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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे

अष्टाविंशोऽध्यायः ॥

पार्वत्याः शिवरूपदर्शनम् -
पार्वतीद्वारा परमेश्वर शिवकी महत्ता प्रतिपादित करना और रोषपूर्वक जटाधारी ब्राह्मणको फटकारना, शिवका पार्वतीके समक्ष प्रकट होना


पार्वत्युवाच
एतावद्धि मया ज्ञातं कश्चिदन्योऽयमागतः ।
इदानीं सकलं ज्ञातमवध्यस्त्वं विशेषतः ॥ १ ॥
पार्वतीजी बोलीं-मैं तो यही समझती थी कि यह कोई अन्य ही आया है, किंतु अब मैंने सब कुछ जान लिया है । [क्रोध तो बहुत आ रहा है, किंतु ब्रह्मचारी होनेसे] तुम विशेषरूपसे अवध्य हो ॥ १ ॥

त्वयोक्तं विदितं देव तदलीकं न चान्यथा ।
यदि त्वयोदितं स्याद्वै विरुद्धं नोच्यते त्वया ॥ २ ॥
हे देव ! आपने जो कहा है, उसे मैंने जान लिया, वह सब मिथ्या है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं । यदि आप शिवजीको जानते होते, तो ऐसी विरुद्ध बातें नहीं करते ॥ २ ॥

कदाचिद्दृश्यते तादृक् वेषधारी महेश्वरः ।
स्वलीलया परब्रह्म स्वरागोपात्तविग्रहः ॥ ३ ॥
ब्रह्मचारिस्वरूपेण प्रतारयितुमुद्यतः ।
आगतश्छलसंयुक्तं वचोऽवादीः कुयुक्तितः। ॥ ४ ॥
महेश्वर, जो इस प्रकारका वेष धारण करते हुए देखे जाते हैं, उसका यही कारण है कि वे लीला करनेके लिये ही वैसा वेष धारण करते हैं । आप ब्रह्मचारीका रूप धारणकर मुझे छलना चाहते हैं, इसीलिये कुतर्कसे भरी हुई ऐसी बातें मुझसे कह रहे हैं ॥ ३-४ ॥

शंकरस्य स्वरूपं तु जानामि सुविशेषतः ।
शिवतत्त्वमतो वच्मि सुविचार्य यथार्हतः ॥ ५ ॥
शंकरके स्वरूपको मैं विशेष रूपसे जानती हूँ, इसलिये विचारकर यथार्थ रूपसे शिवतत्त्व कहती हूँ ॥ ५ ॥

वस्तुतो निर्गुणो ब्रह्म सगुणः कारणेन सः ।
कुतो जातिर्भवेत्तस्य निर्गुणस्य गुणात्मनः ॥ ६ ॥
वस्तुत: वे निर्गुण ब्रह्म हैं और कारणवश सगुण हो जाते हैं । जो निर्गुण होकर मायासे सगुणरूप धारण करता है, उसका जन्म किस प्रकारसे सम्भव है ? ॥ ६ ॥

स सर्वासां हि विद्यानामधिष्ठानं सदाशिवः ।
किं तस्य विद्यया कार्यं पूर्णस्य परमात्मनः ॥ ७ ॥
वेदा उच्छ्‍वासरूपेण पुरा दत्ताश्च विष्णवे ।
शम्भुना तेन कल्पादौ तत्समः कोऽस्ति सुप्रभुः ॥ ८ ॥
वे सदाशिव सभी विद्याओंके अधिष्ठान हैं, उन पूर्ण परमात्माको विद्यासे क्या प्रयोजन ? कल्पके आदिमें उन्हीं सदाशिवने सर्वप्रथम विष्णुको उच्चसरूपसे वेद प्रदान किये थे, उनके समान कौन परम प्रभु है ? ॥ ७-८ ॥

सर्वेषामादिभूतस्य वयोमानं कुतस्ततः ।
प्रकृतिस्तु ततो जाता किं शक्तेस्तस्य कारणम् ॥ ९ ॥
जो सबका आदिकारण है, उसकी अवस्थाका प्रमाण कौन कर सकता है । यह प्रकृति तो उन्हींसे उत्पन्न हुई है, फिर उनकी शक्तिका दूसरा कारण क्या हो सकता है ? ॥ ९ ॥

ये भजन्ति च तं प्रीत्या शक्तीशं शंकरं सदा ।
तस्मै शक्तित्रयं शम्भुः स ददाति सदाव्ययम् ॥ १० ॥
जो लोग प्रेमपूर्वक शक्तिके पति उन सदाशिवका भजन करते हैं, उनको शिवजी सदा ही अक्षयरूप तीनों शक्तियाँ (क्रियाशक्ति, इच्छाशक्ति और ज्ञानशक्ति) प्रदान करते हैं ॥ १० ॥

तस्यैव भजनाज्जीवो मृत्युं जयति निर्भयः ।
तस्मान्मृत्युञ्जयन्नाम प्रसिद्धं भुवनत्रये ॥ ११ ॥
जीव उन्हींके भजनसे निर्भय होकर मृत्युको जीत लेता है, इसलिये त्रिलोकीमें उनका मृत्युंजय नाम प्रसिद्ध है ॥ ११ ॥

तस्यैव पक्षपातेन विष्णुर्विष्णुत्वमाप्नुयात् ।
ब्रह्मत्वं च यथा ब्रह्मा देवा देवत्वमेव च ॥ १२ ॥
उन्हींके पक्षमें रहनेसे विष्णुने विष्णुत्व प्राप्त किया है, ब्रह्माने ब्रहात्व तथा देवताओंने देवत्व प्राप्त किया है ॥ १२ ॥

दर्शनार्थं शिवस्यादौ यथा गच्छति देवराट् ।
भूतादयस्तत्परस्य द्वारपालाः शिवस्य तु ॥ १३ ॥
दण्डैश्च मुकुटं विद्धं मृष्टं भवति सर्वतः ।
किं तस्य बहुपक्षेण स्वयमेव महाप्रभुः ॥ १४ ॥
देवताओंमें प्रमुख इन्द्र जब भगवान् शिवके दर्शनार्थं जाते हैं, तब भगवान् शिवके जो द्वारपाल एवं भूत आदि हैं, सादर उनके दण्डोंमें घिसा गया इन्द्रका मुकुट सब प्रकारसे उज्ज्वल हो उठता है । उनके विषयमें बहुत बात करनेसे क्या ? वे तो स्वयं प्रभु हैं ॥ १३-१४ ॥

कल्याणरूपिणस्तस्य सेवयेह न किं भवेत् ।
किं न्यूनं तस्य देवस्य मामिच्छति सदाशिवः ॥ १५ ॥
उन कल्याणस्वरूप शिवजीकी सेवा करनेसे इस लोकमें क्या नहीं सिद्ध हो जाता है । उन देवके पास किस बातकी कमी है, जो वे सदाशिव मेरी इच्छा करें ॥ १५ ॥

सप्तजन्मदरिद्रः स्यात्सेवेद्यो यदि शंकरम् ।
तस्यैतत्सेवनाल्लोको लक्ष्मीः स्यादनपायिनी ॥ १६ ॥
जो सात जन्मोंका दरिद्र हो, वह भी यदि शंकरकी सेवा करे, तो उनकी इस सेवासे उसे लोकमें स्थिर रहनेवाली लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है ॥ १६ ॥

यदग्रे सिद्धयोऽष्टौ च नित्यं नृत्यन्ति तोषितुम् ।
अवाङ्मुखाः सदा तत्र तद्धितं दुर्ल्लभं कुतः ॥ १७ ॥
जिन्हें सन्तुष्ट करनेके लिये आठों सिद्धियाँ सदा नीचेकी ओर मुख किये जिनके आगे सदा नृत्य करती हैं, उनसे हित होना कहाँसे दुर्लभ है ? ॥ १७ ॥

यद्यस्य मङ्‌गालानीह सेवते शंकरस्य न ।
यथापि मंगलन्तस्य स्मरणादेव जायते ॥ १८ ॥
यद्यपि समस्त मंगल उन शिवजीकी सेवा नहीं करते अर्थात् वे मंगलवेश धारण नहीं करते, तो भी उनके स्मरणमात्रसे ही पुरुषका मंगल होता है ॥ १८ ॥

यस्य पूजाप्रभावेण कामाःसिद्ध्यन्ति सर्वशः ।
कुतो विकारस्तस्यास्ति निर्विकारस्य सर्वदा ॥ १९ ॥
शिवेति मंगलन्नाम मुखे यस्य निरन्तरम् ।
तस्यैव दर्शनादन्ये पवित्राः सन्ति सर्वदा ॥ २० ॥
जिनकी पूजाके प्रभावसे निरन्तर समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं, उन निर्विकार शंकरमें विकार कहाँसे हो सकता है ? जिसके मुखसे 'शिव' यह मंगल नाम निरन्तर निकलता है, उस पुरुषके दर्शनमात्रसे ही दूसरे प्राणी सदा पवित्र हो जाते हैं ॥ १९-२० ॥

यद्यपूतं भवेद्‌भस्म चितायाश्च त्वयोदितम् ।
नित्यमस्याङ्‌गगं देवैः शिरोभिर्द्धार्यते कथम् ॥ २१ ॥
[हे ब्रह्मचारिन् !] जैसा आपने कहा है कि चिताकी भस्म अपवित्र होती है, तो देवगण उनके अंगमें शोभित भस्म सिरपर नित्य क्यों धारण करते हैं ? ॥ २१ ॥

यो देवो जगतां कर्ता भर्ता हर्ता गुणान्वितः ।
निर्गुणः शिवसञ्ज्ञश्च स विज्ञेयः कथं भवेत् ॥ २२ ॥
अगुणं ब्रह्मणो रूपं शिवस्य परमात्मनः ।
तत्कथं हि विजानन्ति त्वादृशास्तद्‌बहिर्मुखाः ॥ २३ ॥
जो देव जगत्का कर्ता, भर्ता तथा हर्ता है, गुणोंसे संयुक्त है, निर्गुण तथा शिव है, उसे कोई किस प्रकार जान सकता है ? ब्रह्मस्वरूप परमात्मा शिवजीका रूप सदा निर्गुण है । अतः आपके सदृश शिवद्रोही उन्हें किस प्रकार जान सकते हैं ? ॥ २२-२३ ॥

दुराचाराश्च पापाश्च देवेभ्यस्ते विनिर्गताः ।
तत्त्वं ते नैव जानन्ति शिवस्यागुणरूपिणः ॥ २४ ॥
जो दुराचारी, महापापी, वेद एवं देवतासे विमुख हैं, वे निर्गुणरूपवाले शिवके तत्त्वको नहीं जान सकते ॥ २४ ॥

शिवनिन्दां करोतीह तत्त्वमज्ञाय यः पुमान् ।
आजन्मसञ्चितं पुण्यं भस्मीभवति तस्य तत् ॥ २५ ॥
त्वया निन्दा कृता याऽत्र हरस्यामिततेजसः ।
त्वत्पूजा च कृता यन्मे तस्मात्पापं भजाम्यहम् ॥ २६ ॥
शिवविद्वेषिणं दृष्ट्‍वा सचेलं स्नानमाचरेत् ।
शिवविद्वेषिणं दृष्ट्‍वा प्रायश्चितं समाचरेत् ॥ २७ ॥
जो पुरुष तत्त्वको न जानकर शिवकी निन्दा करता है, उसका जन्मपर्यन्त संचित किया गया पुण्य भस्म हो जाता है । आपने इस समय जो महातेजस्वी शिवकी निन्दा की है और मैंने जो आपकी पूजा की है, इसका पाप मुझे भी लग गया है । शिवजीकी निन्दा करनेवालेको देखकर वस्त्रोंसहित स्नान करना चाहिये और शिवद्रोहीको देखते ही प्रायश्चित्त भी करना चाहिये । २५-२७ ॥

रे रे दुष्ट त्वया चोक्तमहं जानामि शंकरम् ।
निश्चयेन न विज्ञातः शिव एव सनातनः ॥ २८ ॥
यथा तथा भवेद्‌रुद्रो यथा वा बहुरूपवान् ।
ममाभीष्टतमो नित्यं निर्विकारी सतां प्रियः ॥ २९ ॥
अरे दुष्ट ! तुमने जो कहा कि मैं शिवको जानता हूँ, तुम्हें तो निश्चित रूपसे सनातन शिवजीका कुछ ज्ञान नहीं है । वे रुद्र चाहे किसी भी स्वरूपवाले हों, रूपवान् हों अथवा अरूपी हों, वे सजनोंके प्रिय निर्विकारी प्रभु मेरे तो सर्वस्व हैं और मुझे अत्यन्त प्रिय हैं ॥ २८-२९ ॥

विष्णुर्ब्रह्मापि न समस्तस्य क्वापि महात्मनः ।
कुतोऽन्ये निर्जराद्याश्च कालाधीनाः सदैव ते ॥ ३० ॥
उन महात्मा सदाशिवकी ब्रह्मा, विष्णु भी किसी प्रकार समता नहीं कर सकते, फिर जो सर्वदा कालके अधीन अन्य देवता आदि हैं, वे किस प्रकार उनकी समता कर सकते हैं ? ॥ ३० ॥

इति बुध्या समालोक्य स्वया सत्या सुतत्त्वतः ।
शिवार्थं वनमागत्य करोमि विपुलं तपः ॥ ३१ ॥
इस प्रकार अपनी सत्य बुद्धिसे विचारकर मैं उन शिवकी प्राप्तिहेतु वनमें आकर घोर तपस्या कर रही हूँ ॥ ३१ ॥

स एव परमेशानः सर्वेशो भक्तवत्सलः ।
सम्प्राप्तुं मेऽभिलाषो हि दीनानुग्रहकारकम् ॥ ३२ ॥
वे ही परमेश्वर, सर्वेश एवं भक्तवत्सल हैं । दीनॉपर अनुग्रह करनेवाले उन्हींको प्राप्त करनेकी मेरी इच्छा है ॥ ३२ ॥

ब्रह्मोवाच -
इत्युक्त्वा गिरिजा सा हि गिरीश्वरसुता मुने ।
विरराम शिवं दध्यौ निर्विकारेण चेतसा ॥ ३३ ॥
तदाकर्ण्य वचो देव्या ब्रह्मचारी स वै द्विजः ।
पुनर्वचनमाख्यातुं यावदेव प्रचक्रमे ॥ ३४ ॥
उवाच गिरिजा तावत्स्वसखीं विजयां द्रुतम् ।
शिव सक्तमनोवृत्तिः शिवनिन्दापराङ्मुखी ॥ ३५ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! इस प्रकार वे गिरिराजपुत्री मौन हो गयीं और निर्विकार चित्तसे पुनः शिवजीका ध्यान करने लगीं । तदनन्तर वे ब्राह्मण पार्वतीके इस प्रकारके वचनको सुनकर पुन: ज्यों ही कुछ कहनेको उद्यत हुए, उसी समय शिवजीमें मन लगाये हुए और शिवजीको निन्दासे पराङ्‌मुख रहनेवाली पार्वती अपनी विजया नामकी सखीसे शीघ्रतापूर्वक कहने लगी- ॥ ३३-३५ ॥

गिरिजोवाच -
वारणीयः प्रयत्नेन सख्ययं हि द्विजाधमः ।
पुनर्वक्तुमनाश्चैव शिवनिन्दां करिष्यति ॥ ३६ ॥
न केवलं भवेत्पापं निन्दां कर्तुः शिवस्य हि ।
यो वै शृणोति तन्निन्दां पापभाक् स भवेदिह ॥ ३७ ॥
पार्वती बोलीं-हे सखि ! बोलनेकी इच्छावाला यह द्विजाधम पुनः शिवकी निन्दा करेगा, अत: इसे प्रयलपूर्वक रोको; क्योंकि केवल शिवकी निन्दा करनेवालेको ही पाप नहीं लगता, अपितु जो उनकी निन्दाको सुनता है, वह भी पापका भागी होता है ॥ ३६-३७ ॥

शिवनिन्दाकरो वध्यः सर्वथा शिवकिङ्‌करैः ।
ब्राह्मणश्चेत्स वै त्याज्यो गन्तव्यं तत्स्थलाद्द्रुतम् ॥ ३८ ॥
शिवभक्तोंको चाहिये कि वे शिवनिन्दकका वध कर दें । यदि वह ब्राह्मण है, तो उसका त्याग कर देना चाहिये और उस स्थानसे अन्यत्र चले जाना चाहिये ॥ ३८ ॥

अयं दुष्टः पुनर्निन्दां करिष्यति शिवस्य हि ।
ब्राह्मणत्वादवध्यश्चैत्त्याज्योऽदृश्यश्च सर्वथा ॥ ३९ ॥
यह दुष्ट पुनः शिवजीकी निन्दा करेगा, ब्राह्मण होनेके कारण यह अवध्य है, अतः इसका त्यागकर अन्यत्र चलना चाहिये, जहाँ जानेपर यह पुनः दिखायी न पड़े ॥ ३९ ॥

हित्वैतत्स्थलमद्येव यास्यामोऽन्यत्र मा चिरम् ।
अथ सम्भाषणं न स्यादनेनाविदुषा पुनः ॥ ४० ॥
अब इस स्थानको छोड़कर हमलोग अविलम्ब दूसरे स्थानपर चलेंगे, जिससे इस मूर्ख ब्राह्मणसे पुनः सम्भाषण न करना पड़े ॥ ४० ॥

ब्रह्मोवाच -
इत्युक्त्वा चोमया यावत्पादमुत्क्षिप्यते मुने ।
असौ तावच्छिवः साक्षादालम्बे प्रियया स्वयम् ॥ ४१ ॥
कृत्वा स्वरूपं सुभगं शिवाध्यानं यथा तथा ।
दर्शयित्वा शिवायै तामुवाचावाङ्मुखीं शिवः ॥ ४२ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! इतना कहनेके अनन्तर ज्यों ही पार्वतीने अन्यत्र जानेके लिये अपना पैर उठाया, इतनेमें ब्रह्मचारीस्वरूप साक्षात् शिवजीने पार्वतीको पकड़ लिया । उन शिवने उस समय जैसा पार्वती ध्यान कर रही थीं, उसी प्रकारका अत्यन्त सुन्दर रूप धारणकर उन्हें दर्शन दिया और पुन: नीचेकी ओर मुख की हुई पार्वतीसे वे शिव कहने लगे- ॥ ४१-४२ ॥

शिव उवाच
कुत्र यास्यसि मां हित्वा न त्वं त्याज्या मया पुनः ।
प्रसन्नोऽस्मि वरं ब्रूहि नादेयं विद्यते तव ॥ ४३ ॥
शिवजी बोले-[हे देवि !] तुम मुझे छोड़कर कहाँ जा रही हो ? मैं तुम्हें नहीं छोड़ेगा । मैं तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हूँ, मेरे द्वारा तुम्हारे लिये कुछ भी अदेय नहीं है ॥ ४३ ॥

अद्यप्रभृति ते दासस्तपोभिः क्रीत एव ते ।
क्रीतोऽस्मि तव सौन्दर्यात्क्षणमेकं युगाय ते ॥ ४४ ॥
आजसे मैं तुम्हारे तपोंसे तुम्हारा खरीदा हुआ दास हो गया । तुमने अपने सौन्दर्यसे मुझे मोल ले लिया है, तुम्हारे बिना एक क्षण भी युगके समान है ॥ ४४ ॥

त्यज्यतां च त्वया लज्जा मम पत्नी सनातनी ।
गिरिजे त्वं हि सद्‌बुध्या विचारय महेश्वरि ॥ ४५ ॥
मया परीक्षितासि त्वं बहुधा दृढमानसे ।
तत्क्षमस्वापराधं मे लोकलीलानुसारिणः ॥ ४६ ॥
न त्वादृशीं प्रणयिनीं पश्यामि च त्रिलोकके ।
सर्वथाहं तवाधीनः स्वकामः पूर्यतां शिवे ॥ ४७ ॥
हे गिरिजे ! तुम लज्जाका त्याग करो, तुम तो मेरी सनातन पत्नी हो । हे महेश्वरि ! इसे तुम अपनी सद्‌बुद्धिसे स्वयं विचार करो । हे दृढ़ मनवाली ! मैंने तुम्हारी अनेक प्रकारसे परीक्षा की, मुझ लोकलीलाका अनुसरण करनेवालेके इस अपराधको क्षमा करो । मैंने तुम्हारी जैसी पतिव्रता सती त्रिलोकमें कहीं नहीं देखी । हे शिवे ! मैं सर्वथा तुम्हारे अधीन हूँ, तुम अपनी कामना पूर्ण करो ॥ ४५-४७ ॥

एहि प्रिये मत्सकाशं पत्नी त्वं मे वरस्तव ।
त्वया साकं द्रुतं यास्ये स्वगृहं पर्वत्तोत्तमम् ॥ ४८ ॥
हे प्रिये ! तुम मेरे पास आओ, तुम मेरी पत्नी हो तथा मैं तुम्हारा वर हूँ, अब मैं तुम्हें अपने साथ लेकर पर्वतोंमें उत्तम अपने घर कैलासको चलूँगा ॥ ४८ ॥

ब्रह्मोवाच -
इत्युक्ते देवदेवेन पार्वती मुदमाप सा ।
तपोजातं तु यत्कष्टं तज्जहौ च पुरातनम् ॥ ४९ ॥
सर्वः श्रमो विनष्टोभूत्सत्यास्तु मुनिसत्तम ।
फले जाते श्रमः पूर्वो जन्तोर्नाशमवाप्नुयात् ॥ ५० ॥
ब्रह्माजी बोले-देवदेव शंकरजीके इस प्रकार कहनेपर पार्वतीको बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ और उन्हें पूर्व समयमें तपस्याके कारण जो दुःख हुआ था, वह तत्क्षण ही दूर हो गया । हे मुनिसत्तम ! पार्वतीका सारा श्रम दूर हो गया; क्योंकि फलके प्राप्त हो जानेपर प्राणीका पूर्वमें किया हुआ सारा श्रम नष्ट हो जाता है । ४९-५० ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये
पार्वतीखण्डे पार्वत्याः शिवरूपदर्शनं नामाष्टाविंशोऽध्यायः २८
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें पार्वतीको - शिवरूपदर्शन नामक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २८ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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