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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां चतुर्थः कुमारखण्डे
एकादशोऽध्यायः ॥ बाणप्रलम्बवधपूर्वक कुमारविजयवर्णनं लिङ्गस्थापनञ्च -
कार्तिकेयद्वारा बाण तथा प्रलम्ब आदि असुरोंका वध, कार्तिकेयचरितके श्रवणका माहात्म्य ब्रह्मोवाच एतस्मिन्नन्तरे तत्र क्रौञ्चनामाचलो मुने । आजगाम कुमारस्य शरणं बाणपीडितः ॥ १ ॥ पलायमानो यो युद्धादसोढा तेज ऐश्वरम् । तुतोदातीव स क्रौञ्चं कोट्यायुतबलान्वितः ॥ २ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! इसी बीच बाण नामके राक्षससे पीड़ित होकर क्रौंच नामका एक पर्वत कुमार कार्तिकेयकी शरणमें वहाँपर आया । वह बाण नामक राक्षस तारक-संग्रामके समय कुमारका ऐश्वर्यशाली तेज सहन न कर पानेके फलस्वरूप दस हजार सैनिकोंके साथ भाग गया था, वही क्रौंचको अतिशय दु:ख देने लगा ॥ १-२ ॥ प्रणिपत्य कुमारस्य स भक्त्या चरणाम्बुजम् । प्रेमनिर्भरया वाचा तुष्टाव गुहमादरात् ॥ ३ ॥ वह क्राँच पर्वत भक्तिपूर्वक कुमारके चरणकमलोंमें प्रणाम करके प्रेममयी वाणीसे आदरपूर्वक कार्तिकेयकी स्तुति करने लगा ॥ ३ ॥ क्रौञ्च उवाच कुमार स्कन्द देवेश तारकासुरनाशक । पाहि मां शरणापन्नं बाणासुरनिपीडितम् ॥ ४ ॥ क्राँच बोला-हे कुमार ! हे स्कन्द ! हे देवेश ! हे तारकासुरका नाश करनेवाले ! बाण नामक दैत्यसे पीड़ित मुझ शरणागतकी रक्षा कीजिये ॥ ४ ॥ सङ्गरात्ते महासेन समुच्छिन्नः पलायितः । न्यपीडयच्च माऽऽगत्य हा नाथ करुणाकर ॥ ५ ॥ हे महासेन ! वह बाण [तारकासुरके संग्राममें] आपसे भयभीत होकर भाग गया था । हे नाथ ! हे करुणाकर ! वह आकर अब मुझे पीड़ित कर रहा है ॥ ५ ॥ तत्पीडितस्ते शरणमागतोऽहं सुदुःखितः । पलायमानो देवेश शरजन्मन् दयां कुरु ॥ ६ ॥ दैत्यं तं नाशय विभो बाणाह्वं मां सुखीकुरु । दैत्यघ्नस्त्वं विशेषेण देवावनकरः स्वराट् ॥ ७ ॥ हे देवेश ! उसी बाणसे पीड़ित होकर अत्यन्त दुःखित मैं भागता हुआ आपकी शरणमें आया हूँ । हे शरजन्मन् ! दया कीजिये । हे विभो ! उस बाण नामक राक्षसका नाश कीजिये और मुझे सुखी कीजिये; आप विशेष रूपसे दैत्योंको मारनेवाले, देवरक्षक तथा स्वराट् हैं ॥ ६-७ ॥ ब्रह्मोवाच इति क्रौञ्चस्तुतःस्कन्दः प्रसन्नो भक्तपालकः । गृहीत्वा शक्तिमतुलां स्वां सस्मार शिवो धिया ॥ ८ ॥ चिक्षेप तां समुद्दिश्य स बाणं शंकरात्मजः । महाशब्दो बभूवाथ जज्वलुश्च दिशो नभः ॥ ९ ॥ ब्रह्माजी बोले-जब क्रौंचने इस प्रकार कुमारकी स्तुति की, तब भक्तपालक वे कार्तिकेय प्रसन्न हुए और उन्होंने हाथमें अपनी अनुपम शक्ति लेकर मनमें शिवजीका स्मरण किया । इसके बाद उन शिवपुत्रने बाणको लक्ष्य करके उसे छोड़ दिया । उससे महान् शब्द हुआ और आकाश एवं दसों दिशाएँ प्रज्वलित हो उठी ॥ ८-९ ॥ सबलं भस्मसात्कृत्वासुरं तं क्षणमात्रतः । गुहोपकण्ठं शक्तिः सा जगाम परमा मुने ॥ १० ॥ ततः कुमार प्रोवाच क्रौञ्चं गिरिवरं प्रभुः । निर्भयः स्वगृहं गच्छ नष्टः स सबलोऽसुरः ॥ ११ ॥ हे मुने ! क्षणमात्रमें ही सेनासहित उस असुरको जलाकर वह परम शक्ति पुनः कुमारके पास लौट आयी । उसके बाद प्रभु कार्तिकेयने उस क्राँच नामक पर्वतश्रेष्ठसे कहा-अब तुम निडर होकर अपने घर जाओ, सेनासहित उस असुरका अब नाश हो गया ॥ १०-११ ॥ तच्छुत्वा स्वामिवचनं मुदितो गिरिराट् तदा । स्तुत्वा गुहं तदारातिं स्वधाम प्रत्यपद्यत ॥ १२ ॥ ततः स्कन्दो महेशस्य मुदा स्थापितवान्मुने । त्रीणि लिङ्गानि तत्रैव पापघ्नानि विधानतः ॥ १३ ॥ प्रतिज्ञेश्वरनामादौ कपालेश्वरमादरात् । कुमारेश्वरमेवाथ सर्वसिद्धिप्रदं त्रयम् ॥ १४ ॥ पुनःसर्वेश्वरस्तत्र जयस्तम्भसमीपतः । स्तम्भेश्वराभिधं लिङ्गं गुहः स्थापितवान्मुदा ॥ १५ ॥ तब स्वामी कार्तिकेयका वह वचन सुनकर पर्वतराज प्रसन्न हो गया और कुमारकी स्तुतिकर अपने स्थानको चला गया । हे मुने ! उसके बाद कार्तिकेयने प्रसन्न होकर उस स्थानपर महेश्वरके पापनाशक तीन लिंग विधिपूर्वक आदरके साथ स्थापित किये, उन तीनों लिंगोंमें प्रथमका नाम प्रतिज्ञेश्वर, दूसरेका नाम कपालेश्वर और तीसरेका नाम कुमारेश्वर है-ये तीनों सभी सिद्धियाँ देनेवाले हैं । इसके बाद उन सर्वेश्वरने वहींपर जय-स्तम्भके सन्निकट स्तम्भेश्वर नामक लिंगको प्रसन्नतापूर्वक स्थापित किया ॥ १२-१५ ॥ ततः सर्वे सुरास्तत्र विष्णुप्रभृतयो मुदा । लिङ्गं स्थापितवन्तस्ते देवदेवस्य शूलिनः ॥ १६ ॥ इसके बाद वहींपर विष्णु आदि सभी देवगणोंने भी प्रसन्नतापूर्वक देवाधिदेव शिवके लिंगकी स्थापना की ॥ १६ ॥ सर्वेषां शिवलिङ्गानां महिमाभूत्तदाद्भुतः । सर्वकामप्रदश्चापि मुक्तिदो भक्तिकारिणाम् ॥ १७ ॥ [वहाँपर स्थापित] उन सभी लिंगोंकी बड़ी विचित्र महिमा है, जो सम्पूर्ण कामनाओंको प्रदान करनेवाली तथा भक्ति करनेवालोंको मोक्ष प्रदान करनेवाली है ॥ १७ ॥ ततः सर्वे सुरा विष्णुप्रमुखाः प्रीतमानसाः । ऐच्छन्गिरिवरं गन्तुं पुरस्कृत्य गुहं मुदा ॥ १८ ॥ तस्मिन्नवसरे शेषपुत्रः कुमुदनामकः । आजगाम कुमारस्य शरणं दैत्यपीडितः ॥ १९ ॥ तब प्रसन्नचित्तवाले विष्णु आदि समस्त देवगण कार्तिकेयको आगेकर कैलास पर्वतपर जानेका विचार करने लगे । उसी समय शेषका कुमुद नामक पुत्र दैत्योंसे पीड़ित होकर कुमारकी शरणमें आया ॥ १८-१९ ॥ प्रलम्बाख्योऽसुरो यो हि रणादस्मात्पलायितः । स तत्रोपद्रवं चक्रे प्रबलस्तारकानुगः ॥ २० ॥ सोऽथ शेषस्य तनयः कुमुदोऽहिपतेर्महान् । कुमारशरणं प्राप्तस्तुष्टाव गिरिजात्मजम् ॥ २१ ॥ प्रलम्ब नामक प्रबल असुर, जो इसी युद्धसे भाग गया था, वह तारकासुरका अनुगामी वहाँ उपद्रव करने लगा । नागराज शेषका वह कुमुद नामक पुत्र अत्यन्त महान् था, जो कुमारकी शरणमें प्राप्त होकर उन गिरिजापतिपुत्रकी स्तुति करने लगा ॥ २०-२१ ॥ कुमुद उवाच देवदेव महादेव वरतात महाप्रभो । पीडितोऽहं प्रलम्बेन त्वाऽहं शरणमागतः ॥ २२ ॥ पाहि मां शरणापन्नं प्रलम्बासुरपीडितम् । कुमार स्कन्द देवेश तारकारे महाप्रभो ॥ २३ ॥ त्वं दीनबन्धुः करुणासिन्धुरानतवत्सलः । खलनिग्रहकर्ता हि शरण्यश्च सतां गतिः ॥ २४ ॥ कुमुद बोला-हे देवदेव ! हे महादेवके श्रेष्ठ पुत्र ! हे तात ! हे महाप्रभो ! मैं प्रलम्बासुरसे पीड़ित होकर आपकी शरणमें आया हूँ । हे कुमार ! हे स्कन्द ! हे देवेश ! हे तारकशत्रो ! हे महाप्रभो ! आप प्रलम्बासुरसे पीड़ित हुए मुझ शरणागतकी रक्षा कीजिये । आप दीनबन्धु, करुणासागर, भक्तवत्सल, दुष्टोंको दण्डित करनेवाले, शरणदाता तथा सज्जनोंकी गति हैं ॥ २२-२४ ॥ कुमुदेनस्तुतश्चेत्थं विज्ञप्तस्तद्वधाय हि । स्वाश्च शक्तिं स जग्राह स्मृत्वा शिवपदाम्बुजौ ॥ २५ ॥ जब कुमुदने इस प्रकार स्तुति की तथा दैत्यके वधके लिये निवेदन किया, तब उन्होंने शंकरके चरणकमलोंका ध्यानकर अपनी शक्ति हाथमें ली ॥ २५ ॥ चिक्षेप तां समुद्दिश्य प्रलम्बं गिरिजासुतः । महाशब्दो बभूवाथ जज्वलुश्च दिशो नभः ॥ २६ ॥ तं सायुतबलं शक्तिर्द्रुतं कृत्वा च भस्मसात् । गुहोपकण्ठं सहसाजगामाक्लिष्टकारिणी ॥ २७ ॥ ततः कुमारः प्रोवाच कुमुदं नागबालकम् । निर्भयः स्वगृहं गच्छ नष्टः स सबलोऽसुरः ॥ २८ ॥ गिरिजापुत्रने प्रलम्बको लक्ष्य करके शक्ति छोड़ी । उस समय महान् शब्द हुआ और सभी दिशाएँ तथा आकाश जलने लगे । अद्भुत कर्म करनेवाली वह शक्ति दस हजार सेनाओंसहित उस प्रलम्बको शीघ्र जलाकर कार्तिकेयके पास सहसा आ गयी । तदनन्तर कुमारने शेषपुत्र कुमुदसे कहा-वह असुर अपने अनुचरोंके सहित मार डाला गया, अब तुम निडर होकर अपने घर जाओ ॥ २६-२८ ॥ तच्छुत्वा गुहवाक्यं स कुमुदोऽहिपतेः सुतः । स्तुत्वा कुमारं नत्वा च पातालं मुदितो ययौ ॥ २९ ॥ तब नागराजका पुत्र कुमुद कुमारका वह वचन सुनकर उनकी स्तुतिकर उन्हें प्रणाम करके प्रसन्न होकर पाताललोकको चला गया ॥ २९ ॥ एवं कुमारविजयं वर्णितं ते मुनीश्वर । चरितं तारकवधं परमाश्चर्यकारकम् ॥ ३० ॥ सर्वपापहरं दिव्यं सर्वकामप्रदं नृणाम् । धन्यं यशस्यमायुष्यं भुक्तिमुक्तिप्रदं सताम् ॥ ३१ ॥ ये कीर्तयन्ति सुयशोऽमितभाग्ययुता नराः । कुमारचरितं दिव्यं शिव लोकं प्रयान्ति ते ॥ ३२ ॥ श्रोष्यन्ति ये च तत्कीर्तिं भक्त्या श्रद्धान्विता जनाः । मुक्तिं प्राप्स्यन्ति ते दिव्यामिह भुक्त्वा परं सुखम् ॥ ३३ ॥ हे मुनीश्वर ! इस प्रकार मैंने आपसे कुमारकी विजय, उनके चरित्र तथा परमाश्चर्यकारक तारकवधका वर्णन कर दिया । यह [आख्यान] सम्पूर्ण पापोंको दूर करनेवाला दिव्य तथा मनुष्यों की समस्त कामनाको पूर्ण करनेवाला, धन्य, यशस्वी बनानेवाला, आयुको बढ़ानेवाला और सज्जनोंको भोग तथा मुक्ति प्रदान करनेवाला है । जो मनुष्य कुमारके इस दिव्य चरित्रका कीर्तन करते हैं, वे महान् यशवाले तथा महाभाग्यसे युक्त होते हैं और [अन्तमें] शिवलोकको जाते हैं । जो मनुष्य श्रद्धा और भक्तिके साथ उनकी इस कीर्तिको सुनेंगे, वे इस लोकमें परम सुख भोगकर अन्तमें दिव्य मुक्ति प्राप्त करेंगे ॥ ३०-३३ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां चतुर्थे कुमारखण्डे बाणप्रलम्बवध कुमारविजयवर्णनं नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुजसंहिताके चतुर्थ कुमारखण्डमें वाणप्रलम्बवध तथा कुमारविजयवर्णन नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ११ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |