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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां चतुर्थः कुमारखण्डे

प्रथमोऽध्यायः ॥

तारकार्दितसुराणां शङ्करसन्निधौ दुःखनिवेदनम् -
कैलासपर भगवान् शिव एवं पार्वतीका विहार -


वन्दे वन्दनतुष्टमानसमतिप्रेमप्रियं प्रेमदं
पूर्णं पूर्णकरं प्रपूर्णनिखिलैश्वर्यैकवासं शिवम् ।
सत्यं सत्यमयं त्रिसत्यविभवं सत्यप्रियं सत्यदं
विष्णुब्रह्मनुतं स्वकीयकृपयोपात्ताकृतिं शंकरम् ॥ १ ॥
वन्दना करनेसे जिनका मन प्रसन्न हो जाता है, जिन्हें प्रेम अत्यन्त प्रिय है, जो सबको प्रेम प्रदान करनेवाले हैं, स्वयं पूर्ण हैं, दूसरोंकी अभिलाषाको भी पूर्ण करते हैं, सम्पूर्ण संसिद्ध ऐश्वर्यके एकमात्र स्थान हैं, स्वयं सत्यस्वरूप हैं, सत्यमय हैं, जिनका सत्तात्मक ऐश्वर्य त्रिकालाबाधित है, जो सत्यप्रिय एवं सबको सत्य प्रदान करनेवाले हैं, ब्रह्मा-विष्णु जिनकी वन्दना करते हैं और जो अपनी कृपासे ही विग्रह धारण करते हैं-ऐसे नित्य शिवकी हम वन्दना करते हैं ॥ १ ॥

नारद उवाच
विवाहयित्वा गिरिजां शंकरो लोकशंकरः ।
गत्वा स्वपर्वतं ब्रह्मन् किमकार्षिद्धि तद्वद ॥ २ ॥
नारदजी बोले-हे ब्रह्मन् ! लोककल्याणकारी शंकरने पार्वतीसे विवाह करनेके पश्चात् कैलास जाकर क्या किया, उस वृत्तान्तको हमें सुनाइये ॥ २ ॥

कथं हि तनयो जज्ञे शिवस्य परमात्मनः ।
यदर्थमात्मारामोऽपि समुवाह शिवां प्रभुः ॥ ३ ॥
तारकस्य कथं ब्रह्मन् वधोऽभूद्देवशंकरः ।
एतत्सर्वमशेषेण वद कृत्वा दयां मयि ॥ ४ ॥
जिस पुत्रके निमित्त आत्माराम होते हुए भी उन्होंने पार्वतीसे विवाह किया, उन परमात्मा शिवको किस प्रकार पुत्र उत्पन्न हुआ ? देवताओंका कल्याण करनेवाले हे ब्रह्मन् ! तारकासुरका वध किस प्रकार हुआ ? मेरे ऊपर कृपाकर यह सारी बात विस्तारसे कहिये ॥ ३-४ ॥

सूत उवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य नारदस्य प्रजापतिः ।
सुप्रसन्नमनाः स्मृत्वा शंकरं प्रत्युवाच ह ॥ ५ ॥
सूतजी बोले-नारदके इस प्रकारके वचनको सुनकर प्रजापति ब्रह्माजीने शिवजीका स्मरणकर प्रसन्न मनसे कहा- ॥ ५ ॥

ब्रह्मोवाच
चरितं शृणु वक्ष्यामि शशिमौलेस्तु नारद ।
गुहजन्मकथां दिव्यां तारकासुरसद्वधम् ॥ ६ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! चन्द्रशेखर भगवान् शिवजीके चरित्रको बताता हूँ, आप सुनें, मैं कार्तिकेयको उत्पत्तिकी दिव्य कथा तथा उनके द्वारा किये गये तारकासुरके वधका वृत्तान्त भी कहता हूँ ॥ ६ ॥

श्रूयतां कथयाम्यद्य कथां पापप्रणाशिनीम् ।
यां श्रुत्वा सर्वपापेभ्यो मुच्यते मानवो ध्रुवम् ॥ ७ ॥
मैं जिस कथाको कह रहा हूँ, उसे सुनिये, वह कथा समस्त पापोंको विनष्ट करनेवाली है, जिसे सुनकर निश्चय ही मनुष्य सभी प्रकारके पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ७ ॥

इदमाख्यानमनघं रहस्यं परमाद्‌भुतम् ।
पापसन्तापहरणं सर्वविघ्नविनाशनम् ॥ ८ ॥
सर्वमंगलदं सारं सर्वश्रुतिमनोहरम् ।
सुखदं मोक्षबीजं च कर्ममूलनिकृन्तनम् ॥ ९ ॥
यह आख्यान पापरहित, गोपनीय, परम अद्‌भुत, पाप सन्तापको दूर करनेवाला तथा सभी प्रकारके विजोंको विनष्ट करनेवाला है । यह सभी प्रकारके मंगलोंका दाता, पुराणोंका सारभूत अंश तथा सबके कानोंको सुख प्रदान करनेवाला, आनन्दको बढ़ानेवाला, मोक्षका बीज और कर्ममूलका विनाश करनेवाला है ॥ ८-९ ॥

कैलासमागत्य शिवां विवाह्य
    शोभां प्रपेदे नितरां शिवोऽपि ।
विचारयामास च देवकृत्यं
    पीडां जनस्यापि च देवकृत्ये ॥ १० ॥
शिवजी शिवासे विवाहकर कैलासपर आकर अत्यन्त शोभित हुए और देवगणों के कार्यसाधनका विचार करने लगे । उन्होंने तारकासुरके द्वारा दी गयी अपने भक्तजनोंकी पीड़ाके विषयमें भी विचार किया ॥ १० ॥

शिवःस भगवान् साक्षात्कैलासमगमद्यदा ।
सौख्यं च विविधं चक्रुर्गणाः सर्वे सुहर्षिताः ॥ ११ ॥
इधर शिवजी जब कैलासपर पहुंचे, तब उनके गण प्रसन्न होकर उनको नानाविध सुख प्रदान करने लगे ॥ ११ ॥

महोत्सवो महानासीच्छिवे कैलासमागते ।
देवाः स्वविषयं प्राप्ता हर्षनिर्भरमानसाः ॥ १२ ॥
अथ शम्भुर्महादेवो गृहीत्वा गिरिजां शिवाम् ।
जगाम निर्जनं स्थानं महादिव्यं मनोहरम् ॥ १३ ॥
शय्यां रतिकरीं कृत्वा पुष्पचन्दनचर्चिताम् ।
अद्‌भुतां तत्र परमां भोगवस्त्वन्वितां शुभाम् ॥ १४ ॥
शिवजीके कैलास पहुँचते ही महान् उत्सव होने लगा । सब देवगण प्रसन्नमन होकर अपने-अपने स्थानको चले गये । इसके बाद महादेव सदाशिव गिरिकन्या शिवाको साथ लेकर महादिव्य, मनोहर एवं निर्जन स्थानमें चले गये । वहाँ उन्होंने रतिको बढ़ानेवाली शय्याका निर्माणकर उसे पुष्प तथा चन्दनसे सुशोभित किया । उस अद्‌भुत मनोहर शय्याके समीप नाना प्रकारको भोगसामग्री भी स्थापित कर दी ॥ १२-१४ ॥

स रेमे तत्र भगवान् शम्भुर्गिरिजया सह ।
सहस्रवर्षपर्यन्तं देवमानेन मानदः ॥ १५ ॥
दुर्गाङ्‌गस्पर्शमात्रेण लीलया मूर्च्छितः शिवः ।
मूर्च्छिता सा शिवस्पर्शाद्‌बुबुधे न दिवानिशम् ॥ १६ ॥
उसी शय्यापर मान देनेवाले भगवान् शम्भु पार्वतीके साथ देवताओंके वर्षपरिमाणके अनुसार एक हजार वर्षतक विहार करते रहे । भगवती पार्वतीके अंगके स्पर्शमात्रसे भगवान् सदाशिव लीलापूर्वक मूञ्छित हो गये । भगवती पार्वती भी भगवान् शिवके स्पर्शसे मूञ्छित हो गयीं । इस प्रकार उन्हें दिन-रातका ज्ञान नहीं रहा ॥ १५-१६ ॥

हरे भोगप्रवृत्ते तु लोकधर्मप्रवर्तिनि ।
महान् कालो व्यतीयाय तयोः क्षण इवानघ ॥ १७ ॥
हे अनघ ! लोकधर्मका प्रवर्तन करनेवाले शिवजीके भोगमें प्रवृत्त होनेपर उन दोनोंका लम्बा समय भी क्षणमात्रके समान बीत गया ॥ १७ ॥

अथ सर्वे सुरास्तात एकत्रीभूय चैकदा ।
मन्त्रयाञ्चक्रुरागत्य मेरौ शक्रपुरोगमाः ॥ १८ ॥
हे तात ! तब एक समय इन्द्रादि सब देवता मेरु पर्वतपर एकत्र होकर विचार करने लगे ॥ १८ ॥

सुरा ऊचुः
विवाहं कृतवाञ्छम्भुरस्मत्कार्यार्थमीश्वरः ।
योगीश्वरो निर्विकारो स्वात्मारामो निरञ्जनः ॥ १९ ॥
देवता बोले- यद्यपि शिव योगीश्वर निर्विकार आत्माराम तथा मायारहित हैं, फिर भी हमलोगोंके कल्याणके लिये भगवान् शंकरने विवाह किया है ॥ १९ ॥

नोत्पन्नस्तनयस्तस्य न जानीमोऽत्र कारणम् ।
विलम्बः क्रियते तेन कथं देवेश्वरेण ह ॥ २० ॥
किंतु अबतक इनको कोई पुत्र नहीं हुआ, इसका कारण ज्ञात नहीं हो रहा है । वे भगवान् देवेश्वर विलम्ब क्यों कर रहे हैं ? ॥ २० ॥

ब्रह्मोवाच
एतस्मिन्नन्तरे देवा नारदाद्देवदर्शनात् ।
बुबुधुस्तन्मितं भोगं तयोश्च रममाणयोः ॥ २१ ॥
ब्रह्माजी बोले-इसी बीच देवदर्शन नारदसे देवताओंने शिवा और शिवके परिमित भोगकालको जाना ॥ २१ ॥

चिरं ज्ञात्वा तयोर्भोगं चिन्तामापुः सुराश्च ते ।
ब्रह्माणं मां पुरस्कृत्य ययुर्नारायणान्तिकम् ॥ २२ ॥
तब उनके भोगकालको दीर्घकालीन जानकर देवता बड़े चिन्तित हुए, फिर मुझ ब्रह्माको आगे करके वे विष्णुके समीप गये ॥ २२ ॥

तं नत्वा कथितं सर्वं मया वृत्तान्तमीप्सितम् ।
सन्तस्थिरे सर्वदेवाः चित्रे पुत्तलिका यथा ॥ २३ ॥
मैंने नारायणको प्रणामकर सारा अभीष्ट वृत्तान्त उनसे निवेदित किया । देवतालोग तो चित्रलिखित पुत्तलिकाके समान खड़े रहे ॥ २३ ॥

सहस्रवर्षपर्यन्तं देवमानेन शंकरः ।
रतौ रतश्च निश्चेष्टो योगी विरमते न हि ॥ २४ ॥
[हे नारायण !] योगीश्वर शंकरजी देवताओंके वर्षके परिमाणके अनुसार एक हजार वर्षपर्यन्त विहारपरायण हैं ॥ २४ ॥

श्रीभगवानुवाच
चिन्ता नास्ति जगद्धातः सर्वं भद्रं भविष्यति ।
शरणं व्रज देवेश शंकरस्य महाप्रभोः ॥ २५ ॥
भगवान् विष्णु बोले-हे जगत्के विधाता ! चिन्ता करनेकी आवश्यकता नहीं है । सब कुछ कल्याणकारी ही होगा । हे देवेश ! आप महाप्रभु शंकरकी शरणमें जाइये ॥ २५ ॥

