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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

प्रथमोऽध्यायः

त्रिपुरवर्णनम् -
तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन


नारद उवाच
श्रुतमस्माभिरानन्दप्रदं चरितमुत्तमम् ।
गृहस्थस्यैव शम्भोश्च गणस्कन्दादिसत्कथम् ॥ १ ॥
इदानीं ब्रूहि सुप्रीत्या चरितं वरमुत्तमम् ।
शंकरो हि यथा रुद्रो जघान विहरन् खलान् ॥ २ ॥
नारदजी बोले-[हे ब्रह्मन् !] हमने गणेश तथा स्कन्दकी सत्कथासे समन्वित गृहस्थ शिवजीके आनन्दप्रद उत्तम चरित्रका श्रवण किया । विहार करते हुए शिवजीने जिस प्रकार दुष्टोंका वध किया, अब आप उस श्रेष्ठ एवं उत्तम चरित्रका अत्यन्त प्रेमपूर्वक वर्णन कीजिये ॥ १-२ ॥

कथं ददाह भगवान्नगराणि सुरद्विषाम् ।
त्रीण्येकेन च बाणेन युगपत्केन वीर्यवान् ॥ ३ ॥
पराक्रमशाली भगवान् शंकरने एक ही बाणसे एक साथ दैत्योंके तीनों पुरोंको किस प्रकार जलाया ? ॥ ३ ॥

एतत्सर्वं समाचक्ष्व चरितं शशिमौलिनः ।
देवर्षिसुखदं शश्वन्मायाविहरतः प्रभोः ॥ ४ ॥
आप मायासे निरन्तर विहार करनेवाले भगवान् शंकरके इस सम्पूर्ण चरित्रका वर्णन कीजिये, जो देवताओं तथा ऋषियोंको सुख देनेवाला है ॥ ४ ॥

ब्रह्मोवाच
एवमेतत्पुरा पृष्टो व्यासेन ऋषिसत्तमः ।
सनत्कुमारं प्रोवाच तदेव कथयाम्यहम् ॥ ५ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे ऋषिश्रेष्ठ ! पूर्वकालमें व्यासजीने महर्षि सनत्कुमारसे यही बात पूछी थी, तब सनत्कुमारजीने उनसे जैसा कहा था, वही बात मैं आपसे कह रहा हूँ ॥ ५ ॥

सनत्कुमार उवाच
शृणु व्यास महाप्राज्ञ चरितं शशिमौलिनः ।
यथा ददाह त्रिपुरं बाणेनैकेन विश्वहृत् ॥ ६ ॥
शिवात्मजेन स्कन्देन निहते तारकासुरे ।
तत्पुत्रास्तु त्रयो दैत्याः पर्यतप्यन्मुनीश्वर ॥ ७ ॥
सनत्कुमार बोले-हे महाविद्वान् व्यासजी ! आप शंकरके उस चरित्रको सुनिये, जिस प्रकार विश्वका संहार करनेवाले उन शिवने एक ही बाणसे त्रिपुरको भस्म किया था । हे मुनीश्वर ! शिवजीके पुत्र कार्तिकेयके द्वारा तारकासुरका वध कर दिये जानेपर उसके तीनों पुत्र दैत्य घोर तप करने लगे ॥ ६-७ ॥

तारकाक्षस्तु तज्जेष्ठो विद्युन्माली च मध्यमः ।
कमलाक्षः कनीयांश्च सर्वे तुल्यबलाः सदा ॥ ८ ॥
जितेन्द्रियाः ससन्नद्धाः संयताः सत्यवादिनः ।
दृढचित्ता महावीरा देवद्रोहिण एव च ॥ ९ ॥
उनमें तारकाक्ष ज्येष्ठ, विद्युन्माली मध्यम तथा कमलाक्ष कनिष्ठ था । वे सभी समान पराक्रमवाले, जितेन्द्रिय, महाबलवान कार्यमें तत्पर, संयमी, सत्यवादी, दृढ़चित्त, महावीर एवं देवताओंके द्रोही थे ॥ ८-९ ॥

ते तु मेरुगुहां गत्वा तपश्चक्रुर्महाद्‌भुतम् ।
त्रयःसर्वान्सुभोगांश्च विहाय सुमनोहरान् ॥ १० ॥
तीनों दैत्व सम्पूर्ण मनोहर भोगोंको त्यागकर मेरुकी गुफामें जाकर अत्यन्त अद्‌भुत तप करने लगे ॥ १० ॥

वसन्ते सर्वकामांश्च गीतवादित्रनिःस्वनम् ।
विहाय सोत्सवं तेपुस्त्रयस्ते तारकात्मजाः ॥ ११ ॥
तारकासुरके वे तीनों पुत्र वसन्त ऋतु में उत्सवसहित गीत-वाद्यकी ध्वनि तथा समस्त कामनाएँ त्यागकर तप करने लगे ॥ ११ ॥

ग्रीष्मे सूर्यप्रभां जित्वा दिक्षु प्रज्वाल्य पावकम् ।
तन्मध्यसंस्थाः सिद्ध्यर्थं जुहुवुर्हव्यमादरात् ॥ १२ ॥
ग्रीष्म ऋतुमें सूर्यके तेजको जीतकर अपने चारों ओर अग्नि जलाकर तथा उसके मध्यमें स्थित होकर वे सिद्धिके लिये आदरपूर्वक हव्यकी आहुति देने लगे ॥ १२ ॥

महाप्रतापपतिताःसर्वेऽप्यासन् सुमूर्छिताः ।
वर्षासु गतसन्त्रासा वृष्टिं मूर्द्धन्यधारयन् ॥ १३ ॥
शरत्काले प्रभूतं तु भोजनं तु बुभुक्षिताः ।
रम्यं स्निग्धं स्थिरं हृद्यं फलं मूलमनुत्तमम् ॥ १४ ॥
संयमात्क्षुत्तृषो जित्वा पानान्युच्चावचान्यपि ।
बुभुक्षितेभ्यो दत्त्वा तु बुभूवुरुपला इव ॥ १५ ॥
उस समय वे महान् गर्मीसे सन्तप्त होकर मूच्छित हो जाते थे और वर्षाकालमें निर्भीक होकर सिरपर वृष्टिको सह लेते थे । शरत्कालमें उत्पन्न हुए मनोहर, स्निग्ध, स्थिर, उत्तम फल-मूलादि पदार्थोंका तथा उत्तम प्रकारके पेय पदार्थोंका भूखोंके लिये दानकर स्वयं भूखे रह जाते थे, वे संयमपूर्वक भूख-प्यासको जीतकर पत्थरके समान हो गये थे ॥ १३-१५ ॥

संस्थितास्ते महात्मानो निराधाराश्चतुर्दिशम् ।
हेमन्ते गिरिमाश्रित्य धैर्येण परमेण तु ॥ १६ ॥
तुषारदेहसञ्छन्ना जलक्लिन्नेन वाससा ।
आसाद्य देहं क्षौमेण शिशिरे तोयमध्यगाः ॥ १७ ॥
अनिर्विण्णास्ततःसर्वे क्रमशोऽवर्द्धयंस्तपः ।
तेपुस्त्रयस्ते तत्पुत्रा विधिमुद्दिश्य सत्तमाः ॥ १८ ॥
वे महात्मा हेमन्त ऋतुमें पहाड़ोंका आश्रय लेकर बड़ी धीरताके साथ स्थित हो, निराधार हो चारों दिशाओंमें निवास करने लगे । तुषारसे आच्छादित शरीरवाले वे सब निरन्तर जलसे भीगे हुए रेशमी वस्त्र धारणकर शिशिर ऋतुमें जलके बीचमें खड़े होकर विषादरहित होकर क्रमश: अपने तपको बढ़ाने लगे । इस प्रकार ब्रह्माजीको उद्देश्य करके उस [तारकासुर] के वे तीनों श्रेष्ठ पुत्र तप कर रहे थे ॥ १६-१८ ॥

तप उग्रं समास्थाय नियमे परमे स्थिता ।
तपसा कर्षयामासुर्देहान् स्वान् दानवोत्तमाः ॥ १९ ॥
वे श्रेष्ठ दानव परम नियममें स्थित रहकर कठोर तप करके तपस्याके द्वारा अपने शरीरको सुखाने लगे ॥ १९ ॥

वर्षाणां शतकं चैव पदमेकं निधाय च ।
भूमौ स्थित्वा परं तत्र तेपुस्ते बलवत्तराः ॥ २० ॥
ते सहस्रं तु वर्षाणां वातभक्षाः सुदारुणाः ।
तपस्तेपुर्दुरात्मानः परं तापमुपागताः ॥ २१ ॥
सौ वर्षतक एक पैरके सहारे पृथ्वीपर खड़े होकर उन अति बलवान् दैत्योंने तप किया । वे दारुण तथा दुरात्मा दैत्य हजार वर्षपर्यन्त वायुका भक्षणकर महान् कष्टसे युक्त हो तप करते रहे । २०-२१ ॥

वर्षाणां तु सहस्रं वै मस्तकेनास्थितास्तथा ।
वर्षाणां तु शतेनैव ऊर्ध्वबाहव आसिताः ॥ २२ ॥
एवं दुःखं परं प्राप्ता दुराग्रहपरा इमे ।
ईदृक् ते संस्थिता दैत्या दिवारात्रमतन्द्रिता ॥ २३ ॥
वे एक हजार वर्षतक पृथ्वीपर सिरके बल खड़े रहे और सौ वर्षतक दोनों भुजाओंको ऊपर उठाकर खड़े रहे । इस प्रकार दुराग्रहमें तत्पर होकर उन्होंने बहुत क्लेश प्राप्त किया, वे दैत्य आलस्यको छोड़कर दिन-रात तप करने लगे ॥ २२-२३ ॥

एवं तेषां गतः कालो महान् सुतपतां मुने ।
ब्रह्मात्मनां तारकाणां धर्मेणेति मतिर्मम ॥ २४ ॥
प्रादुरासीत्ततो ब्रह्मा सुरासुरगुरुर्महान् ।
सन्तुष्टस्तपसा तेषां वरं दातुं महायशाः ॥ २५ ॥
हे महामुने ! इस प्रकार धर्मपूर्वक तप करते हुए तथा ब्रह्माजीमें मन लगाये हुए उन तारकपुत्रोंका बहुत समय बीत गया, ऐसा मेरा विचार है । उसके बाद सुरासुरके महान् गुरु तथा महायशस्वी ब्रह्माजी उनके तपसे सन्तुष्ट हो गये और उन्हें वर देनेके लिये प्रकट हुए ॥ २४-२५ ॥

मुनिदेवासुरैः सार्द्धं सान्त्वपूर्वमिदं वचः ।
ततस्तानब्रवीत्सर्वान् सर्वभूतपितामहः ॥ २५ ॥
उस समय सभी प्राणियोंके पितामह ब्रह्माजी मुनियों, देवगणों तथा असुरोंके साथ वहाँ जाकर सान्त्वना देते हुए उन सभीसे यह वचन कहने लगे- ॥ २६ ॥

ब्रह्मोवाच
प्रसन्नोऽस्मि महादैत्या युष्माकं तपसा मुने ।
सर्वं दास्यामि युष्मभ्यं वरं ब्रूत यदीप्सितम् ॥ २७ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे महादैत्यो ! मैं तुमलोगोंके तपसे प्रसन्न हो गया हूँ । मैं तुमलोगोंको सब कुछ दूंगा, जो तुमलोगोंका अभीष्ट वर हो, उसे कहो ॥ २७ ॥

किमर्थं सुतपस्तप्तं कथयध्वं सुरद्विषः ।
सर्वेषां तपसो दाता सर्वकर्तास्मि सर्वदा ॥ २८ ॥
हे देवशत्रुओ ! मैं सबकी तपस्याका फलदाता और सर्वदा सबका रचयिता हूँ, अतः बताओ कि तुमलोगोंने अत्यन्त कठिन तप किस उद्देश्यसे किया है ? ॥ २८ ॥

सनत्कुमार उवाच
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा शनैस्ते स्वात्मनो गतम् ।
ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे प्रणिपत्य पितामहम् ॥ २९ ॥
सनत्कुमार बोले-उनकी यह बात सुनकर उन सबने हाथ जोड़कर पितामहको प्रणाम करके फिर धीरे-धीरे अपने मनकी बात कही ॥ २९ ॥

दैत्या ऊचुः
यदि प्रसन्नो देवेश यदि देयो वरस्त्वया ।
अवध्यत्वं च सर्वेषां सर्वभूतेषु देहिनः ॥ ३० ॥
दैत्य बोले-हे देवेश ! यदि आप प्रसन्न हैं और हमें वर देना चाहते हैं, तो हमें सब प्राणियोंमें सभीसे अवध्यत्व प्रदान कीजिये ॥ ३० ॥

स्थिरान् कुरु जगन्नाथ पान्तु नः परिपंथिनः ।
जरारोगादयः सर्वे नास्मान्मृत्युरगात् क्वचित् ॥ ३१ ॥
अजराश्चामराः सर्वे भवाम इति नो मतम् ।
समृत्यवः करिष्यामः सर्वानन्यांस्त्रिलोकके ॥ ३२ ॥
लक्ष्म्या किं तद्विपुलया किं कार्यं हि पुरोत्तमैः ।
अन्यैश्च विपुलैर्भोगैः स्थानैश्वर्येण वा पुनः ॥ ३३ ॥
यत्रैव मृत्युना ग्रस्तो नियतं पञ्चभिर्दिनैः ।
व्यर्थं तस्याखिलं ब्रह्मन् निश्चितं न इतीव हि ॥ ३४ ॥
हे जगन्नाथ ! आप हमें स्थिर कर दें और हमें जरा, रोग एवं मृत्यु आदि कभी भी प्राप्त न हों । हम सभी अजर-अमर हो जायें-ऐसा हमारा विचार है । हमलोग तीनों लोकोंमें अन्य सभी प्राणियोंको मार सकें । पर्याप्त लक्ष्मीसे, उत्तम पुरोंसे, अन्य विपुल भोगोंसे, स्थानोंसे अथवा ऐश्वर्यसे हमें क्या प्रयोजन ! हे ब्रह्मन् ! यदि पाँच ही दिनोंमें प्राणी मृत्युके द्वारा ग्रसित हो जाता है-यह निश्चित ही है, तब तो उसका सब कुछ व्यर्थ हो जाता है, इसमें संशय नहीं है ॥ ३१-३४ ॥

सनत्कुमार उवाच
इति श्रुत्वा वचस्तेषां दैत्यानां च तपस्विनाम् ।
प्रत्युवाच शिवं स्मृत्वा स्वप्रभुं गिरिशं विधिः ॥ ३५ ॥
सनत्कुमार बोले-उन तपस्वी दैत्योंकी यह बात सुनकर ब्रह्माने गिरिपर शयन करनेवाले अपने स्वामी भगवान् शंकरका स्मरण करके कहा- ॥ ३५ ॥

ब्रह्मोवाच
नास्ति सर्वामरत्वं च निवर्तध्वमतोऽसुराः ।
अन्यं वरं वृणीध्वं वै यादृशो वो हि रोचते ॥ ३६ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे असुरो ! पूर्ण अमरत्व किसीको नहीं मिल सकता, इसलिये इस वरका आग्रह मत करो और अन्य वर माँग लो, जो तुमलोगोंको अच्छा लगे ॥ ३६ ॥

जातो हनिष्यते नूनं जन्तुः कोऽप्यसुराः क्वचित् ।
अजरश्चामरो लोके न भविष्यति भूतले ॥ ३७ ॥
ऋते तु खण्डपरशोः कालकालाद्धरेस्तथा ।
तौ धर्माधर्मपरमावव्यक्तौ व्यक्तरूपिणौ ॥ ३८ ॥
हे असुरो ! इस भूतलपर जहाँ भी जो कोई भी प्राणी जनमा है, वह अवश्य मरेगा, कालके भी काल भगवान् शंकर तथा श्रीहरिके अतिरिक्त इस जगत्में कोई भी प्राणी अजर-अमर नहीं हो सकता; क्योंकि वे दोनों धर्म, अधर्मसे परे हैं तथा व्यक्त और अव्यक्त हैं । ३७-३८ ॥

सम्पीडनाय जगतो यदि स क्रियते तपः ।
सफलं तद्‌गतं वेद्यं तस्मात्सुविहितं तपः ॥ ३९ ॥
यदि जगत्को पीड़ा पहुँचानेके लिये तप किया जाय, तो उसका फल नष्ट समझना चाहिये । अत: उत्तम उद्देश्यके लिये किया गया तप सफल होता है ॥ ३९ ॥

तद्विचार्य स्वयं बुद्ध्या न शक्यं यत्सुरासुरैः ।
दुर्लभं वा सुदुःसाध्यं मृत्युं वञ्चयतानघाः ॥ ४० ॥
तत्किञ्चिन्मरणे हेतुं वृणीध्वं सत्त्वमाश्रिताः ।
येन मृत्युर्नैव वृतो रक्षतस्तत्पृथक् पृथक् ॥ ४१ ॥
हे अनघ ! तुमलोग स्वयं अपनी बुद्धिसे विचार करके जिस मृत्युका अतिक्रमण दुर्लभ एवं दुःसाध्य है और देवता तथा असुर भी ऐसा नहीं कर सके, ऐसी मृत्युके अतिरिक्त अन्य वर माँगो । तुमलोग सत्त्वगुणका आश्रय लेकर अपने मरणका हेतुभूत कोई वर माँगो तथा उस हेतुसे अपनी-अपनी रक्षाका उपाय अलग-अलग रूपसे करो, जिससे तुम्हारी मृत्यु न हो ॥ ४०-४१ ॥

सनत्कुमार उवाच
एतद्विधिवचः श्रुत्वा मुहूर्त्तं ध्यानमास्थिताः ।
प्रोचुस्ते चिन्तयित्वाथ सर्वलोकपितामहम् ॥ ४२ ॥
सनत्कुमार बोले- ब्रह्माका वचन सुनकर वे एक मुहूर्ततक ध्यानमें स्थित रहे, इसके बाद विचारकर लोकपितामह ब्रह्मासे कहने लगे- ॥ ४२ ॥

दैत्या ऊचुः
भगवन्नास्ति नो वेश्म पराक्रमवतामपि ।
अधृष्याः शात्रवानां तु यन्न वत्स्यामहे सुखम् ॥ ४३ ॥
पुराणि त्रीणि नो देहि निर्मायात्यद्‌भुतानि हि ।
सर्वसम्पत्समृद्धान्यप्रधृष्याणि दिवौकसाम् ॥ ४४ ॥
दैत्य बोले-हे भगवन् ! हमलोग यद्यपि पराक्रमशील हैं, किंतु हमारे पास कोई ऐसा स्थान नहीं है, जिसमें शत्रु प्रवेश न कर सके और वहाँ हम सुखसे निवास कर सकें । अतः आप ऐसे तीन नगरोंका निर्माण कराकर हमें प्रदान कीजिये, जो परम अद्‌भुत, सभी सम्पत्तियोंसे परिपूर्ण और देवताओंके लिये सर्वथा अनतिक्रमणीय हों ॥ ४३-४४ ॥

वयं पुराणि त्रीण्येवं समास्थाय महीमिमाम् ।
चरिष्यामो हि लोकेश त्वत्प्रसादाज्जगद्‌गुरो ॥ ४५ ॥
तारकाक्षस्ततः प्राह यदभेद्यं सुरैरपि ।
करोति विश्वकर्मा तन्मम हेममयं पुरम् ॥ ४६ ॥
ययाचे कमलाक्षस्तु राजतं सुमहत्पुरम् ।
विद्युन्माली च संहृष्टो वज्रायसमयं महत् ॥ ४७ ॥
हे लोकेश ! हे जगद्‌गुरो ! इस प्रकार हमलोग आपकी कृपासे इन तीनों पुरोंमें स्थित होकर इस पृथ्वीपर विचरण करेंगे । तत्पश्चात् तारकाक्ष बोलाजो देवगणोंसे भी अभेद्य हो, इस प्रकारका मेरा सुवर्णमय पुर विश्वकर्मा बनायें । कमलाक्षने चाँदीके अति विशाल पुरकी तथा विद्युन्मालीने प्रसन्न होकर वडके समान लोहेके पुरकी याचना की ॥ ४५-४७ ॥

