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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे

षट्त्रिंशोऽध्यायः ॥

हिमालयस्य शिवाय कालीप्रदाननिश्चयवर्णनम् -
सप्तर्षियोंके समझानेपर हिमवानका शिवके साथ अपनी पुत्रीके विवाहका निश्चय करना, सप्तर्षियोंद्वारा शिवके पास जाकर उन्हें सम्पूर्ण वृत्तान्त बताकर अपने धामको जाना -


ब्रह्मोवाच
वसिष्ठस्य वचः श्रुत्वा सगणोपि हिमालयः ।
विस्मितो भार्यया शैलानुवाच स गिरीश्वरः ॥ १ ॥
ब्रह्माजी बोले-वसिष्ठजीकी बात सुनकर अपने गणों एवं भार्यासहित विस्मित होकर गिरिराज हिमालय पर्वतोंसे कहने लगे- ॥ १ ॥

हिमालय उवाच
हे मेरो गिरिराट् सह्य गन्धमादन मन्दर ।
मैनाक विन्ध्य शैलेन्द्राःसर्वे शृणुत मद्वचः ॥ २ ॥
वसिष्ठो हि वदत्येवं किं मे कार्यं विचार्यते ।
यथा तथा च शंसध्वं निर्णीय मनसाखिलम् ॥ ३ ॥
हिमालय बोले-हे गिरिराज मेरो । हे सहा ! हे गन्धमादन ! हे मन्दर ! हे मैनाक ! हे विन्ध्य ! हे पर्वतश्वरो । आप सब लोग मेरी बात सुनें । वसिष्ठजी ऐसा कह रहे हैं । अब मुझको क्या करना चाहिये । इस सम्बन्धमें आपलोग विचार करें और मनसे सब बातोंका निर्णय करके जैसा ठीक हो, वैसा बताइये ॥ २-३ ॥

ब्रह्मोवाच
तच्छुत्वा वचनं तस्य सुमेरुप्रमुखाश्च ते ।
प्रोचुर्हिमालयं प्रीत्या सुनिर्णीय महीधराः ॥ ४ ॥
ब्रह्माजी बोले-उनकी बात सुनकर सुमेरु आदि वे पर्वत भलीभाँत निर्णय करके प्रेमपूर्वक हिमालयसे कहने लगे- ॥ ४ ॥

शैला ऊचुः
अधुना किं विमर्शेन कृतं कार्यं तथैव हि ।
उत्पन्नेयं महाभाग देवकार्यार्थमेव हि ॥ ५ ॥
प्रदातव्या शिवायेति शिवस्यार्थेऽवतारिणी ।
अनयाराधितो रुद्रो रुद्रेण यदि भाषिता ॥ ६ ॥
पर्वत बोले-इस समय बहुत विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है, कार्य तो हो ही गया है । हे महाभाग ! यह [कन्या] देवताओंके कार्यके लिये ही उत्पन्न हुई है । इसका अवतार ही जब शिवके लिये हुआ है, तो इसे शिवजीको ही देना चाहिये । इसने रुद्रकी आराधना की है और रुद्रने इसे स्वीकृति भी दी है ॥ ५-६ ॥

ब्रह्मोवाच
एतच्छ्रुत्वा वचस्तेषाम्मेर्वादीनां हिमाचलः ।
सुप्रसन्नतरोऽभूद्वै जहास गिरिजा हृदि ॥ ७ ॥
अरुन्धती च तां मेनां बोधयामास कारणात् ।
नानावाक्यसमूहेनेतिहासैर्विविधैरपि ॥ ८ ॥
ब्रह्माजी बोले-मेरु आदि पर्वतोंकी यह बात सुनकर हिमालयको बड़ी प्रसन्नता हुई और गिरिजा भी मन-ही-मन हँसने लगीं । अरुन्धतीने [शिवपार्वतीके विवाहके लिये] अनेक प्रकारके वचनों तथा विविध इतिहासोंसे उन मेनाको समझाया ॥ ७-८ ॥

अथ सा मेनका शैलपत्नी बुद्ध्वा प्रसन्नधीः ।
मुनीनरुन्धतीं शैलं भोजयित्वा बुभोज च ॥ ९ ॥
तब शैलपत्नी मेना सब कुछ समझ गयीं और प्रसन्नचित्त हो गयीं । उन्होंने मुनियों, अरुन्धती तथा हिमालयको भोजन कराकर स्वयं भोजन किया ॥ ९ ॥

अथ शैलवरो ज्ञानी सुसंसेव्य मुनींश्च ताम् ।
उवाच साञ्जलिः प्रीत्या प्रसन्नात्मा गतभ्रमः ॥ १० ॥
तदनन्तर ज्ञानी गिरिश्रेष्ठ उन मुनियोंकी सेवा करके प्रसन्नचित्त और भ्रमरहित होकर हाथ जोड़कर प्रसन्नतापूर्वक कहने लगे- ॥ १० ॥

हिमाचल उवाच
सप्तर्षयो महाभागा वचः शृणुत मामकम् ।
विस्मयो मे गतः सर्वः शिवयोश्चरितं श्रुतम् ॥ ११ ॥
मदीयं च शरीरं वै पत्नी मेना सुता सुताः ।
ऋद्धिः सिद्धिश्च चान्यद्वै शिवस्यैव न चान्यथा ॥ १२ ॥
हिमालय बोले-हे महाभाग्यवान् सप्तर्षिगण ! आपलोग मेरी बात सुनिये, मैंने शिवा और शिवजीका सारा चरित्र सुन लिया, जिससे मेरा सारा सन्देह दूर हो गया है । मेरा यह शरीर, पत्नी मेना, पुत्री, पुत्र, ऋद्धि, सिद्धि तथा अन्य जो कुछ भी मेरे पास है, वह सब शिवका ही है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ११-१२ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा स तदा पुत्रीं दृष्ट्‍वा तत्सादरं च ताम् ।
भूषयित्वा तदङ्‌गानि ऋष्युत्सङ्‌गे न्यवेशयेत् ॥ १३ ॥
उवाच च पुनः प्रीत्या शैलराज ऋषींस्तदा ।
अयं भागो मया तस्मै दातव्य इति निश्चितम् ॥ १४ ॥
ब्रह्माजी बोले- उन्होंने इस प्रकार कहकर उस पुत्रीकी ओर आदरपूर्वक देखकर उसके अंगोंको [अलंकारोंसे] सुसज्जितकर उसे ऋषियोंकी गोदमें बैठा दिया । तदनन्तर शैलराजने पुनः प्रेमसे ऋषियोंसे कहा-मुझे शंकरका वह भाग उन्हें अवश्य देना है, ऐसा मैंने निश्चय किया है । १३-१४ ॥

ऋषय ऊचुः
शंकरो भिक्षुकस्तेऽथ स्वयं दाता भवान् गिरे ।
भैक्ष्यञ्च पार्वती देवी किमतः परमुत्तमम् ॥ १५ ॥
हिमवन् शिखराणान्ते यद्धेतोः सदृशी गतिः ।
धन्यस्त्वं सर्वशैलानामधिपः सर्वतो वरः ॥ १६ ॥
ऋषि बोले-हे गिरे । भगवान् शंकर ग्रहीता होनेके कारण भिक्षुक हैं, आप कन्यादान देनेके कारण दाता हैं और देवी पार्वती भिक्षा हैं, अब इससे उत्तम और क्या बात हो सकती है । हे हिमालय ! जिस प्रकार सभी शिखरोंसे ऊँचे होनेके कारण आपके शिखरोंकी श्रेष्ठता है, उसी प्रकार आप भी सम्पूर्ण पर्वतोंके अधिपति होनेके कारण सबसे उत्तम हैं तथा धन्य हैं ॥ १५-१६ ॥

ब्रह्मोवाच
एवमुक्त्वा तु कन्यायै मुनयो विमलाशयाः ।
आशिषं दत्तवन्तस्ते शिवाय सुखदा भव ॥ १७ ॥
स्पृष्ट्‍वा करेण तां तत्र कल्याणं ते भविष्यति ।
शुक्लपक्षे यथा चन्द्रो वर्द्धन्तां त्वद्‌गुणास्तथा ॥ १८ ॥
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार कहकर निर्मल मनवाले मुनियोंने हाथसे स्पर्श करके कन्याको आशीर्वाद दिया कि शिवको सुख देनेवाली बनो, तुम्हारा कल्याण हो । जिस प्रकार शुक्लपक्षका चन्द्रमा बढ़ता है, उसी प्रकार तुम्हारे गुणोंकी वृद्धि हो ॥ १७-१८ ॥

इत्युक्त्वा मुनयःसर्वे दत्त्वा ते गिरये मुदा ।
पुष्पाणि फलयुक्तानि प्रत्ययं चक्रिरे तदा ॥ १९ ॥
इस प्रकार कहकर उन सभी मुनियोंने प्रसन्नतापूर्वक हिमालयको [आशीर्वाद रूपमें] फूल तथा फल अर्पित करके विश्वास उत्पन्न कराया ॥ १९ ॥

अरुन्धती तदा तत्र मेनां सा सुसुखी मुदा ।
गुणैश्च लोभयामास शिवस्य परमा सती ॥ २० ॥
परम पतिव्रता सुमुखी अरुन्धतीने शिवजीके गुणोंसे मेनाको प्रलोभित किया ॥ २० ॥

हरिद्राकुङ्‌कुमैः शैलश्मश्रूणि प्रत्यमार्जयत् ।
लौकिकाचारमाधाय मंगलायनमुत्तमम् ॥ २१ ॥
तदनन्तर हिमालयने दाढीमें हरिद्रा तथा कुंकुमसे मार्जन किया और लौकिकाचारपूर्वक सारा मंगल किया ॥ २१ ॥

ततश्च ते चतुर्थेह्नि सन्धार्य लग्नमुत्तमम् ।
परस्परं च सन्तुष्य सञ्जग्मुः शिवसन्निधिम् ॥ २२ ॥
तदनन्तर चौथे दिन शुभ लग्नका निश्चयकर परस्पर सन्तुष्ट हो वे [मुनिगण] शिवजीके पास गये ॥ २२ ॥

तत्र गत्वा शिवं नत्वा स्तुत्वा विविधसूक्तिभिः ।
ऊचुः सर्वे वसिष्ठाद्या मुनयः परमेश्वरम् ॥ २३ ॥
वहाँ जाकर शिवजीको प्रणामकर अनेक सूक्तोंसे उनकी स्तुतिकर वे वसिष्ठ आदि सभी मुनि कहने लगे ॥ २३ ॥

ऋषय ऊचुः
देवदेव महादेव परमेश महाप्रभो ।
शृण्वस्मद्वचनं प्रीत्या यत्कृतं सेवकैस्तव ॥ २४ ॥
ऋषि बोले-हे देवदेव ! हे महादेव ! हे परमेश्वर ! हे महाप्रभो ! आपके सेवक हम लोगोंने जो किया है, उस बातको प्रेमसे सुनिये ॥ २४ ॥

बोधितो गिरिराजश्च मेना विविधसूक्तिभिः ।
सेतिहासं महेशान प्रबुद्धोसौ न संशयः ॥ २५ ॥
वाक्यदत्ता गिरीन्द्रेण पार्वती ते हि नान्यथा ।
उद्वाहाय प्रगच्छ त्वं गणैर्देवैश्च संयुतः ॥ २६ ॥
हे महेशान ! हमलोगोंने इतिहासपूर्वक अनेक प्रकारके उत्तम वचनोंसे पर्वतराज [हिमालय] तथा मेनाको बहुत समझाया, जिससे वे समझ गये, अय उन्हें सन्देह नहीं रहा । गिरीन्द्रने वाग्दान देकर प्रतिज्ञा की है कि यह पार्वती आपकी है । अब आप अपने गणों तथा देवताओंको लेकर विवाहके लिये चलिये ॥ २५-२६ ॥

गच्छ शीघ्रं महादेव हिमाचलगृहं प्रभो ।
विवाहय यथा रीतिः पार्वतीमात्मजन्मने ॥ २७ ॥
हे महादेव ! हे प्रभो ! आप शीघ्र ही विवाहके लिये हिमालयके घर चलिये तथा सन्तान उत्पादनके लिये रीतिके अनुसार पार्वतीसे विवाह कीजिये ॥ २७ ॥

ब्रह्मोवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं तेषां लौकिकाचारतत्परः ।
प्रहृष्टात्मा महेशानः प्रहस्येदमुवाच सः ॥ २८ ॥
ब्रह्माजी बोले-उनकी यह बात सुनकर शिवजी प्रसन्नचित्त हो गये और लौकिकाचारमें तत्पर होकर हँसते हुए इस प्रकार कहने लगे- ॥ २८ ॥

महेश उवाच
विवाहो हि महाभागा न दृष्टो न श्रुतो मया ।
यथा पुरा भवद्‌भिस्तद्विधिः प्रोच्यो विशेषतः ॥ २९ ॥
महेश बोले-हे महाभाग ! मैंने तो विवाह न देखा है और न सुना है, आपलोग ही जैसी विधि देखे-सुने हैं, उसे बताइये ॥ २९ ॥

ब्रह्मोवाच
तदाकर्ण्य महेशस्य लौकिकं वचनं शुभम् ।
प्रत्यूचुः प्रहसन्तस्ते देवदेवं सदाशिवम् ॥ ३० ॥
ब्रह्माजी बोले-शिवजीके लौकिक शुभ वचनको सुनकर वे देवाधिदेव सदाशिवसे हँसते हुए कहने लगे- ॥ ३० ॥

ऋषय ऊचुः
विष्णुमाहूय वै शीघ्रं ससमाजं विशेषतः ।
ब्रह्माणं ससुतं प्रीत्या तथा देवं शतक्रतुम् ॥ ३१ ॥
तथा ऋषिगणान्सर्वान् यक्षगन्धर्वकिन्नरान् ।
सिद्धान् विद्याधरांश्चैव तथा चैवाप्सरोगणान् ॥ ३२ ॥
एतांश्चान्यान्प्रभो सर्वानानयस्वेह सादरम् ।
सर्वं संसाधयिष्यन्ति त्वत्कार्यं ते न संशयः ॥ ३३ ॥
ऋषि बोले-हे प्रभो ! आप समाजसहित विष्णुको विशेष रूपसे शीघ्र बुलाकर पुत्रसहित ब्रह्माजी, इन्द्रदेव, सभी ऋषि, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, सिद्ध, विद्याधर, अप्सरा-इन सबको तथा अन्य लोगोंको आदरपूर्वक यहाँ बुलाइये । वे सब आपका कार्य सिद्ध करेंगे, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३१-३३ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा सप्त ऋषयस्तदाज्ञां प्राप्य ते मुदा ।
स्वधाम प्रययुः सर्वे शंसन्तः शङ्करीं गतिम् ॥ ३४ ॥
ब्रह्माजी बोले-ऐसा कहकर उनकी आज्ञा लेकर वे सभी सप्तर्षि शिवजीकी महिमाका वर्णन करते हुए प्रसन्नतापूर्वक अपने स्थानको चले गये ॥ ३४ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये
पार्वतीखण्डे सप्तऋषिवचनं नाम षट्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३६ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें सप्तर्षिवचन नामक छत्तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३६ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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