महेशशरणापन्ना ये जना मनसा मुदा ।
तेषां प्रजेश भक्तानां न कुतश्चिद्‌भयं क्वचित् ॥ २६ ॥
शृङ्‌गारभङ्‌गः समये भविता नाधुना विधे ।
कालप्रयुक्तं कार्यं च सिद्धिं प्राप्नोति नान्यथा ॥ २७ ॥
जो मनुष्य प्रसन्न मनसे शंकरकी शरणमें जाते हैं; हे प्रजापते ! शंकरके उन अनन्य भक्तोंको कहींसे कोई भय नहीं होता । हे विधे । उनके शृंगारका रसभंग समयसे होगा, अभी नहीं । जो कार्य ठीक समयमें किया जाता है, वही सफल होता है, अन्यथा नहीं ॥ २६-२७ ॥

शम्भोः सम्भोगमिष्टं को भद्रां कर्तुमिहेश्वरः ।
पूर्णे वर्षसहस्रे च स्वेच्छया हि विरंस्यति ॥ २८ ॥
भगवान् शंकरके अभीष्टको भग्न करनेमें कौन समर्थ है ? हजार वर्ष पूर्ण होनेपर वे स्वयं निवृत्त हो जायेंगे ॥ २८ ॥

स्त्रीपुंसो रतिविच्छेदमुपायेन करोति यः ।
तस्य स्त्रीपुत्रयोर्भेदो भवेज्जन्मनि जन्मनि ॥ २९ ॥
भ्रष्टज्ञानो नष्टकीर्त्तिरलक्ष्मीको भवेदिह ।
प्रयात्यन्ते कालसूत्र वर्षलक्षं स पातकी ॥ ३० ॥
जो रतिको भंग करता है, उसे जन्म जन्मान्तरमें स्त्री तथा पुत्रसे वियोग प्राप्त होता है । उस भेदकर्ता पुरुषका ज्ञान नष्ट हो जाता है, कीर्ति नष्ट हो जाती है और वह दरिद्र हो जाता है । अन्तमें वह एक लाख वर्षतक कालसूत्र नामक नरकमें रहता है ॥ २९-३० ॥

रम्भायुक्तं शक्रमिमं चकार विरतं रतौ ।
महामुनीन्द्रो दुर्वासास्तत्स्त्रीभेदो बभूव ह ॥ ३१ ॥
पुनरन्यां स सम्प्राप्य विषेव्य शुभपाणिकाम् ।
दिव्यं वर्षसहस्रं च विजहौ विरहज्वरम् ॥ ३२ ॥
घृताच्या सह संश्लिष्टं कामं वारितवान् गुरुः ।
षण्मासाभ्यन्तरे चन्द्रस्तस्य पत्नीं जहार ह ॥ ३३ ॥
पुनः शिवं समाराध्य कृत्वा तारामयं रणम् ।
तारां सगर्भां सम्प्राप्य विजहौ विरहज्वरम् ॥ ३४
इसी कारण महामुनीन्द्र दुर्वासाको स्त्रीसे वियोग हुआ । फिर उन्होंने दूसरी मंगलमय करकमलोंवाली स्त्रीको प्राप्त करके वियोगजन्य दुःखको दूर किया । घृताचीपर आसक्त कामदेवको बृहस्पतिके द्वारा मना करने पर बृहस्पतिको पत्नी-हरणका दुःख मिला । फिर उन्होंने शिवजीकी आराधनाकर ताराको प्राप्त किया, जिससे उनकी विरहव्यथा दूर हुई ॥ ३१-३४ ॥

मोहिनीसहितं चन्द्रं चकार विरतं रतौ ।
महर्षिर्गौतमस्तस्य स्त्रीविच्छेदो बभूव ह ॥ ३५ ॥
हरिश्चन्द्रो हालिकं च वृषल्यासह संयुतम् ।
चारयामास निश्चेष्टं निर्जने तत्फलं शृणु ॥ ३६ ॥
भ्रष्टः स्त्रीपुत्रराज्येभ्यो विश्वामित्रेण ताडितः ।
ततः शिवं समाराध्य मुक्तो भूतो हि कश्मलात् ॥ ३७ ॥
महर्षि गौतमने मोहिनीमें आसक्त चन्द्रमाको वियुक्त किया, इस कारण उनका स्त्रीसे वियोग हुआ । हालिकको वृषलीमें कामासक्त देखकर हरिश्चन्द्रद्वारा निषेध किये जानेपर उन्हें विश्वामित्रका कोपभाजन बनना पड़ा और वे स्त्री-पुत्र तथा राज्यसे भी च्युत हो गये । फिर उन्होंने शिवाराधनकर इस कष्टसे छुटकारा प्राप्त किया ॥ ३५-३७ ॥