पुरेष्वेतेषु भो ब्रह्मन्नेकस्थानस्थितेषु च ।
मध्याह्नाभिजिते काले शीतांशौ पुष्प संस्थिते ॥ ४८ ॥
उपर्युपर्यदृष्टेषु व्योम्नि लीलाभ्रसंस्थिते ।
वर्षत्सु कालमेघेषु पुष्करावर्तनामसु ॥ ४९ ॥
तथा वर्षसहस्रान्ते समेष्यामः परस्परम् ।
एकीभावं गमिष्यन्ति पुराण्येतानि नान्यथा ॥ ५० ॥
सर्वदेवमयो देवः सर्वेषां मे कुहेलया ।
असम्भवे रथे तिष्ठन् सर्वोपस्करणान्विते ॥ ५१ ॥
असम्भाव्यैककाण्डेन भिनत्तु नगराणि नः ।
निर्वैरः कृत्तिवासास्तु योस्माकमिति नित्यशः ॥ ५२ ॥
वन्द्यः पूज्योभिवाद्यश्च सोस्माकं निर्दहेत्कथम् ।
इति चेतसि सन्धाय तादृशो भुवि दुर्लभः ॥ ५३ ॥
हे ब्रह्मन् ! जब मध्याह्नकालमें अभिजित् मुहूर्त हो, चन्द्रमा पुष्य नक्षत्रपर हो और आकाशमें नीले बादलोंपर स्थित होकर ये तीनों पुर क्रमशः एकके ऊपर एक रहते हुए लोगोंकी दृष्टिसे ओझल रहें । फिर जब पुष्कर और आवर्त नामक कालमेघ वर्षा कर रहे हों, उस समय एक हजार वर्षके उपरान्त हमलोग परस्पर मिलेंगे और ये तीनों पर भी उसी समय एक स्थानपर स्थित हो जायेंगे, इसमें सन्देह नहीं है । हमलोगोंद्वारा धर्मका अतिक्रमण हो जानेपर कोई देवता, जिसमें सभी देवोंका निवास हो, वह सम्पूर्ण युद्धसामग्रीसे युक्त होकर असम्भव रथपर बैठकर एक ही असम्भाव्य बाणसे हमारे नगरोंका भेदन करे । शिवजी तो किसीसे द्वेष नहीं करते । वे सदा हमलोगोंक वन्द्य, पूज्य तथा अभिवादनके योग्य हैं, तो फिर वे हमलोगोंके पुरोंको कैसे जला सकते हैं, वैसा कोई दूसरा पृथ्वीपर दुर्लभ है-उन दैत्योंने अपने मनमें यही विचारकर ऐसा वर माँगा ॥ ४८-५३ ॥

सनत्कुमार उवाच
एतच्छ्रुत्वा वचस्तेषां ब्रह्मा लोकपितामहः ।
एवमस्तीति तान् प्राह सृष्टिकर्ता स्मरन् शिवम् ॥ ५४ ॥
सनत्कुमार बोले-[हे व्यासजी !] उनका यह वचन सुनकर सृष्टि करनेवाले लोकपितामह ब्रह्माने शिवजीका स्मरण करते हुए उनसे कहाऐसा ही होगा ॥ ५४ ॥

आज्ञां ददौ मयस्यापि कुत्र त्वं नगरत्रयम् ।
काञ्चनं राजतं चैव आयसं चेति भो मय ॥ ५५ ॥
इत्यादिश्य मयं ब्रह्मा प्रत्यक्षं प्राविशद्दिवम् ।
तेषां तारकपुत्राणां पश्यतां निजधाम हि ॥ ५६ ॥
उसके बाद उन्होंने मयको आज्ञा दी कि हे मय ! तुम सोने, चाँदी और लोहेके तीन नगरोंका निर्माण कर दो । उनके समक्ष मयको यह आज्ञा प्रदानकर ब्रह्माजी उन तारकपुत्रोंके देखते-देखते अपने धाम स्वर्गलोकको चले गये ॥ ५५-५६ ॥

ततो मयश्च तपसा चक्रे धीरः पुराण्यथ ।
काञ्चनं तारकाक्षस्य कमलाक्षस्य राजतम् ॥ ५७ ॥
विद्युन्माल्यायसं चैव त्रिविधं दुर्गमुत्तमम् ।
स्वर्गे व्योम्नि च भूमौ च क्रमाज्ज्ञेयानि तानि वै ॥ ५८ ॥
दत्त्वा तेभ्यो सुरेभ्यश्च पुराणि त्रीणि वै मयः ।
प्रविवेश स्वयं तत्र हितकामपरायणः ॥ ५९ ॥
तदनन्तर धैर्यशाली मयने बड़े प्रयत्नके साथ तारकाक्षके लिये सोनेका, कमलाक्षके लिये चाँदीका तथा विद्युन्मालीके लिये लोहेका पुर बनाया और तीन प्रकारका दुर्ग भी बनाया, उन्हें क्रमसे स्वर्गमें, आकाशमें तथा भूलोकमें जानना चाहिये । उन असुरोंको तीनों पुर देकर मयने स्वयं भी उनके हितकी इच्छासे उस पुरीमें प्रवेश किया ॥ ५७-५९ ॥

एवं पुत्रत्रयं प्राप्य प्रविष्टास्तारकात्मजाः ।
बुभुजुः सकलान्भोगान्महाबलपराक्रमाः ॥ ६० ॥
इस प्रकार तीनों पुरोंको प्राप्तकर महाबली तथा पराक्रमशाली वे तारकासुरके पुत्र उनमें प्रविष्ट हुए और सभी प्रकारके सुखोंका भोग करने लगे ॥ ६० ॥

कल्पद्रुमैश्च सङ्‌कीर्णं गजवाजिसमाकुलम् ।
नानाप्रासादसङ्‌कीर्णं मणिजालसमावृतम् ॥ ६१ ॥
सूर्यमण्डलसङ्‌काशैर्विमानैः सर्वतोमुखैः ।
पद्मरागमयैश्चैव शोभितं चन्द्रसन्निभैः ॥ ६२ ॥
कल्पवृक्षोंसे व्याप्त, हाथी-घोड़ोंसे युक्त, नाना प्रकारको अट्टालिकाओं तथा मणियोंसे परिपूर्ण वे नगर सूर्यमण्डलके समान देदीप्यमान, चारों ओर मुखवाले, चन्द्रमाके समान तथा पद्मराग मणियोंसे जटित विमानोंसे शोभित थे ॥ ६१-६२ ॥

प्रासादैर्गोपुरैर्दिव्यैः कैलासशिखरोपमैः ।
दिव्यस्त्रीजनसङ्‌कीर्णैर्गन्धर्वैःसिद्धचारणैः ॥ ६३ ॥
रुद्रालयैः प्रतिगृहमग्निहोत्रैः प्रतिष्ठितैः ।
द्विजोत्तमैः शास्त्रविज्ञैः शिवभक्तिरतैः सदा ॥ ६४ ॥
उन पुरोंमें कैलास पर्वतके शिखरके समान ऊँचे-ऊँचे मनोहर महल तथा गोपुर बने हुए थे । दिव्य देवांगनाओं, गन्धवों, सिद्धों तथा चारणोंसे वह पुर पूर्ण रूपसे भरा हुआ था । उनमें प्रत्येक घरमें शिवालय तथा अग्निहोत्रकुण्ड बने हुए थे । शास्त्रवेत्ता एवं शिवभक्त ब्राह्मण उन पुरोंमें सदा निवास करते थे ॥ ६३-६४ ॥

वापीकूपतडागैश्च दीर्घिकाभिःसुशोभितम् ।
उद्यानवनवृक्षैश्च स्वर्गच्युतगुणोत्तमैः ॥ ६५ ॥
नदीनदसरिन्मुख्यपुष्करैः शोभितं सदा ।
सर्वकामफलाद्यैश्चानेकैर्वृक्षैर्मनोहरम् ॥ ६६ ॥
बावली, कुएँ, तालाब, छोटे सरोवर और स्वर्गीय गुणोंवाले उद्यान एवं वन्य वृक्षों, कमलयुक्त नदियों और बड़ी बड़ी सरिताओंसे वे पुर शोभित हो रहे थे । सभी ऋतुओंमें फल-फूल देनेवाले अनेक प्रकारके वृक्षोंसे वे पुर मनोहर प्रतीत हो रहे थे ॥ ६५-६६ ॥

मत्तमातङ्‌गयूथैश्च तुरङ्‌गैश्च सुशोभनैः ।
रथैश्च विविधाकारैः शिबिकाभिरलङ्‌कृतम् ॥ ६७ ॥
समयादिशिकैश्चैव क्रीडास्थानैः पृथक्‌पृथक् ।
वेदाध्ययनशालाभिर्विविधाभिः पृथक्‌पृथक् ॥ ६८ ॥
वे झुण्ड-के-झुण्ड मदमत्त हाथियों, सुन्दर-सुन्दर घोड़ों, विविध आकारवाले रथों एवं शिविकाओंसे अलंकृत थे । उनमें समयानुसार अलग-अलग क्रीडास्थल बने हुए थे और वेदाध्ययनकी विविध पाठशालाएँ भी पृथक्-पृथक् बनी हुई थीं ॥ ६७ ६८ ॥

अदृष्टं मनसा वाचा पापान्वितनरैः सदा ।
महात्मभिः शुभाचारैः पुण्यवद्‌भिः प्रवीक्ष्यते ॥ ६९ ॥
पापीजन तो मन एवं वाणीके द्वारा उन नगरोंकी और देख भी नहीं सकते थे; शुभ आचरण करनेवाले पुण्यशाली महात्मा ही उन्हें देख सकते थे ॥ ६९ ॥

पतिव्रताभिः सर्वत्र पावितं स्थलमुत्तमम् ।
पतिसेवनशीलाभिर्विमुखाभिः कुधर्मतः ॥ ७० ॥
दैत्यशूरैर्महाभागैःसदारैःससुतैर्द्विजैः ।
श्रौतस्मार्तार्थतत्त्वज्ञैः स्वधर्मनिरतैर्युतम् ॥ ७१ ॥
वहाँका उत्तम स्थल सर्वत्र अधर्मसे रहित तथा पतिसेवापरायण पतिव्रताओंके द्वारा पवित्र कर दिया गया था । उनमें महाभाग्यवान् बलवान् दैत्य अपनी स्वियों, पुत्रों और श्रुति-स्मृतिके रहस्यको जाननेवाले तथा अपने धर्ममें निरत ब्राह्मणोंके साथ निवास करते थे ॥ ७०-७१ ॥

व्यूढोरस्कैर्वृषस्कन्धैः सामयुद्धधरैः सदा ।
प्रशान्तैः कुपितैश्चैव कुब्जैर्वामनकैस्तथा ॥ ७२ ॥
नीलोत्पलदलप्रख्यैर्नीलकुञ्चितमूर्द्धजैः ।
मयेन रक्षितैः सर्वैः शिक्षितैर्युद्धलालसैः ॥ ७३ ॥
वरसमररतैर्युतं समन्ता-
    दजशिवपूजनया विशुद्धवीर्यैः ।
रविमरुतमहेन्द्रसंनिकाशैः
    सुरमथनैः सुदृढैः सुसेवितं यत् ॥ ७४ ॥
वे पुर चौड़ी छातीवाले, ऊँचे कंधोंवाले, साम एवं विग्रहके ज्ञाता, समय-समयपर शान्ति तथा कोप करनेवाले, कुबड़े तथा बौने, नीले कमलके समान काले काले घुघराले बालवाले, मयके द्वारा रक्षित तथा शिक्षित किये गये और युद्धकी अभिलाषा रखनेवाले योद्धाओंसे परिपूर्ण थे । बड़े-बड़े युद्धोंमें निरत रहनेवाले, ब्रह्मा तथा सदाशिवके पूजनके प्रभावसे विशुद्ध पराक्रमवाले, सूर्य-वायु-इन्द्रके सदृश देवगणोंका मर्दन करनेवाले तथा अत्यन्त शक्तिशाली वीर उन पुरों में निवास करते थे ॥ ७२-७४ ॥

शास्त्रवेदपुराणेषु ये ये धर्माः प्रकीर्तिताः ।
शिवप्रियाःसदा देवास्ते धर्मास्तत्र सर्वतः ॥ ७५ ॥
एवं लब्धवरास्ते तु दैतेयास्तारकात्मजाः ।
शैवं मयमुपाश्रित्य निवसन्ति स्म तत्र ह ॥ ७६ ॥
सर्वं त्रैलोक्यमुत्सार्य प्रविश्य नगराणि ते ।
कुर्वन्ति स्म महद्‍राज्यं शिवमार्गरताः सदा ॥ ७७ ॥
वेदों, शास्त्रों और पुराणों में जिन-जिन धर्मोका वर्णन किया गया है, वे सभी धर्म तथा शिवजीके प्रिय देवता वहाँ चारों ओर व्याप्त थे । इस प्रकार वर प्राप्त किये हुए वे तारकपुत्र दैत्य शिवभक्त मयदानवका आश्रय लेकर वहाँ निवास करने लगे । उन नगरोंमें प्रवेश करके वे सदा शिवभक्तिनिरत होकर सम्पूर्ण त्रिलोकीको बाधित करके विशाल राज्यका उपभोग करने लगे ॥ ७५-७७ ॥

ततो महान् गतः कालो वसतां पुण्यकर्मणाम् ।
यथासुखं यथाजोषं सद्‍राज्यं कुर्वतां मुने ॥ ७८ ॥
हे मुने ! इस प्रकार अपने इच्छानुसार सुखपूर्वक उत्तम राज्य करते हुए उन पुण्यकर्मा राक्षसोंका वहाँ निवास करते हुए बहुत लम्बा काल व्यतीत हो गया ॥ ७८ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे
युद्धखण्डे त्रिपुरवधोपाख्याने त्रिपुरवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें त्रिपुरवधोपाख्यानमें त्रिपुरवणन नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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