति वह्निः ।
विकसति यदि पद्मं पर्वताग्रे शिलायां
    न हि चलति हठो मे सत्यमेतद्‌ब्रवीमि ॥ ६९ ॥
चाहे सूर्य पश्चिम दिशामें उदय हो, सुमेरु चलायमान हो जाय, अग्नि शीतल हो जाय, पर्वतपर कमल खिलने लगें, किंतु मेरा हठ नहीं डिगेगा, यह मैं सत्य कहती हूँ ॥ ६९ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा तान्प्रणम्याशु मुनीन्सा पर्वतात्मजा ।
विरराम शिवं स्मृत्वा निर्विकारेण चेतसा ॥ ७० ॥
ऋषयोऽपीत्थमाज्ञाय गिरिजायाः सुनिश्चयम् ।
प्रोचुर्जयगिरं तत्र ददुश्चाशिषमुत्तमाम् ॥ ७१
अथ प्राणम्य तां देवीं मुनयो हृष्टमानसाः ।
शिवस्थानं द्रुतं जग्मुस्तत्परीक्षाकरा मुने ॥ ७२ ॥
ब्रह्माजी बोले-यह कहकर और उन मुनियोंको प्रणाम करके वे पार्वती विकाररहित चित्तसे शिवजीका स्मरणकर मौन हो गयीं । तदनन्तर ऋषियोंने भी पार्वतीका यह निश्चय जानकर उनकी जय-जयकार की और उन्हें उत्तम आशीर्वाद प्रदान किया । हे मुने ! शिवाकी परीक्षा करनेवाले वे मुनिगण उन देवीको प्रणाम करके प्रसन्नचित्त होकर शीघ्र ही - शिवस्थानको चले गये ॥ ७०-७२ ॥

तत्र गत्वा शिवं सर्वं वृत्तान्तं विनिवेद्य तम् ।
तदाज्ञां समनुप्राप्य स्वर्लोकं जग्मुरादरात् ॥ ७३ ॥
वे लोग वहाँ जाकर शिवको प्रणाम करके उस वृत्तान्तका निवेदनकर उनकी आज्ञा प्राप्त करके आदरपूर्वक स्वर्गलोकको चले गये ॥ ७३ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये
पार्वतीखण्डे सप्तर्षिकृतपरीक्षावर्णनो नाम पञ्चविशोऽध्याय ॥ २५ ॥
॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुजसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें सप्तर्षिकृतपरीक्षावर्णन नामक पच्चीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २५ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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