अजामिलं द्विजश्रेष्ठं वृषल्या सह संयुतम् ।
न भिया वारयामासुः सुरास्तां चापि केचन ॥ ३८ ॥
सर्वं निषेकसाध्यं च निषेको बलवान् विधे ।
निषेकफलदो वै स निषेकः केन वार्यते ॥ ३९ ॥
वृषलीमें आसक्त हुए द्विजश्रेष्ठ अजामिलको तथा उस वृषलीको भयके कारण किसी देवताने भी मना नहीं किया । निषेक (वीर्यसिंचन)-से सब कुछ साध्य है । हे विधे ! निषेक बलवान् है, निषेक ही फल देनेवाला है, उस निषेकका कौन निवारण कर सकता है ? ॥ ३८-३९ ॥

दिव्यं वर्षसहस्रं च शम्भोः सम्भोगकर्म तत् ।
पूर्णे वर्षसहस्रे च गत्वा तत्र सुरेश्वराः ॥ ४० ॥
येन वीर्यं पतेद्‌भूमौ तत् करिष्यथ निश्चितम् ।
तत्र वीर्ये च भविता स्कन्दनामा प्रभोः सुतः ॥ ४१ ॥
शंकरजीके भोगका वह काल देवताओंके वर्षसे हजार वर्षपर्यन्तका था । हे देवगणो ! एक हजार दिव्य वर्ष पूर्ण हो जानेपर आपलोग वहाँ जाकर इस प्रकारका उपाय करें, जिससे उनका तेज पृथ्वीपर गिरे । उसी तेजसे प्रभु शंकरका स्कन्द नामक पुत्र उत्पन्न होगा ॥ ४०-४१ ॥

अधुना स्वगृहं गच्छ विधे सुरगणैः सह ।
करोतु शम्भुः सम्भोगं पार्वत्या सह निर्जने ॥ ४२ ॥
अतः हे ब्रह्मन् ! इस समय आप इन देवताओंको साथ लेकर अपने स्थानको लौट जायें और शिवजी एकान्तमें पार्वतीके साथ आनन्दविहार करें ॥ ४२ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा कमलाकान्तः शीघ्रं स्वान्तः पुरं ययौ ।
स्वालयं प्रययुर्देवा मया सह मुनीश्वर ॥ ४३ ॥
शक्तिशक्तिमतोश्चाऽथ विहारेणाऽति च क्षितिः ।
भाराक्रान्ता चकम्पे सा सशेषाऽपि सकच्छपा ॥ ४४ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुनीश्वर ! इस प्रकार कहकर लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु शीघ्र ही अपने अन्तःपुरमें चले गये और मेरे साथ सभी देवता अपने-अपने स्थानपर चले गये । इस प्रकार बहुत दिनोंतक शक्ति एवं शक्तिमान्के विहारसे भाराक्रान्त यह पृथ्वी शेष एवं कच्छपके धारण करनेपर भी काँप उठी ॥ ४३-४४ ॥

कच्छपस्य हि भारेण सर्वाधारः समीरणः ।
स्तम्भितोऽथ त्रिलोकाश्च बभूवुर्भयविह्वलाः ॥ ४५ ॥
अथ सर्वे मया देवा हरेश्च शरणं ययुः ।
सर्वं निवेदयाञ्चक्रुस्तद्वृत्तं दीनमानसाः ॥ ४६ ॥
तब कच्छपके भारसे आक्रान्त सबका आधारभूत पवन स्तम्भित हो गया, जिससे सम्पूर्ण त्रैलोक्य भयसे व्याकुल हो उठा । फिर सभी देवता मेरे साथ भगवान् विष्णुको शरणमें गये और दुखी मनवाले उन्होंने उस वृत्तान्तको भगवान् विष्णुसे निवेदित किया । ४५-४६ ॥

देवा ऊचुः
देवदेव रमानाथ सर्वावनकर प्रभोः ।
रक्ष नः शरणापन्नान् भयव्याकुलमानसान् ॥ ४७ ॥
देवता बोले-हे देवदेव ! हे रमानाथ ! हे सर्वरक्षक प्रभो ! हमलोग भयसे व्याकुलचित्त हो आपकी शरणमें आये हुए हैं । आप हमारी रक्षा कीजिये ॥ ४७ ॥

स्तम्भितस्त्रिजगत्प्राणो न जाने केन हेतुना ।
व्याकुलं मुनिभिर्लेखैस्त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥ ४८ ॥
पता नहीं, किस कारणसे तीनों लोकोंके प्राणभूत वायुदेव स्तम्भित हो गये हैं तथा मुनि एवं देव गणोंके सहित सारा चराचर त्रैलोक्य व्याकुल हो गया है ! ॥ ४८ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा सकला देवा मया सह मुनीश्वर ।
दीनास्तस्थुः पुरो विष्णोर्मौनीभूताः सुदुःखिताः ॥ ४९ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुनीश्वर ! मेरे साथ गये हुए समस्त देवगण ऐसा कहकर मौन, दुखी तथा दीन होकर भगवान् विष्णुजीके आगे खड़े हो गये ॥ ४९ ॥

तदाकर्ण्य समादाय सुरान्नः सकलान् हरिः ।
जगाम पर्वतं शीघ्रं कैलासं शिवल्लभम् ॥ ५० ॥
इस यातको सुनकर हमें तथा सभी देवताओंको अपने साथ लेकर भगवान् विष्णु बड़ी शीघ्रतासे शिवके प्रिय कैलास पर्वतपर गये ॥ ५० ॥

तत्र गत्वा हरिर्देवैर्मया च सुरवल्लभः ।
ययौ शिवरस्थानं शंकरं द्रष्टुकाम्यया ॥ ५१ ॥
सुरवल्लभ भगवान् विष्णु मुझ ब्रह्मा तथा उन देवताओंके साथ कैलास पहुँचकर भगवान् शिवके दर्शन करनेकी इच्छासे शिवजीके श्रेष्ठ स्थानपर गये ॥ ५१ ॥

तत्र दृष्ट्‍वा शिवं विष्णुर्न सुरैर्विस्मितोऽभवत् ।
तत्र स्थितान् शिवगणान् पप्रच्छ विनयान्वितः ॥ ५२ ॥
किंतु वहाँ शिवजीको न देखकर देवताओंसहित भगवान् विष्णु आश्चर्यमें पड़ गये । फिर उन्होंने वहाँपर स्थित महेश्वरके गणोंसे विनयपूर्वक पूछा ॥ ५२ ॥

विष्णुरुवाच
हे शंकराः शिवः कुत्र गतः सर्वप्रभुर्गणाः ।
निवेदयत नः प्रीत्या दुःखितान्वै कृपालवः ॥ ५३ ॥
विष्णु बोले-हे शंकरके गणो ! आप सब बड़े दयालु हैं । आपलोग हम दुखीजनोंको कृपापूर्वक बताइये कि सर्वप्रभु शंकर इस समय कहाँपर हैं ? ॥ ५३ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य सामरस्य हरेर्गुणाः ।
प्रोचुः प्रीत्या गणास्ते हि शंकरस्य रमापतिम् ॥ ५४ ॥
ब्रह्माजी बोले-देवताओंके सहित भगवान् विष्णुकी बात सुनकर शंकरजीके उन गणोंने प्रीतिपूर्वक लक्ष्मीपति विष्णुसे कहा- ॥ ५४ ॥

शिवगणा ऊचुः
हरे शृणु शिवप्रीत्या यथार्थं ब्रूमहे वयम् ।
ब्रह्मणा निर्जरैः सार्द्धं वृत्तान्तमखिलं च यत् ॥ ५५ ॥
शिवगण बोले-हे हरे ! जो सम्पूर्ण वृत्तान्त है, ब्रह्मा और देवताओंके साथ उसे आप सुनिये, भगवान् शिवमें प्रेमके कारण हम यथार्थ रूपमें कहते हैं ॥ ५५ ॥

सर्वेश्वरो महादेवो जगाम गिरिजालयम् ।
संस्थाप्य नोऽत्र सुप्रीत्या रानालीलाविशारदः ॥ ५६ ॥
विविध प्रकारकी लीलाओंमें पारंगत देवाधिदेव महादेव शिव हमलोगोंको यहाँ स्थापित करके अत्यन्त स्नेहपूर्वक भगवती पार्वतीके आवास स्थानपर गये ॥ ५६ ॥

तद्‌गुहाभ्यन्तरे शम्भुः किं करोति महेश्वरः ।
न जानीमो रमानाथ व्यतीयुर्बहवः समाः ॥ ५७ ॥
हे लक्ष्मीपति ! उस गुहाके भीतर उन्हें बहुत वर्ष व्यतीत हो गये हैं, वहाँ महेश्वर शम्भु क्या कर रहे हैं, इस बातको हम नहीं जानते हैं ॥ ५७ ॥

ब्रह्मोवाच
श्रुत्वेति वचनं तेषां स विष्णुः सामरो मया ।
विस्मितोऽति मुनिश्रेष्ठ शिवद्वारं जगाम ह ॥ ५८ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! उनकी बातोंको सुनकर मेरे तथा देवगणों के साथ विष्णु आश्चर्यचकित हो गये और शिवजीके द्वारपर गये ॥ ५८ ॥

तत्र गत्वा मया देवैः स हरिर्देववल्लभः ।
आर्तवाण्या मुने प्रोचे तारस्वरतया तदा ॥ ५९ ॥
शम्भुमस्तौन्महाप्रीत्या सामरो हि मया हरिः ।
तत्र स्थितो मुनिश्रेष्ठ सर्वलोकप्रभुं हरम् ॥ ६० ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! वहाँ देवताओं एवं मुझ ब्रह्माके साथ जाकर देवताओंके प्रिय भगवान् श्रीहरिने ऊँचे स्वरमें आर्तवाणीसे अत्यन्त प्रेमपूर्वक वहाँ स्थित सर्वलोकेश्वर भगवान् शिवकी स्तुति की ॥ ५९-६० ॥

विष्णुरुवाच
किं करोषि महादेवाऽभ्यन्तरे परमेश्वर ।
तारकार्तान्सुरान्सर्वान् पाहि नः शरणागतान् ॥ ६१ ॥
विष्णु बोले-हे महादेव ! हे परमेश्वर ! आप गुहाके भीतर क्या कर रहे हैं ? तारकासुरसे पीड़ित, आपकी शरणमें आये हुए हम सभी देवताओंकी रक्षा कीजिये ॥ ६१ ॥

इत्यादि संस्तुवन् शम्भुं बहुधा सोऽमरैर्मया ।
रुरोदाति हरिस्तत्र तारकार्तैर्मुनीश्वर ॥ ६२ ॥
हे मुनीश्वर ! इस प्रकार मुझ ब्रह्मा तथा देवताओंके सहित विष्णुने शिवकी अनेक प्रकारसे स्तुति की । उस समय तारकासुरसे पीड़ित देवताओंसहित श्रीहरि अत्यन्त विलाप करके रोने लगे ॥ ६२ ॥

दुःखकोलाहलस्तत्र बभूव त्रिदिवौकसाम् ।
मिश्रितः शिव संस्तुत्याऽसुरार्त्तानां मुनीश्वर ॥ ६३ ॥
हे मुनीश्वर ! तारकासुरसे पीड़ित हुए देवताओंके आर्तनाद और शिवजीकी स्तुतिके मिश्रित होनेसे उस समय दुःखभरा महान् कोलाहल हुआ ॥ ६३ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे रुद्रसंहितायां चतुर्थे
कुमारखण्डे शिविहारवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय कब्रसंहिताके चतुर्थ कुमारखण्डमें शिवविहारवर्णन नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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