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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे
पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ पद्मापिप्पलादचरितवर्णनम् -
धर्मराजद्वारा मुनि पिप्पलादकी भार्या सती पद्याके पातिव्रत्यकी परीक्षा, पद्याद्वारा धर्मराजको शाप प्रदान करना तथा पुन: चारों युगोंमें शापकी व्यवस्था करना, पातिव्रत्यसे प्रसन्न हो धर्मराजद्वारा पद्माको अनेक वर प्रदान करना, महर्षि वसिष्ठद्वारा हिमवानसे पद्माके दृष्टान्तद्वारा अपनी पुत्री शिवको सौंपनेके लिये कहना - नारद उवाच अनरण्यस्य चरितं सुतादानसमन्वितम् । श्रुत्वा गिरिवरस्तात किं चकार च तद्वद ॥ १ ॥ नारदजी बोले-हे तात ! अनरण्यके कन्यादानसम्बन्धी चरित्रको सुनकर गिरिश्रेष्ठने क्या किया, उसे कहिये ॥ १ ॥ ब्रह्मोवाच अनरण्यस्य चरितं कन्यादानसमन्वितम् । श्रुत्वा पप्रच्छ शैलेशो वसिष्ठं साञ्जलिः पुनः ॥ २ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे तात ! अनरण्यका कन्यादानसम्बन्धी चरित्र सुनकर गिरिराजने हाथ जोड़कर वसिष्ठजीसे पुनः पूछा- ॥ २ ॥ शैलेश उवाच वसिष्ठ मुनिशार्दूल ब्रह्मपुत्र कृपानिधे । अनरण्यचरित्रन्ते कथितं परमाद्भुतम् ॥ ३ ॥ शैलेश बोले-हे वसिष्ठ ! हे मुनिशार्दूल ! हे ब्रह्मपुत्र ! हे कृपानिधे ! आपने अनरण्यका परम अद्धत चरित्र कहा ॥ ३ ॥ अनरण्यसुता यस्मात् पिप्पलादं मुनिं पतिम् । सम्प्राप्य किमकार्षीत्सा तच्चरित्रं मुदावहम् ॥ ४ ॥ तदनन्तर अनरण्यकी कन्याने पिप्पलाद मुनिको पतिरूपमें प्राप्त करनेके अनन्तर क्या किया ? वह सुखदायक चरित्र आप कहिये ॥ ४ ॥ वसिष्ठ उवाच पिप्पलादो मुनिवरो वयसा जर्जरोऽधिकः । गत्वा निजाश्रमं नार्यानरण्यसुतया तया ॥ ५ ॥ उवास तत्र सुप्रीत्या तपस्वी नातिलम्पटः । तत्रारण्ये गिरिवर स नित्यं निजधर्मकृत् ॥ ६ ॥ वसिष्ठजी बोले-अवस्थासे जर्जर मुनिश्रेष्ठ पिप्पलाद अनरण्यकी उस कन्याके साथ अपने आश्रममें जाकर बड़े प्रेमसे निवास करने लगे । हे गिरिराज ! वे वहाँ बनमें श्रेष्ठ पर्वतपर इन्द्रियोंको वशमें करके तपस्यापरायण हो नित्य अपने धर्मका पालन करने लगे ॥ ५-६ ॥ अथानरण्यकन्या सा सिषेवे भक्तितो मुनिम् । कर्मणा मनसा वाचा लक्ष्मीनारायणं यथा ॥ ७ ॥ एकदा स्वर्णदीं स्नातुं गच्छन्तीं सुस्मितां च ताम् । ददर्श पथि धर्मश्च मायया नृपरूपधृक् ॥ ८ ॥ वह अनरण्यकन्या भी मन, वचन तथा कर्मसे भक्तिपूर्वक मुनिकी सेवा करने लगी, जिस प्रकार लक्ष्मी नारायणकी सेवा करती है । किसी समय जब वह सुस्मित-भाषिणी गंगास्नान करने जा रही थी, तब मायासे मनुष्यरूप धारण किये धर्मराजने उसे रास्तेमें देखा ॥ ७-८ ॥ चारुरत्नरथस्थश्च नानालंकारभूषितः । नवीनयौवनःश्रीमान्कामदेवसभप्रभः ॥ ९ ॥ दृष्ट्वा तां सुन्दरीं पद्मामुवाच स वृषो विभुः । विज्ञातुं भावमन्तःस्थं तस्याश्च मुनियोषितः ॥ १० ॥ वे अनेक प्रकारके अलंकारोंसे भूषित, मनोहर रलॉसे जटित रथपर विराजमान थे । वे नवयौवनसे सम्पन्न एवं कामदेवके समान अत्यन्त कमनीय थे । प्रभु धर्म उस सुन्दरी पद्माको देखकर उस मुनिपत्नीके अन्त:करणका भाव जाननेके लिये उससे कहने लगे- ॥ ९-१० ॥ धर्म उवाच अयि सुन्दरि लक्ष्मीर्वै राजयोग्ये मनोहरे । अतीव यौवनस्थे च कामिनि स्थिरयौवने ॥ ११ ॥ धर्म बोले-हे सुन्दरि ! हे राजयोग्ये ! हे मनोहरे ! हे नवीन यौवनवाली ! हे कामिनि ! हे नित्य युवावस्थामें रहनेवाली ! तुम तो साक्षात् लक्ष्मी हो ॥ ११ ॥ जरातुरस्य वृद्धस्य पिप्पलादस्य वै मुनेः । सत्यं वदामि तन्वङ्गि समीपे नैव राजसे ॥ १२ ॥ हे तन्वंगि ! मैं सत्य कहता हूँ कि तुम जराग्रस्त पिप्पलाद मुनिके समीप शोभित नहीं हो रही हो ॥ १२ ॥ विप्रं तपःसु निरतं निर्घृणं मरणोन्मुखम् । त्वक्त्वा मां पश्य राजेन्द्रं रतिशूरं स्मरातुरम् ॥ १३ ॥ तुम तपस्या में लगे हुए, क्रोधी तथा मरणोन्मुख ब्राह्मणको त्यागकर मुझ राजेन्द्र, कामकलामें निपुण एवं कामातुरकी ओर देखो ॥ १३ ॥ प्राप्नोति सुन्दरी पुण्यात्सौन्दर्यं पूर्वजन्मनः । सफलं तद्भवेत्सर्वं रसिकालिङ्गनेन च ॥ १४ ॥ सुन्दरी स्त्री अपने पूर्वजन्ममें किये गये पुण्यके प्रभावसे ही सौन्दर्यको प्राप्त करती है । किंतु वह सब किसी रसिकके आलिंगनसे ही सफल होता है ॥ १४ ॥ सहस्रसुन्दरीकान्तं कामशास्त्रविशारदम् । किङ्करं कुरु मां कान्ते सम्परित्यज्य तं पतिम् ॥ १५ ॥ निर्जने कानने रम्ये शैले शैले नदीतटे । विहरस्व मया सार्द्धं जन्मेदं सफलं कुरु ॥ १६ ॥ हे कान्ते ! तुम इस जरा-जर्जर पतिको छोड़कर हजारों स्त्रियोंके कान्त तथा कामशास्त्रके विशारद मुझे अपना किंकर बनाओ और निर्जन मनोहर वनमें, पर्वतपर तथा नदीके तटपर मेरे साथ विहार करो तथा इस जन्मको सफल करो ॥ १५-१६ ॥ वसिष्ठ उवाच इत्येवमुक्तवन्तं सा स्वरथादवरुह्य च । ग्रहीतुमुत्सुकं हस्ते तमुवाच पतिव्रता ॥ १७ ॥ वसिष्ठजी बोले-इस प्रकार कहकर वे ज्यों ही रथसे उतरकर उसका हाथ पकड़ना ही चाहते थे कि वह पतिव्रता कहने लगी- ॥ १७ ॥ पद्मोवाच गच्छ दूरं गच्छ दूरं पापिष्ठस्त्वं नराधिप । मां चेत्पश्यसि कामेन सद्यो नष्टो भविष्यसि ॥ १८ ॥ पद्मा बोली-हे राजन् ! तुम तो बड़े पापी हो, दूर हट जाओ, दूर हट जाओ, यदि तुमने मुझे और सकाम भावसे देखा, तो शीघ्र ही नष्ट हो जाओगे ॥ १८ ॥ पिप्पलादं मुनि श्रेष्ठं तपसा पूतविग्रहम् । त्यक्त्वा कथं भजेयं त्वां स्त्रीजितं रतिलम्पटम् ॥ १९ ॥ मैं तपस्यासे पवित्र शरीरवाले उन मुनिश्रेष्ठ पिप्पलादको छोड़कर परस्त्रीगामी एवं स्त्रीके वशमें रहनेवाले तुमको कैसे स्वीकार कर सकती हूँ ? ॥ १९ ॥ स्त्रीजितस्पर्शमात्रेण सर्वं पुण्यं प्रणश्यति । स्त्रीजितः परपापी च तद्दर्शनमघावहम् ॥ २० ॥ सत्क्रियो ह्यशुचिर्नित्यं स पुमान् यः स्त्रिया जितः । निन्दन्ति पितरो देवा मानवाः सकलाश्च तम् ॥ २१ ॥ स्त्रीके वशमें रहनेवालेके स्पर्शमात्रसे सारा पुण्य नष्ट हो जाता है । जो स्त्रीजित् तथा दूसरेकी हत्या करनेवाला पापी है, उसका दर्शन भी पाप उत्पन्न करनेवाला होता है । जो पुरुष स्त्रीके वशमें रहनेवाला है, वह सत्कर्ममें लगे रहनेपर भी सदा अपवित्र है । पितर, देवता तथा सभी मनुष्य उसकी निन्दा करते हैं । २०-२१ ॥ तस्य किं ज्ञान सुतपोजपहोमप्रपूजनैः । विद्यया दानतः किं वा स्त्रीभिर्यस्य मनो हृतम् ॥ २२ ॥ मातरं मां स्त्रियो भावं कृत्वा येन ब्रवीषि ह । भविष्यति क्षयस्तेन कालेन मम शापतः ॥ २३ ॥ जिसका मन स्त्रियोंके द्वारा हर लिया गया है, उसके ज्ञान, उत्तम तप, जप, होम, पूजन, विद्या तथा दानसे क्या लाभ है ! तुमने माताके समान मुझमें स्त्रीकी भावनासे जो इस प्रकारकी बात कही है, इसलिये समय आनेपर मेरे शापसे तुम्हारा नाश हो जायगा ॥ २२-२३ ॥ वसिष्ठ उवाच श्रुत्वा धर्मः सतीशापं नृप मूर्तिं विहाय च । धृत्वा स्वमूर्तिं देवेशः कम्पमान उवाच सः ॥ २४ ॥ वसिष्ठजी बोले-सतौके शापको सुनकर वे देवेश धर्मराज राजाका रूप त्यागकर अपना स्वरूप धारणकर कांपते हुए कहने लगे- ॥ २४ ॥ धर्म उवाच मातर्जानीहि मां धर्मं ज्ञानिनां च गुरोर्गुरुम् । परस्त्रीमातृबुद्धिं च कुर्वन्तं सततं सति ॥ २५ ॥ थर्म बोले-हे मातः ! हे सति ! आप मुझे ज्ञानियोंके गुरुओंका भी गुरु तथा परायी स्त्रीमें सर्वदा मातृबुद्धि रखनेवाला समझें ॥ २५ ॥ अहं तवान्तरं ज्ञातुमागतस्तव सन्निधिम् । तवाहञ्च मनो जाने तथापि विधिनोदितः ॥ २६ ॥ कृतं मे दमनं साध्वि न विरुद्धं यथोचितम् । शास्तिः समुत्पथस्थानामीश्वरेण विनिर्मिता ॥ २७ ॥ मैं आपके मनोभावकी परीक्षा लेनेके लिये आपके पास आया था और आपका अभिप्राय जान लिया, किंतु हे साध्वि ! विधिसे प्रेरित होकर आपने [शाप देकर] मेरा गर्व नष्ट किया । यह तो आपने उचित ही किया, कोई विरुद्ध कार्य नहीं किया । इस प्रकारका शासन उन्मार्गगामियोंके लिये ईश्वरद्वारा निर्मित है ॥ २६-२७ ॥ स्वयं प्रदाता सर्वेभ्यः सुखदुःखवरान्क्षमः । सम्पदं विपदं यो हि नमस्तस्मै शिवाय हि ॥ २८ ॥ शत्रुं मित्रं संविधातुं प्रीतिञ्च कलहं क्षमः । स्रष्टुं नष्टुं च यःसृष्टिं नमस्तस्मै शिवाय हि ॥ २९ ॥ जो स्वयं सबको महान् सुख-दुःख देनेवाले हैं और सम्पत्ति तथा विपत्ति देनेमें समर्थ हैं, उन शिवके प्रति नमस्कार है । जो शत्रु मित्र, प्रीति तथा कलहका विधान करनेमें और सृष्टिका सृजन एवं संहार करनेमें समर्थ हैं, उन शिवको नमस्कार है ॥ २८-२९ ॥ येन शुक्लीकृतं क्षीरं जले शैत्यं कृतं पुरा । दाहीकृतो हुता शश्च नमस्तस्मै शिवाय हि ॥ ३० ॥ प्रकृतिर्निर्मिता येन तत्त्वानि महदादितः । ब्रह्मविष्णुमहेशाद्या नमस्तस्मै शिवाय हि ॥ ३१ ॥ जिन्होंने पूर्वकालमें दूधको शुक्लवर्णका बनाया, जलमें शैत्य उत्पन्न किया और अग्निको दाहकताशक्ति प्रदान की, उन शिवको नमस्कार है । जिन्होंने प्रकृतिका, महत् आदि तत्त्वोंका एवं ब्रह्मा, विष्णु-महेश आदिका निर्माण किया है, उन शिवको नमस्कार है ॥ ३०-३१ ॥ ब्रह्मोवाच इत्युक्त्वा पुरतस्तस्यास्तस्थौ धर्मो जगद्गुरुः । किञ्चिन्नोवाच चकितस्तत्पातिव्रत्यतोषितः ॥ ३२ ॥ पद्मापि नृपकन्या सा पिप्पलादप्रिया तदा । साध्वी तं धर्ममाज्ञाय विस्मितोवाच पर्वत ॥ ३३ ॥ ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार कहकर जगद्गुरु धर्मराज उस पतिव्रताके आगे खड़े हो गये । वे उसके पातिव्रत्यसे सन्तुष्ट होकर आश्चर्यसे चकित रह गये और कुछ भी नहीं बोल सके । हे पर्वत ! तब अनरण्यकी कन्या तथा पिप्पलादकी पत्नी वह साध्वी पद्मा उन्हें धर्मराज जानकर चकित होकर कहने लगी- ॥ ३२-३३ ॥ पद्मोवाच त्वमेव धर्म सर्वेषां साक्षी निखिलकर्मणाम् । कथं मनो मे विज्ञातुं विडम्बयसि मां विभो ॥ ३४ ॥ पद्या बोली-हे धर्म ! आप ही सबके समस्त कर्मों के साक्षी हैं, हे विभो ! आपने मेरे मनका भाव जाननेके लिये कपटरूप क्यों धारण किया ? ॥ ३४ ॥ यत्तत्सर्वं कृतं ब्रह्मन् नापराधो बभूव मे । त्वं च शप्तो मयाऽज्ञानात्स्त्रीस्वभावाद् वृथा वृष ॥ ३५ ॥ हे ब्रह्मन् ! यह जो कुछ मैंने किया, उसमें मेरा अपराध नहीं है । हे धर्म ! मैंने अज्ञानसे स्त्रीस्वभावके कारण आपको व्यर्थ ही शाप दे दिया ॥ ३५ ॥ का व्यवस्था भवेत्तस्य चिन्तयामीति साम्प्रतम् । चित्ते स्फुरतु सा बुद्धिर्यया शं सँल्लभामि वै ॥ ३६ ॥ मैं इस समय यही सोच रही हैं कि उस शापकी क्या व्यवस्था होनी चाहिये, मेरे चित्तमें अब वह बुद्धि स्फुरित हो, जिससे मैं शान्ति प्राप्त करूँ ॥ ३६ ॥ आकाशोसौ दिशःसर्वा यदि नश्यन्तु वायवः । तथापि साध्वीशापस्तु न नश्यति कदाचन ॥ ३७ ॥ यह आकाश, सभी दिशाएँ तथा वायु भले ही नष्ट हो जायँ, किंतु पतिव्रताका शाप कभी नष्ट नहीं होता ॥ ३७ ॥ सत्ये पूर्णश्चतुष्पादः पौर्ण मास्यां यथा शशी । विराजसे देवराज सर्वकालं दिवानिशम् ॥ ३८ ॥ त्वञ्च नष्टो भवसि चेत्सृष्टिनाशो भवेत्तदा । इति कर्तव्यतामूढा वृथापि च वदाम्यहम् ॥ ३९ ॥ हे देवराज ! आप सत्ययुगमें अपने चारों पैरोंसे सभी समय पूर्णमासीके चन्द्रमाके समान दिन-रात शोभित रहते हैं । यदि आप नष्ट हो जायेंगे, तब तो सृष्टिका ही नाश हो जायगा । किंकर्तव्यविमूढ होकर मैंने यह झूठा शाप दे दिया है । ३८-३९ ॥ पादक्षयश्च भविता त्रेतायां च सुरोत्तम । पादोपरे द्वापरे च तृतीयोऽपि कलौ विभो ॥ ४० ॥ कलिशेषेऽखिलाश्छिन्ना भविष्यन्ति तवाङ्घ्रयः । पुनःसत्ये समायाते परिपूर्णो भविष्यसि ॥ ४१ ॥ हे सुरोत्तम ! हे विभो ! [अब आप मेरे शापकी व्यवस्था सुनिये । ] त्रेतायुगमें आपका एक पाद, द्वापरमें दो पाद और कलियुगमें तीन पाद नष्ट होगा और कलिके अन्तमें आपके सभी पाद नष्ट हो जायेंगे । तदनन्तर सत्ययुग आनेपर आपः पुनः पूर्ण हो जायगे ॥ ४०-४१ ॥ सत्ये सर्वव्यापकस्त्वं तदन्येषु च कु त्रचित् । युगव्यवस्थया स त्वं भविष्यसि तथा तथा ॥ ४२ ॥ इत्येवं वचनं सत्यं ममास्तु सुखदं तव । याम्यहं पतिसेवायै गच्छ त्वं स्वगृहं विभो ॥ ४३ ॥ सत्ययुगमें आप सर्वव्यापक रहेंगे और अन्य युगोंमें युग-व्यवस्थानुसार आप कहीं कहीं जैसे-तैसे घटतेबढ़ते रहेंगे । मेरा यह सत्य वचन आपके लिये सुखदायक हो । हे विभो ! अब मैं अपने पतिकी सेवाके लिये जा रही हूँ और आप अपने घर जायें ॥ ४२-४३ ॥ ब्रह्मोवाच इत्याकर्ण्य वचस्तस्याः सन्तुष्टोभूद् वृषः स वै । तदेवंवादिनीं साध्वीमुवाच विधिनन्दन ॥ ४४ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे ब्रह्मपुत्र नारद ! पद्माके इस वचनको सुनकर धर्मराज प्रसन्न हो गये और इस प्रकार कहनेवाली उस साध्वीसे कहने लगे- ॥ ४४ ॥ धर्म उवाच धन्यासि पतिभक्तासि स्वस्ति तेस्तु पतिव्रते । वरं गृहाण त्वत्स्वामी त्वत्परित्राणकारणात् ॥ ४५ ॥ युवा भवतु ते भर्ता रतिशूरश्च धार्मिकः । रूपवान् गुणवान्वाग्मी सन्ततस्थिरयौवनः ॥ ४६ ॥ धर्म बोले-हे पतिव्रते ! तुम धन्य हो, तुम पतिभक्त हो, तुम्हारा कल्याण हो । तुम वर स्वीकार करो । तुम्हारा स्वामी तुम्हारी रक्षा करनेके कारण युवा हो जाय । तुम्हारा पति रतिमें शूर, धार्मिक, रूपवान्, गुणवान्, वक्ता और सदा स्थिर यौवनवाला हो ॥ ४५-४६ ॥ चिरञ्जीवी स भवतु मार्कण्डेयात्परः शुभे । कुबेराद्धनवाँश्चैव शक्रादैश्वर्यवानपि ॥ ४७ ॥ शिवभक्तो हरिसमः सिद्धस्तु कपिलात्परः । बुद्ध्या बृहस्पतिसमः समत्वेन विधेः समः ॥ ४८ ॥ हे शुभे ! वह मार्कण्डेयसे भी बढ़कर चिरंजीवी हो, कुबेरसे भी अधिक धनवान् तथा इन्द्रसे भी अधिक ऐश्वर्यशाली रहे । वह विष्णुके समान शिवभक्त, कपिलके समान सिद्ध, बुद्धिमें बृहस्पतिके समान तथा समदर्शितामें ब्रह्मदेवके समान हो ॥ ४७-४८ ॥ स्वामिसौभाग्यसंयुक्ता भव त्वं जीवनावधि । तथा च सुभगे देवि त्वं भव स्थिरयौवना ॥ ४९ ॥ तुम जीवनपर्यन्त स्वामीके सौभाग्यसे संयुक्त रहो और हे सुभगे ! हे देवि ! तुम्हारा भी यौवन स्थिर रहे ॥ ४९ ॥ माता त्वं दशपुत्राणां गुणिनां चिरजीविनाम् । स्वभर्तुरधिकानां च भविष्यसि न संशयः ॥ ५० ॥ तुम अपने पतिसे भी अधिक चिरंजीवी एवं गुणवान् दस पुत्रोंकी माता होओगी, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५० ॥ गृहा भवन्तु ते साध्वि सर्वसम्पत्समन्विताः । प्रकाशवन्तः सततं कुबेरभवनाधिकाः ॥ ५१ ॥ हे साध्वि ! तुम्हारे घर नाना प्रकारको सम्पत्तिसे पूर्ण, निरन्तर प्रकाशयुक्त तथा कुबेरके भवनसे भी श्रेष्ठ हों ॥ ५१ ॥ वसिष्ठ उवाच इत्येवमुक्ता सन्तस्थौ धर्मः स गिरिसत्तम । सा तं प्रदक्षिणीकृत्य प्रणम्य स्वगृहं ययौ ॥ ५२ ॥ वसिष्ठ बोले-हे गिरिश्रेष्ठ ! इस प्रकार कहकर धर्मराज चुप होकर खड़े हो गये और वह भी उनकी प्रदक्षिणाकर उन्हें प्रणाम करके अपने घर चली गयी ॥ ५२ ॥ धर्मस्तथाशिषो दत्वा जगाम निजमन्दिरम् । प्रशशंस च तां प्रीत्या पद्मां संसदि संसदि ॥ ५३ ॥ सा रेमे स्वामिना सार्द्धं यूना रहसि सन्ततम् । पश्चाद्बभूवु सत्पुत्रास्तद्भर्तुरधिका गुणैः ॥ ५४ ॥ धर्मराज भी [पद्माको] आशीर्वाद देकर अपने घर चले गये और वे प्रत्येक सभामें प्रसन्न मनसे पद्माकी प्रशंसा करने लगे । तदनन्तर वह [पद्मा] अपने युवा स्वामीके साथ नित्य एकान्तमें रमण करने लगी । बादमें उसके पतिसे भी अधिक गुणवान् उत्तम पुत्र उत्पन्न हुए ॥ ५३-५४ ॥ बभूव सकला सम्पद्दम्पत्योः सुखवर्द्धिनी । सर्वानन्दवृद्धिकरी परत्रेह च शर्मणे ॥ ५५ ॥ स्त्री एवं पुरुषोंको सुख देनेवाली सारी सम्पत्ति उनके पास हो गयी, जो सब प्रकारके आनन्दको बढ़ानेवाली और इस लोक तथा परलोकमें कल्याणकारिणी हुई ॥ ५५ ॥ शैलेन्द्र कथितं सर्वमितिहासं पुरातनम् । दम्पत्योश्च तयोः प्रीत्या श्रुतं ते परमादरात् ॥ ५६ ॥ हे शैलेन्द्र ! उन दोनों स्त्री-पुरुषोंका यह सारा पुरातन इतिहास मैंने आपसे वर्णन किया और आपने इसे अत्यन्त आदरपूर्वक सुना ॥ ५६ ॥ बुद्ध्वा तत्त्वं सुतां देहि पार्वतीमीश्वराय च । कुरुषं त्यज शैलेन्द्र मेनया स्वस्त्रिया सह ॥ ५७ ॥ अतः आप इस चरित्रको जानकर अपनी कन्या पार्वतीको शिवजीको प्रदान कीजिये और हे शैलेन्द्र ! अपनी स्त्री मेनाके सहित अपना हठ छोड़ दीजिये ॥ ५७ ॥ सप्ताहे समतीते तु दुर्लभेति शुभे क्षणे । लग्नाधिपे च लग्नस्थे चन्द्रे स्वत्नयान्विते ॥ ५८ ॥ मुदिते रोहिणीयुक्ते विशुद्धे चन्द्रतारके । मार्गमासे चन्द्रवारे सर्वदोषविवर्जिते ॥ ५९ ॥ सर्वसद्ग्रहसंसृष्टऽसद्ग्रहदृष्टिवर्जिते । सदपत्यप्रदे जीवे पतिसौभाग्यदायिनि ॥ ६० ॥ एक सप्ताह बीतनेपर एक दुर्लभ उत्तम शुभयोग आ रहा है । उस लग्नमें लग्नका स्वामी स्वयं अपने घरमें स्थित है और चन्द्रमा भी अपने पुत्र बुधके साथ स्थित रहेगा । चन्द्रमा रोहिणीयुक्त होगा, इसलिये चन्द्र तथा तारागणोंका योग भी उत्तम है । मार्गशीर्षका महीना है, उसमें भी सर्वदोषविवर्जित चन्द्रवारका दिन है, वह लग्न सभी उत्तम ग्रहोंसे युक्त तथा नीच ग्रहोंकी दृष्टिसे रहित है । उस शुभ लग्नमें बृहस्पति उत्तम सन्तान तथा पतिका सौभाग्य प्रदान करनेवाले हैं । ५८-६० ॥ जगदम्बां जगत्पित्रे मूलप्रकृतिमीश्वरीम् । कन्यां प्रदाय गिरिजां कृती त्वं भव पर्वत ॥ ६१ ॥ हे पर्वत ! [ऐसे शुभ लग्नमें] अपनी कन्या मूल प्रकृतिरूपा ईश्वरी जगदम्बाको जगत्पिता शिवजीके लिये प्रदान करके आप कृतार्थ हो जायेंगे ॥ ६१ ॥ ब्रह्मोवाच इत्युक्त्वा मुनिशार्दूलो वसिष्ठो ज्ञानिसत्तमः । विरराम शिवं स्मृत्वा नानालीलाकरं प्रभुम् ॥ ६२ ॥ ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] यह कहकर ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ मुनिशार्दूल वसिष्ठजी अनेक लीला करनेवाले प्रभु शिवका स्मरण करके चुप हो गये ॥ ६२ ॥ इति श्रीशिव महापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखण्डे पद्मापिप्पलादचरितवर्णनं नाम पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३५ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें पद्यापिप्पलादचरितवर्णन नामक पैंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३५ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |