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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां चतुर्थः कुमारखण्डे
पञ्चदशोऽध्यायः ॥ शिवगणैः सह गणेशयुद्धवर्णनम् -
गणेश तथा शिवगणोंका भयंकर युद्ध, पार्वतीद्वारा दो शक्तियोंका प्राकट्य, शक्तियोंका अद्भुत पराक्रम और शिवका कुपित होना ब्रह्मोवाच इत्युक्ता विभुना तेन निश्चयं परमं गताः । सन्नद्धास्तु तदा तत्र जग्मुश्च शिवमन्दिरम् ॥ १ ॥ गणेशोऽपि तथा दृष्ट्वा ह्यायातान्गणसत्तमान् । युद्धाऽऽटोपं विधायैव स्थितांश्चैवाब्रवीदिदम् ॥ २ ॥ ब्रह्माजी बोले-जब सर्वव्यापक शिवजीने अपने गणोंसे इस प्रकार कहा, तब उन्होंने युद्धका निश्चय कर लिया और कवच आदि धारणकर वे शिवजीके भवनके समीप गये । आये हुए उन श्रेष्ठ गोंको देखकर युद्धकी तैयारी करके गणेशजी भी वहाँ स्थित गणोंसे यह कहने लगे- ॥ १-२ ॥ गणेश उवाच आयान्तु गणपाःसर्वे शिवाज्ञापरिपालकाः । अहमेकश्च बालश्च शिवाज्ञापरिपालकः ॥ ३ ॥ तथापि पश्यतां देवी पार्वती सूनुजं बलम् । शिवश्च स्वगणानां तु बलं पश्यतु वै पुनः ॥ ४ ॥ गणेशजी बोले-शिवको आज्ञाका पालन करनेवाले आप सब गण आयें, मैं अकेला बालक होते हुए भी [अपनी माता] पार्वतीकी आज्ञाका पालन करूँगा । तथापि आज देवी पार्वती अपने पुत्रका बल देखें और शंकर अपने गणोंका बल देखें ॥ ३-४ ॥ बलवद्बालयुद्धं च भवानीशिवपक्षयोः । भवद्भिश्च कृतं युद्धं पूर्वं युद्धविशारदैः ॥ ५ ॥ मया पूर्वं कृतं नैव बालोस्मि क्रियतेऽधुना । तथापि भवतां लज्जा गिरिजाशिवयोरिह ॥ ६ ॥ ममैवं तु भवेन्नैव वैपरीत्यं भविष्यति । ममैव भवतां लज्जा गिरिजाशिवयोरिह ॥ ७ ॥ भवानीके पक्षसे इस बालकका तथा शिवके पक्षसे बलवान् गणोंके बीच आज युद्ध होगा । युद्धमें विशारद आप सभी गण पूर्वकालमें अनेक युद्ध कर चुके हैं, मैं तो अभी बालक हूँ, मैंने कभी युद्ध नहीं किया है, किंतु आज युद्ध करूँगा । फिर भी शिवपार्वतीके इस युद्ध में हार जानेपर आप सभीको ही लज्जित होना पड़ेगा, बालक होनेके कारण मुझे हार या जीतकी लाज नहीं है, इस युद्धका फल भी मेरे विपरीत ही होगा । मेरी तथा आपलोगोंकी लाज भवानी तथा शंकरकी लाज है ॥ ५-७ ॥ एवं ज्ञात्वा च कर्त्तव्यः समरश्च गणेश्वराः । भवद्भिःस्वामिनं दृष्ट्वा मया च मातरं तदा ॥ ८ ॥ हे गणेश्वरो ! ऐसा समझकर ही युद्ध कीजिये । आपलोग अपने स्वामीकी ओर देखकर तथा मैं अपनी माताकी ओर देखकर यह युद्ध करूँगा ॥ ८ ॥ क्रियते कीदृशं युद्धं भवितव्यं भवत्विति । तस्य वै वारणे कोऽपि न समर्थस्त्रिलोकके ॥ ९ ॥ यह युद्ध कैसा होगा, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती, इसे रोकनेमें इस त्रिलोकीमें कोई भी समर्थ नहीं होगा । जो होनहार है, वह भी होकर ही रहेगा ॥ ९ ॥ ब्रह्मोवाच इत्येवं भर्त्सितास्ते तु दण्डभूषितबाहवः । विविधान्यायुधान्येवं धृत्वा ते च समाययुः ॥ १० ॥ घर्षयन्तस्तथा दन्तान् हुङ्कृत्य च पुनः पुनः । पश्य पश्य ब्रुवन्तश्च गणास्ते समुपागताः ॥ ११ ॥ ब्रह्माजी बोले-जब गणेशने शिवजीके गणोंको इस प्रकार फटकारा, तब वे शिवगण भी हाथोंमें दण्ड तथा अन्य आयुध लेकर आ गये । दाँत कटकटाते हुए हुंकार करते हुए और 'देखो-देखो' ऐसा बारंबार बोलते हुए वे गण आ गये ॥ १०-११ ॥ नन्दी प्रथममागत्य धृत्वा पादं व्यकर्षयत् । धावन्भृङ्गी द्वितीयं च पादं धृत्वा गणस्य च ॥ १२ ॥ यावत्पादे विकर्षन्तौ तावद्धस्तेन वै गणः । आहत्य हस्तयोस्ताभ्यामुत्क्षिप्तौ पादकौ स्वयम् ॥ १३ ॥ सर्वप्रथम नन्दीने आकर गणेशका एक पैर खींचा, उसके बाद दौड़ते हुए भंगी आकर उसका दूसरा पैर पकड़कर खींचने लगा । जबतक वे दोनों उसके पैर घसीट रहे थे, तबतक उस गणेशने अपने हाथोंसे प्रहारकर अपने पैर छुड़ा लिये ॥ १२-१३ ॥ अथ देवीसुतो वीरःसगृह्य परिघं बृहत् । द्वारस्थितो गणपतिः सर्वानापोथयत्तदा ॥ १४ ॥ केषाञ्चित्पाणयो भिन्नाः केषाञ्चित्पृष्ठकानि च । केषाञ्चिच्च शिरांस्येव केषाञ्चिन्मस्तकानि च ॥ १५ ॥ केषाञ्चिजानुनी तत्र केषाञ्चित्स्कन्धकास्तथा । सम्मुखे चागता ये वै ते सर्वे हृदये हताः ॥ १६ ॥ केचिच्च पतिताभूमौ केचिच्च विदिशो गताः । केषाञ्चिच्चरणौ छिन्नौ केचिच्छर्वान्तिकं गताः ॥ १७ ॥ इसके बाद देवीपुत्र गणेश्वरने एक बड़ा परिघ लेकर द्वारपर स्थित हो सभी गणोंको मारना आरम्भ किया । इससे किन्हींके हाथ टूट गये, किन्हींकी पीठ फट गयी, किन्हींके सिर फूट गये और किन्हींके मस्तक कट गये । कुछ गणोंके जानु तथा कुछके कन्धे टूटकर अलग हो गये । जो लोग सामने आये, उन लोगोंके हृदयपर प्रहार किया गया । कुछ पृथ्वीपर गिरे, कुछ ऊर्ध्व दिशाओंमें जा गिरे, कुछके पैर टूट गये और कुछ शिवजीके समीप जा गिरे ॥ १४-१७ ॥ तेषां मध्ये तु कश्चिद्वै सङ्ग्रामे सम्मुखो न हि । सिंहं दृष्ट्वा यथा यान्ति मृगाश्चैव दिशो दश ॥ १८ ॥ तथा ते च गणाः सर्वे गताश्चैव सहस्रशः । परावृत्य तथा सोऽपि सुद्वारि समुपस्थितः ॥ १९ ॥ कल्पान्तकरणे कालो दृश्यते च भयङ्करः । यथा तथैव दृष्टः स सर्वेषां प्रलयङ्करः ॥ २० ॥ उनमें कोई भी ऐसा गण नहीं था, जो संग्राममें गणेशके सामने दिखायी पड़े । जैसे सिंहको देखकर मृग दसों दिशाओंमें भाग जाते हैं, उसी प्रकार वे हजारों गण भाग गये और वे गणेश पुनः लौटकर द्वारपर स्थित हो गये । जिस प्रकार कल्पान्तके समय काल भयंकर दिखायी पड़ता है, उसी प्रकार उन सभीने गणेशको [कालके समान] प्रलयंकारी देखा ॥ १८-२० ॥ एतस्मिन्समये चैव सरमेशसुरेश्वराः । प्रेरिता नारदेनेह देवाःसर्वे समागमन् ॥ २१ ॥ इसी बीच नारदजीसे प्रेरित होकर विष्णु, इन्द्रसहित सभी देवता वहाँ पहुँच गये ॥ २१ ॥ समब्रुवंस्तदा सर्वे शिवस्य हितकाम्यया । पुरः स्थित्वा शिवं नत्वा ह्याज्ञां देहि प्रभो इति ॥ २२ ॥ त्वं परब्रह्म सर्वेशः सर्वे च तव सेवकाः । सृष्टेः कर्ता सदा भर्ता संहर्ता परमेश्वरः ॥ २३ ॥ रजःसत्त्वतमोरूपो लीलया निर्गुणः स्वतः । का लीला रचिता चाद्य तामिदानीं वद प्रभो ॥ २४ ॥ तब शिवजीको हितकामनासे उन लोगोंने शिवको नमस्कारकर उनके आगे खड़े होकर कहाहे प्रभो ! हमें आज्ञा दीजिये । आप परब्रह्म सर्वेश हैं और हम सब आपके सेवक हैं, आप सृष्टिके कर्ता, भर्ता और संहर्ता परमेश्वर हैं । आप स्वयं निर्गुण होते हुए भी अपनी लीलासे सत्त्व, रज तथा तमरूप हैं । हे प्रभो ! आपने इस समय कौन-सी लीला प्रारम्भ की है, उसे हमें बताइये ॥ २२-२४ ॥ ब्रह्मोवाच इत्याकर्ण्य वचस्तेषां मुनिश्रेष्ठ महेश्वरः । गणान् भिन्नाँस्तदा दृष्ट्वा तेभ्यः सर्वं न्यवेदयत् ॥ २५ ॥ अथ सर्वेश्वरस्तत्र शंकरो मुनिसत्तम । विहस्य गिरिजानाथो ब्रह्माणं मामुवाच ह ॥ २६ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! उनका यह वचन सुनकर महेश्वरने [अपने] घायल गणोंकी ओर देखकर उनसे सब कुछ कहा । इसके बाद हे मुनिसत्तम ! पार्वतीपति सर्वेश्वर शंकर हँसकर मुझ ब्रह्मासे कहने लगे- ॥ २५-२६ ॥ शिव उवाच ब्रह्मञ्छृणु मम द्वारि बाल एकः समास्थितः । महाबलो यष्टिपाणिर्गेहावेशनिवारकः ॥ २७ ॥ महाप्रहारकर्ताऽसौ मत्पार्षदविघातकः । पराजयः कृतस्तेन मद्गणानां बलादिह ॥ २८ ॥ शिवजी बोले-हे ब्रह्मन् ! सुनिये, मेरे द्वारपर एक महाबली बालक हाथमें लाठी लिये हुए खड़ा है, वह सबको घरमें जानेसे रोकता है । वह भयंकर प्रहार करनेवाला है, उसने मेरे पार्षदोंको मार गिराया है और मेरे गणोंको बलपूर्वक पराजित कर दिया है ॥ २७-२८ ॥ ब्रह्मन् त्वयैव गन्तव्यं प्रसाद्योऽयं महाबलः । यथा ब्रह्मन्नयः स्याद्वै तथा कार्यं त्वया विधे ॥ २९ ॥ हे ब्रह्मन् ! आप ही वहाँ जायें और इस महाबलीको प्रसन्न करें । हे ब्रह्मन् ! हे विधे ! जैसी नीति हो, वैसा व्यवहार करें ॥ २९ ॥ ब्रह्मोवाच इत्याकर्ण्य प्रभोर्वाक्यमज्ञात्वाऽज्ञानमोहितः । तदीयनिकटं तात सर्वैर्ऋषिवरैरयाम् ॥ ३० ॥ ब्रह्माजी बोले-हे तात ! शिवजीके इस वचनको सुनकर विशेष बातको न जानकर अज्ञानसे मोहित हुआ मैं सभी ऋषियोंके साथ उसके पास गया ॥ ३० ॥ समायान्तं च मां दृष्ट्वा स गणेशो महाबली । क्रोधं कृत्वा समभ्येत्य मम श्मश्रूण्यवाकिरत् ॥ ३१ ॥ वह महाबली गणेश मुझे आते हुए देखकर क्रोध करके मेरे सन्निकट आकर मेरी दाढ़ी उखाड़ने लगा ॥ ३१ ॥ क्षम्यतां क्षम्यतां देव न युद्धार्थं समागतः । ब्राह्मणोहमनुग्राह्यः शान्तिकर्तानुपद्रवः ॥ ३२ ॥ हे देव । क्षमा कीजिये, क्षमा कीजिये, मैं यहाँ युद्धके लिये नहीं आया हूँ । मैं तो ब्राह्मण हूँ, मुझपर कृपा कीजिये, मैं उपद्रवरहित हूँ तथा शान्ति करनेवाला हूँ ॥ ३२ ॥ इत्येवं ब्रुवति ब्रह्मंस्तावत्परिघमाददे । स गणेशो महावीरो बालोऽबालपराक्रमः ॥ ३३ ॥ अभी मैं ऐसा कह ही रहा था, तभी हे नारद ! युवाके समान पराक्रमी महावीर उस बालक गणेशने हाथमें परिघ ले लिया ॥ ३३ ॥ गृहीतपरिघं दृष्ट्वा तं गणेशं महाबलम् । पलायनपरो यातस्त्वहं द्रुततरं तदा ॥ ३४ ॥ यात यात ब्रुवन्तस्ते परिघेन हतास्तदा । स्वयं च पतिताः केचित्केचित्तेन निपातिताः ॥ ३५ ॥ केचिच्च शिवसामीप्यं गत्वा तत्क्षणमात्रतः । शिवं विज्ञापयाञ्चक्रुस्तद्वृत्तान्तमशेषतः ॥ ३६ ॥ तब उस महाबली गणेशको परिघ धारण किये हुए देखकर मैं शीघ्रतासे भाग गया । मेरे साथके लोग कहने लगे-यहाँसे भागो, भागो, इतनेमें ही उसने उन्हें परिघसे मारना प्रारम्भ कर दिया, जिससे कुछ तो स्वयं गिर गये और कुछको उसने मार गिराया । कुछ लोग उसी क्षण शिवजीके समीप जाकर पूर्णरूपसे उस वृत्तान्तको शिवजीसे कहने लगे ॥ ३४-३६ ॥ तथाविधांश्च तान् दृष्ट्वा तद्वृत्तान्तं निशम्य सः । अपारमादधे कोपं हरो लीलाविशारदः ॥ ३७ ॥ उन्हें वैसा देखकर और उस घटनाको सुनकर लोलाविशारद शिवजीको अपार क्रोध उत्पन्न हुआ ॥ ३७ ॥ इन्द्रादिकान्देवगणान् षण्मुखप्रवरान् गणान् । भूतप्रेतपिशाचांश्च सर्वानादेशयत्तदा ॥ ३८ ॥ तब उन्होंने इन्द्रादि देवगणों, कार्तिकेय आदि प्रमुख गणों, भूतों, प्रेतों एवं पिशाचोंको आज्ञा दी ॥ ३८ ॥ ते सर्वे च यथायोग्यं गतास्ते सर्वतो दिशम् । तं गणं हन्तुकामा हि शिवाज्ञाता उदायुधाः ॥ ३९ ॥ यस्य यस्यायुधं यच्च तत्तत्सर्वं विशेषतः । तद्गणेशोपरि बलात्समागत्य विमोचितम् ॥ ४० ॥ शिवजीके द्वारा आदिष्ट वे लोग यथायोग्य हाथोंमें आयुध लिये हुए उस गणको मारनेकी इच्छासे सभी दिशाओंमें गये और जिस-जिसका जो विशेष अस्व था, उन-उन अस्त्रोंसे बलपूर्वक बालक गणेशपर प्रहार करने लगे ॥ ३९-४० ॥ हाहाकारो महानासीत् त्रैलोक्ये सचराचरे । त्रिलोकस्था जनाः सर्वे संशयं परमं गताः ॥ ४१ ॥ उस समय चराचरसहित त्रिलोकीमें हाहाकार मच गया और तीनों लोकोंमें रहनेवाले सभी लोग अत्यन्त संशयमें पड़ गये ॥ ४१ ॥ न यातं ब्रह्मणोऽप्यायुर्ब्रह्माण्डं क्षयमेति हि । अकाले च तथा नूनं शिवेच्छावशतः स्वयम् ॥ ४२ ॥ ते सर्वे चागतास्तत्र षण्मुखाद्याश्च ये पुनः । देवा व्यर्थायुधा जाता आश्चर्यं परमं गताः ॥ ४३ ॥ [वे आश्चर्यचकित हो कहने लगे कि] अभी ब्रह्माकी आयु समाप्त नहीं हुई है, तब इस ब्रह्माण्डका नाश कैसे हो रहा है ? निश्चय ही यह शिवकी इच्छा है, जो अकालमें ही ऐसा हो रहा है । उस समय कार्तिकेय आदि जितने भी देवता थे, वे सभी वहाँ आये और उन सभीके शस्त्र व्यर्थ हो गये, जिसके कारण वे आश्चर्यचकित हो उठे ॥ ४२-४३ ॥ एतस्मिन्नन्तरे देवी जगदम्बा विबोधना । ज्ञात्वा तच्चरितं सर्वमपारं क्रोधमादधे ॥ ४४ ॥ इसी बीच ज्ञानदायिनी देवी जगदम्बा उस सम्पूर्ण घटनाको जानकर अपार क्रोधमें भर गयीं ॥ ४४ ॥ शक्तिद्वयं तदा तत्र तया देव्या मुनीश्वर । निर्मितं स्वगणस्यैव सर्वसाहाय्यहेतवे ॥ ४५ ॥ एका प्रचण्डरूपं च धृत्वातिष्ठन्महामुने । श्यामपर्वतसङ्कांशं विस्तीर्य मुखगह्वरम् ॥ ४६ ॥ एका विद्युत्स्वरूपा च बहुहस्तसमन्विता । भयङ्करा महादेवी दुष्टदण्डविधायिनी ॥ ४७ ॥ हे मुनीश्वर ! उस समय वहाँपर उन देवीने अपने गणकी सब प्रकारकी सहायताके लिये दो शक्तियोंका निर्माण किया । हे महामुने ! जिसमें एक प्रचण्ड रूप धारणकर काले पहाड़की गुफाके समान मुख फैलाकर खड़ी हो गयी और दूसरी बिजलीके समान रूप धारण करनेवाली, बहुत हाथोंवाली तथा दुष्टोंको दण्ड देनेवाली भयंकर महादेवी थी ॥ ४५-४७ ॥ आयुधानि च सर्वाणि मोचितानि सुरैर्गणैः । गृहीत्वा स्वमुखे तानि ताभ्यां शीघ्रं च चिक्षिपे ॥ ४८ ॥ देवायुधं न दृश्येत परिघः परितः पुनः । एवं ताभ्यां कृतं तत्र चरितं परमाद्भुतम् ॥ ४९ ॥ उन दोनों शक्तियोंने देवताओंके द्वारा छोड़े गये समस्त आयुध पकड़कर बड़ी शीघ्रतासे अपने मुखमें डाल लिये । उस समय किसी देवताका एक भी शस्त्र वहाँ नहीं दिखायी दे रहा था, केवल चारों ओर गणेशका परिघ ही दिखायी पड़ा । इस प्रकार उन दोनोंने वहाँ अत्यन्त अद्भुत चरित्र किया ॥ ४८-४९ ॥ एको बालोऽखिलं सैन्यं लोडयामास दुस्तरम् । यथा गिरिवरेणैव लोडितः सागरः पुरा ॥ ५० ॥ एकेन निहताः सर्वे शक्राद्या निर्जरास्तथा । शंकरस्य गणाश्चैव व्याकुलाः अभवंस्तदा ॥ ५१ ॥ पूर्व समयमें जिस प्रकार गिरि श्रेष्ठ मन्दराचलने क्षीरसागरका मन्थन किया था, उसी प्रकार अकेले उस बालकने समस्त दुस्तर देवसेनाको मथ डाला ॥ ५० ॥ अथ सर्वे मिलित्वा ते निः श्वस्य च मुहुर्मुहुः । परस्परं समूचुस्ते तत्प्रहारसमाकुलाः ॥ ५२ ॥ तब अकेले गणेशके द्वारा मारे-पीटे गये इन्द्रादि देवगण तथा शिवगण व्याकुल हो गये । इसके बाद गणेशके प्रहारसे व्याकुल हुए वे सभी एकत्रित होकर बारंबार श्वास छोड़ते हुए आपसमें कहने लगे- ॥ ५१-५२ ॥ देवगणा ऊचुः किं कर्तव्यं क्व गन्तव्यं न ज्ञायन्ते दिशो दश । परिघं भ्रामयत्येष सव्यापसव्यमेव च ॥ ५३ ॥ देवगण बोले-अब क्या करना चाहिये और कहाँ जाना चाहिये ? दसों दिशाओंका ज्ञान ही नहीं हो रहा है । यह बालक तो दायें-बायें परिघ घुमा रहा है । ५३ ॥ ब्रह्मोवाच एतत्कालेऽप्सरश्रेष्ठाः पुष्पचन्दनपाणयः । ऋषयश्च त्वदाद्या हि येऽतियुद्धेतिलालसाः ॥ ५४ ॥ ते सर्वे च समाजग्मुर्युद्धसन्दर्शनाय वै । पूरितो व्योम सन्मार्गस्तैस्तदा मुनिसत्तम ॥ ५५ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! उसी समय पुष्य, चन्दन हाथमें लिये हुए अप्सराएँ तथा नारदादि ऋषि जो इस महान् युद्धको देखनेकी लालसावाले थे, वे सभी युद्ध देखनेके लिये वहाँ आये । हे मुनिश्रेष्ठ ! उस समय उनके द्वारा आकाशमार्ग भर गया ॥ ५४-५५ ॥ तास्ते दृष्ट्वा रणं तं वै महाविस्मयमागताः । ईदृशं परमं युद्धं न दृष्टं चैकदापि हि ॥ ५६ ॥ वे अप्सराएँ तथा ऋषिगण उस युद्धको देखकर अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गये और कहने लगे-इस प्रकारका युद्ध तो कभी भी देखनेमें नहीं आया ॥ ५६ ॥ पृथिवी कम्पिता तत्र समुद्रसहिता तदा । पर्वताः पतिताश्चैव चक्रुः सङ्ग्रामसम्भवम् ॥ ५७ ॥ उस समय समुद्रसहित सारी पृथ्वी काँपने लगी तथा पर्वत गिरने लगे, वे संग्रामकी सूचना दे रहे थे ॥ ५७ ॥ द्यौर्ग्रहर्क्षगणैर्घूर्ण्णा सर्वे व्याकुलतां गताः । देवाः पलायिताःसर्वे गणाश्च सकलास्तदा ॥ ५८ ॥ केवलं षण्मुखस्तत्र नापलायत विक्रमी । महावीरस्तदा सर्वानावार्य पुरतः स्थितः ॥ ५९ ॥ आकाश, ग्रह एवं नक्षत्रमण्डल घूमने लगे, जिससे सभी व्याकुल हो उठे । सभी देवता तथा गण भाग गये । केवल पराक्रमी तथा महावीर कार्तिकेय ही नहीं भागे और सबको रोककर गणेशके सामने डटे रहे ॥ ५८-५९ ॥ शक्तिद्वयेन तद्युद्धे सर्वे च निष्फलीकृताः । सर्वास्त्राणि निकृत्तानि सङ्क्षिप्तान्यमरैर्गणैः ६० ॥ येऽवस्थिताश्च ते सर्वे शिवस्यान्तिकमागताः । देवाः पलायिताः सर्वे गणाश्च सकलास्तदा ॥ ६१ ॥ उन दोनों शक्तियोंने उस युद्ध में सभीको असफल कर दिया और देवताओंके द्वारा चलाये गये सभी शस्त्रोंको काट दिया । जो लोग शेष बच गये थे, वे सब शिवजीके समीप आ गये, सभी देवता तथा शिवगण तो भाग ही चुके थे । ६०-६१ ॥ ते सर्वे मिलिताश्चैव मुहुर्नत्वा शिवं तदा । अब्रुवन्वचनं क्षिप्रं कोऽयं गणवरः प्रभो ॥ ६२ ॥ उन सभीने मिलकर शिवको बारंबार नमस्कारकर बड़ी शीघ्रतासे पूछा-हे प्रभो ! यह श्रेष्ठ गण कौन है ? ॥ ६२ ॥ पुरा चैव श्रुतं युद्धमिदानीं बहुधा पुनः । दृश्यते न श्रुतं दृष्टमीदृशं तु कदाचन ॥ ६३ ॥ हमलोगोंने पहले भी युद्धका वर्णन सुना था, इस समय भी बहुत-से युद्ध देख रहे हैं, किंतु इस प्रकारका युद्ध न तो कभी देखा गया और न सुना ही गया ! ॥ ६३ ॥ किञ्चिद्विचार्यतां देव त्वन्यथा न जयो भवेत् । त्वमेव रक्षकः स्वामिन्ब्रह्माण्डस्य न संशयः ॥ ६४ ॥ हे देव ! अब कुछ विचार कीजिये, अन्यथा जय नहीं हो सकती है । हे स्वामिन् ! आप ही इस ब्रह्माण्डके रक्षक हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ६४ ॥ ब्रह्मोवाच इत्येवं तद्वचः श्रुत्वा रुद्रः परमकोपनः । कोपं कृत्वा च तत्रैव जगाम स्वगणैःसह ॥ ६५ ॥ ब्रह्माजी बोले-उनका यह वचन सुनकर परम-क्रोधी रुद्र कोप करके अपने गणोंसहित वहाँ गये ॥ ६५ ॥ देवसैन्यं च तत्सर्वं विष्णुना चक्रिणा सह । समुत्सवं महत्कृत्वा शिवस्यानुजगाम ह ॥ ६६ ॥ तब देवगणोंकी सेना भी चक्रधारी विष्णुके साथ महान् उत्सव करके शिवजीके पीछे पीछे गयी ॥ ६६ ॥ एतस्मिन्नन्तरे भक्त्या नमस्कृत्य महेश्वरम् । अब्रवीन्नारद त्वं वै देवदेवं कृताञ्जलिः ॥ ६७ ॥ हे नारद ! इसी बीच आपने देवदेव महेश्वरको भक्तिपूर्वक हाथ जोड़कर नमस्कार करके कहा- ॥ ६७ ॥ नारद उवाच देवदेव महादेव शृणु मद्वचनं विभो । त्वमेव सर्वगःस्वामी नानालीलाविशारदः ॥ ६८ ॥ नारदजी बोले-हे देवदेव ! हे महादेव ! हे विभो ! मेरा वचन सुनिये, आप सर्वत्र व्याप्त हैं, सबके स्वामी हैं तथा नानाविध लीलाओंको करने में प्रवीण हैं ॥ ६८ ॥ त्वया कृत्वा महालीलां गणगर्वोऽपहारितः । अस्मै दत्त्वा बलं भूरि देवगर्वश्च शंकर ॥ ६९ ॥ दर्शितं भुवने नाथ स्वमेव बलमद्भुतम् । स्वतन्त्रेण त्वया शम्भो सर्वगर्वप्रहारिणा ॥ ७० ॥ इदानीं न कुरुष्वेश तां लीलां भक्तवत्सलः । स्वगणानमरांश्चापि सुसन्मान्याभिवर्द्धय ॥ ७१ ॥ इमं न खेलयेदानीं जहि ब्रह्मपदप्रद । इत्युक्त्वा नारद त्वं वै ह्यन्तर्द्धानं गतस्तदा ॥ ७२ ॥ आपने महालीला करके गणोंके गर्वको दूर कर दिया । हे शंकर ! आपने इनको बल देकर देवताओंके गर्वको भी नष्ट कर दिया । हे नाथ ! हे शम्भो ! स्वतन्त्र तथा सभीके गर्वको चूर करनेवाले आपने इस भुवनमें अपना अद्भुत बल दिखाया । हे भक्तवत्सल ! अब आप उस लीलाको मत कीजिये और अपने इन गणोंका तथा देवाताओंका सम्मान करके इनकी रक्षा कीजिये । हे ब्रह्मपददायक ! अब इन्हें अधिक मत खेलाइये और इन गणेशका वध कीजिये । हे नारद ! इस प्रकार कहकर आप वहाँसे अन्तर्धान हो गये ॥ ६९-७२ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां कुमारखण्डे गणेशयुद्धवर्णनं नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके चतुर्थ कुमारखण्डमें गणेशयुद्धवर्णन नामक पन्द्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १५ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |