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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे
त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ गिरिसान्त्वनम् -
वसिष्ठपत्नी अरुन्धतीद्वारा मेनाको समझाना तथा सप्तर्षियोंद्वारा हिमालयको शिवमाहात्म्य बताना - ऋषय ऊचुः जगत्पिता शिवः प्रोक्तो जगन्माता शिवा मता । तस्माद्देया त्वया कन्या शंकराय महात्मने ॥ १ ॥ एवं कृत्वा हिमगिरे सार्थकं ते भवेज्जनुः । जगद्गुरोर्गुरुस्त्वं हि भविष्यसि न संशयः ॥ २ ॥ ऋषि बोले-[हे हिमालय !] शिवजी जगत्के पिता कहे गये हैं और पार्वती जगतकी माता मानी गयी हैं । इसलिये आप अपनी कन्या महात्मा शंकरको प्रदान कर दीजिये । हे हिमालय ! ऐसा करनेसे आपका जन्म सफल हो जायगा और आप जगद्गुरुके भी गुरु हो जायँगे, इसमें सन्देह नहीं है ॥ १-२ ॥ ब्रह्मोवाच एवं वचनमाकर्ण्य सप्तर्षीणां मुनीश्वर । प्रणम्य तान्करौ बद्ध्वा गिरिराजोऽब्रवीदिदम् ॥ ३ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे मुनीश्वर ! ऋषियोंके इस प्रकारके वचनको सुनकर उन्हें प्रणामकर हाथ जोड़कर गिरिराज यह कहने लगे- ॥ ३ ॥ हिमालय उवाच सप्तर्षयो महाभागा भवद्भिर्यदुदीरितम् । तत्प्रमाणीकृतं मे हि पुरैव गिरिशेच्छया ॥ ४ ॥ इदानीमेक आगत्य विप्रो वैष्णवधर्मवान् । शिवमुद्दिश्य सुप्रीत्या विपरीतं वचोऽब्रवीत् ॥ ५ ॥ हिमालय बोले-हे महाभाग्यवान् सप्तर्षिगण ! आपलोगोंने जैसा कहा है, उसे मैंने शिवजीकी इच्छासे पहले ही स्वीकार कर लिया था । [किंतु हे प्रभो !] इसी समय एक वैष्णवधर्मी ब्राह्मणने यहाँ आकर शिवजीको लक्ष्य करके प्रेमपूर्वक उनके विपरीत वचन कहा है ॥ ४-५ ॥ तदारभ्य शिवामाता ज्ञानभ्रष्टा बभूव ह । सुताविवाहं रुद्रेण योगिना तेन नेच्छति ॥ ६ ॥ कोपागारमगात्सा हि सुतप्ता मलिनाम्बरा । कृत्वा महाहठं विप्रा बोध्यमानाऽपि नाबुधत् ॥ ७ ॥ अहं च ज्ञानविभ्रष्टो जातोहं सत्यमीर्यते । दातुं सुतां महेशाय नेच्छामि भिक्षुरूपिणे ॥ ॥ ८ ॥ तभी से शिवाकी माता ज्ञानसे भ्रष्ट हो गयी हैं और अपनी पुत्रीका विवाह उन योगी रुद्रसे नहीं करना चाहती हैं । हे विप्रो ! वे अत्यन्त दुखी होकर मैले वस्त्र धारणकर बड़ा हठ करके कोपभवनमें चली गयी हैं और समझानेपर भी नहीं समझ रही हैं । मैं सत्य कह रहा हूँ कि मैं भी ज्ञानभ्रष्ट हो गया हूँ और अब मैं भिक्षुकरूपधारी महेश्वरको कन्या नहीं देना चाहता हूँ ॥ ६-८ ॥ ब्रह्मोवाच इत्युक्त्वा शैलराजस्तु शिवमायाविमोहितः । तूष्णीं बभूव तत्रस्थो मुनीनां मध्यतो मुने ॥ ९ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! शिवकी मायासे मोहित शैलराज इस प्रकार कहकर चुप हो गये और मुनियोंके बीच बैठ गये ॥ ९ ॥ सर्वे सप्तर्षयस्ते हि शिवमायां प्रशस्य वै । प्रेषयामासुरथ तां मेनकां प्रत्यरुन्धतीम् ॥ १ ० ॥ उसके बाद उन सभी सप्तर्षियोंने शिवमायाकी प्रशंसा करके उन मेनाके पास अरुन्धतीको भेजा ॥ १० ॥ अथ पत्युः समादाय निदेशं ज्ञानदा हि सा । जगामारुन्धती तूर्णं यत्र मेना च पार्वती ॥ ११ ॥ पतिकी आज्ञा पाकर ज्ञानदात्री अरुन्धती शीघ्र ही वहाँ गयीं, जहाँ मेना और पार्वती थीं ॥ ११ ॥ गत्वा ददर्श मेनां तां शयानां शोकमूर्च्छिताम् । उवाच मधुरं साध्वी सावधाना हितं वचः ॥ १२ ॥ वहाँ जाकर अरुन्धतीने शोकसे मूञ्छित होकर [पृथिवीपर] सोयी हुई मेनाको देखा । तब उन पतिव्रताने सावधानीपूर्वक हितकर वचन कहा- ॥ १२ ॥ अरुन्धत्युवाच उत्तिष्ठ मेनके साध्वि त्वद्गृहेऽहमरुन्धती । आगता मुनयश्चापि सप्तायाताः कृपालवः ॥ १३ ॥ अरुन्धती बोली-हे साध्वि मेनके ! उठिये, मैं अरुन्धती आपके घर आयी हूँ तथा कृपालु सप्तर्षिगण भी आये हुए हैं ॥ १३ ॥ ब्रह्मोवाच अरुन्धतीस्वरं श्रुत्वा शीघ्रमुत्थाय मेनका । उवाच शिरसा नत्वा तां पद्मामिव तेजसा ॥ १४ ॥ ब्रह्माजी बोले-अरुन्धतीका स्वर सुनकर शीघ्रतासे उठकर महालक्ष्मीके समान तेजयुक्त अरुन्धतीको सिर झुकाकर प्रणाम करके मेनका कहने लगीं- ॥ १४ ॥ मेनोवाच अहोऽद्य किमिदं पुण्यमस्माकं पुण्यजन्मनाम् । वधूर्जगद्विधेः पत्नी वसिष्ठस्यागतेह वै ॥ १५ ॥ मेना बोलीं-अहो ! आज हम पुण्यवानोंका यह कितना बड़ा पुण्य है, जो जगत्के विधाताकी पुत्रवधू एवं वसिष्ठकी पत्नी मेरे घर स्वयं आयी हैं ॥ १५ ॥ किमर्थमागता देवि तन्मे ब्रूहि विशेषतः । अहं दासीसमा ते हि ससुता करुणां कुरु ॥ १६ ॥ हे देवि ! आप किसलिये आयी हैं, उसे मुझसे विशेष रूपसे कहिये । पुत्री पार्वतीसहित मैं आपकी दासीके समान हूँ, आप कृपा कीजिये ॥ १६ ॥ ब्रह्मोवाच इत्युक्त्वा मेनका साध्वी बोधयित्वा च तां बहु । तथागता च सुप्रीत्या सास्ते यत्रर्षयोऽपि ते ॥ १७ ॥ अथ शैलेश्वरं ते च बोधयामासुरादरात् । स्मृत्वा शिवपदद्वन्द्वं सर्वे वाक्यविशारदाः ॥ १८ ॥ ब्रह्माजी बोले-जब मेनाने इस प्रकार कहा, तब साध्वी अरुन्धती उन्हें बहुत समझाकर प्रेमपूर्वक वहाँ गयीं, जहाँ सप्तर्षिगण विराजमान थे । इधर, वाक्यविशारद सभी महर्षिगण भी शिवके चरणयुगलका स्मरण करके आदरके साथ गिरिराजको समझाने लगे ॥ १७-१८ ॥ ऋषय ऊचुः शैलेन्द्र श्रूयतां वाक्यमस्माकं शुभकारणम् । शिवाय पार्वतीं देहि संहर्तुः श्वशुरो भव ॥ १९ ॥ अयाचितारं सर्वेशं प्रार्थयामास यत्नतः । तारकस्य विनाशाय ब्रह्मासम्बन्धकर्मणि ॥ २० ॥ नोत्सुको दारसंयोगे शंकरो योगिनां वरः । विधेः प्रार्थनया देवस्तव कन्यां ग्रहीष्यति ॥ २१ ॥ ऋषि बोले-हे शैलराज ! आप हमलोगोंका शुभकारक वचन सुनें, आप पार्वतीका विवाह शिवके साथ कर दीजिये और संहारकर्ता शिवजीके श्वशुर बन जाइये । तारकासुरके वधके निमित्त ब्रह्माजीने इस विवाहको करनेके लिये उन अयाचक सर्वेश्वरसे प्रयत्नपूर्वक प्रार्थना की है । यद्यपि योगियोंमें श्रेष्ठ होनेके कारण सदाशिव इस दारसंग्रह कार्यके लिये उत्सुक नहीं हैं, किंतु ब्रह्माजीके द्वारा बहुत प्रार्थना करनेपर वे आपकी इस कन्याको ग्रहण करेंगे ॥ १९-२१ ॥ दुहितुस्ते तपस्तप्तं प्रतिज्ञानं चकार सा । हेतुद्वयेन योगीन्द्रो विवाहं च करिष्यति ॥ २२ ॥ आपकी कन्याने भी [शिवजीको वररूपमें प्राप्त करनेहेतु] बड़ा तप किया है, इसीलिये उन्होंने उसे वर दिया है, इन्हीं दो कारणोंसे वे योगीन्द्र विवाह करेंगे ॥ २२ ॥ ब्रह्मोवाच ऋषीणां वचनं श्रुत्वा प्रहस्य स हिमालयः । उवाच किञ्चिद्भीतस्तु परं विनयपूर्वकम् ॥ २३ ॥ ब्रह्माजी बोले-ऋषियोंकी यह बात सुनकर हिमालय हँस करके फिर कुछ भयभीत होकर विनयपूर्वक इस प्रकार कहने लगे- ॥ २३ ॥ हिमालय उवाच शिवस्य राजसामग्रीं न हि पश्यामि काञ्चन । कञ्चिदाश्रयमैश्वर्यं कं वा स्वजनबान्धवम् ॥ २४ ॥ नेच्छाम्यति विनिर्लिप्तयोगिने स्वां सुतामहम् । यूयं वेदविधातुश्च पुत्रा वदत निश्चितम् ॥ २५ ॥ हिमालय बोले-मैं शिवके पास कोई राजोचित सामग्री नहीं देख रहा हूँ. न उनका कोई आश्रय और ऐश्वर्य ही दिखायी पड़ रहा है और न तो कोई उनका सगासम्बन्धी ही दिखायी पड़ता है । मैं अत्यन्त निर्लिप्त योगीको अपनी पुत्री नहीं देना चाहता हूँ । आपलोग तो ब्रह्मदेवके पुत्र हैं, आपलोग ही निश्चित बात बतायें ॥ २४-२५ ॥ वरायाननुरूपाय पिता कन्यां ददाति चेत् । कामान्मोहाद्भयाल्लोभात्स नष्टो नरकं यजेत् ॥ २६ ॥ यदि पिता काम, मोह, भय तथा लोभवश अपनी कन्या प्रतिकूल वरको प्रदान करता है, तो वह नष्ट होकर नरकमें जाता है ॥ २६ ॥ न हि दास्याम्यहं कन्यामिच्छया शूलपाणये । यद्विधानं भवेद्योग्यमृषयस्तद्विधीयताम् ॥ २७ ॥ मैं स्वेच्छासे इस कन्याको शंकरको नहीं दूंगा, हे ऋषियो ! अब जो उचित विधान हो, उसे आपलोग करें ॥ २७ ॥ ब्रह्मोवाच इत्याकर्ण्य वचस्तस्य हिमागस्य मुनीश्वर । प्रत्युवाच वसिष्ठस्तं तेषां वाक्यविशारद ॥ २८ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे मुनीश्वर ! हिमालयके इस प्रकारके वचनको सुनकर उन ऋषियोंमें वाक्यविशारद वसिष्ठजी उनसे कहने लगे- ॥ २८ ॥ वसिष्ठ उवाच शृणु शैलेश मद्वाक्यं सर्वथा ते हितावहम् । धर्माविरुद्धं सत्यश्च परत्रेह मुदावहम् ॥ २९ ॥ वचनं त्रिविधं शैल लौकिके वैदिकेऽपि च । सर्वं जानाति शास्त्रज्ञो निर्मलज्ञानचक्षुषा ॥ ३० ॥ वसिष्ठजी बोले-हे शैलेन्द्र ! आप मेरी बात सुनिये, जो आपके लिये सर्वथा हितकर, धर्मके अनुकूल, सत्य और इस लोक तथा परलोकमें आनन्द प्रदान करनेवाली है । हे शैल ! लोक एवं वेदमें तीन प्रकारके वचन होते हैं, शास्त्रका ज्ञाता अपने निर्मल ज्ञानरूपी नेत्रसे उन सबको जानता है ॥ २९-३० ॥ असत्यमहितं पश्चात्साम्प्रतं श्रुतिसुन्दरम् । सुबुद्धिर्वक्ति शत्रुर्हि हितं नैव कदाचन ॥ ३१ ॥ जो वचन सुननेमें सुन्दर लगे, पर असत्य एवं अहितकारी हो, ऐसा वचन बुद्धिमान् शत्रु बोलते हैं । ऐसा वचन किसी प्रकार हितकारी नहीं होता ॥ ३१ ॥ आदावप्रीतिजनकं परिणामे सुखावहम् । दयालुर्धमशीलो हि बोधयत्येव बान्धवः ॥ ३२ ॥ श्रुतिमात्रात्सुधातुल्यं सर्वकालसुखावहम् । सत्यसारं हितकरं वचनं श्रेष्ठमीप्सितम् ॥ ३३ ॥ जो वचन आरम्भमें अप्रिय लगनेवाला हो, किंतु परिणाममें सुखकारी हो, ऐसा वचन दयालु तथा धर्मशील बन्धु ही कहता है । सुनने में अमृतके समान, सभी कालमें सुखदायक, सत्यका सारस्वरूप तथा हितकारक वचन श्रेष्ठ होता है ॥ ३२-३३ ॥ एवञ्च त्रिविधं शैल नीतिशास्त्रोदितं वचः । कथ्यतां त्रिषु मध्ये किं ब्रुवे वाक्यं त्वदीप्सितम् ॥ ३४ ॥ ब्राह्मसम्पद्विहीनश्च शंकरस्त्रिदशेश्वरः । तत्त्वज्ञानसमुद्रेषु सन्निमग्नैकमानसः । ३५ ॥ हे शैल ! इस प्रकार तीन तरहके वचन नीतिशास्त्रमें कहे गये हैं । अब आप ही बताइये कि इन तीन प्रकारके वचनोंमें हमलोग किस प्रकारका वचन बोलें, जो आपके अनुकूल हो । देवताओंके स्वामी शंकरजी ब्रह्मज्ञानसे सम्पन्न हैं । रजोगुणी सम्पत्तिसे विहीन हैं, उनका मन तत्त्वज्ञानके समुद्र में सदा निमग्न रहता है ॥ ३४-३५ ॥ ज्ञानानन्दस्येश्वरस्य ब्राह्मवस्तुषु का स्पृहा । गृही ददाति स्वसुतां राज्यसम्पत्तिशालिने ॥ ३६ ॥ ऐसे ज्ञान तथा आनन्दके ईश्वर सदाशिवको रजोगुणी वस्तुओंकी इच्छा किस प्रकार हो सकती है, गृहस्थ अपनी कन्या राजसम्पत्तिशालीको देता है । ३६ ॥ कन्यकां दुःखिने दत्त्वा कन्याघाती भवेत्पिता । को वेद शंकरो दुःखी कुबेरो यस्य किङ्करः ॥ ३७ ॥ पिता यदि अपनी कन्या किसी दीन-दुखीको देता है, तो वह कन्याघाती होता है अर्थात् उसे कन्याके वधका पाप लगता है । हे हिमालय ! कौन कहता है कि शंकर दुखी हैं, कुबेर जिनके दास हैं ॥ ३७ ॥ भ्रूभङ्गलीलया सृष्टिं स्रष्टुं हर्त्तुं क्षमो हि सः । निर्गुणः परमात्मा च परेशः प्रकृतेः परः ॥ ३८ ॥ वे शिवजी तो अपनी भंगिमाकी लीलामात्रसे संसारका सृजन और संहार करनेमें समर्थ हैं । वे निर्गुण, परमात्मा, परमेश्वर और प्रकृतिसे [सर्वधा] परे हैं ॥ ३८ ॥ यस्य च त्रिविधा मूर्त्तिर्विधातुः सृष्टिकर्मणि । सृष्टिस्थित्यन्तजननी ब्रह्मविष्णुहराभिधा ॥ ३९ ॥ सृष्टिकार्य करनेके लिये जिनकी तीन मूर्तियाँ ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वररूपसे जगत्की उत्पत्ति, पालन तथा संहार करती हैं ॥ ३९ ॥ ब्रह्मा च ब्रह्मलोकस्थो विष्णुः क्षीरोदवासकृत् । हरः कैलासनिलयः सर्वाः शिवविभूतयः ॥ ४० ॥ । ब्रह्मा ब्रह्मलोकमें रहते हैं, विष्णु क्षीरसागरमें वास करते हैं और हर कैलासमें निवास करते हैं, ये सभी शिवजीकी विभूतियाँ हैं ॥ ४० ॥ धत्ते च त्रिविधा मूर्तीः प्रकृतिः शिवसम्भवा । अंशेन लीलया सृष्टौ कलया बहुधा अपि ॥ ४१ ॥ यह सारी प्रकृति शिवजीसे ही उत्पन्न हुई है, जो तीन प्रकारकी होकर इस जगत्को धारण करती है । वह प्रकृति इस जगत्में अपनी लीलासे अंशावतारों तथा कलावतारोंके रूपोंमें अनेक प्रकारकी प्रतीत होती है ॥ ४१ ॥ मुखोद्भवा स्वयं वाणी वागधिष्ठातृदेवता । वक्षःस्थलोद्भवा लक्ष्मीः सर्वसम्पत्स्वरूपिणी ॥ ४२ ॥ उनकी वाणीरूप प्रकृति मुखसे उत्पन्न हुई हैं, जो वाणीकी अधिष्ठात्री देवी हैं । उनकी लक्ष्मीरूप प्रकृति वक्षःस्थलसे आविर्भूत हुई हैं, जो सम्पूर्ण सम्पत्तिकी अधिष्ठात्री हैं ॥ ४२ ॥ शिवा तेजःसु देवानामाविर्भावं चकार सा । निहत्य दानवान्सर्वान्देवेभ्यश्च श्रियं ददौ ॥ ४३ ॥ उनकी शिवा नामकी प्रकृति देवताओंके तेजसे प्रादुर्भूत हुई हैं, जो सभी दानवोंका वधकर देवताओंके लिये महालक्ष्मी प्रदान करती हैं ॥ ४३ ॥ प्राप कल्पान्तरे जन्म जठरे दक्षयोषितः । नाम्ना सती हरं प्राप दक्षस्तस्मै ददौ च ताम् ॥ ४४ ॥ देहं तत्याज योगेन श्रुत्वा सा भर्तृनिन्दनम् । साद्य त्वत्तस्तु मेनायां जज्ञे जठरतः शिवा ॥ ४५ ॥ ये ही शिवा इसके पूर्वकल्पमें दक्षकी पत्नीके उदरसे जन्म लेकर सती नामसे विख्यात हुई । दक्षने शंकरजीको ही दिया था, किंतु उस जन्ममें पिताके द्वारा शिवजीकी निन्दा सुनकर उन्होंने अपने शरीरको योगके द्वारा त्याग दिया । वही शिवा अब इस समय आपके द्वारा मेनाके गर्भसे उत्पन्न हुई हैं ॥ ४४-४५ ॥ शिवा शिवस्य पत्नीयं शैल जन्मनि जन्मनि । कल्पे कल्पे बुद्धिरूपा ज्ञानिनां जननी परा ॥ ४६ ॥ हे शैलराज ! इस प्रकार वे शिवा प्रत्येक जन्ममें शिवजीकी पत्नी रही हैं, वे प्रतिकल्पमें बुद्धिस्वरूपा तथा ज्ञानियोंकी माता हैं ॥ ४६ ॥ जायते स्म सदा सिद्धा सिद्धिदा सिद्धिरूपिणी । सत्या अस्थि चिताभस्म भक्त्या धत्ते हरः स्वयम् ॥ ४७ ॥ वही सिद्धा, सिद्धिदात्री एवं सिद्धिरूपिणीरूपसे सदा प्रादुर्भूत होती हैं । शिवजी सतीकी अस्थि तथा उनकी चिताकी भस्म उनके प्रेमके कारण स्वयं धारण करते हैं ॥ ४७ ॥ अतस्त्वं स्वेच्छया कन्यां देहि भद्रां हराय च । अथवा सा स्वयं कान्ता स्थाने यास्यत्यदास्यसि ॥ ४८ ॥ इसलिये आप अपनी इच्छासे इस कल्याणी कन्याको शंकरके निमित्त प्रदान कीजिये, अन्यथा आप नहीं देंगे तो भी वह स्वयं अपने पतिके पास चली जायगी ॥ ४८ ॥ कृत्वा प्रतिज्ञां देवेशो दृष्ट्वा क्लेशमसङ्ख्यकम् । दुहितुस्ते तपःस्थानमाजगाम द्विजात्मकः ॥ ४९ ॥ तामाश्वास्य वरं दत्त्वा जगाम निजमन्दिरम् । तत्प्रार्थनावशाच्छम्भुर्ययाचे त्वां शिवां गिरे ॥ ५० ॥ वे देवेश प्रतिज्ञा करके और यह देखकर कि आपकी कन्याने असंख्य क्लेश प्राप्त किये, तब ब्राह्मणका रूप धारणकर उसके तप:स्थानपर गये थे और उसे आश्वस्त करके वर देकर अपने स्थानपर लौट आये । हे पर्वत ! उसके प्रार्थना करनेपर ही वे शिवजी आपसे शिवाको माँग रहे हैं । ४९-५० ॥ अङ्गीकृतं युवाभ्यां तच्छिवभक्तिरतात्मना । विपरीतमतिर्जाता वद कस्माद्गिरीश्वर ॥ ५१ ॥ तद्गत्वा प्रभुणा देव प्रार्थितेन त्वदन्तिकम् । प्रस्थापिता वयं शीघ्रं ह्यृषयः साप्यरुन्धती ॥ ५२ ॥ उस समय आप दोनोंने शिवभक्तिमें निरत रहनेके कारण उन्हें पार्वतीको देना स्वीकार भी कर लिया, किंतु हे गिरीश्वर ! अब आप दोनोंकी ऐसी विपरीत बुद्धि क्यों हो गयी, इसे बताइये । जय सदाशिव पार्वतीकी प्रार्थनाहेतु तुम्हारे पास आये थे और तुमने उसे अस्वीकार कर दिया, तब यहाँसे लौटकर उन्होंने हम ऋषियोंको तथा अरुन्धतीको शीघ्र ही भेजा है । ५१-५२ ॥ शिक्षयामो वयं त्वा हि दत्त्वा रुद्राय पार्वतीम् । एवङ्कृते महानन्दो भविष्यति गिरे तव ॥ ५३ ॥ इसलिये हमलोग आपको उपदेश देते हैं कि आप इस पार्वतीको शीघ्रतासे रुद्रको प्रदान कीजिये । हे शैल ! ऐसा करनेसे आपको महान् आनन्दकी प्राप्ति होगी ॥ ५३ ॥ शिवां शिवाय शैलेन्द्र स्वेच्छया चेन्न दास्यसि । भविता तद्विवाहोऽत्र भवितव्यबलेन हि ॥ ५४ ॥ हे शैलेन्द्र ! यदि आप इस शिवाको शिवके लिये अपनी इच्छासे नहीं देंगे, तो भी भवितव्यताके बलसे यह विवाह अवश्य ही होगा ॥ ५४ ॥ वरं ददौ शिवायै स तपन्त्यै तात शंकरः । न हीश्वरप्रतिज्ञातं विपरीताय कल्पते ॥ ५५ ॥ हे तात ! इन शंकरने तप करती हुई इस शिवाको वरदान दिया है, ईश्वरकी प्रतिज्ञा कभी निष्फल नहीं होती ॥ ५५ ॥ अहो प्रतिज्ञा दुर्लङ्घ्या साधूनामीशवर्तिनाम् । सर्वेषां जगतां मध्ये किमीशस्य पुनर्गिरे ॥ ५६ ॥ जब ईश्वरके उपासक महात्माओंकी प्रतिज्ञा कभी विफल नहीं होती, तो फिर सारे संसारके अधिपति इन ईश्वरकी प्रतिज्ञाकी बात ही क्या ! ॥ ५६ ॥ एको महेन्द्रः शैलानां पक्षांश्चिच्छेद लीलया । पार्वती लीलया मेरोः शृङ्गभङ्गं चकार च ॥ ५७ ॥ जब अकेले महेन्द्रने लीलासे ही पर्वतोंके पंख काट डाले और पार्वतीने अकेले ही मेरुका शिखर ढहा दिया, तो उन सर्वेश्वरकी प्रतिज्ञा कैसे निष्फल हो सकती है ? ॥ ५७ ॥ एकार्थे नहि शैलेश नाश्याः सर्वा हि सम्पदः । एकं त्यजेत्कुलस्यार्थे श्रुतिरेषा सनातनी ॥ ५८ ॥ हे शैलेन्द्र ! एकके कारण सारी सम्पत्तिका नाश नहीं करना चाहिये, यह सनातनी श्रुति है कि कुलकी रक्षाके लिये एकका त्याग कर देना चाहिये ॥ ५८ ॥ दत्त्वा विप्राय स्वसुतामनरण्यो नृपेश्वर । ब्राह्मणाद्भयमापन्नो ररक्ष निजसम्पदम् ॥ ५९ ॥ [हे शैलेश्वर !] [पूर्व कालमें] अनरण्य नामक राजेश्वरने अपनी कन्या ब्राह्मणको देकर उसके शापके भयसे अपनी सम्पत्तिकी रक्षा की थी ॥ ५९ ॥ तमाशु बोधयामासुर्नीतिशास्त्रविदो जनाः । ब्रह्मशापाद्विभीतञ्च गुरवो ज्ञातिसत्तमाः ॥ ६० ॥ शैलराज त्वमप्येव सुतां दत्त्वा शिवाय च । रक्ष सर्वान्बन्धुवर्गान्वशं कुरु सुरानपि ॥ ६१ ॥ ब्राहाणके शापसे भयभीत हुए उस राजाको नीतिशास्वके ज्ञाता गुरुजनोंने एवं श्रेष्ठ बन्धुओंने समझाया था । हे शैलराज ! इसी प्रकार आप भी अपनी इस कन्याको शिवके निमित्त देकर समस्त बन्धुवाँकी रक्षा कीजिये तथा देवताओंको अपने वशमें कीजिये ॥ ६०-६१ ॥ ब्रह्मोवाच इत्याकर्ण्य वसिष्ठस्य वचनं स प्रहस्य च । पप्रच्छ नृपवार्त्ताञ्च हृदयेन विदूयता ॥ ६२ ॥ ब्रह्माजी बोले-वसिष्ठके इस वचनको सुनकर कुछ हंस करके व्यथित हृदयसे उन्होंने राजा अनरण्यका वृत्तान्त पूछा ॥ ६२ ॥ हिमालय उवाच कस्य वंशोद्भवो ब्रह्मन्ननरण्यो नृपश्चसः । सुतां दत्त्वा स च कथं ररक्षाखिलसम्पदः ॥ ६३ ॥ हिमालय बोले-हे ब्रह्मन् ! वह अनरण्य राजा किसके वंशमें उत्पन्न हुआ था और उसने अपनी कन्याको देकर किस प्रकार सम्पूर्ण सम्पत्तिकी रक्षा की थी ? ॥ ६३ ॥ ब्रह्मोवाच इति श्रुत्वा वसिष्ठस्तु शैलवाक्यं प्रसन्नधीः । प्रोवाच गिरये तस्मै नृपवार्त्ता सुखावहाम् ॥ ६४ ॥ ब्रह्माजी बोले-हिमालयके इस प्रकारके वचनको सुनकर वसिष्ठजी प्रसन्नचित्त होकर राजा अनरण्यका सुखदायक वृत्तान्त उनसे कहने लगे- ॥ ६४ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखण्डे गिरिसान्त्वनोनाम त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३३ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें गिरिसान्त्वन नामक तैतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३३ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |