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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां चतुर्थः कुमारखण्डे
चतुर्दशोऽध्यायः ॥ गणेशेन सह शिवगणानां विवादवर्णनम् -
द्वाररक्षक गणेश तथा शिवगणोंका परस्पर विवाद ब्रह्मोवाच गणास्ते क्रोधसम्पन्नास्तत्र गत्वा शिवाज्ञया । पप्रच्छुर्गिरिजापुत्रं तं तदा द्वारपालकम् ॥ १ ॥ ब्रह्माजी बोले-तब उन गणोंने क्रुद्ध हो शिवजीकी आज्ञासे वहाँ जाकर उन द्वारपाल गिरिजापुत्रसे पूछा ॥ १ ॥ शिवगणा ऊचुः कोऽसि त्वं कुत आयातः किं वा त्वं च चिकीर्षसि । इतोऽद्य गच्छ दूरं वै यदि जीवितुमिच्छसि ॥ २ ॥ शिवगण बोले-तुम कौन हो, कहाँसे आये हो और यहाँ क्या करना चाहते हो ? यदि जीना चाहते हो तो यहाँसे शीघ्र ही दूर चले जाओ ॥ २ ॥ ब्रह्मोवाच तदीयं तद्वचः श्रुत्वा गिरिजातनयः स वै । निर्भयो दण्डपाणिश्च द्वारपानब्रवीदिदम् ॥ ३ ॥ ब्रह्माजी बोले-उनका वह वचन सुनकर हाथमें लाठी लिये हुए गिरिजापुत्रने निडर होकर उन द्वाररक्षक गणोंसे कहा- ॥ ३ ॥ गणेश उवाच यूयं के कुत आयाता भवन्तः सुन्दरा इमे । यात दूरं किमर्थं वै स्थिता अत्र विरोधिनः ॥ ४ ॥ गणेशजी बोले-आपलोग कौन हैं और कहाँसे आये हैं ? आपलोग तो बहुत ही सुन्दर हैं, शीघ्र ही यहाँसे दूर हो जाइये, विरोध करनेके लिये यहाँ क्यों स्थित हैं ? ॥ ४ ॥ ब्रह्मोवाच एवं श्रुत्वा वचस्तस्य हास्यं कृत्वा परस्परम् । ऊचुःसर्वे शिवगणा महावीरा गतस्मयाः ॥ ५ ॥ ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार उनके वचनको सुनकर शिवजीके सभी महावीर गणोंने आश्चर्यचकित होकर परस्पर हास्य करके कहा ॥ ५ ॥ परस्परमिति प्रोच्य सर्वे ते शिवपार्षदाः । द्वारपालं गणेशं तं प्रत्यूचुः कुद्धमानसाः ॥ ६ ॥ शिवजीके उन पार्षदोंने आपसमें बातें करके कुपितमन होकर उन द्वारपाल गणेशजीसे कहा- ॥ ६ ॥ शिवगणा ऊचुः श्रूयतां द्वारपाला हि वयं शिवगणा वराः । त्वां निवारयितुं प्राप्ताः शंकरस्याज्ञया विभोः ॥ ७ ॥ शिवगण बोले-सुनिये, हम सब शिवजीके श्रेष्ठ गण ही यहाँके द्वारपाल हैं । हम उन विभु शंकरकी आज्ञासे तुम्हें यहाँसे हटानेके लिये आये हैं ॥ ७ ॥ त्वामपीह गणं मत्वा न हन्यामीन्यथा हतः । तिष्ठ दूरे स्वतः त्वं च किमर्थं मृत्युमीहसे ॥ ८ ॥ तुमको भी एक गण समझकर हम तुम्हारा वध नहीं करते । अन्यथा तुम मार दिये गये होते । तुम स्वयं यहाँसे हट जाओ, क्यों मरना चाहते हो ? ॥ ८ ॥ ब्रह्मोवाच इत्युक्तोऽपि गणेशश्च गिरिजातनयोऽभयः । निर्भर्त्स्य शंकरगणान्न द्वारं मुक्तवांस्तदा ॥ ९ ॥ ते सर्वेपि गणाः शैवाः तत्रत्या वचनं तदा । श्रुत्वा तत्र शिवं गत्वा तद्वृत्तान्तमथाब्रुवन् ॥ १० ॥ ततश्च तद्वचः श्रुत्वाद्भुतलीलो महेश्वरः । विनिर्भर्त्स्य गणानूचे निजाँल्लोकगतिर्मुने ॥ ११ ॥ ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार कहे जानेके बाद भी गिरिजापुत्र निर्भय गणेश शंकरगणोंको बहुत फटकारकर द्वारसे नहीं हटे । तब वहाँके उन सम्पूर्ण शिवगणोंने भी गणेशजीका वचन सुनकर शिवजीके पास जाकर उस वृत्तान्तको निवेदित किया । हे मुने ! तब अद्भुत लीला करनेवाले महेश्वर उस वचनको सुनकर अपने गणोंको डाँटकर लौकिक गतिका आश्रय लेकर कहने लगे- ॥ ९-११ ॥ महेश्वर उवाच कश्चायं वर्तते किं च ब्रवीत्यरिवदुच्छ्रितः । किं करिष्यत्यसद्बुद्धिः स्वमृत्युं वाञ्छति ध्रुवम् ॥ १२ ॥ महेश्वर बोले-हे गणो ! यह कौन है ? जो शत्रुके समान इतना उच्छृखल होकर बातें करता है, यह असद्बुद्धि क्या करेगा, निश्चय ही यह अपनी मृत्यु चाहता है ॥ १२ ॥ दूरतः क्रियतां ह्येष द्रारपालो नवीनकः । क्लीबा इव स्थितास्तस्य वृत्तं वदथ मे कथम् ॥ १३ ॥ स्वामिनोक्ता गणास्ते चाद्भुतलीलेन शम्भुना । पुनरागत्य तत्रैव तमूचुर्द्वारपालकम् ॥ १४ ॥ इस नवीन द्वारपालको शीघ्र ही यहाँसे दूर करो, तुमलोग कायरोंकी भाँति खड़े होकर उसका समाचार मुझसे क्यों कह रहे हो ? अद्भुत लीला करनेवाले शंकरके ऐसा कहनेपर उन गोंने पुन: वहींपर आकर उन द्वारपाल गणेशसे कहा- ॥ १३-१४ ॥ शिवगणा ऊचुः रे रे द्वारप कस्त्वं हि स्थितश्च स्थापितः कुतः । नैवास्मान्गाणयस्येवं कथं जीवितुमिच्छसि ॥ १५ ॥ शिवगण बोले-हे द्वारपाल ! तुम कौन हो और किसके द्वारा नियुक्त होकर यहाँ स्थित हो, तुमको हमलोगोंकी कोई परवाह नहीं है, यहाँ रहकर कैसे जीना चाहते हो ? ॥ १५ ॥ द्वारपाला वयं सर्वे स्थितः किं परिभाषसे । सिंहासनगृहीतश्च शृगालः शिवमीहते ॥ १६ ॥ द्वारपाल तो हमलोग हैं, तुम किस प्रकार अपनेको द्वारपाल कहते हो, शेरके आसनपर बैठकर सियार किस प्रकार अपने कल्याणकी इच्छा कर सकता है ? ॥ १६ ॥ तावद्गर्जसि मूर्ख त्वं यावद्गणपराक्रमः । नानुभूतस्त्वयात्रैव ह्यनुभूतः पतिष्यसि ॥ १७ ॥ हे मूर्ख ! तुम तभीतक गर्जना कर रहे हो, जबतक तुम शिवगणोंके पराक्रमका अनुभव नहीं कर लेते हो । अभी जब तुम अनुभव कर लोगे, तब धराशायी हो जाओगे ॥ १७ ॥ इत्युक्तस्तैःसुसङ्कुद्धो हस्ताभ्यां यष्टिकां तदा । गृहीत्वा ताडयामास गणांस्तान्परिभाषिणः ॥ १८ ॥ उवाचाथ शिवापुत्रः परिभर्त्स्य गणेश्वरान् । शंकरस्य महावीरान्निर्भयस्तान्गणेश्वरः ॥ १९ ॥ तब उनके द्वारा कहे गये इस वचनको सुनकर गणेशजी दोनों हाथमें लाठी लेकर ऐसा बोलनेवाले उन गणोंको मारने लगे । तदनन्तर शिवापुत्र गणेशने निडर होकर शंकरके महावीर गणोंको घुड़ककर कहा- ॥ १८-१९ ॥ शिवापुत्र उवाच यात यात ततो दूरे नो चेद्वो दर्शयामि ह । स्वपराक्रममत्युग्रं यास्यथात्युपहास्यताम् ॥ २० ॥ पार्वतीपुत्र बोले-जाओ, जाओ, यहाँसे दूर चले जाओ, अन्यथा मैं तुमलोगोंको प्रचण्ड पराक्रम दिखाऊँगा, जिससे तुमलोग उपहासास्पद हो जाओगे ॥ २० ॥ इत्याकर्ण्य वचस्तस्य गिरिजातनयस्य हि । परस्परमथोचुस्ते शंकरस्य गणास्तदा ॥ २१ ॥ तब उन गिरिजापुत्रकी यह बात सुनकर शंकरके वे गण आपसमें कहने लगे ॥ २१ ॥ शिवगणा ऊचुः किं कर्तव्यं क्व गन्तव्यं क्रियते स न किं पुनः । मर्यादा रक्ष्यतेऽस्माभिरन्यथा किं ब्रवीति च ॥ २२ ॥ शिवगण बोले-अब हमें क्या करना चाहिये, कहाँ जाना चाहिये । कहनेपर भी यह हमारी बात नहीं मानता । हमलोग तो मर्यादाकी रक्षा करते हैं, इसने ऐसी बात किस प्रकार कही ॥ २२ ॥ ब्रह्मोवाच ततः शम्भुगणाःसर्वे शिवं दूरे व्यवस्थितम् । क्रोशमात्रं तु कैलासाद्गत्वा ते च तथाऽब्रुवन् ॥ २३ ॥ शिवो विहस्य तान्सर्वांस्त्रिशूलकर उग्रधीः । उवाच परमेशो हि स्वगणान् वीरसंमतान् ॥ २४ ॥ ब्रह्माजी बोले-तब शिवके सभी गणोंने कैलाससे एक कोसकी दूरीपर स्थित शंकरजीसे जाकर वह सब कहा-तब हाथमें त्रिशूल धारण किये हुए उग्रबुद्धि परमेश्वर शिवजीने हंसकर वीरमानी अपने उन गणोंसे कहा- ॥ २३-२४ ॥ शिव उवाच रेरे गणाः क्लीबमता न वीरा वीरमानिनः । मदग्रे नोदितुं योग्या भर्त्सितः किं पुनर्वदेत् ॥ २५ ॥ शिवजी बोले-हे गणो ! तुमलोग कायर हो, वीरमानी वीर नहीं, मेरे सामने तुमलोग ऐसा कहनेके योग्य नहीं हो, डाँटे जानेपर वह पुनः क्या कह सकता है ॥ २५ ॥ गम्यतां ताड्यतां चैष यः कश्चित्प्रभवेदिह । बहुनोक्तेन किं चात्र दूरीकर्तव्य एव सः ॥ २६ ॥ तुमलोग जाओ, उसपर प्रहार करो, चाहे वह कोई क्यों न हो, मैं तुमलोगोंसे अधिक क्या कहूँ, चाहे जैसे भी हो, उसे वहाँसे हटाओ ॥ २६ ॥ ब्रह्मोवाच इति सर्वे महेशेन जग्मुस्तत्र मुनीश्वर । भर्त्सितास्तेन देवेन प्रोचुश्च गणसत्तमाः ॥ २७ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे मुनीश्वर ! जब महेश्वरने अपने श्रेष्ठ गोंको इस प्रकार फटकारा, तब वे गण पुनः वहाँ गये और बोले- ॥ २७ ॥ शिवगणा ऊचुः रेरे त्वं शृणु वै बाल बलात्किं परिभाषसे । इतस्त्वं दूरतो याहि नो चेन्मृत्युर्भविष्यति ॥ २८ ॥ शिवगण बोले-अरेबालक ! सुनो । तुम हठपूर्वक क्यों व्यर्थ बकवास करते हो, अब तुम यहाँसे दूर चले जाओ, अन्यथा तुम्हारी मृत्यु हो जायगी ॥ २८ ॥ ब्रह्मोवाच इति श्रुत्वा वचस्तेषां शिवाज्ञाकारिणां ध्रुवम् । शिवासुतस्तदाभूत्स किं करोमीति दुःखितः ॥ २९ ॥ ब्रह्माजी बोले-शिवके आज्ञाकारी उन गणोंका निश्चयपूर्वक वचन सुनकर 'मैं क्या करूँ'-यह सोचकर पार्वतीपुत्र गणेशजी बहुत दुखी हुए ॥ २९ ॥ एतस्मिन्नन्तरे देवी तेषां तस्य च वै पुनः । श्रुत्वा तु कलहं द्वारि सखीं पश्येति साब्रवीत् ॥ ३० ॥ समागत्य सखी तत्र वृत्तान्तं समबुध्यत । क्षणमात्रं तदा दृष्ट्वा गता हृष्टा शिवान्तिकम् ॥ ३१ ॥ तत्र गत्वा तु तत्सर्वं वृत्तं तद्यदभून्मुने । अशेषेण तया सख्या कथितं गिरिजाग्रतः ॥ ३२ ॥ इसी बीच द्वारपर गणोंका तथा गणेशका कलह सुनकर देवी पार्वतीने अपनी सखीसे कहा-देखो, द्वारपर किस प्रकारका कलह हो रहा है ? सखीने वहाँ आकर सारा वृत्तान्त जान लिया और क्षणमात्रमें सब कुछ देखकर प्रसन्न होकर वह पार्वतीके पास गयी । हे मुने ! जो कुछ भी घटित हुआ था, वहाँ जाकर उस सखीने वह सब यथार्थ रूपसे पार्वतीके आगे वर्णन किया ॥ ३०-३२ ॥ सख्युवाच अस्मदीयो गणो यो हि स्थितो द्वारि महेश्वरि । निर्भर्त्सयति तं वीराः शंकरस्य गणा ध्रुवम् ॥ ३३ ॥ शिवश्चैव गणाः सर्वे विना तेऽवसरं कथम् । प्रविशन्ति हठाद्गेहे नैतच्छुभतरं तव ॥ ३४ ॥ सखी बोली-हे महेश्वरि ! हमारा गण जो द्वारपर स्थित है, उसको शिवजीके वीर गण निश्चित रूपसे धमका रहे हैं । शिव तथा उनके वे सभी गण बिना अवसरके घरमें जबरदस्ती कैसे प्रवेश कर सकते हैं, यह तो आपके लिये शुभतर नहीं है । ३३-३४ ॥ सम्यक् कृतं ह्यनेनैव न हि कोपि प्रवेशितः । दुःखं चैवानुभूयात्र तिरस्कारादिकं तथा ॥ ३५ ॥ अतः परन्तु वाग्वादः क्रियते च परस्परम् । वाग्वादे च कृते नैव तर्ह्यायान्तु सुखेन वै ॥ ३६ ॥ इस बालकने बहुत अच्छा किया, जो इस कार्यके लिये दु:ख तथा तिरस्कार आदिका अनुभव करके भी इसने किसीको घरमें आने नहीं दिया । इसके बाद इन लोगोंमें परस्पर विवाद चल रहा है, वाद-विवाद किये जानेपर वे सुखपूर्वक घरमें प्रवेश नहीं कर पायेंगे ॥ ३५-३६ ॥ कृतश्चैवात्र वाग्वादस्तं जित्वा विजयेन च । प्रविशन्तु तथा सर्वे नान्यथा कर्हिचित्प्रिये ॥ ३७ ॥ अस्मिन्नेवास्मदीये वै सर्वे सम्भर्त्सिता वयम् । तस्माद्देवि त्वया भद्रे न त्याज्यो मान उत्तमः ॥ ३८ ॥ शिवो मर्कटवत्तेऽद्य वर्तते सर्वदा सति । किं करिष्यत्यहङ्कारमानुकूल्यं भविष्यति ॥ ३९ ॥ हे प्रिये ! यदि वाद-विवाद किया गया, तो मेरे गणको जीतकर विजय प्राप्त करनेके बाद ही वे घरमें प्रवेश कर सकते हैं, अन्यथा नहीं । हमारे गणको धमकी देनेसे इन गणोंने हमलोगोंको ही धमकी दी है, इसलिये हे देवि ! हे भद्रे ! आपको अपने श्रेष्ठ मानका त्याग नहीं करना चाहिये । हे सति ! शिवजी तो बन्दरके समान सदा आपके अधीन हैं, वे अहंकार क्या करेंगे; अवश्य ही वे आपके अनुकूल हो जायेंगे ॥ ३७-३९ ॥ ब्रह्मोवाच अहो क्षणं स्थिता तत्र शिवेच्छावशतःसती । ४० ॥ मनस्युवाच सा भूत्वा मानिनी पार्वती तदा । ४१ ॥ ब्रह्माजी बोले-आश्चर्य है कि वे सती पार्वती शिवेच्छासे क्षणभर वहाँ रुक गयीं और वे मानिनी होकर अपने मनमें कहने लगीं ॥ ४०-४१ ॥ शिवोवाच अहो क्षणं स्थितो नैव हठात्कारः कथं कृतः । कथं चैवात्र कर्त्तव्यं विनयेनाथ वा पुनः ॥ ४२ ॥ भविष्यति भवत्येव कृतं नैवान्यथा पुनः । इत्युक्त्वा तु सखी तत्र प्रेषिता प्रियया तदा ॥ ४३ ॥ शिवा बोलीं-अहो, यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि शिवके गण क्षणमात्र भी रुक नहीं सके । इस प्रकार प्रवेशका हठ उन लोगोंने कैसे ठान लिया ! अब इस निमित्त उनसे विनय अथवा अन्य उपाय करना उचित प्रतीत नहीं हो रहा है । जो होना होगा, वही होगा, मैंने जो कर दिया है, उसे अन्यथा कैसे कर सकती हूँ । ऐसा कहकर प्रिया पार्वतीने अपनी सखीको वहाँ भेजा ॥ ४२-४३ ॥ समागत्याऽब्रवीत्सा च प्रियया कथितं हि यत् । तमाचष्ट गणेशं तं गिरिजातनयं तदा ॥ ४४ ॥ वह सखी आकर पार्वतीपुत्र गणेशसे प्रिया पार्वतीद्वारा कही गयी बात कहने लगी- ॥ ४४ ॥ सख्युवाच सम्यक्कृतं त्वया भद्र बलात्ते प्रविशन्तु न । भवदग्रे गणा ह्येते किं जयन्तु भवादृशम् ॥ ४५ ॥ सखी बोली-हे भद्र ! तुमने बहुत अच्छा किया, ये लोग अब हठपूर्वक घरमें प्रवेश न करें । तुम्हारे सामने ये गण क्या हैं ? जो कि तुम्हारे जैसे गणको जीत लें । ४५ ॥ कृतं चेद्वाकृतं चैव कर्त्तव्यं क्रियतां त्वया । जितो यस्तु पुनर्वापि न वैरमथ वा ध्रुवम् ॥ ४६ ॥ करनेयोग्य अथवा न करनेयोग्य जो भी कर्तव्य हो, तुम उसे अवश्य करना । जो एक बार जीत लिया जायगा, वह फिर वैर नहीं करेगा ॥ ४६ ॥ ब्रह्मोवाच इति श्रुत्वा वचस्तस्या मातुश्चैव गणेश्वरः । आनन्दं परमं प्राप बलं भूरि महोन्नतिम् ॥ ४७ ॥ ब्रह्माजी बोले-उस सखीके द्वारा कहे गये माताके वचनको सुनकर गणेश्वरको परम आनन्द, बल तथा महान् उत्साह प्राप्त हुआ ॥ ४७ ॥ बद्धकक्षस्तथोष्णीषं बद्ध्वा जङ्घोरु संस्पृशन् । उवाच तान् गणान् सर्वान् निर्भयं वचनं मुदा ॥ ४८ ॥ उन्होंने अच्छी तरहसे कमर कस ली और पगड़ी बाँधकर ऊरु तथा जंघापर ताल ठोकते हुए निडर होकर उन सभी गणोंसे प्रसन्नतापूर्वक यह वचन कहा- ॥ ४८ ॥ गणेश उवाच अहं च गिरिजासूनुर्यूयं शिवगणास्तथा । उभये समतां प्राप्ताः कर्तव्यं क्रियतां पुनः ॥ ४९ ॥ गणेशजी बोले-मैं पार्वतीका पुत्र हूँ, तुमलोग शिवके गण हो, दोनों ही समान हैं, [हम सभी] अपने-अपने कर्तव्यका पालन करें ॥ ४९ ॥ भवन्तो द्वारपालाश्च द्वारपोहं कथं न हि । भवन्तश्च स्थितास्तत्राऽहं स्थितोत्रेति निश्चितम् ॥ ५० ॥ क्या आप लोग ही द्वारपाल रह सकते हैं, मैं द्वारपाल नहीं रह सकता ? यदि आपलोग शिवके द्वारपर स्थित हैं, तो मैं भी यहाँ निश्चित रूपसे स्थित हूँ ॥ ५० ॥ भवद्भिश्च स्थितं ह्यत्र यदा भवति निश्चितम् । तदा भवद्भिः कर्त्तव्यं शिवाज्ञापरिपालनम् ॥ ५१ ॥ इदानीं तु मया चात्र शिवाज्ञापरिपालनम् । सत्यं च क्रियते वीरा निर्णीतं मे यथोचितम् ॥ ५२ ॥ जब आपलोग यहाँ स्थित रहियेगा, तब आपलोग शिवकी आज्ञाका पालन कीजियेगा । इस समय तो यहाँ मैं पार्वतीकी आज्ञाका पालन कर रहा हूँ । हे वीरो ! यह सत्य है; मैंने उचित निर्णय लिया है ॥ ५१-५२ ॥ तस्माच्छिवगणाःसर्वे वचनं शृणुतादरात् । हठाद्वा विनयाद्वा न गन्तव्यं मन्दिरे पुनः ॥ ५३ ॥ इसलिये हे शिवगणो ! आपलोग मेरा वचन आदरपूर्वक सुन लें, हठसे अथवा विनयसे आपलोगोंको घरके भीतर नहीं जाना चाहिये ॥ ५३ ॥ ब्रह्मोवाच इत्युक्तास्ते गणेनैव सर्वे ते लज्जिता गणाः । ययुः शिवान्तिकं तं वै नमस्कृत्य पुरः स्थिताः ॥ ५४ ॥ ब्रह्माजी बोले-गणेश्वरके द्वारा इस प्रकार कहे गये वे सभी शिवगण लज्जित होकर शिवके पास गये और उन्हें प्रणामकर उनके आगे खड़े हो गये ॥ ५४ ॥ स्थित्वा न्यवेदयन्सर्वे वृत्तान्तं च तदद्भुतम् । करौ बद्ध्वा नतस्कन्धाः शिवं स्तुत्वा पुरः स्थिताः ॥ ५५ ॥ तत्सर्वं तु तदा श्रुत्वा वृत्तं तत्स्वगणोदितम् । लौकिकीं वृत्तिमाश्रित्य शंकरो वाक्यमब्रवीत् ॥ ५६ ॥ खड़े होकर उनलोगोंने वह सारा अद्भुत वृत्तान्त शिवजीसे निवेदन किया । इसके बाद फिर हाथ जोड़कर सिर झुकाये हुए वे शिवजीकी स्तुतिकर उनके आगे खड़े हो गये । तब अपने गणोंके द्वारा कहे गये उस समाचारको सुनकर शिवजी लौकिक व्यवहारका आश्रय लेकर यह वचन कहने लगे- ॥ ५५-५६ ॥ शंकर उवाच श्रूयतां च गणाःसर्वे युद्धं योग्यं भवेन्नहि । यूयं चात्रास्मदीया वै स च गौरीगणस्तथा ॥ ५७ ॥ विनयः क्रियते चेद्वै वश्यः शम्भुः स्त्रिया सदा । इति ख्यातिर्भवेल्लोके गर्हिता मे गणा धुवम् ॥ ५८ ॥ कृते चैवात्र कर्तव्यमिति नीतिर्गरीयसी । एकाकी स गणो बालः किं करिष्यति विक्रमम् ॥ ५९ ॥ शंकर बोले-हे समस्त गणो ! सुनो, युद्ध करना भी उचित नहीं है, क्योंकि तुमलोग हमारे गण हो और वह बालक पार्वतीका गण है । हे गणो ! यदि नम्रता प्रदर्शित की जाय, तो संसारमें मेरी यह निन्दनीय प्रसिद्धि होगी कि शिवजी सदा स्त्रीके वशमें रहते हैं और शिवके गण निर्बल हैं । जो जैसा करे, उसके साथ वैसा ही बर्ताव करना चाहिये-यही नीति सर्वश्रेष्ठ है । वह अकेला बालक गण क्या पराक्रम करेगा ? ॥ ५७-५९ ॥ भवन्तश्च गणा लोके युद्धे चाति विशारदाः । मदीयाश्च कथं युद्धं हित्वा यास्यथ लाघवम् ॥ ६० ॥ स्त्रिया ग्रहः कथं कार्यो पत्युरग्रे विशेषतः । कृत्वा सा गिरिजा तस्य नूनं फलमवाप्स्यति ॥ ६१ ॥ तस्मात्सर्वे च मद्वीराः शृणुतादरतो वचः । कर्त्तव्यं सर्वथा युद्धं भावि यत्तद्भवत्विति ॥ ६२ ॥ तुम सब मेरे गण हो और युद्ध में अत्यन्त कुशल हो, अतः युद्ध छोड़कर तुमलोग लघुताको कैसे प्राप्त होओगे, विशेषरूपसे पतिके आगे स्त्रीको हठ कैसे करना चाहिये । हठ करके वह पार्वती उसका फल अवश्य प्राप्त करेगी । इसलिये हे वीरो ! तुम सब मेरी बात आदरपूर्वक सुनो, तुम लोग अवश्य युद्ध करो, जो होनहार है, वह तो होकर ही रहेगा ॥ ६०-६२ ॥ ब्रह्मोवाच इत्युक्त्वा शंकरो ब्रह्मन् नानालीलाविशारदः । विरराम मुनिश्रेष्ठ दर्शयँल्लौकिकीं गतिम् ॥ ६३ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे ब्रह्मन् ! हे मुनिश्रेष्ठ ! अनेक प्रकारकी लीलाएं करनेमें प्रवीण शंकरजी ऐसा कहकर लौकिक गति प्रदर्शित करते हुए चुप हो गये ॥ ६३ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां चतुर्थे कुमारखण्डे गणविवादवर्णनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके चतुर्थ कुमारखण्डमें गणविवादवर्णन नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १४ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |