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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां चतुर्थः कुमारखण्डे
द्वितीयोऽध्यायः ॥ शरवणे कार्तिकेयोत्पत्तिवर्णनम् -
भगवान् शिवके तेजसे स्कन्दका प्रादुर्भाव और सर्वत्र महान् आनन्दोत्सवका होना - ब्रह्मोवाच तदाकर्ण्य महादेवो योगज्ञानविशारदः । त्यक्तकामो न तत्याज सम्भोगं पार्वतीभयात् ॥ १ ॥ आजगाम गृहद्वारि सुराणां निकटं शिवः । दैत्येन पीडितानां च शंकरो भक्तवत्सलः ॥ २ ॥ ब्रह्माजी बोले-देवताओं एवं विष्णुकी स्तुति सुनकर योगज्ञानविशारद भगवान् शंकर यद्यपि निष्काम हैं तथापि उन्होंने भोगका परित्याग नहीं किया । फिर वे भक्तवत्सल शंकर दैत्यसे पीड़ित हुए देवताओंके समीप घरके दरवाजेपर आये ॥ १-२ ॥ देवाःसर्वे प्रभुं दृष्ट्वा हरिणा च मया शिवम् । बभूबुः सुखिनश्चाति तदा वै भक्तवत्सलम् ॥ ३ ॥ उस समय मुझ ब्रह्मा तथा विष्णुके साथ देवगण भक्तवत्सल प्रभु शिवका दर्शनकर अत्यन्त सुखी हुए ॥ ३ ॥ इत्याकर्ण्य वचस्तेषां सुराणां भगवान्भवः । प्रत्युवाच विषण्णात्मा दूयमानेन चेतसा ॥ ४ ॥ उन देवताओंका पूर्वोक्त वचन सुनकर दुखी आत्मा वाले भगवान् शंकरने उद्विग्नमन होकर उत्तर दिया ॥ ४ ॥ प्रणम्य सुमहाप्रीत्या नतस्कन्धाश्च निर्जराः । तुष्टुवुः शंकरं सर्वे मया च हरिणा मुने ॥ ५ ॥ देवताओंने सिर झुकाकर परम स्नेहपूर्वक शंकरको प्रणाम किया और हे मुने ! मुझ ब्रह्मा तथा विष्णुके साथ सभी देवताओंने शंकरकी स्तुति की ॥ ५ ॥ देवा ऊचुः देवदेव महादेव करुणासागर प्रभो । अन्तर्यामी हि सर्वेषां सर्वं जानासि शंकर ॥ ६ ॥ देवकार्यं कुरु विभो रक्ष देवान् महेश्वर । जहि दैत्यान् कृपां कृत्वा तारकादीन् महाप्रभून् ॥ ७ ॥ देवता बोले-हे देवदेव ! हे महादेव ! हे करुणासागर प्रभो ! आप सबके अन्तर्यामी हैं, हे शंकर ! आप सब कुछ जानते हैं । हे विभो ! हम देवताओंका कार्य कीजिये । हे महेश्वर ! देवताओंकी रक्षा कीजिये तथा हे महाप्रभो ! कृपा करके तारकादि असुरोंका विनाश कीजिये ॥ ६-७ ॥ शिव उवाच हे विष्णो हे विधे देवाः सर्वेषां वो मनोगतिः । यद्भावि तद्भवत्येव कोऽपि नो तन्निवारकः ॥ ८ ॥ शिव बोले-हे विष्णो ! हे विधाता ! हे देवो ! मैं आप सबके मनका अभिप्राय जान रहा हूँ, किंतु जो होना है, वह होता ही है, भावीका निवारण करनेवाला कोई नहीं है ॥ ८ ॥ यज्जातं तज्जातमेव प्रस्तुतं शृणुतामराः । शिरस्तस्खलितं वीर्यं को ग्रहीष्यति मेऽधुना ॥ ९ ॥ हे देवो ! जो होना था, वह तो हो गया, अब जो उपस्थित है, उसके विषयमें सुनिये । मुझ शिवके स्खलित इस तेजको इस समय कौन धारण करेगा ? ॥ ९ ॥ स गृह्णीयादिति प्रोच्य पातयामास तद्भुवि । अग्निर्भूत्वा कपोतो हि प्रेरितःसर्वनिर्जरैः ॥ १० ॥ अभक्षच्छाम्भवं वीर्यं चञ्च्वा तु निखिलं तदा । एतस्मिन्नन्तरे तत्राजगाम गिरिजा मुने ॥ ११ ॥ शिवागमविलम्बे च ददर्श सुरपुङ्गवान् ॥ ज्ञात्वा तद्वृत्तमखिलं महाक्रोधयुता शिवा ॥ १२ ॥ उवाच त्रिदशान् सर्वान् हरिप्रभृतिकाँस्तदा ॥ १३ ॥ 'जिसे धारण करना हो, वह धारण करे'-इस प्रकार कहकर शंकरजी मौन हो गये । तब देवताओंसे प्रेरणा प्राप्त अग्निने कपोत होकर अपनी चोंचसे शंकरके पृथ्वीपर गिरे समस्त तेजको ग्रहण कर लिया । हे नारद ! इसी समय शिवके आगमनमें विलम्ब देखकर वहाँपर भगवती गिरिजा आकर उपस्थित हो गयीं । उन्होंने देवताओंको देखा । वहाँका वह सम्पूर्ण वृत्तान्त जानकर पार्वती महाक्रोधित हो गयीं । तब उन्होंने विष्णुप्रभृति सभी देवताओंसे क्रोधमें भरकर कहा- ॥ १०-१३ ॥ देव्युवाच रे रे सुरगणाःसर्वे यूयं दुष्टा विशेषतः । स्वार्थसंसाधका नित्यं तदर्थं परदुःखदाः ॥ १४ ॥ देवी बोलीं-हे देवगणो ! तुमलोग बड़े दुष्ट हो, तुम हमेशा अपने स्वार्थसाधनमें लगे रहते हो और अपने स्वार्थसाधनके निमित्त दूसरोंको कष्ट देते हो ॥ १४ ॥ स्वार्थहेतोर्महेशानमाराध्य परमं प्रभुम् । नष्टं चक्रुर्मद्विहारं वन्ध्याऽभवमहं सुराः ॥ १५ ॥ मां विरोध्य सुखं नैव केषाञ्चिदपि निर्जराः । तस्माद्दुःखं भवेद्वो हि दुष्टानां त्रिदिवौकसाम् ॥ १६ ॥ तुमलोगोंने अपने स्वार्थके लिये परमप्रभु शिवकी स्तुतिकर मेरा विहार भंग किया, हे देवो ! इसी कारण मैं वन्ध्या हो गयी । हे देवताओ ! मेरा विरोध करनेसे तुम देवताओंको कभी सुख प्राप्त नहीं होगा और तुम दुष्ट देवताओंको इसी प्रकार महादुःख प्राप्त होगा । १५-१६ ॥ ब्रह्मोवाच इत्युक्त्वा विष्णुप्रमुखान् सुरान् सर्वान् शशाप सा । प्रज्वलन्ती प्रकोपेन शैलराजसुता शिवा ॥ १७ ॥ ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार क्रोधसे जलती हुई शैलपुत्री पार्वतीने विष्णुप्रभृति सभी देवगणोंको शाप दिया ॥ १७ ॥ पार्वत्युवाच अद्यप्रभृति देवानां वन्ध्या भार्या भवन्त्विति । देवाश्च दुःखिताःसन्तु निखिला मद्विरोधिनः ॥ १८ ॥ पार्वती बोलीं-आजसे सब देवताओंकी स्त्रियाँ वन्ध्या हो जाएँ और मेरा विरोध करनेवाले सभी देवगण सर्वदा दुःख प्राप्त करें ॥ १८ ॥ ब्रह्मोवाच इति शप्त्वाखिलान्देवान् विष्ण्वाद्यान्सकलेश्वरी । उवाच पावकं क्रुद्धा भक्षकं शिवरेतसः ॥ १९ ॥ ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार सर्वेश्वरी भगवती पार्वतीने विष्णुप्रभृति देवगणोंको शाप देकर क्रोधपूर्ण हो शिवके तेजका भक्षण करनेवाले अग्निसे कहा- ॥ १९ ॥ पार्वत्युवाच सर्वभक्षी भव शुचे पीडितात्मेति नित्यशः । शिवतत्त्वं न जानासि मूर्खोऽसि सुरकार्यकृत् ॥ २० ॥ पार्वती बोलीं-हे अग्ने ! आजसे तुम सर्वभक्षी होकर सदैव दु:ख प्राप्त करोगे । तुम्हें शिवतत्त्वका ज्ञान नहीं है । तुम देवगणोंका कार्य करनेवाले मूर्ख हो ॥ २० ॥ रे रे शठ महादुष्ट दुष्टानां दुष्टबोधवान् । अभक्षः शिवीर्यं यन्नाकार्षीरुचितं हि तत् ॥ २१ ॥ हे शठ ! हे दुष्टोंमें महादुष्ट ! तुम बड़े दुर्बुद्धि हो, तुमने जो शिवके तेजका भक्षण किया है, यह अच्छा नहीं किया ॥ २१ ॥ ब्रह्मोवाच इति शप्त्वा शिवा वह्निं सहेशेन नगात्मजा । जगाम स्वालयं शीघ्रमसंतुष्टा ततो मुने ॥ २२ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! इस प्रकार अग्निको शाप देकर असन्तुष्ट होकर भगवती पार्वती भगवान् महेश्वरके साथ शीघ्रतापूर्वक अपने आवासमें चली गयीं ॥ २२ ॥ गत्वा शिवा शिवं सम्यक् बोधयामास यत्नतः । अजीजनत्परं पुत्रं गणेशाख्यं मुनीश्वर ॥ २३ ॥ तद्वृत्तान्तमशेषं च वर्णयिष्ये मुनेऽग्रतः । इदानीं शृणु सुप्रीत्या गुहोत्पत्तिं वदाम्यहम् ॥ २४ ॥ हे मुनीश्वर ! वहाँ जाकर पार्वतीने प्रयत्नपूर्वक भलीभाँति शंकरजीको समझाया, फिर उनके सर्वश्रेष्ठ गणेश नामक पुत्र उत्पन्न हुए । हे मुने ! इन गणेशजीका सम्पूर्ण वृत्तान्त मैं आगे कहूँगा । इस समय आप प्रेमपूर्वक कार्तिकेयकी उत्पत्तिका वृत्तान्त सुनिये, मैं कह रहा हूँ ॥ २३-२४ ॥ पावकादितमन्नादि भुञ्जते निर्जराः खलु । वेदवाण्येति सर्वे ते सगर्भा अभवन्सुराः ॥ २५ ॥ देवतालोग अग्निके मुखसे ही भोजन करते हैंऐसा वेदका वचन है, अत: अग्निके गर्भधारण करनेसे सभी देवता गर्भयुक्त हो गये ॥ २५ ॥ ततोऽसहन्तस्तद्वीर्यं पीडिता ह्यभवन् सुराः । विष्ण्वाद्या निखिलाश्चाति शिवाऽऽज्ञा नष्टबुद्धयः ॥ २६ ॥ शिवके तेजको सहन न करते हुए वे देवता पीड़ित हो गये । यही दशा विष्णु आदि देवताओंकी भी हो गयी; क्योंकि देवी पार्वतीकी आज्ञासे उनकी बुद्धि नष्ट हो गयी थी ॥ २६ ॥ अथ विष्णुप्रभृतिकाःसर्वे देवा विमोहिताः । दह्यमाना ययुः शीघ्रं शरणं पार्वतीपतेः ॥ २७ ॥ शिवालयस्य ते द्वारि गत्वा सर्वे विनम्रकाः । तुष्टुवुःसशिवं शम्भुं प्रीत्या साञ्जलयःसुराः ॥ २८ ॥ इसके बाद विष्णुप्रभृति सभी देवता मोहित होकर [शिवके वीर्यरूप अग्निसे] जलते हुए शीघ्र ही पार्वतीपति भगवान् शंकरकी शरणमें गये । वे लोग शिवजीके गृहद्वारपर जाकर नम्रतासे हाथ जोड़ अत्यन्त प्रीतिपूर्वक पार्वतीसहित भगवानकी स्तुति करने लगे ॥ २७-२८ ॥ देवा ऊचुः देवदेव महादेव गिरिजेश महाप्रभो । किं जातमधुना नाथ तव माया दुरत्यया ॥ २९ ॥ देवता बोले-हे देवदेव ! हे महादेव ! हे गिरिजेश ! हे महाप्रभो ! हे नाथ ! यह क्या हो गया ? निश्चय ही आपकी मायाको समझना बड़ा कठिन है ॥ २९ ॥ सगर्भाश्च वयं जाता दह्यमानाश्च रेतसा । तव शम्भो कुरु कृपां निवारय दशामिमाम् ॥ ३० ॥ हमलोग गर्भयुक्त होकर आपकी असह्य वीर्यज्वालासे जल रहे हैं, हे शम्भो ! कृपा कीजिये और हमलोगोंकी दुरवस्थाका निवारण कीजिये ॥ ३० ॥ ब्रह्मोवाच इत्याकर्ण्याऽमरनुतिं परमेशः शिवापतिः । आजगाम द्रुतं द्वारि यत्र देवाः स्थिता मुने ॥ ३१ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! देवताओंकी इस प्रकारकी स्तुति सुनकर उमापति परमेश्वर शिव गृहद्वारपर जहाँ देवता स्थित थे, वहाँ शीघ्र आये ॥ ३१ ॥ आगतं शंकरं द्वारि सर्वे देवाश्च साच्युताः । प्रणम्य तुष्टुवुः प्रीत्या नर्तका भक्तवत्सलम् ॥ ३२ ॥ द्वारपर आये हुए सदाशिवको देखते ही विष्णुसमेत सभी देवगण विनम्न होकर प्रणामकर उन भक्तवत्सलकी प्रेमपूर्वक स्तुति करने लगे ॥ ३२ ॥ देवा ऊचुः शम्भो शिव महेशान त्वां नताः स्म विशेषतः । रक्ष नः शरणापन्नान् दह्यमानांश्च रेतसा ॥ ३३ ॥ देवता बोले-हे शम्भो ! हे शिव ! हे महादेव ! आपको विशेष रूपसे प्रणाम करते हैं । आपके तेजसे जलते हुए हम शरणागतोंकी रक्षा कीजिये ॥ ३३ ॥ इदं दुःखं हर हर भवामो हि मृता ध्रुवम् । त्वां विना कः समर्थोऽद्य देवदुःखनिवारणे ॥ ३४ ॥ हे हर ! इस दु:खका हरण कीजिये, अन्यथा हमलोग निश्चित ही मर जायेंगे । इस समय देवताओंके दुःखका निवारण करनेमें आपके बिना कौन समर्थ है ? ॥ ३४ ॥ ब्रह्मोवाच इति दीनतरं वाक्यमाकर्ण्य सुरराट् प्रभुः । प्रत्युवाच विहस्याऽथ स सुरान् भक्तवत्सलः ॥ ३५ ॥ ब्रह्माजी बोले-भक्तवत्सल, सुरेश्वर भगवान् शिवने ऐसी दीनवाणीको सुनकर हँसते हुए देवताओंको उत्तर दिया ॥ ३५ ॥ शिव उवाच हे हरे हे विधे देवाः सर्वे शृणुत मद्वचः । भविष्यति सुखं वोऽद्य सावधाना भवन्तु हि ॥ ३६ ॥ एतद्वमत मद्वीर्यं द्रुतमेवाऽखिलाःसुराः । सुखिनस्तद्विशेषेण शासनान्मम सुप्रभो ॥ ३७ ॥ शिव बोले-हे हरे ! हे ब्रह्मन् ! हे देवो ! आप सभी मेरी बात सुनें । आपलोग आज ही सुखी हो जायेंगे, सावधान हो जायें । सभी देवगण मेरे तेजका शीघ्र ही वमन कर दें । मुझ सुप्रभुकी आज्ञा माननेसे आपलोगोंको विशेष सुख होगा ॥ ३६-३७ ॥ ब्रह्मोवाच इत्याज्ञां शिरसाऽधाय विष्ण्वाद्याः सकलाः सुराः । अकार्षुर्वमनं शीघ्रं स्मरन्तः शिवमव्ययम् ॥ ३८ ॥ बह्माजी बोले-विष्णु आदि सभी देवताओंने इस आज्ञाको शिरोधार्य करके अव्यय भगवान् शिवका स्मरण करते हुए शीघ्र ही तेजका वमन कर दिया ॥ ३८ ॥ तच्छम्भुरेतःस्वर्णाभं पर्वताकारमद्भुतम् । अभवत्पतितं भूमौ स्पृशद् द्यामेव सुप्रभम् ॥ ३९ ॥ शम्भुका स्वर्णिम आभावाला, अद्भुत तथा सुन्दर कान्तिवाला वह तेज भूमिपर गिरकर पर्वताकार हो गया और अन्तरिक्षका स्पर्श करने लगा । ३९ ॥ अभवन्सुखिनःसर्वे सुराः सर्वेऽच्युतादयः । अस्तुवन् परमेशानं शंकरं भक्तवत्सलम् ॥ ४० ॥ श्रीहरिसहित सभी देवगण सुखी हो गये और भक्तवत्सल परमेश्वर शिवकी स्तुति करने लगे ॥ ४० ॥ पावकस्त्वभवन्नैव सुखी तत्र मुनीश्वर । तस्याज्ञां परमोऽदाद्वै शंकरः परमेश्वरः ॥ ४१ ॥ हे मुनीश्वर ! किंतु अग्निदेव वहाँ प्रसन्न नहीं हुए । तब परमेश्वर श्रेष्ठ शंकरने उन्हें आज्ञा दी ॥ ४१ ॥ ततः सवह्निर्विकलः साञ्जलिर्नतको मुने । अस्तौच्छिवं सुखी नात्मा वचनं चेदमब्रवीत् ॥ ४२ ॥ हे मुने ! तदनन्तर वे अग्निदेव मनमें सुख न मानकर विकल हो हाथ जोड़कर नम्रतापूर्वक शिवकी स्तुति करते हुए इस प्रकार बोले- ॥ ४२ ॥ अग्निरुवाच देवदेव महेशान मूढोऽहं तव सेवकः । क्षमस्व मेऽपराधं हि मम दाहं निवारय ॥ ४३ ॥ त्वं दीनवत्सल स्वामिन् शंकरः परमेश्वरः । प्रत्युवाच प्रसन्नात्मा पावको दीनवत्सलम् ॥ ४४ ॥ अग्नि बोले-देवाधिदेव महेश्वर ! मैं मूर्ख हूँ तथापि आपका सेवक हूँ, मेरे अपराधको क्षमा करें और मेरे दाहका निवारण करें । हे स्वामिन् ! आप दीनवात्सल परमेश्वर सदाशिव हैं । इस प्रकारसे प्रसन्नात्मा अग्निदेवने दीनवत्सल शिवसे कहा ॥ ४३-४४ ॥ ब्रह्मोवाच इत्याकर्ण्य शुचेर्वाणीं स शम्भुः परमेश्वरः । प्रत्युवाच प्रसन्नात्मा पावकं दीनवत्सलः ॥ ४५ ॥ ब्रह्माजी बोले-अग्निकी यह बात सुनकर दीनवत्सल उन परमेशान सदाशिवने प्रसन्न होकर अग्निसे इस प्रकार कहा- ॥ ४५ ॥ शिव उवाच कृतं त्वनुचितं कर्म मद्रेतो भक्षितं हि यत् । अतोऽनिवृत्तस्ते दाहः पापाधिक्यान्मदाज्ञया ॥ ४६ ॥ इदानीं त्वं सुखी नाम शुचे मच्छरणागतः । अतः प्रसन्नो जातोऽहं सर्वं दुःखं विनश्यति ॥ ४७ ॥ शिव बोले-हे अग्नि !] पापकी अधिकताके कारण ही तुमने यह अनुचित कार्य किया कि मेरे तेजका भक्षण कर लिया, अब मेरी आज्ञासे तुम्हारे दाहका निवारण हो गया । हे अग्ने ! अब तुम मेरी शरणमें आ गये हो, इससे मैं प्रसन्न हुआ । अब तुम्हारा सारा दुःख दूर हो जायगा और तुम सुखी हो जाओगे ॥ ४६-४७ ॥ कस्याश्चित्सुस्त्रियां योनौ मद्रेतस्त्यज यत्नतः । भविष्यति सुखी त्वं हि निर्दाहात्मा विशेषतः ॥ ४८ ॥ अब तुम किसी सुलक्षणा स्त्रीमें मेरे रेतको प्रयत्नपूर्वक स्थापित करो । इससे तुम दाहमुक्त होकर विशेष रूपसे सुखी हो जाओगे ॥ ४८ ॥ ब्रह्मोवाच शम्भुवाक्यं निशम्येति प्रत्युवाच शनैः शुचिः । साञ्जलिर्नतकः प्रीत्या शंकरं भक्तशंकरम् ॥ ४९ ॥ ब्रह्माजी बोले- भगवान शंकरकी बातको सुनकर अग्नि हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर प्रीतिपूर्वक भक्तोंके कल्याण करनेवाले भगवान् शंकरसे धीरे-धीरे बोले- ॥ ४९ ॥ दुरासदमिदं तेजस्तव नाथ महेश्वर । काचिन्नास्ति विना शक्त्या धर्तुं योनौ जगत्त्रये ॥ ५० ॥ हे महेश्वर ! हे नाथ ! आपका यह तेज असह्य है । शक्तिस्वरूपा भगवतीके अतिरिक्त तीनों लोकोंमें इसे धारण करनेमें कोई समर्थ नहीं है ॥ ५० ॥ इत्थं यदाऽब्रवीद्वह्निस्तदा त्वं मुनिसत्तम । शंकरप्रेरितः प्रात्थ हृदाग्निमुपकारकः ॥ ५१ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! अग्निने जब ऐसा कहा, तब हदयसे अग्निका उपकार चाहनेवाले आपने भगवान् शंकरकी प्रेरणासे इस प्रकार कहा- ॥ ५१ ॥ नारद उवाच शृणु मद्वचनं वह्ने तव दाहहरं शुभम् । परमानन्ददं रम्यं सर्वकष्टनिवारकम् ॥ ५२ ॥ नारदजी बोले-हे अग्ने ! तुम्हारे दाहका निवारण करनेवाला, कल्याणकारी, परम आनन्ददायक, रमणीय तथा सभी कष्टोंका निवारण करनेवाला मेरा वचन सुनो ॥ ५२ ॥ कृत्वोपायमिमं वह्ने सुखी भव विदाहकः । शिवेच्छया मया सम्यगुक्तं तातेदमादरात् ॥ ५३ ॥ हे वहे ! मेरे द्वारा बतलाये जानेवाले इस उपायको करके दाहरहित होकर सुखी हो जाओ । हे तात ! भगवान् शिवकी इच्छासे ही मैंने आदरपूर्वक भलीभाँति कहा है ॥ ५३ ॥ तपोमासस्नानकर्त्र्य स्त्रियो याःस्युः प्रगे शुचे । तद्देहेषु स्थापय त्वं शिवरेतस्त्विदं महत् ॥ ५४ ॥ हे शुचे ! माघमासमें प्रात:काल जो स्त्रियाँ स्नान करती हों, इस महान् तेजको तुम उनके शरीरमें स्थापित कर दो ॥ ५४ ॥ ब्रह्मोवाच तस्मिन्नवसरे तत्रा गताः सप्तमुनिस्त्रियः । तपोमासि स्नानकामाः प्रातः सन्नियमा मुने ॥ ५५ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! उसी अवसरपर माघमासमें प्रात:काल नियमपूर्वक स्नान करनेकी इच्छासे सप्तर्षियोंकी स्त्रियाँ वहाँ आयीं ॥ ५५ ॥ स्नानं कृत्वा स्त्रियस्ता हि महाशीतार्द्दिताश्च षट् । गन्तुकामा मुने याता वह्निज्वालासमीपतः ॥ ५६ ॥ हे मुने ! स्नान करके वे स्त्रियाँ अत्यन्त ठण्डसे पीड़ित हो गयीं और उनमेंसे छः स्त्रियाँ अग्निज्वालाके समीप जानेकी इच्छासे वहाँसे चल पड़ीं ॥ ५६ ॥ विमोहिताश्च ता दृष्ट्वारुन्धती गिरिशाज्ञया । निषिषेध विशेषेण सुचरित्र सुबोधिनी ॥ ५७ ॥ उन्हें मोहित देखकर सुचरित्रा, ज्ञानवती देवी अरुन्धतीने शिवकी आज्ञासे उन्हें जानेसे विशेषरूपसे रोका ॥ ५७ ॥ ताः षड् मुनिस्त्रियो मोहाद्धठात्तत्र गता मुने । स्वशीतविनिवृत्त्यर्थं मोहिताः शिवमायया ॥ ५८ ॥ हे मुने ! भगवान् शिवकी मायासे मोहित वे छ: ऋषिपलियाँ अपने शीतका निवारण करनेके लिये हठपूर्वक वहाँ जा पहुँचीं ॥ ५८ ॥ तद्रेतःकणिकाः सद्यस्तद्देहान् विविशुर्मुने । रोमद्वाराऽखिला वह्निरभूद्दाहविवर्जितः ॥ ५९ ॥ हे मुने ! [अग्निके द्वारा गृहीत] उस रेतके सभी कण रोमकूपोंके द्वारा शीघ्र ही उन ऋषिपलियोंके देहोंमें प्रविष्ट हो गये और वे अग्नि दाहसे मुक्त हो गये ॥ ५९ ॥ अन्तर्धाय द्रुतं वह्निर्ज्वालारूपो जगाम ह । सुखी स्वलोकं मनसा स्मरंस्त्वां शंकरं च तम् ॥ ६० ॥ अग्नि अन्तर्धान होकर ज्वालारूपसे शीघ्र ही उन भगवान् शंकर और आपका मनसे स्मरण करते हुए सुखपूर्वक अपने लोकको चले गये ॥ ६० ॥ सगर्भास्ताः स्त्रियः साधोऽभवन् दाहप्रपीडिताः । जग्मुःस्वभवनं तातारुन्धती दुःखिताग्निना ॥ ६१ ॥ हे साधो ! वे स्त्रियाँ अग्निके द्वारा दाहसे पीड़ित और गर्भवती हो गयीं । हे तात ! अरुन्धती दुखी होकर अपने आश्रमको चली गयीं ॥ ६१ ॥ दृष्ट्वा स्वस्त्रीगतिं तात नाथाः क्रोधाकुला द्रुतम् । तत्यजुस्ताः स्त्रियस्तात सुसंमंत्र्य परस्परम् ॥ ६२ ॥ हे तात ! अपनी स्त्रियोंकी गर्भावस्था देखकर उनके पति तुरंत क्रोधसे व्याकुल हो गये और परस्पर भलीभाँति विचार-विमर्श करके उन्होंने अपनी पत्नियोंका त्याग कर दिया ॥ ६२ ॥ अथ ताः षट् स्त्रियःसर्वा दृष्ट्वा स्वव्यभिचारकम् । महादुःखान्वितास्ताताऽभवन्नाकुलमानसाः ॥ ६३ ॥ हे तात ! वे छहों ऋषिपलियाँ अपनी गर्भावस्थाका विचार करके अत्यन्त दुःखित और व्याकुल चित्तवाली हो गयीं ॥ ६३ ॥ तत्यजुः शिवरेतस्तद्गर्भरूपं मुनिस्त्रियः । ता हिमाचलपृष्ठेऽथाभवन् दाहविवर्जिताः ॥ ६४ ॥ उन मुनिपत्नियोंने शिवके उस गर्भरूप तेजको हिमशिखरपर त्याग दिया और वे दाहरहित हो गयों ॥ ६४ ॥ असहन् शिवरेतस्तद्धिमाद्रिः कंपमुद्वहन् । गङ्गायां प्राक्षिपत्तूर्णमसह्यं दाहपीडितः ॥ ६५ ॥ भगवान् शिवके उस असहनीय तेजको धारण करने में असमर्थ होनेके कारण हिमालय प्रकम्पित हो उठे और दाहसे पीड़ित होकर उन्होंने शीघ्र ही उस तेजको गंगामें विसर्जित कर दिया ॥ ६५ ॥ गङ्गयाऽपि च तद्वीर्यं दुःसहं परमात्मनः । निःक्षिप्तं हि शरस्तम्बे तरङ्गैः स्वैर्मुनीश्वर ॥ ६६ ॥ हे मुनीश्वर ! गंगाने भी परमात्माके उस दुःसह तेजको अपनी तरंगोंके द्वारा सरकण्डोंके समूहमें स्थापित कर दिया ॥ ६६ ॥ पतितं तत्र तद्रेतो द्रुतं बालो बभूव ह । सुन्दरः सुभगः श्रीमांस्तेजस्वी प्रीतिवर्द्धनः ॥ ६७ ॥ वहाँ गिरा हुआ वह तेज शीघ्र ही एक सुन्दर, सौभाग्यशाली, शोभायुक्त, तेजस्वी और प्रीतिको बढ़ानेवाले बालकके रूपमें परिणत हो गया ॥ ६७ ॥ मार्गमासे सिते पक्षे तिथौ षष्ठ्यां मुनीश्वर । प्रादुर्भावोऽभवत्तस्य शिवपुत्रस्य भूतले ॥ ६८ ॥ हे मुनीश्वर ! मार्गशीर्ष (अगहन) मासके शुक्लपक्षकी षष्ठी तिथिको उस शिवपुत्रका पृथ्वीपर प्रादुर्भाव हुआ ॥ ६८ ॥ तस्मिन्नवसरे ब्रह्मन्नकस्माद्धिमशैलजा । अभूतः सुखिनौ तत्र स्वगिरौ गिरिशोऽपि च ॥ ६९ ॥ हे ब्रह्मन् ! इस अवसरपर अपने कैलास पर्वतपर हिमालयपुत्री पार्वती तथा भगवान् शंकर भी अकस्मात् आनन्दित हो उठे ॥ ६९ ॥ शिवाकुचाभ्यां सुस्राव पय आनन्दसम्भवम् । तत्र गत्वा च सर्वेषां सुखमासीन्मुनेऽधिकम् ॥ ७० ॥ हे मुने ! भगवती पार्वतीके स्तनोंसे आनन्दातिरेकके कारण दुग्धस्त्राव होने लगा । वहाँ जाकर सबको अत्यन्त प्रसन्नता हुई ॥ ७० ॥ मंगलं चाऽभवत्तात त्रिलोक्यां सुखदं सताम् । खलानामभवद्विघ्नो दैत्यानां च विशेषतः ॥ ७१ ॥ हे तात ! त्रिलोकीमें सभी सज्जनोंके यहाँ अत्यन्त सुख देनेवाला मांगलिक वातावरण हो गया । दुष्ट दैत्योंके यहाँ विशेष रूपसे विघ्न होने लगे ॥ ७१ ॥ अकस्मादभवद् व्योम्नि परमो दुन्दुभिध्वनिः । पुष्पवृष्टिः पपाताऽशु बालकोपरि नारद ॥ ७२ ॥ हे नारद ! अकस्मात् अन्तरिक्षमें महान् दुन्दुभिनाद होने लगा और उस बालकपर पुष्योंकी वर्षा होने लगी ॥ ७२ ॥ विष्ण्वादीनां समस्तानां देवानां मुनिसत्तम । अभूदकस्मात्परम आनन्दः परमोत्सवः ॥ ७३ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! विष्णु आदि सभी देवताओंको अकस्मात् परम आनन्द हुआ और महान् उत्सव भी होने लगा ॥ ७३ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां चतुर्थे कुमारखण्डे शिवपुत्रजननवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके चतुर्थ कुमारखण्डमें शिवपुत्रजननवर्णन नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |