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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे

द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥

सप्तर्ष्यागमनम् -
ब्राह्मण-वेषधारी शिवद्वारा शिवस्वरूपकी निन्दा सुनकर मेनाका कोपभवनमें गमन, शिवद्वारा सप्तर्षियोंका स्मरण और उन्हें हिमालयके घर भेजना, हिमालयकी शोभाका वर्णन तथा हिमालयद्वारा सप्तर्षियोंका स्वागत


ब्रह्मोवाच
ब्राह्मणस्य वचः श्रुत्वा मेनोवाच हिमालयम् ।
शोकेन साश्रुनयना हृदयेन विदूयता ॥ १ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] ब्राह्मणका यह वचन सुनकर [अश्रुपूर्ण नेत्रोंवाली] मेना व्यथित मनसे हिमालयसे कहने लगीं- ॥ १ ॥

मेनोवाच
शृणु शैलेन्द्र मद्वाक्यं परिणामे सुखावहम् ।
पृच्छ शैववरान्सर्वान्किमुक्तं ब्राह्मणेन ह ॥ २ ॥
मेना बोलीं-हे शैलेन्द्र ! परिणाममें सुख प्रदान करनेवाले मेरे वचनको सुनें, सभी श्रेष्ठ शैवोंसे पूछिये कि इस ब्राह्मणने क्या कह दिया ? ॥ २ ॥

निन्दाऽनेन कृता शम्भोर्वैष्णवेन द्विजन्मना ।
श्रुत्वा तां मे मनोऽतीव निर्विण्णं हि नगेश्वर ॥ ३ ॥
हे नगेश्वर ! इस विष्णुभक्त ब्राह्मणने शिवजीकी निन्दा की है, उसे सुनकर मेरा मन अत्यन्त दुखी है ॥ ३ ॥

तस्मै रुद्राय शैलेश न दास्यामि सुतामहम् ।
कुरूपशीलनाम्ने हि सुलक्षणयुतां निजाम् ॥ ४ ॥
हे शैलेश्वर ! मैं कुत्सित रूप एवं शीलवाले उस रुद्रको अपनी सुलक्षणा कन्या नहीं दूंगी ॥ ४ ॥

न मन्यसे वचो चेन्मे मरिष्यामि न संशयः ।
त्यक्ष्यामि च गृहं सद्यो भक्षयिष्यामि वा विषम् ॥ ५ ॥
गले बद्ध्वाम्बिकां रज्ज्वा यास्यामि गहनं वनम् ।
महाम्बुधौ मज्जयिष्ये तस्मै दास्यामि नो सुताम् ॥ ६ ॥
यदि आप मेरे वचनको नहीं मानेंगे, तो इसमें सन्देह नहीं कि मैं मर जाऊँगी, तुरंत घर छोड़ दूंगी अथवा विष खा लूँगी अथवा अम्बिकाके गलेमें रस्सी बाँधकर घोर वानमें चली जाऊँगी अथवा उसे महासागरमें डुबो दूँगी, किंतु उसको अपनी कन्या नहीं दूंगी ॥ ५-६ ॥

इत्युक्त्वाशु तथा गत्वा मेना कोपालयं शुचा ।
त्यक्त्वा हारं रुदन्ती सा चकार शयनं भुवि ॥ ७ ॥
इस प्रकार कहकर शोकसे सन्तप्त वे मेना शीघ्र कोपभवनमें जाकर हार उतारकर रोती हुई भूमिपर लेट गयीं ॥ ७ ॥

एतस्मिन्नन्तरे तात शम्भुना सप्त एव ते ।
संस्मृता ऋषयः सद्यो विरहव्याकुलात्मना ॥ ८ ॥
हे तात ! उसी समय [कालीके] विरहसे व्याकुल हुए शंकरजीने शीघ्र ही उन सप्तर्षियोंका स्मरण किया ॥ ८ ॥

ऋषयश्चैव ते सर्वे शम्भुना संस्मृता यदा ।
तदाऽऽजग्मुः स्वयं सद्यः कल्पवृक्षा इवापरे ॥ ९ ॥
अरुन्धती तथाऽऽयाता साक्षात्सिद्धिरिवापरा ।
तान्द्रष्ट्‍वा सूर्यसङ्‌काशान्विजहौ स्वजपं हरः ॥ १० ॥
जब शिवजीने उन सभी ऋषियोंका स्मरण किया, तब वे दूसरे कल्पवृक्षके समान तत्काल वहाँ उपस्थित हो गये और साक्षात् सिद्धिके समान अरुन्धती भी वहाँ आ गयीं । सूर्यके समान तेजस्वी उन ऋषियोंको देखकर शिवजीने अपना जप छोड़ दिया ॥ ९-१० ॥

स्थित्वाग्रे ऋषयः श्रेष्ठं नत्वा स्तुत्वा शिवं मुने ।
मेनिरे च तदात्मानं कृतार्थं ते तपस्विनः ॥ ११ ॥
हे मुने ! वे श्रेष्ठ तपस्वी ऋषि शिवजीके आगे खड़े होकर उन्हें प्रणामकर उनकी स्तुति करके अपनेको कृतार्थ समझने लगे ॥ ११ ॥

ततो विस्मयमापन्ना नमस्कृत्य स्थिताः पुनः ।
प्रोचुः प्राञ्जलयस्ते वै शिवं लोकनमस्कृतम् ॥ १२ ॥
तत्पश्चात् विस्मयमें पड़कर वे पुनः लोकनमस्कृत शिवको प्रणाम करके हाथ जोड़कर सामने खड़े होकर उनसे कहने लगे- ॥ १२ ॥

ऋषय ऊचुः
सर्वोत्कृष्टं महाराज सार्वभौम दिवौकसाम् ।
स्वभाग्यं वर्ण्यतेऽस्माभिः किं पुनःसकलोत्तमम् ॥ १३ ॥
ऋषिगण बोले-हे सर्वोत्कृष्ट ! हे देवताओंके सम्राट ! हे महाराज ! हमलोग अपने सर्वोत्तम भाग्यकी सराहना किस प्रकार करें ॥ १३ ॥

तपस्तप्तं त्रिधा पूर्वं वेदाध्ययनमुत्तमम् ।
अग्नयश्च हुताः पूर्वं तीर्थानि विविधानि च ॥ १४ ॥
वाङ्मनःकायजं किञ्चित्पुण्यं स्मरणसम्भवम् ।
तत्सर्वं सङ्‌गतं चाद्य स्मरणानुग्रहात्तव ॥ १५ ॥
हमलोगोंने जो पूर्व समयमें [कायिक, वाचिक तथा मानसिक] तीनों प्रकारकी तपस्या की है, उत्तम वेदाध्ययन किया है, अग्निहोत्र किया है तथा नाना प्रकारके तीर्थ किये हैं और ज्ञानपूर्वक वाणी, मन तथा शरीरसे जो कुछ भी पुण्य किया है, वह सब आज आपके स्मरणरूप अनुग्रहके प्रभावसे सफल हो गया ॥ १४-१५ ॥

यो वै भजति नित्यं त्वां कृतकृत्यो भवेन्नरः ।
किं पुण्यं वर्ण्यते तेषां येषां च स्मरणं तव ॥ १६ ॥
जो मनुष्य आपका नित्य स्मरण करता है, वह कृतकृत्य हो जाता है, तब उसके पुण्यका क्या वर्णन किया जाय, जिसका स्मरण आप करते हैं ॥ १६ ॥

सर्वोत्कृष्टा वयं जाताः स्मरणात्ते सदाशिव ।
मनोरथपथं नैव गच्छसि त्वं कथञ्चन ॥ १७ ॥
हे सदाशिव ! आपके द्वारा स्मरण किये जानेसे हमलोग सर्वोत्कृष्ट हो गये हैं,आप तो किसीके मनोरथमार्गमें किसी प्रकार आते ही नहीं हैं ॥ १७ ॥

वामनस्य फलं यद्वज्जन्मान्धस्य दृशौ यथा ।
वाचालत्वञ्च मूकस्य रङ्‌कस्य निधिदर्शनम् ॥ १८ ॥
पङ्‌गोर्गिरिवराक्रान्तिर्वन्ध्यायाः प्रसवस्तथा ।
दर्शनं भवतस्तद्वज्जातं नो दुर्लभं प्रभो ॥ १९ ॥
जिस प्रकार बौनेको फल प्राप्त हो जाता है, जन्मान्धको नेत्रकी प्राप्ति होती है, गूंगेको वाणी मिल जाती है, कंगालको निधिदर्शन हो जाता है, पंगुको ऊँचे पहाड़पर चढ़नेकी शक्ति प्राप्त हो जाती है तथा वन्ध्याको प्रसव सम्भव हो जाता है, उसी प्रकार हे प्रभो ! हमें आपका यह दुर्लभ दर्शन प्राप्त हो गया ॥ १८-१९ ॥

अद्य प्रभृति लोकेषु मान्याः पूज्या मुनीश्वराः ।
जातास्ते दर्शनादेव स्वमुच्चैः पदमाश्रिताः ॥ २० ॥
आजसे अब हम मुनीश्वर आपके दर्शनसे लोकोंमें मान्य एवं पूज्य हो गये तथा ऊँची पदवीको प्राप्त हो गये ॥ २० ॥

अत्र किं बहुनोक्तेन सर्वथा मान्यतां गताः ।
दर्शनात्तव देवेश सर्वदेवेश्वरस्य हि ॥ २१ ॥
हे देवेश ! बहुत कहनेसे क्या ? आप सर्वदेवेश्वरके दर्शनसे हम सर्वथा मान्यताको प्राप्त हो गये ॥ २१ ॥

पूर्णानां किञ्च कर्तव्यमस्ति चेत्परमा कृपा ।
सदृशं सेवकानां तु देयं कार्यं त्वया शुभम् ॥ २२ ॥
आप-जैसे पूर्ण परमात्माको किसीसे प्रयोजन ही क्या है ? किंतु यदि हम सेवकोंपर कृपा करना ही है, तो हम सबके योग्य कार्यके लिये आज्ञा प्रदान कीजिये ॥ २२ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्येवं वचनं श्रुत्वा तेषां शम्भुर्महेश्वरः ।
लौकिकाचारमाश्रित्य रम्यं वाक्यमुपाददे ॥ २३ ॥
ब्रह्माजी बोले-तब उनकी इस बातको सुनकर लोकाचारका आश्रय लेकर महेश्वर शम्भु मनोहर वचन कहने लगे- ॥ २३ ॥

शिव उवाच
ऋषयश्च सदा पूज्या भवन्तश्च विशेषतः ।
युष्माकं कारणाद्विप्राः स्मरणं च मया कृतम् ॥ २४ ॥
शिवजी बोले-हे महर्षियो ! ऋषिजन हर तरहसे पूज्य हैं, आपलोग तो विशेष रूपसे पूज्य हैं । हे विप्रो ! कुछ कारणवश मैंने आपलोगोंका स्मरण किया है ॥ २४ ॥

ममावस्था भवद्‌भिश्च ज्ञायते ह्युपकारिका ।
साधनीया विशेषेण लोकानां सिद्धिहेतवे ॥ २५ ॥
आप सब जानते हैं कि मेरी स्थिति सदैव ही परोपकार करनेवाली है और विशेषकर लोकोपकारके लिये तो मुझे यह सब करना ही पड़ता है ॥ २५ ॥

देवानां दुःखमुत्पन्नं तारकात्सुदुरात्मनः ।
ब्रह्मणा च वरौ दत्तः किं करोमि दुरासदः ॥ २६ ॥
इस समय दुरात्मा तारकासुरसे देवताओंके समक्ष दुःख उत्पन्न हो गया है, क्या करूँ, ब्रह्माजीने उसे बड़ा विकट वरदान दे रखा है ॥ २६ ॥

मूर्तयोऽष्टौ च याः प्रोक्ता मदीयाः परमर्षयः ।
ताःसर्वा उपकाराय न तु स्वार्थाय तत्स्फुटम् ॥ २७ ॥
हे महर्षियो ! मेरी जो आठ प्रकारकी मूर्तियाँ (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्र तथा बजमान) कही गयी हैं, वे सब भी परोपकारके निमित्त ही हैं, स्वार्थक लिये नहीं हैं, यह बात तो स्पष्ट है ॥ २७ ॥

तथा च कर्तुकामोहं विवाहं शिवया सह ।
तया वै सुतपस्तप्तं दुष्करं परमर्षिभिः ॥ २८ ॥
[इस परोपकारके लिये ही] मैं पार्वतीके साथ विवाह करना चाहता हूँ: उसने भी महर्षियोंके कहनेसे दुष्कर कठोर तप किया है ॥ २८ ॥

तस्यै परं फलं देयमभीष्टं तद्धितावहम् ।
एतादृशः पणो मे हि भक्तानन्दप्रदः स्फुटम् ॥ २९ ॥
उसके इच्छानुसार उसका हितकारक फल मुझे अवश्य देना चाहिये; क्योंकि भक्तोंको आनन्द देनेवाली मेरी यह स्पष्ट प्रतिज्ञा है ॥ २९ ॥

पार्वतीवचनाद्‌भिक्षुरूपो यातो गिरेर्गृहम् ।
अहं पावितवान्कालीं यतो लीलाविशारदः ॥ ३० ॥
मैं पार्वतीके वचनानुसार भिक्षुकका रूप धारणकर हिमालयके घर गया था और मुझ लीलाप्रवीणने कालीको पवित्र किया था ॥ ३० ॥

मां ज्ञात्वा तौ परं ब्रह्म दम्पती परभक्तितः ।
दातुकामावभूतां च स्वसुतां वेदरीतितः ॥ ३१ ॥
वे स्त्री-पुरुष मुझे परब्रह्म जानकर वेदरीतिसे सद्‌भक्तिसे अपनी कन्या मुझे देनेके लिये तत्पर हो गये ॥ ३१ ॥

देवप्रेरणयाऽहं वै कृतवानस्मि निन्दनम् ।
तदा स्वस्य च तद्‌भक्तिं विहन्तुं वैष्णवात्मना ॥ ३२ ॥
उसके बाद देवताओंकी प्रेरणासे वैष्णव भिक्षुका रूप धारणकर मैं उन दोनोंसे अपनी निन्दा करने लगा । उससे मेरे प्रति उनकी भक्ति नष्ट हो गयी ॥ ३२ ॥

तच्छ्रुत्वा तौ सुनिर्विण्णो तद्धीनौ सम्बभूवतुः ।
स्वकन्यां नेच्छतो दातुं मह्यं हि मुनयोऽधुना ॥ ३३ ॥
उसे सुनकर वे बड़े दुखी हो गये और मेरी भक्तिसे विमुख हो गये । हे मुनिगणो ! अब वे मुझे अपनी कन्या नहीं देना चाहते हैं ॥ ३३ ॥

तस्माद्‌भवन्तो गच्छन्तु हिमाचलगृहं ध्रुवम् ।
तत्र गत्वा गिरिवरं तत्पत्नीञ्च प्रबोधय ॥ ३४ ॥
इसलिये ! आपलोग निश्चित रूपसे हिमालयके घर जायें और वहाँ जाकर गिरिश्रेष्ठ हिमालय और उनकी पत्नीको समझायें ॥ ३४ ॥

कथनीयं प्रयत्नेन वचनं वेदसम्मितम् ।
सर्वथा करणीयं तद्यथा स्यात्कार्यमुत्तमम् ॥ ३५ ॥
आपलोग प्रयत्नपूर्वक वेदसम्मत वचन उनसे कहें और सर्वथा वही करें, जिससे यह उत्तम कार्य सिद्ध हो जाय ॥ ३५ ॥

उद्वाहं कर्तुमिच्छामि तत्पुत्र्या सह सत्तमाः ।
स्वीकृतस्तद्विवाहो मे वरो दत्तश्च तादृशः ॥ ३६ ॥
हे मुनिसत्तमो ! मैं उनकी पुत्रीके साथ विवाह करना चाहता हूँ । मैंने [देवताओं एवं विष्णुके कहनेसे] विवाह करना स्वीकार कर लिया है और [पार्वतीको] वैसा वर भी दे दिया है ॥ ३६ ॥

अत्र किं बहुनोक्तेन बोधनीयो हिमालयः ।
तथा मेना च बोद्धव्या देवानां स्याद्धितं यथा ॥ ३७ ॥
अब मैं अधिक क्या कहूँ, आपलोग हिमालय तथा मेनाको समझाइये, जिससे देवताओंका हित हो ॥ ३७ ॥

भवद्‌भिः कल्पितो यो वै विधिः स्यादधिकस्ततः ।
भवताञ्चैव कार्यं तु भवन्तः कार्यभागिनः ॥ ३८ ॥
आपलोगोंने जिस प्रकारकी विधिकी कल्पना की है, उससे भी अधिक होनी चाहिये, यह आपलोगोंका ही कार्य है और इस कार्यक भागी आपलोग ही हैं ॥ ३८ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्येवं वचनं श्रुत्वा मुनयस्तेऽमलाशयाः ।
आनन्दं लेभिरे सर्वे प्रभुणाऽनुग्रहीकृताः ॥ ३९ ॥
ब्रह्माजी बोले-इस प्रकारके वचनको सुनकर स्वच्छ अन्तःकरणवाले वे सभी महर्षि प्रभुसे अनुगृहीत हो आनन्दको प्राप्त हुए ॥ ३९ ॥

वयं धन्या अभूवँश्च कृतकृत्याश्च सर्वथा ।
वन्द्या याताश्च सर्वेषां पूजनीया विशेषतः ॥ ४० ॥
[वे ऋषि परस्पर कहने लगे] हमलोग सर्वथा धन्य तथा कृतकृत्य हो गये और विशेष रूपसे सबके वन्दनीय एवं पूजनीय हो गये ॥ ४० ॥

ब्रह्मणा विष्णुना यो वै वन्द्यः सर्वार्थसाधकः ।
सोस्मान्प्रेषयते प्रेष्यान्कार्ये लोकसुखावहे ॥ ४१ ॥
जो ब्रह्मा तथा विष्णुके भी वन्दनीय हैं और सम्पूर्ण मनोरथोंको सिद्ध करनेवाले हैं, वे हमलोगोंको अपना दूत बनाकर लोकको सुख प्रदान करनेवाले कार्यके लिये भेज रहे हैं ॥ ४१ ॥

अयं वै जगतां स्वामी पिता सा जननी मता ।
अयं युक्तश्च सम्बन्धो वर्द्धतां चन्द्रवत्सदा ॥ ४२ ॥
ये शिवजी लोकोंके स्वामी एवं पिता हैं और वे [पार्वती] जगत्को माता कही गयी हैं । [इन दोनोंका] यह उचित सम्बन्ध सर्वदा चन्द्रमाके समान बढ़ता रहे ॥ ४२ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा ऋषयो दिव्या नमस्कृत्य शिवं तदा ।
गता आकाशमार्गेण यत्रास्ति हिमवत्पुरम् ॥ ४३ ॥
दृष्ट्‍वा तां च पुरं दिव्यामृषयस्तेऽतिविस्मिताः ।
वर्णयन्तश्च स्वं पुण्यमब्रुवन्वै परस्परम् ॥ ४४ ॥
ब्रह्माजी बोले-ऐसा कहकर वे दिव्य ऋषि शिवजीको प्रणामकर आकाशमार्गसे वहाँ गये. जहाँ हिमालयका नगर है । उस दिव्य पुरीको देखते ही ऋषिगण आश्चर्यसे चकित हो गये और अपने पुण्यका वर्णन करते हुए परस्पर कहने लगे- ॥ ४३-४४ ॥

ऋषय ऊचुः
पुण्यवन्तो वयं धन्या दृष्ट्वैतद्धिमवत्पुरम् ।
यस्मादेवंविधे कार्ये शिवेनैव नियोजिताः ॥ ४५ ॥
ऋषि बोले-हिमालयके इस नगरको देखकर हम सभी पुण्यवान् एवं धन्य हो गये; क्योंकि स्वयं शिवजीने इस प्रकारके कार्यमें हमलोगोंको नियुक्त किया है ॥ ४५ ॥

अलकायाश्च स्वर्गाच्च भोगवत्यास्तथा पुनः ।
विशेषेणामरावत्या दृश्य ते पुरमुत्तमम् ॥ ४६ ॥
यह [हिमालयकी] पुरी तो अलका, स्वर्ग, भोगवती तथा विशेषकर अमरावतीसे भी उत्तम दिखायी पड़ती है ॥ ४६ ॥

सुगृहाणि सुरम्याणि स्फटिकैर्विविधैर्वरैः ।
मणिभिर्वा विचित्राणि रचितान्यङ्‌गणानि च ॥ ४७ ॥
सूर्यकान्ताश्च मणयश्चन्द्रकान्तास्तथैव च ।
गृहे गृहे विचित्राश्च वृक्षाः स्वर्गसमुद्‌भवाः ॥ ४८ ॥
इस पुरीके अत्यन्त मनोहर एवं विचित्र घर और ऑगन स्फटिक तथा नाना प्रकारकी उत्तम मणियोंसे बनाये गये हैं । इस पुरीके प्रत्येक घरमें सूर्यकान्त एवं चन्द्रकान्त मणियाँ विद्यमान हैं तथा अद्‌भुत स्वर्गीय वृक्ष लगे हुए हैं । ४७-४८ ॥

तोरणानां तथा लक्ष्मीर्दृश्यते च गृहेगृहे ।
विविधानि विचित्राणि शुकहंसैर्विमानकैः ॥ ४९ ॥
तोरणोंकी शोभा घर-घरमें दिखायी दे रही है । इस पुरके विमानोंमें तोते तथा हंस बोल रहे हैं ॥ ४९ ॥

वितानानि विचित्राणि चैलवत्तोरणैः सह ।
जलाशयान्यनेकानि दीर्घिका विविधाः स्थिताः ॥ ५० ॥
विचित्र प्रकारके वितान चित्र-विचित्र कपड़ोंके बने हैं, जिनमें बन्दनवार बंधे हैं । वहाँ अनेक जलाशय तथा विविधं बावलियाँ हैं ॥ ५० ॥

उद्यानानि विचित्राणि प्रसन्नैः पूजितान्यथ ।
नराश्च देवताः सर्वे स्त्रियश्चाप्सरसस्तथा ॥ ५१ ॥
वहाँ विचित्र उद्यान हैं, जिनका लोग प्रसन्नचित्त होकर सेवन करते हैं । यहाँक सभी पुरुष देवताके सदृश तथा स्त्रियाँ अप्सराओंके सदृश हैं ॥ ५१ ॥

कर्मभूमौ याज्ञिकाश्च पौराणाःस्वर्गकाम्यया ।
कुर्वन्ति ते वृथा सर्वे विहाय हिमवत्पुरम् ॥ ५२ ॥
हिमालयके पुरको छोड़कर स्वर्गकी कामनासे कर्मभूमिमें याज्ञिक एवं पौराणिक लोग व्यर्थ ही अनुष्ठान करते रहते हैं ॥ ५२ ॥

यावन्न दृष्टमेतच्च तावत्स्वर्गपरा नराः ।
दृष्ट्रमेतद्यदा विप्राः किं स्वर्गेण प्रयोजनम् ॥ ५३ ॥
हे विप्रो ! मनुष्योंको स्वर्गकी तभीतक कामना रहती है, जबतक उन्होंने इस पुरीको नहीं देखा, जब इसे देख लिया, तो स्वर्गसे क्या प्रयोजन ? ॥ ५३ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्येवमृषिवर्यास्ते वर्णयन्तः पुरञ्च तत् ।
गता हैमालयं सर्वे गृहं सर्वसमृद्धिमत् ॥ ५४ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] इस प्रकार उस पुरीका वर्णन करते हुए वे सभी ऋषि सब प्रकारकी समृद्धिसे युक्त हिमालयके घर पहुँचे ॥ ५४ ॥

तान्द्रष्ट्‍वा सूर्यसङ्‌काशान् हिमवान्विस्मितोऽब्रवीत् ।
दूरादाकाशमार्गस्थान्मुनीन्सप्त सुतेजसः ॥ ५५ ॥
आकाशमार्गसे आते हुए सूर्यके समान अत्यन्त तेजस्वी उन सात ऋषियोंको दूरसे ही देखकर हिमवान् विस्मित हो [मनमें] कहने लगे ॥ ५५ ॥

हिमवानुवाच
सप्तैते सूर्यसङ्‌काशाः समायान्ति मदन्तिके ।
पूजा कार्या प्रयत्नेन मुनीनां च मयाऽधुना ॥ ५६ ॥
हिमवान् बोले-ये सूर्यके समान तेजस्वी सप्तर्षिगण मेरे पास आ रहे हैं, मुझे इस समय प्रयत्नपूर्वक इन मुनियोंकी पूजा करनी चाहिये ॥ ५६ ॥

वयं धन्या गृहस्थाश्च सर्वेषां सुखदायिनः ।
येषां गृहे समायान्ति महात्मानो यदीदृशाः ॥ ५७ ॥
हम गृहस्थलोग धन्य हैं, जिनके घर सभीको सुख प्रदान करनेवाले इस प्रकारके महात्मा [स्वयं] आते हैं । ५७ ॥

ब्रह्मोवाच
एतस्मिन्नन्तरे चैवाकाशादेत्य भुवि स्थितान् ।
सन्मुखे हिमवान्दृष्ट्‍वा ययौ मानपुरःसरम् ॥ ५८ ॥
ब्रह्माजी बोले-इसी बीच आकाशसे उतरकर पृथिवीपर स्थित हुए उन सबको अपने सम्मुख देखकर हिमालय सम्मानपूर्वक उनके पास गये ॥ ५८ ॥

कृताञ्जलिर्नतस्कन्धः सप्तर्षीन्सुप्रणम्य सः ।
पूजां चकार तेषां वै बहुमानपुरःसरम् ॥ ५९ ॥
उन्होंने हाथ जोड़कर सिर झुकाकर उन सप्तर्षियोंको प्रणाम करके पुन: बड़े सम्मानके साथ उनकी पूजा की ॥ ५९ ॥

हिताःसप्तर्षयस्ते च हिमवन्तं नगेश्वरम् ।
गृहीत्वोचुः प्रसन्नास्या वचनं मंगलालयम् ॥ ६० ॥
उस पूजाको स्वीकार करके हित करनेवाले प्रसन्नमुख सप्तर्षियोंने गिरिराज हिमालयसे कुशलमंगल पूछा ॥ ६० ॥

यथाग्रतश्च तान्कृत्वा धन्या मम गृहाश्रमः ।
इत्युक्त्वासनमानीय ददौ भक्तिपुरःसरम् ॥ ६१ ॥
आसनेषूपविष्टेषु तदाज्ञप्तः स्वयं स्थितः ।
उवाच हिमवाँस्तत्र मुनीञ्ज्योतिर्मयास्तदा ॥ ६२ ॥
मेरा गृहस्थाश्रम धन्य हो गया-हिमालयने ऐसा कहकर उन्हें आगे करके आसन लाकर भक्तिपूर्वक समर्पित किया । आसनोंपर उनके बैठ जानेपर पुन: उनसे आज्ञा लेकर वे हिमालय स्वयं भी बैठ गये और इसके बाद तेजस्वी ऋषियोंसे कहने लगे- ॥ ६१-६२ ॥

हिमालय उवाच
धन्यो हि कृतकृत्योहं सफलं जीवितं मम ।
लोकेषु दर्शनीयोऽहं बहुतीर्थसमो मतः ॥ ६३ ॥
यस्माद्‌भवन्तो मद्‌गेहमागता विष्णुरूपिणः ।
पूर्णानां भवतां कार्यं कृपणानां गृहेषु किम् ॥ ६४ ॥
तथापि किञ्चित्कार्यं च सदृशं सेवकस्य मे ।
कथनीयं सुदयया सफलं स्याज्जनुर्मम ॥ ६५ ॥
हिमालय बोले-मैं धन्य तथा कृतकृत्य हो गया, मेरा जीवन सफल हो गया, मैं लोकोंमें दर्शनीय तथा अनेक तीर्थोंके समान हो गया हूँ; क्योंकि विष्णुस्वरूप आपलोग मेरे घर पधारे हैं । कृपोंके घरोंमें [हर प्रकारसे परिपूर्ण आपलोगोंको कौन-सा कार्य हो सकता है ? तो भी मुझ सेवकके योग्य जो कुछ कार्य हो, उसे दयापूर्वक कहिये, जिससे मेरा जन्म सफल हो जाय ॥ ६३-६५ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायान्तृतीये
पार्वतीखण्डे सप्तर्ष्यागमनवर्णनं नाम द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें सप्तर्षियोंका आगमनवर्णन नामक बत्तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३२ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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