![]() |
॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां चतुर्थः कुमारखण्डे
चतुर्थोऽध्यायः ॥ कार्तिकेयान्वेषणनन्दिसंवादवर्णनम् -
पार्वतीके कहनेपर शिवद्वारा देवताओं तथा कर्मसाक्षी धर्मादिकोंसे कार्तिकेयके विषयमें जिज्ञासा करना और अपने गणोंको कृत्तिकाओंके पास भेजना, नन्दिकेश्वर तथा कार्तिकेयका वार्तालाप, कार्तिकेयका केलासके लिये प्रस्थान - नारद उवाच देवदेव प्रजानाथ ततः किमभवद्विधे । वदेदानीं कृपातस्तु शिवलीलासमन्वितम् ॥ १ ॥ नारदजी बोले-हे देवाधिदेव ! हे प्रजानाथ ! हे विधे ! इसके अनन्तर फिर क्या हुआ, आप इस समय कृपा करके शिवजीकी लीलासे युक्त इस चरित्रको कहिये ॥ १ ॥ ब्रह्मोवाच कृत्तिकाभिर्गृहीते वै तस्मिन् शम्भुसुते मुने । कश्चित्कालो व्यतीयाय बुबुधे न हिमाद्रिजा ॥ २ ॥ तस्मिन्नवसरे दुर्गा स्मेराननसरोरुहा । उवाच स्वामिनं शम्भुं देवदेवेश्वरं प्रभुम् ॥ ३ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! इस प्रकार शिवपुत्रको ग्रहणकर उन्हें अपना पुत्र मानते हुए कृत्तिकाओंका कुछ काल व्यतीत हो गया, पर पार्वतीको यह समाचार ज्ञात न हुआ । उस समय पार्वतीने मन्द मुसकानयुक्त हँसते हुए अपने मुखकमलसे देवदेवेश्वर स्वामी श्रीसदाशिवसे कहा- ॥ २-३ ॥ पार्वत्युवाच देवदेव महादेव शृणु मे वचनं शुभम् । पूर्वपुण्यातिभारेण त्वं मया प्राप्त ईश्वर ॥ ४ ॥ पार्वतीजी बोलीं-हे देवाधिदेव ! हे महादेव ! आप मेरे शुभ वचनको सुनिये । मेरे पूर्वजन्मके अत्यन्त पुण्यप्रभावसे आप ईश्वर मुझे पतिरूपसे प्राप्त हुए हैं ॥ ४ ॥ कृपया योगिषु श्रेष्ठो विहारैस्तत्परोऽभवः । रतिभङ्गः कृतो देवैस्तत्र मे भवता भव ॥ ५ ॥ भूमौ निपतितं वीर्यं नोदरे मम ते विभो । कुत्र यातं च तद्देव केन दैवेन निह्नुतम् ॥ ६ ॥ । हे भव ! योगियोंमें श्रेष्ठ आप मेरे साथ विहार में प्रवृत्त हुए थे, उस समय देवताओंके साथ आपने मेरी रतिको भंग कर दिया था । हे विभो ! आपका वह तेज मेरे उदरमें न जाकर पृथ्वीपर गिरा । हे देव ! फिर वह तेज कहाँ गया ? उसे किस देवताने छिपा लिया ? ॥ ५-६ ॥ कथं मत्स्वामिनो वीर्यममोघं ते महेश्वर । मोघं यातं च किं किं वा शिशुर्जातश्च कुत्रचित् ॥ ७ ॥ हे महेश्वर ! मेरे स्वामी ! आपका वह तेज तो अमोघ है, कैसे व्यर्थ हो गया अथवा उससे कोई बालक कहीं प्रकट हुआ ? ॥ ७ ॥ ब्रह्मोवाच पार्वतीवचनं श्रुत्वा प्रहस्य जगदीश्वरः । उवाच देवानाहूय मुनींश्चापि मुनीश्वर ॥ ८ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे मुनीश्वर ! पार्वतीजीकी यह बात सुनकर महेश्वर हँसने लगे और पुनः उन्होंने - मुनियों और देवताओंको बुलाकर कहा- ॥ ८ ॥ महेश्वर उवाच देवाः शृणुत मद्वाक्यं पार्वतीवचनं श्रुतम् । अमोघं कुत्र मे वीर्यं यातं केन च निह्नुतम् ॥ ९ ॥ सभयं नाप तत्क्षिप्रं स चेद्दण्डं न चार्हति । शक्तौ राजा न शास्ता यः प्रजाबाध्यश्च भक्षकः ॥ १० ॥ महेश्वर बोले-देवगणो ! आपने पार्वतीके द्वारा कहे हुए वचनको सुना, अब मेरी बात सुनिये । कभी न निष्फल होनेवाला मेरा तेज कहाँ गया और किसने छिपा लिया ? जो शीघ्र ही बता देगा, उसे कोई भय नहीं है और वह दण्डनीय नहीं होगा । शक्ति होनेपर जो राजा अच्छी प्रकारसे शासन नहीं करता, वह प्रजाका बाधक है और रक्षक न होकर भक्षक ही कहलाता है ॥ ९-१० ॥ शम्भोस्तद्वचनं श्रुत्वा समालोच्य परस्परम् । ऊचुःसर्वे क्रमेणैव त्रस्तास्तु पुरतः प्रभोः ॥ ११ ॥ ब्रह्माजी बोले-शिवजीकी बात सुनकर देवगण भयभीत हो गये और परस्पर विचारकर शिवजीके आगे क्रमशः कहने लगे ॥ ११ ॥ विष्णुरुवाच ते मिथ्यावादिनःसन्तु भारते गुरुदारिकाः । गुरुनिन्दारताः शश्वत्त्वद्वीर्यं यैश्च निह्नुतम् ॥ १२ ॥ विष्णुजी बोले-[हे सदाशिव !] जिन्होंने आपके तेजको छिपाया है, वे मिथ्यावादी हों और भारतमें जन्म लेकर गुरुपत्नीगमन तथा गुरुनिन्दाके पापके निरन्तर भागी बनें ॥ १२ ॥ ब्रह्मोवाच त्वद्वीर्यं निह्नुतं येन पुण्यक्षेत्रे च भारते । स नाऽन्वितो भवेत्तत्र सेवने पूजने तव ॥ १३ ॥ ब्रह्माजी बोले-जिसने आपके तेजको छिपाया है, वह पुण्यक्षेत्र इस भारतमें आपकी सेवा तथा पूजाका अधिकारी न हो ॥ १३ ॥ लोकपाला ऊचुः त्वदवीर्यं निह्नुतं येन पापिना पतितभ्रमात् । भाजनं तस्य सोत्यन्तं तत्तापं कर्म सन्ततम् ॥ १४ ॥ लोकपालोंने कहा-जिस पापीने पतित होनेके भ्रमसे आपके तेजको छिपाया है, वह चोरीके पापका भाजन बने और अपने कर्मसे सदैव दु:खको प्राप्त करता रहे ॥ १४ ॥ देवा ऊचुः कृत्वा प्रतिज्ञां यो मूढो नाऽऽपादयति पूर्णताम् । भाजनं तस्य पापस्य त्वद्वीर्यं येन निह्नुतम् ॥ १५ ॥ देवता बोले-जो मूर्ख प्रतिज्ञा करके अपनी प्रतिज्ञाका परिपालन नहीं करता, वह उस प्रतिज्ञाभंगके पापका भाजन बनता है, वही पाप उसे लगे, जिसने आपके तेजको छिपाया है ॥ १५ ॥ देवपत्न्य ऊचुः या निन्दति स्वभर्तारं परं गच्छति पूरुषम् । मातृबन्धुविहीना च त्वद्वीर्यं निह्नुतं यया ॥ १६ ॥ देवपलियाँ बोलीं-जो स्त्री अपने स्वामीकी निन्दा करती है और परपुरुषके साथ सम्बन्ध बनाती है, वह अपने माता-पिता तथा बन्धुओंसे विहीन होकर उस पापको प्राप्त करे, जिसने आपके तेजको छिपाया है ॥ १६ ॥ ब्रह्मोवाच देवानां वचनं श्रुत्वा देवदेवेश्वरो हरः । कर्मणां साक्षिणश्चाह धर्मादीन्सभयं वचः ॥ १७ ॥ ब्रह्माजी बोले-देवाधिदेव महेश्वरने देवताओंके वचन सुनकर कर्मके साक्षीभूत धर्मादि देवगणोंको भयभीत करते हुए कहा- ॥ १७ ॥ श्रीशिव उवाच देवैर्न निह्नुतं केन तद्वीर्यं निह्नुतं ध्रुवम् । तदमोघं भगवतो महेशस्य मम प्रभोः ॥ १८ ॥ यूयं च साक्षिणो विश्वे सततं सर्वकर्मणाम् । युष्माकं निह्नुतं किं वा किं ज्ञातुं वक्तुमर्हथ ॥ १९ ॥ श्रीशिवजी बोले-[हे धर्मादि देवगणो !] यदि मेरे तेजको देवगणोंने नहीं छिपाया है, तो बताओ कि मेरे तेजको किसने छिपाया है ? मुझ प्रभु महेश्वरका वह तेज तो अमोघ है । आपलोग तो संसारमें सभीके कर्मके सतत साक्षी हैं, आपलोगोंसे कोई बात छिपी नहीं रह सकती, आप उसे जानने तथा कहने में समर्थ हैं ॥ १८-१९ ॥ ब्रह्मोवाच ईश्वरस्य वचः श्रुत्वा सभायां कम्पिताश्च ते । परस्परं समालोक्य क्रमेणोचुः पुरः प्रभोः ॥ २० ॥ ब्रह्माजी बोले-उस देवसभामें सदाशिवकी बात सुनते ही वे धर्म आदि काँप उठे और परस्पर एक-दूसरेकी ओर देखते हुए उन लोगोंने शंकरजीसे कहा- ॥ २० ॥ ब्रह्मोवाच रते तु तिष्ठतो वीर्यं पपात वसुधातले । मया ज्ञातममोघं तच्छङ्करस्य प्रकोपतः ॥ २१ ॥ भगवान् शंकरका रतिकालमें भी स्थित रहनेवाला तेज कोपके कारण पृथ्वीपर गिरा, वह अमोघ है, यह मुझे अच्छी तरह ज्ञात है ॥ २१ ॥ क्षितिरुवाच वीर्यं सोढुमशक्ताहं तद्वह्नो न्यक्षिपं पुरा । अतोऽत्र दुर्वहं ब्रह्मन्नबलां क्षन्तुमर्हसि ॥ २२ ॥ पृथ्वी बोली-मैंने उस असहनीय तेजको धारण करनेमें अपनेको असमर्थ पाकर अग्निको सौंप दिया । अतः हे ब्रह्मन् ! आप इसके लिये मुझ अबलाको क्षमा करें ॥ २२ ॥ वह्निरुवाच वीर्यं सोढुमशक्तोऽहं तव शंकर पर्वते । कैलासे न्यक्षिपं सद्यः कपोतात्मा सुदुःसहम् ॥ २३ ॥ अग्नि बोले-हे शंकर ! मैं कपोतरूपसे आपका तेज धारण करनेमें असमर्थ था, इसलिये मैंने उस दुस्सह तेजको कैलास पर्वतपर त्याग दिया ॥ २३ ॥ गिरिरुवाच वीर्यं सोढुमशक्तोऽहं तव शंकर लोकप । गङ्गायां प्राक्षिपं सद्यो दुःसहं परमेश्वर ॥ २४ ॥ पर्वत [हिमालय] बोले-हे लोकरक्षक परमेश्वर शंकर ! आपके उस असह्य तेजको धारण करनेमें असमर्थ होनेके कारण मैंने उसे शीघ्र गंगाजीमें फेंक दिया ॥ २४ ॥ गङ्गोवाच वीर्यं सोढुमशक्ताहं तव शंकर लोकप । व्याकुलाऽति प्रभो नाथ न्यक्षिपं शरकानने ॥ २५ ॥ गंगाजी बोलीं-हे लोकपालक शंकर ! मैं भी आपका तेज सहन करनेमें असमर्थ हो गयी, तब हे नाथ ! व्याकुल होकर मैंने उसे सरपतके वनमें छोड़ दिया ॥ २५ ॥ वायुरुवाच शरेषु पतितं वीर्यं सद्यो बालो बभूव ह । अतीव सुन्दरः शम्भो स्वर्नद्याः पावने तटे ॥ २६ ॥ वायु बोले-हे शम्भो ! गंगाके पावन तटपर सरपतके वनमें गिरा हुआ वह तेज तत्काल अत्यन्त सुन्दर बालक हो गया ॥ २६ ॥ सूर्य उवाच रुदन्तं बालकं दृष्ट्वागममस्ताचलं प्रभो । प्रेरितः कालचक्रेण निशायां स्थातुमक्षमः ॥ २७ ॥ सूर्य बोले-हे प्रभो ! रोते हुए उस बालकको देखकर कालचक्रसे प्रेरित हुआ मैं वहाँ ठहरनेमें असमर्थ होनेके कारण अस्ताचलको चला गया ॥ २७ ॥ चन्द्र उवाच रुदन्तं बालकं प्राप्य गृहीत्वा कृत्तिकागणः । जगाम स्वालयं शम्भो गच्छन्बदरिकाश्रमम् ॥ २८ ॥ चन्द्रमा बोले-हे शंकर ! रोते हुए बालकको देखकर बदरिकाश्रमकी ओर जाती हुई कृत्तिकाएँ उसे अपने घर ले गयीं ॥ २८ ॥ जलमुवाच अमुं रुदन्तमानीय स्तन्यपानेन ताः प्रभो । वर्द्धयामासुरीशस्य सुतं तव रविप्रभम् ॥ २९ ॥ जल बोला-हे प्रभो ! सूर्यके समान प्रभावाले अत्यन्त तेजस्वी आपके रोते हुए बालकको कृत्तिकाओंने अपना स्तनपान कराकर बड़ा किया है ॥ २९ ॥ सन्ध्योवाच अधुना कृत्तिकानां च वनं तं पोष्य पुत्रकम् । तन्नाम चक्रुस्ताः प्रेम्णा कार्त्तिकश्चेति कौतुकात् ॥ ३० ॥ सन्ध्या बोली-उन कृत्तिकाओंने आपके पुत्रका पालन-पोषण करके कौतुकके साथ बड़े प्रेमसे उसका नाम कार्तिक रखा ॥ ३० ॥ रात्रिरुवाच न चक्रुर्बालकं ताश्च लोचनानामगोचरम् । प्राणेभ्योपि प्रीतिपात्रं यः पोष्टा तस्य पुत्रकः ॥ ३१ ॥ रात्रि बोली-वे कृत्तिकाएँ प्राणोंसे भी अधिक प्रिय उस बालकको अपने नेत्रोंसे कभी ओझल नहीं करती हैं, जो पोषण करनेवाला होता है, उसीका वह (पोष्य) पुत्र होता है ॥ ३१ ॥ दिनमुवाच यानि यानि च वस्त्राणि भूषणानि वराणि च । प्रशंसितानि स्वादूनि भोजयामासुरेव तम् ॥ ३२ ॥ दिन बोला-पृथ्वीपर प्रशंसाके योग्य जितने श्रेष्ठ वस्त्र एवं आभूषण हैं, उन्हें वे पहनाती हैं और स्वादिष्ट भोजन कराती हैं ॥ ३२ ॥ ब्रह्मोवाच तेषां तद्वचनं श्रुत्वा सन्तुष्टः पुरसूदनः । मुदं प्राप्य ददौ प्रीत्या विप्रेभ्यो बहुदक्षिणाम् ॥ ३३ ॥ ब्रह्माजी बोले-उन सबोंकी बातोंको सुनकर त्रिपुरसूदन शिवजी परम प्रसन्न हो गये और उन्होंने आनन्दित होकर प्रेमपूर्वक ब्राह्मणोंको बहुत-सी दक्षिणा दी ॥ ३३ ॥ पुत्रस्य वार्त्तां सम्प्राप्य पार्वती हृष्टमानसा । कोटिरत्नानि विप्रेभ्यो ददौ बहुधनानि च ॥ ३४ ॥ लक्ष्मी सरस्वती मेना सावित्री सर्वयोषितः । विष्णुः सर्वे च देवाश्च ब्राह्मणेभ्यो ददुर्धनम् ॥ ३५ ॥ पुत्रका समाचार सुनकर पार्वती अत्यधिक प्रसन्न हुई और उन्होंने ब्राह्मणोंको करोड़ों रल तथा बहुत-सा धन दक्षिणाके रूपमें दिया । लक्ष्मी, सरस्वती, मेना, सावित्री आदि सभी स्त्रियोंने तथा विष्णु आदि सभी देवताओंने ब्राहाणोंको बहुत धन प्रदान किया ॥ ३४-३५ ॥ प्रेरितः स प्रभुर्देवैर्मुनिभिः पर्वतैरथ । दूतान् प्रस्थापयामास स्वपुत्रो यत्र तान् गणान् ॥ ३६ ॥ देवताओं, मुनियों एवं पर्वतोंसे प्रेरित होकर उन भगवान् शिवने अपने गणों तथा दूतोंको वहाँ भेजा, जहाँ उनका पुत्र था ॥ ३६ ॥ वीरभद्रं विशालाक्षं शङ्कुकर्णं कराक्रमम् । नन्दीश्वरं महाकालं वज्रदंष्ट्रं महोन्मदम् ॥ ३७ ॥ गोकर्णास्यं दधिमुखं ज्वलदग्निशिखोपमम् । लक्षं च क्षेत्रपालानां भूतानां च त्रिलक्षकम् ॥ ३८ ॥ रुद्रांश्च भैरवांश्चैव शिवतुल्यपराक्रमान् । अन्यांश्च विकृताकारानसंख्यानपि नारद ॥ ३९ ॥ हे नारद ! उन्होंने वीरभद्र, विशालाक्ष, शंकुकर्ण, कराक्रम, नन्दीश्वर, महाकाल, वज्रदंष्ट्र, महोन्मद, गोकर्णास्य, अग्निके समान प्रज्वलित मुखवाले दधिमुख, लक्षसंख्यक क्षेत्रपाल तथा तीन लाख भूतों, शिवजीके समान पराक्रमवाले रुद्रों और भैरवों तथा अन्य असंख्य विकृत आकारवाले गणोंको वहाँ भेजा ॥ ३७-३९ ॥ ते सर्वे शिवदूताश्च नानाशस्त्रास्त्रपाणयः । कृत्तिकानां च भवनं वेष्टयामासुरुद्धताः ॥ ४० ॥ नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित उद्धत उन सभी शिवगणोंने कृत्तिकाओंके भवनको घेर लिया ॥ ४० ॥ दृष्ट्वा तान् कृत्तिकाःसर्वा भयविह्नलमानसाः । कार्त्तिकं कथयामासुर्ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा ॥ ४१ ॥ उन गणोंको देखकर कृत्तिकाएँ भयके मारे व्याकुल हो उठीं । तब उन्होंने ब्रह्मतेजसे जाज्वल्यमान कार्तिकसे कहा- ॥ ४१ ॥ कृत्तिका ऊचुः वत्स सैन्यान्यसंख्यानि वेष्टयामासुरालयम् । किं कर्तव्यं क्व गन्तव्यं महाभयमुपस्थितम् ॥ ४२ ॥ कृत्तिकाएँ बोलीं-हे वत्स ! असंख्य सेनाओंने हमारे घरको घेर लिया है । क्या करना चाहिये ? कहाँ जाना चाहिये ? महाभय उपस्थित हो गया है ॥ ४२ ॥ कार्तिकेय उवाच भयं त्यजत कल्याण्यो भयं किं वा मयि स्थिते । दुर्निवार्योऽस्मि बालश्च मातरः केन वार्यते ॥ ४३ ॥ कार्तिकेय बोले-हे कल्याणकारिणी माताओ ! आपलोग भयभीत न हों । मेरे रहते भय करनेका कोई कारण नहीं है । हे माताओ ! मैं यद्यपि अभी बालक हूँ, पर अजेय हूँ । इस जगत्में मुझे जीतनेवाला कौन है ॥ ४३ ॥ ब्रह्मोवाच एतस्मिन्नन्तरे तत्र सैन्येन्द्रो नन्दिकेश्वरः । पुरतः कार्तिकेयस्योपविष्टः समुवाच ह ॥ ४४ ॥ ब्रह्माजी बोले-उसी समय सेनापति नन्दिकेश्वर कार्तिकेयजीके सामने जाकर बैठ गये और बोले- ॥ ४४ ॥ नन्दीश्वर उवाच भ्रातः प्रवृत्तिं शृणु मे मातरश्च शुभावहाम् । प्रेरितोऽहं महेशेन संहर्त्रा शंकरेण च ॥ ४५ ॥ कैलासे सर्वदेवाश्च ब्रह्मविष्णुशिवादयः । सभायां संस्थितास्तात महत्युत्सवमंगले ॥ ४६ ॥ तदा शिवा सभायां वै शंकरं सर्व शंकरम् । सम्बोध्य कथयामास तवान्वेषणहेतुकम् ॥ ४७ ॥ नन्दीश्वर बोले-हे भाई ! हे माताओ ! जिस कारणसे हम यहाँ आये हैं, वह मंगलमय वृत्तान्त मुझसे सुनें, जगत्के संहार करनेवाले महेश्वरसे प्रेरित होकर मैं आपके पास आया हूँ । हे तात ! कैलास पर्वतमें महान् मंगलदायी उत्सवमें सभामें ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा सभी देवता विद्यमान थे । उस समय सभामें भगवती पार्वतीने लोककल्याणकारी भगवान् शंकरको सम्बोधित करते हुए उनसे तुम्हारा पता लगानेके लिये कहा ॥ ४५-४७ ॥ पप्रच्छ तान् शिवो देवान् क्रमात्त्वत्प्राप्तिहेतवे । प्रत्युत्तरं ददुस्ते तु प्रत्येकं च यथोचितम् ॥ ४८ ॥ शंकरने उन सभी देवताओंसे क्रमशः तुम्हारी प्राप्तिका उपाय पूछा । उनमेंसे प्रत्येकने यथोचित उत्तर दिया ॥ ४८ ॥ त्वामत्र कृत्तिकास्थाने कथयामासुरीश्वरम् । सर्वे धर्मादयो धर्माधर्मस्य कर्मसाक्षिणः ॥ ४९ ॥ उसके बाद धर्म एवं अधर्मक तथा कर्मके साक्षीभूत सभी धर्मादि देवताओंने भगवान् शंकरको कृत्तिकाओंके घरमें तुम्हारा विराजमान होना बताया ॥ ४९ ॥ प्रबभूव रहः क्रीडा पार्वतीशिवयोः पुरा । दृष्टस्य च सुरैः शम्भोर्वीर्यं भूमौ पपात ह ॥ ५० ॥ पूर्वकालमें शिव एवं पार्वतीका एकान्त स्थानमें विहार होता रहा । फिर देवताओंके द्वारा अवलोकन करनेपर उन शिवजीका तेज पृथ्वीपर गिर गया ॥ ५० ॥ भूमिस्तदक्षिपद्वह्नौ वह्निश्चाद्रौ स भूधरः । गङ्गायां सोऽक्षिपद्वेगात् तरङ्गैः शरकानने ॥ ५१ ॥ तत्र बालोऽभवस्त्वं हि देवकार्यकृतिः प्रभुः । तत्र लब्धः कृत्तिकाभिस्त्वं भूमिं गच्छ सांप्रतम् ॥ ५२ ॥ भूमिने उसे अग्निमें, अग्निने गिरिराज हिमालयमें और हिमालयने उसे गंगामें फेंक दिया । उसके बाद गंगाने अपनी तरंगोंसे उसे शीघ्रतापूर्वक सरपतके वनमें फेंक दिया । उस तेजसे देवताओंका कार्य करनेके लिये समर्थ तुम उत्पन्न हुए हो । कृत्तिकाओंने तुम्हें वहाँ प्राप्त किया । अतः इस समय तुम पृथ्वीपर चलो ॥ ५१-५२ ॥ तवाभिषेकं शम्भुस्तु करिष्यति सुरैः सह । लप्स्यसे सर्वशस्त्राणि तारकाख्यं हनिष्यसि ॥ ५३ ॥ भगवान् शंकर देवगणोंके सहित तुम्हारा अभिषेक करेंगे, तुम सम्पूर्ण शस्त्रास्त्र प्राप्त करोगे और तारक नामक असुरका वध करोगे ॥ ५३ ॥ पुत्रस्त्वं विश्वसंहर्त्तुस्त्वां प्राप्तुं चाऽक्षमा इमाः । नाग्निं गोप्तुं यथा शक्तः शुष्कवृक्षः स्वकोटरे ॥ ५४ ॥ तुम विश्वके संहर्ता शिवजीके पुत्र हो । ये कृत्तिकाएँ आपको (पुत्रके रूपमें) प्राप्त करनेमें उसी प्रकार असमर्थ हैं, जैसे सूखा हुआ वृक्ष अपने कोटरमें अग्निको छिपानेमें समर्थ नहीं होता ॥ ५४ ॥ दीप्तवांस्त्वं च विश्वेषु नासां गेहेषु शोभसे । यथा पतन्महाकूपे द्विजराजो न राजत ॥ ५५ ॥ तुम सारे संसारमें प्रकाशित हो, इन कृत्तिकाओंके घरमें रहनेसे तुम्हारी शोभा उसी प्रकार नहीं है, जैसे द्विजराज चन्द्रमा कृपके अन्दर रहकर प्रकाशित नहीं होता ॥ ५५ ॥ करोषि च यथाऽऽलोकं नाऽऽच्छन्नोऽस्मासु तेजसा । यथा सूर्यः कलाच्छन्नो न भवेन्मानवस्य च ॥ ५६ ॥ जैसे मनुष्यके तेजसे सूर्यके तेजको छिपाया नहीं जा सकता है, उसी प्रकार जैसे तुम प्रकाश कर रहे हो, उसे हमलोगोंका तेज छिपा नहीं सकता ॥ ५६ ॥ विष्णुस्त्वं जगतां व्यापी नान्यो जातोसि शांभव । यथा न केषां व्याप्यं च तत्सर्वं व्यापकं नभः ॥ २७ ॥ हे शम्भुपुत्र ! तुम अन्य कोई उत्पन्न नहीं हुए हो, सारे संसारको व्याप्तकर स्थित रखनेवाले विष्णु ही हो । जैसे आकाश व्यापक है, किसीका व्याप्य नहीं है, इसी प्रकार तुम भी किसीके व्याप्य नहीं हो, अपितु व्यापक हो ॥ ५७ ॥ योगीन्द्रो नाऽनुलिप्तश्च भागी चेत्परिपोषणे । नैव लिप्तो यथात्मा च कर्मयोगेषु जीविनाम् ॥ ५८ ॥ जैसे कर्मयोगियोंका आत्मा उन कर्मोंसे निर्लिप्त रहता है, इसी प्रकार तुम भी परिपोषणके भागी होनेपर भी योगीन्द्र होनेके कारण निर्लिप्त हो ॥ ५८ ॥ विश्वारम्भस्त्वमीशश्च नासु ते सम्भवेत् स्थितिः । गुणानां तेजसां राशिर्यथात्मानं च योगिनः ॥ ५९ ॥ तुम इस विश्वसृष्टिके कर्ता तथा ईश्वर हो, परंतु इनमें तुम्हारी स्थिति उसी प्रकार नहीं रहती, जिस प्रकार योगीकी आत्मामें गुण और तेजकी राशि स्थित नहीं रहती ॥ ५९ ॥ भ्रातर्ये त्वां न जानन्ति ते नरा हतबुद्धयः । नाद्रियन्ते यथा भेकास्त्वेकवासाश्च पङ्कजान् ॥ ६० ॥ हे भाई ! कमलोंका आदर न करनेवाले सहवासी मेठकोंकी भाँति वे मनुष्य हतबुद्धि हैं, जो आपको तत्त्वतः नहीं जानते ॥ ६० ॥ कार्त्तिकेय उवाच भ्रातःसर्वं विजानासि ज्ञानं त्रैकालिकं च यत् । ज्ञानी त्वं का प्रशंसा ते यतो मृत्युञ्जयाश्रितः ॥ ६१ ॥ कर्मणां जन्म येषां वा यासु यासु च योनिषु । तासु ते निर्वृतिं भ्रातः प्राप्नुवन्तीह साम्प्रतम् ॥ ६२ ॥ कृत्तिकाज्ञानवत्यश्च योगिन्यः प्रकृतेः कलाः । स्तन्येनासां वर्द्धितोऽहमुपकारेण सन्ततम् ॥ ६३ ॥ कार्तिकेय बोले-हे भाई ! जो त्रैकालिक ज्ञान है, वह सब कुछ आप जानते हैं; आप मृत्युंजय भगवान् सदाशिवके सेवक हैं, इसलिये आपकी प्रशंसा जितनी भी की जाय, थोड़ी है । हे भ्रातः ! कर्मवश जिन लोगोंका जिन-जिन योनियोंमें जन्म होता है, उन-उन योनियोंके भोगोंमें उनको सुख प्राप्त होता है । ये सभी कृत्तिकाएँ ज्ञानवती हैं, योगिनी हैं और प्रकृतिकी कलाएँ हैं । इन्होंने अपना दूध पिलाकर मुझे बड़ा बनाया है । इसलिये मेरे ऊपर निरन्तर इनका महान् उपकार है । ६१-६३ ॥ आसामहं पोष्यपुत्रो मदंशा योषितस्त्विमाः । तस्याश्च प्रकृतेरंशास्ततस्तत्स्वामिवीर्यजः ॥ ६४ ॥ मैं इनका पोष्य पुत्र हूँ, ये स्त्रियाँ मुझसे सम्बद्ध हैं, मैं जिस प्रकृतिके स्वामीके तेजसे उत्पन्न हुआ हूँ, ये उसी प्रकृतिकी कलाएँ हैं ॥ ६४ ॥ न मद्भङ्गो हे शैलेन्द्रकन्यया नन्दिकेश्वर । सा च मे धर्मतो माता यथेमाः सर्वसंमताः ॥ ६५ ॥ हे नन्दिकेश्वर ! शैलेन्द्रकन्या पार्वतीसे मेरा जन्म नहीं हुआ है, वे उसी प्रकार मेरी धर्ममाता हैं, जिस प्रकार कृत्तिकाएँ सर्वसम्मतिसे मेरी माता हैं ॥ ६५ ॥ शम्भुना प्रेषितस्त्वं च शम्भोः पुत्रसमो महान् । आगच्छामि त्वया सार्द्धं द्रक्ष्यामि देवताकुलम् ॥ ६६ ॥ आप महान् हैं, शिवजीके पुत्रके समान हैं और मुझे लानेके लिये उन्होंने आपको भेजा है । इसलिये मैं भी आपके साथ चलूँगा और देवताओंका दर्शन करूँगा ॥ ६६ ॥ इत्येवमुक्त्वा तं शीघ्रं सम्बोध्य कृत्तिकागणम् । कार्त्तिकेयः प्रतस्थे हि सार्द्धं शंकरपार्षदैः ॥ ६७ ॥ इस प्रकार कहकर कृत्तिकाओंसे आज्ञा लेकर वे कार्तिकेय शंकरके उन गणोंके साथ शीघ्र चल पड़े ॥ ६७ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां चतुर्थे कुमारखण्डे कार्त्तिकेयान्वेषणनन्दिसंवादवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुजसंहिताके चतुर्थ कुमारखण्डमें कार्तिकेयका अन्वेषण तथा नन्दिसंवादवर्णन नामक चौथा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |