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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे
एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ शिवाशिवसंवादः -
शिव और पार्वतीका संवाद, विवाहविषयक पार्वतीके अनुरोधको शिवद्वारा स्वीकार करना नारद उवाच - ब्रह्मन् विधे महाभाग किं जातं तदनन्तरम् । तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि कथय त्वं शिवायशः ॥ १ ॥ नारदजी बोले-हे ब्रह्मन् ! हे विधे ! हे महाभाग ! इसके बाद फिर क्या हुआ ? मैं वह सब सुनना चाहता हूँ, आप शिवाके चरित्रको कहिये ॥ १ ॥ ब्रह्मोवाच - देवर्षे श्रूयतां सम्यक् कथयामि कथां मुदा । तां महापापसंहर्त्रीं शिवभक्तिविवर्द्धिनीम् ॥ २ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे देवर्षे ! सुनिये, मैं इस कथाको प्रसन्नतापूर्वक कह रहा हूँ । यह कथा पापका नाश करनेवाली तथा शिवमें भक्ति बढ़ानेवाली है ॥ २ ॥ पार्वती वचनं श्रुत्वा हरःस परमात्मनः । दृष्ट्वानन्दकरं रूपं जहर्षातीव च द्विज ॥ ३ ॥ प्रत्युवाच महा साध्वी स्वोपकण्ठस्थितं विभुम् । अतीव सुखिता देवी प्रीत्युत्फुल्लानना शिवा ॥ ४ ॥ हे द्विज ! परमात्मा हरका वचन सुनकर और उनके परमानन्दकारी रूपको देखकर पार्वतीजी परम आनन्दित हो गयीं । स्नेहके कारण उनके नेत्रकमल खिल उठे । उसके बाद वे महासाध्वी सुखी हो प्रसन्नतासे अपने समीप खड़े प्रभुसे कहने लगीं ॥ ३-४ ॥ पार्वत्युवाच त्वं नाथो मम देवेश त्वया किं विस्मृतं पुरा । दक्षयज्ञविनाशं हि यदर्थं कृतवान्हठात् ॥ ५ ॥ स त्वं साहं समुत्पन्ना मेनयां कार्यसिद्धये । देवानां देव देदेश तारकाप्तसुखात्मनाम् ॥ ६ ॥ पार्वती बोलीं-हे देवेश ! आप तो मेरे नाथ हैं, क्या आप इस बातको भूल गये कि मेरे ही निमित्त आपने दक्षके यज्ञका विनाश किया था । यद्यपि आप तो वही हैं, किंतु मैं देवताओंकी कार्यसिद्धिके लिये मेनासे पुनः उत्पन्न हुई हूँ । हे देवदेवेश ! देवतागण तारक असुरसे इस समय अत्यन्त पीड़ित हो रहे हैं ॥ ५-६ ॥ यदि प्रसन्नो देवेश करोषि च कृपां यदि । पतिर्भव ममेशान मम वाक्यं कुरु प्रभो ॥ ७ ॥ पितुर्गेहे मया सम्यग्गम्यते त्वदनुजया । प्रसिद्धं क्रियतां तद्वै विशुद्धं परमं यशः ॥ ८ ॥ हे देवेश ! यदि आप प्रसन्न हैं और यदि मुझपर कृपा करना चाहते हैं, तो हे महेशान ! हे प्रभो ! आप मेरे पति बनिये और मेरा वचन मानिये । इस समय आप मुझे पिताके घर जानेकी आज्ञा दें, अब आप अपना विशुद्ध और उत्कृष्ट यश जगत्में प्रसिद्ध करें ॥ ७-८ ॥ गन्तव्यं भवता नाथ हिमवत्पार्श्वतः प्रभो । याचस्व मां ततो भिक्षुर्भूत्वा लीलाविशारदः ॥ ९ ॥ तथा त्वया प्रकर्तव्यं लोकेषु ख्यापयन् यशः । पितुर्मे सफलं सर्वं कुरुष्वैवं गृहाश्रमम् ॥ १० ॥ ऋषिभिर्बोधितः प्रीत्या स्वबन्धुपरिवारितः । करिष्यति न सन्देहस्तव वाक्यं पिता मम ॥ ११ ॥ हे नाथ ! हे प्रभो ! अनेक लीलाओंको करनेवाले आपको भिक्षु बनकर मेरे पिताके पास जाना चाहिये और उनसे मुझे माँगना चाहिये । आपको अपने यशका लोकमें विस्तार करते हुए ऐसा उपाय करना चाहिये, जिससे मेरे पिताका गृहस्थाश्रम सफल हो जाय । ऋषियोंने मेरे पिताको समझा दिया है, इसलिये बन्धुजनों एवं परिवारसे युक्त मेरे पिता आपकी बात निःसन्देह मान जायेंगे ॥ ९-११ ॥ दक्षकन्या पुराऽहं वै पित्रा दत्ता यदा तव । यथोक्तविधिना तत्र विवाहो न कृतस्त्वया ॥ १२ ॥ न ग्रहाः पूजितास्तेन दक्षेण जनकेन मे । ग्रहाणां विषयस्तेन सच्छिद्रोऽयं महानभूत् ॥ १३ ॥ पूर्व समयमें जब मैं दक्षकी कन्या थी, उस समय भी मेरे पिताने मुझे आपको ही दिया था, किंतु उस समय आपने यथोक्त विधिसे मुझसे विवाह नहीं किया था । उस समय मेरे पिता दक्षने विधिपूर्वक ग्रहोंका पूजन नहीं किया था । उन ग्रहोंके कारण ही विवाहमें विघ्न हुआ ॥ १२-१३ ॥ तस्माद्यथोक्तविधिना कर्तुमर्हसि मे प्रभो । विवाहं त्वं महादेव देवानां कार्यसिद्धये ॥ १४ ॥ अत: हे प्रभो ! हे महादेव देवताओंकी कार्यसिद्धिके लिये आप यथोक्त रीतिसे मेरे साथ विवाह कीजिये ॥ १४ ॥ विवाहस्य यथा रीतिः कर्तव्या सा तथा ध्रुवम् । जानातु हिमवान् सम्यक् कृतं पुत्र्या शुभं तपः ॥ १५ ॥ विवाहकी जो विधि है, उसे अवश्य करना चाहिये, जिससे हिमवान् जान लें कि कि मेरी पुत्रीने उत्तम तपस्या की है ॥ १५ ॥ ब्रह्मोवाच - इत्येवं वचनं श्रुत्वा सुप्रसन्नः सदाशिवः । प्रोवाच वचनं प्रीत्या गिरिजां प्रहसन्निव ॥ १६ ॥ ब्रह्माजी बोले-यह वचन सुनकर सदाशिव अत्यन्त प्रसन्न हो गये और वे हँसते हुए प्रेमपूर्वक पार्वतीसे यह वचन कहने लगे- ॥ १६ ॥ शिव उवाच - शृणु देवि महेशानि परमं वचनं मम । यथोचितं सुमाङ्गल्यमविकारि तथा कुरु ॥ १७ ॥ ब्रह्मादिकानि भूतानि स्वनित्यानि वरानने । दृष्टं यत्सर्वमेतच्च नश्वरं विद्धि भामिनि ॥ १८ ॥ शिवजी बोले-हे देवि ! हे महेशानि ! मेरी उत्तम बात सुनो, जिससे विवाहमें किसी प्रकारकी बाधा न हो, वैसा उचित मंगल कार्य करो । हे भामिनि ! इस जगत्में ब्रह्मा आदिसे लेकर जितने स्थावर तथा जंगम पदार्थ दिखायी पड़ते हैं, उन्हें अनित्य तथा नश्वर समझो ॥ १७-१८ ॥ एकोऽनेकत्वमापन्नो निर्गुणो हि गुणान्वितः । स्वज्योत्स्नया यो विभाति परज्योत्स्नान्वितोऽभवत् ॥ १९ ॥ स्वतन्त्रः परतन्त्रश्च त्वया देवि कृतो ह्यहम् । सर्वकर्त्री च प्रकृतिर्महामाया त्वमेव हि ॥ २० ॥ यह एक निर्गुण ब्रह्म ही सगुण रूप धारणकर अनेक रूपमें परिवर्तित हो गया है, यही स्वयं अपनी सत्तासे प्रकाशित होते हुए भी पर प्रकाशसे युक्त हो गया है । हे देवि ! मैं सदा स्वतन्त्र हूँ, पर तुमने मुझे परतन्त्र बना दिया है । क्योंकि सब कुछ करनेवाली महामाया प्रकृति तुम्हीं हो ॥ १९-२० ॥ मायामयं कृतमिदं च जगत्समग्रं सर्वात्मना हि विधृतं परया स्वबुद्ध्या । सवार्त्मभिः सुकृतिभिः परमात्मभावैः संसक्तमात्मनि गणः परिवेष्टितश्च ॥ २१ ॥ यह सम्पूर्ण जगत् मायाके द्वारा रचित है और सर्वात्मा परमात्माने अपनी श्रेष्ठ बुद्धिके द्वारा इसे धारण कर रखा है । सभी पवित्र आत्माएँ, जो परमात्माके स्वरूपको प्राप्त कर चुकी हैं और सदा मेरे साथ अभेदभावसे रहती हैं, उनसे तथा अपने गुणोंसे यह संसार घिरा हुआ है ॥ २१ ॥ के ग्रहाः के ऋतुगणाः के वान्येऽपि त्वया ग्रहाः । किमुक्तं चाधुना देवि शिवार्थं वरवर्णिनि ॥ २२ ॥ हे देवि ! इस जगत्में तुम्हें छोड़कर न तो कोई ग्रह है, न तो कोई ऋतु है । हे वरवणिनि ! तुम शिवके लिये ग्रहोंकी बात क्यों करती हो ? ॥ २२ ॥ गुणकार्यप्रमेदेनावाभ्यां प्रादुर्भवः कृतः । भक्तहेतोर्जगत्यस्मिन्भक्तवत्सलभावतः ॥ २३ ॥ त्वं हि वै प्रकृतिःसूक्ष्मा रजःसत्त्वतमोमयी । व्यापारदक्षा सततं सगुणा निर्गुणापि च ॥ २४ ॥ हम दोनों भक्तोंके लिये भक्तवत्सलतावश गुणकार्यके भेदसे प्रकट हुए हैं । रज, सत्त्व तथा तमोमयी तुम सूक्ष्म प्रकृति हो, निरन्तर जगत्के कार्यमें दक्ष हो और सगुण तथा निर्गुण रूपवाली हो । २३-२४ ॥ सर्वेषामिह भूतानामहमात्मा सुमध्यमे । निर्विकारी निरीहश्च भक्तेच्छोपात्तविग्रहः ॥ २५ ॥ हिमालयं न गच्छेयं जनकं तव शैलजे । ततस्त्वां भिक्षुको भूत्वा न याचेयं कथञ्चन ॥ २६ ॥ हे सुमध्यमे सभी प्राणियोंकी आत्मा मैं ही हूँ । मैं सर्वथा निर्विकार तथा निरीह होकर भी भक्तोंके लिये ही शरीर धारण करता हूँ । किंतु हे शैलपुत्रि ! मैं तुम्हारे पिता हिमालयके पास नहीं जाऊँगा और न तो भिक्षुकका रूप धारणकर उनसे तुमको माँगूंगा ॥ २५-२६ ॥ महागुणैर्गरिष्ठोपि महात्माऽपि गिरीन्द्रजे । देहीतिवचनात्सद्यः पुरुषो याति लाघवम् ॥ २७ ॥ इत्थं ज्ञात्वा तु कल्याणि किमस्माकं वदस्यथ । कार्यं त्वदाज्ञया भद्रे यथेच्छसि तथा कुरु ॥ २८ ॥ हे गिरिजे ! महान् गुणोंसे वरिष्ठ कोई कितना भी बड़ा क्यों न हो, वह 'दीजिये'-इस शब्दका उच्चारण करते ही लघुताको प्राप्त हो जाता है । हे कल्याणि ! इस बातको जानते हुए भी तुम मुझसे इस प्रकारकी बात क्यों करती हो ? हे भद्रे ! यह कार्य तो तुम्हारे आज्ञानुसार ही मुझे करना है, अतः तुम जैसा चाहती हो, वैसा करो ॥ २७-२८ ॥ ब्रह्मोवाच - तेनोक्तापि महादेवी सा साध्वी कमलेक्षणा । जगाद शंकरं भक्त्या सुप्रणम्य पुनः पुनः ॥ २९ ॥ ब्रह्माजी बोले-उनके द्वारा यह कहे जानेपर कमलके समान नेत्रोंवाली साध्वी महादेवी भक्तिपूर्वक शंकरजीको बार बार प्रणामकर उनसे पुनः कहने लगीं- ॥ २९ ॥ पार्वत्युवाच - त्वमात्मा प्रकृतिश्चाहं नात्र कार्या विचारणा । स्वतन्त्रौ भक्तवशगौ निर्गुणौ सगुणावपि ॥ ३० ॥ पार्वती बोलीं-[हे महेश्वर !] आप आत्मा हैं और मैं प्रकृति हूँ, इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये । हम दोनों स्वतन्त्र एवं गुणरहित होकर भी भक्तके वशमें होकर सगुण रूप धारण करते रहते हैं ॥ ३० ॥ प्रयत्नेन त्वया शम्भो कार्यं वाक्यं मम प्रभो । याचस्व मां हिमगिरेः सौभाग्यं देहि शङ्कर ॥ ३१ ॥ हे शम्भो ! हे प्रभो ! आपको मेरी बात प्रयत्नपूर्वक मान लेनी चाहिये । अतः हे शंकर ! आप हिमालयसे याचना कीजिये, मुझे सौभाग्य प्रदान कीजिये ॥ ३१ ॥ कृपां कुरु महेशान तव भक्तास्मि नित्यशः । तव पत्नी सदा नाथ ह्यहं जन्मनि जन्मनि ॥ ३२ ॥ त्वं ब्रह्म परमात्मा हि निर्गुणः प्रकृतेः परः । निर्विकारी निरीहश्च स्वतन्त्रः परमेश्वरः ॥ ३३ ॥ तथापि सगुणोऽपीह भक्तोद्धारपरायणः । विहारी स्वात्मनि रतो नानालीलाविशारदः ॥ ३४ ॥ सर्वथा त्वामहं जाने महादेव महेश्वर । किमुक्तेन च सर्वज्ञ बहुना हि दयां कुरु ॥ ३५ ॥ हे महेश्वर ! आप मुझपर दया करें, मैं आपकी नित्य भक्त हूँ । हे नाथ ! मैं सदा जन्म-जन्मान्तरकी आपकी पत्नी हूँ । आप ब्रह्म, परमात्मा, निर्गुण, प्रकृतिसे परे, विकाररहित, इच्छारहित, स्वतन्त्र तथा परमेश्वर हैं, तथापि भक्तोंके उद्धारके लिये आप सगुण रूप धारण करते हैं । आप आत्मपरायण होकर भी विहार करनेवाले तथा नाना प्रकारकी लीलामें निपुण हैं । हे महादेव ! हे महेश्वर ! मैं आपको सर्वथा जानती हूँ । हे सर्वज्ञ ! बहुत कहनेसे क्या प्रयोजन, आप मुझपर दया कीजिये ॥ ३२-३५ ॥ विस्तारय यशो लोके कृत्वा लीलां महाद्भुताम् । यत्सुगीय जना नाथाञ्जसोत्तीर्णा भवाम्बुधेः ॥ ३६ ॥ हे नाथ ! आप अद्भुत लीलाकर संसारमें अपने यशका विस्तार कीजिये, जिसका गान करके आपके भक्त इस संसाररूपी समुद्रसे अनायास ही पार हो जाय ॥ ३६ ॥ ब्रह्मोवाच इत्येवमुक्त्वा गिरिजा सुप्रणम्य पुनः पुनः । विरराम महेशानं नतस्कन्धा कृताञ्जलिः ॥ ३७ ॥ ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार कहकर गिरिजा शंकरजीको बारंबार हाथ जोड़कर सिर झुकाकर प्रणाम करके मौन हो गयीं ॥ ३७ ॥ इत्येवमुक्तः स तया महात्मा महेश्वरो लोकविडम्बनाय । तथेति मत्त्वा प्रहसन् बभूव मुदान्वितः कर्तुमनास्तदेव ॥ ३८ ॥ पार्वतीने जब इस प्रकार कहा, तब लोकविडम्बनाके निमित्त शंकरजीने हँसते हुए प्रसन्न होकर ऐसा ही होगा-यह कहकर वे वैसा करनेके लिये उद्यत हो गयो ॥ ३८ ॥ ततो ह्यन्तर्हितः शम्भुर्बभूव सुप्रहर्षितः । कैलासं प्रययौ काल्या विरहाकृष्टमानसः ॥ ३९ ॥ उसके बाद वे शम्भु प्रसन्न हो अन्तर्धान हो गये और कालीके विरहसे आकृष्टचित्तवाले वे कैलासको चले गये ॥ ३९ ॥ तत्र गत्वा महेशानो नन्द्यादिभ्यः स ऊचिवान् । वृत्तान्तं सकलं तम्वै परमानन्दनिर्भरः ॥ ४० ॥ वहाँ जाकर उन महेश्वरने परमानन्दमें निमग्न हो यह सारा वृत्तान्त नन्दीश्वरादि गणोंको बताया ॥ ४० ॥ तेऽपि श्रुत्वा गणाःसर्वे भैरवाद्याश्च सर्वशः । बभूवुःसुखिनोत्यन्तं विदधुः परमोत्सवम् ॥ ४१ ॥ इस वृत्तान्तको सुनकर वे सम्पूर्ण भैरवादि गण भी बहुत सुखी हुए और महान् उत्सव करने लगे ॥ ४१ ॥ महत्सुमंगलं तत्र बभूवातीव नारद । सर्वेषां दुःखनाशोभूद्रुद्रः प्रापापि संमुदम् ॥ ४२ ॥ हे नारद ! उस समय वहाँ महामंगल होने लगा, सबका दुःख दूर हो गया और रुद्रको भी परम प्रसन्नता हुई ॥ ४२ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखण्डे शिवाशिवसम्वादवर्णनं नामैकोनत्रिंशोऽध्यायः २९ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें शिवा-शिवसंवादवर्णन नामक उनतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २९ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |