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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

द्वितीयोऽध्यायः

देवस्तुति -
तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर-वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना


व्यास उवाच
ब्रह्मपुत्र महाप्राज्ञ वद मे वदतां वर ।
ततः किमभवद्देवाः कथं च सुखिनोऽभवन् ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे ब्रह्मपुत्र ! हे महाप्राज्ञ ! हे वक्ताओंमें श्रेष्ठ ! अब मुझे बताइये कि उसके बाद क्या हुआ और देवगण किस प्रकार सुखी हुए ? ॥ १ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य व्यासस्यामितधीमतः ।
सनत्कुमारः प्रोवाच स्मृत्वा शिवपदाम्बुजम् ॥ २ ॥
ब्रह्माजी बोले-महाबुद्धिमान् व्यासजीका यह वचन सुनकर शिवजीके चरणकमलोंका स्मरण करके सनत्कुमारजीने कहा- ॥ २ ॥

सनत्कुमार उवाच
अथ तत्प्रभया दग्धा देवा हीन्द्रादयस्तथा ।
संमन्त्र्य दुःखिताः सर्वे ब्रह्माणं शरणं ययुः ॥ ३ ॥
सनत्कुमार बोले-तब उनके तेजसे दग्ध हुए इन्द्रादि देवता दुखी हो परस्पर मन्त्रणाकर ब्रह्माजीकी शरणमें गये ॥ ३ ॥

नत्वा पितामहं प्रीत्या परिक्षिप्ताखिलाः सुराः ।
दुःखं विज्ञापयामासुर्विलोक्यावसरं ततः ॥ ४ ॥
वे सभी निस्तेज देवता प्रीतिपूर्वक पितामहको प्रणाम करके अवसर देखकर उनसे अपना दु:ख कहने लगे ॥ ४ ॥

देवा ऊचुः
धातस्त्रिपुरनाथेन सतारकसुतेन हि ।
सर्वे प्रतापिता नूनं मयेन त्रिदिवौकसः ॥ ५ ॥
अतस्ते शरणं याता दुःखिता हि विधे वयम् ।
कुरु त्वं तद्वधोपायं सुखिनः स्याम तद्यथा ॥ ६ ॥
देवता बोले-हे विधाता ! तारकपुत्रोंसहित त्रिपुरनाथ मयके द्वारा सभी देवता अत्यधिक पीड़ित किये जा रहे हैं । इसलिये हे ब्रह्मन् ! हमलोग दुखी होकर आपकी शरणमें आये हैं; आप उनके वधका कोई उपाय कीजिये, जिससे हमलोग सुखी हो जाय ॥ ५-६ ॥

सनत्कुमार उवाच
इति विज्ञापितो देवैर्विहस्य भवकृद्विधिः ।
प्रत्युवाचाथ तान्सर्वान्मयतो भीतमानसान् ॥ ७ ॥
सनत्कुमार बोले-देवगणोंके इस प्रकार कहनेपर सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी मयसे डरे हुए उन समस्त देवताओंसे हँसकर कहने लगे- ॥ ७ ॥

ब्रह्मोवाच
न भेतव्यं सुरास्तेभ्यो दानवेभ्यो विशेषतः ।
आचक्षे तद्वधोपायं शिवं शर्वः करिष्यति ॥ ८ ॥
मत्तो विवर्धितो दैत्यो वधं मत्तो न चार्हति ।
तथापि पुण्यं वर्द्धेत नगरे त्रिपुरे पुनः ॥ ९ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे देवताओ ! आपलोग उन दैत्योंसे बिलकुल मत डरिये, मैं उनके वधका उपाय बता रहा हूँ; शिवजी कल्याण करेंगे । मैंने ही इस दैत्यको बढ़ाया है, अत: मेरे हाथों इसका वध होना उचित नहीं है और इस समय त्रिपुरके नगरमें निरन्तर पुण्य बढ़ ही रहा है । ८-९ ॥

शिवं च प्रार्थयध्वं वै सर्वे देवाः सवासवाः ।
सर्वाधीशः प्रसन्नश्चेत्स वः कार्यं करिष्यति ॥ १० ॥
अत: इन्द्रसहित सभी देवता शिवजीसे प्रार्थना करें । यदि वे सर्वाधीश प्रसन्न हो जायें, तो आपलोगोंके कार्यको पूर्ण करेंगे ॥ १० ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्याकर्ण्य विधेर्वाणीं सर्वे देवाः सवासवाः ।
दुखितास्ते ययुस्तत्र यत्रास्ते वृषभध्वजः ॥ ११ ॥
प्रणम्य भक्त्या देवेशं सर्वे प्राञ्जलयस्तदा ।
तुष्टुवुर्विनतस्कन्धाः शंकरं लोकशंकरम् ॥ १२ ॥
सनत्कुमार बोले-तब ब्रह्माजीकी बात सुनकर इन्द्रसहित सभी देवता दुखी होकर वहाँ गये, जहाँ शिवजी थे । हाथ जोड़कर बड़ी भक्तिसे देवेशको प्रणाम करके सिर झुकाकर वे सब लोककल्याणकारी शंकरकी स्तुति करने लगे ॥ ११-१२ ॥

देवा ऊचुः
नमो हिरण्यगर्भाय सर्वसृष्टिविधायिने ।
नमः स्थितिकृते तुभ्यं विष्णवे प्रभविष्णवे ॥ १३ ॥
देवगण बोले-सम्पूर्ण सृष्टिका विधान करनेवाले हिरण्यगर्भ ब्रह्मास्वरूप आप शिवको नमस्कार है । पालन करनेवाले विष्णुस्वरूप आपको नमस्कार है ॥ १३ ॥

नमो हरस्वरूपाय भूतसंहारकारिणे ।
निर्गुणाय नमस्तुभ्यं शिवायामित तेजसे ॥ १४ ॥
अवस्थारहितायाथ निर्विकाराय वर्चसे ।
महाभूतात्मभूताय निर्लिप्ताय महात्मने ॥ १५ ॥
सम्पूर्ण प्राणियोंका संहार करनेवाले हरस्वरूप आपको नमस्कार है । निर्गुण तथा अमिततेजस्वी आप शिवको नमस्कार है । अवस्थाओंसे रहित, निर्विकार, तेजस्वरूप, महाभूतोंमें आत्मस्वरूपसे वर्तमान, निर्लिप्त एवं महान् आत्मावाले आप महात्माको नमस्कार है ॥ १४-१५ ॥

नमस्ते भूतपतये महाभारसहिष्णवे ।
तृष्णाहराय निर्वैराकृतये भूरितेजसे ॥ १६ ॥
सम्पूर्ण प्राणियोंके अधिपति, शेषरूपसे पृथ्वीका भार उठानेवाले, तृष्णाको नष्ट करनेवाले, शान्त प्रकृतिवाले तथा अमिततेजस्वी आप शिवको नमस्कार है ॥ १६ ॥

महादैत्यमहारण्यनाशिने दाववह्नये ।
दैत्यद्रुमकुठाराय नमस्ते शूलपाणये ॥ १७ ॥
महादैत्यरूपी महावनको विनष्ट करनेके लिये दावाग्निके स्वरूप एवं दैत्यरूपी वृक्षों के लिये कुठारस्वरूप आप शूलपाणिको नमस्कार है ॥ १७ ॥

महादनुजनाशाय नमस्ते परमेश्वर ।
अम्बिकापतये तुभ्यं नमः सर्वास्त्रधारक ॥ १८ ॥
नमस्ते पार्वतीनाथ परमात्मन्महेश्वर ।
नीलकण्ठाय रुद्राय नमस्ते रुद्ररूपिणे ॥ १९ ॥
महादैत्योंका नाश करनेवाले हे परमेश्वर ! आपको नमस्कार है । हे सभी अस्त्रोंके धारणकर्ता ! आप अम्बिकापतिको नमस्कार है । हे पार्वतीनाथ ! हे परमात्मन् ! हे महेश्वर ! आपको नमस्कार है । आप नीलकण्ठ, रुद्र तथा रुद्रस्वरूपको नमस्कार है ॥ १८-१९ ॥

नमो वेदान्तवेद्याय मार्गातीताय ते नमः ।
नमोगुणस्वरूपाय गुणिने गुणवर्जिते ॥ २० ॥
महादेव नमस्तुभ्यं त्रिलोकीनन्दनाय च ।
प्रद्युम्नायानिरुद्धाय वासुदेवाय ते नमः ॥ २१ ॥
सङ्‌कर्षणाय देवाय नमस्ते कंसनाशिने ।
चाणूरमर्दिने तुभ्यं दामोदर विषादिने ॥ २२ ॥
वेदान्तसे जाननेयोग्य आपको नमस्कार है । सभी मार्गासे अगम्य आपको नमस्कार है । गुणस्वरूप, गुणोंको धारण करनेवाले एवं गुणोंसे सर्वथा रहित आपको नमस्कार है । त्रिलोकीको आनन्द देनेवाले हे महादेव ! आपको नमस्कार है । प्रद्युम्न, अनिरुद्ध एवं वासुदेवस्वरूप आपको नमस्कार है । संकर्षणदेव एवं कंसनाशक आपको नमस्कार है । चाणूरका मर्दन करनेवाले एवं विरक्त रहनेवाले हे दामोदर ! आपको नमस्कार है । २०-२२ ॥

हृषीकेशाच्युत विभो मृड शंकर ते नमः ।
अधोक्षज गजाराते कामारे विषभक्षणः ॥ २३ ॥
हे हषीकेश ! हे अच्युत ! हे विभो ! हे मृड ! हे शंकर ! हे अधोक्षज ! हे गजासुरके शत्रु ! हे कामशत्रु ! हे विषभक्षक ! आपको नमस्कार है ॥ २३ ॥

नारायणाय देवाय नारायणपराय च ।
नारायणस्वरूपाय नाराणयतनूद्‌भव ॥ २४ ॥
नमस्ते सर्वरूपाय महानरकहारिणे ।
पापापहारिणे तुभ्यं नमो वृषभवाहन ॥ २५ ॥
नारायणदेव, नारायणपरायण, नारायणस्वरूप तथा सर्वरूप हे नारायणतनूद्धव ! आपको नमस्कार है । महानरकसे बचानेवाले तथा पापोंको दूर करनेवाले हे वृषभवाहन ! आपको नमस्कार है ॥ २४-२५ ॥

क्षणादिकालरूपाय स्वभक्तबलदायिने ।
नानारूपाय रूपाय दैत्यचक्रविमर्दिने ॥ २६ ॥
नमो ब्रह्मण्यदेवाय गोब्राह्मणहिताय च ।
सहस्रमूर्त्तये तुभ्यं सहस्रावयवाय च ॥ २७ ॥
क्षण आदि कालरूपवाले, अपने भक्तोंको बल प्रदान करनेवाले, अनेक रूपोंवाले तथा दैत्योंके समूहका नाश करनेवाले, ब्रह्मण्यदेवस्वरूप, गौ तथा ब्राह्मणोंका हित करनेवाले, सहस्त्रमूर्ति तथा सहस्र अवयवोंवाले आपको नमस्कार है ॥ २६-२७ ॥

धर्मरूपाय सत्त्वाय नमः सत्त्वात्मने हर ।
वेदवेद्यस्वरूपाय नमो वेदप्रियाय च ॥ २८ ॥
नमो वेदस्वरूपाय वेदवक्त्रे नमो नमः ।
सदाचाराध्वगम्याय सदाचाराध्वगामिने ॥ २९ ॥
धर्मरूप, सत्त्वस्वरूप तथा सत्त्वात्मरूप हे हर ! आपको नमस्कार है । वेदोंके द्वारा जाननेयोग्य स्वरूपवाले तथा वेदप्रिय आपको नमस्कार है । वेदस्वरूप एवं वेदके वक्ता आपको नमस्कार है । सदाचारके मार्गसे जाननेयोग्य एवं सदाचारके मार्गपर चलनेवाले आपको बार-बार नमस्कार है ॥ २८-२९ ॥

विष्टरश्रवसे तुभ्यं नमः सत्यमयाय च ।
सत्यप्रियाय सत्याय सत्यगम्याय ते नमः ॥ ३० ॥
नमस्ते मायिने तुभ्यं मायाधीशाय वै नमः ।
ब्रह्मगाय नमस्तुभ्यं ब्रह्मणे ब्रह्मजाय च ॥ ३१ ॥
विष्टरश्रवा (विष्णु) तथा सत्यमय आपको नमस्कार है । सत्यप्रिय, सत्यस्वरूप तथा सत्यसे प्राप्त होनेवाले आपको नमस्कार है । मायाको अपने अधीन रखनेवाले आपको नमस्कार है । मायाके अधिपति आपको नमस्कार है । सामवेदस्वरूप, ब्रह्मस्वरूप तथा ब्रह्मासे उत्पन्न होनेवाले आपको नमस्कार है ॥ ३०-३१ ॥

तपसे ते नमस्त्वीश तपसा फलदायिने ।
स्तुत्याय स्तुतये नित्यं स्तुतिसम्प्रीतचेतसे ॥ ३२ ॥
श्रुत्याचारप्रसन्नाय स्तुत्याचारप्रियाय च ।
चतुर्विधस्वरूपाय जलस्थलजरूपिणे ॥ ३३ ॥
हे ईश ! आप तपःस्वरूप, तपस्याका फल देनेवाले, स्तुतिके योग्य, स्तुतिरूप, स्तुतिसे प्रसन्नचित्त, श्रुतिके आचारसे प्रसन्न रहनेवाले, स्तुतिप्रिय, जरायुज अण्डज आदि चार स्वरूपोंवाले एवं जल-थलमें प्रकट स्वरूपवाले हैं, आपको नमस्कार है ॥ ३२-३३ ॥

सर्वे देवादयो नाथ श्रेष्ठत्वेन विभूतयः ।
देवानामिन्द्ररूपोऽसि ग्रहाणां त्वं रविर्मतः ॥ ३४ ॥
हे नाथ ! सभी देवता आदि श्रेष्ठ होनेसे आपकी विभूति हैं । आप सभी देवताओंमें इन्द्रस्वरूप हैं और ग्रहोंमें आप सूर्य माने गये हैं ॥ ३४ ॥

सत्यलोकोऽसि लोकानां सरितां द्युसरिद्‌भवान् ।
श्वेतवर्णोऽसि वर्णानां सरसां मानसं सरः ॥ ३५ ॥
आप लोकोंमें सत्यलोक, सरिताओंमें गंगा, वर्गों में श्वेत वर्ण और सरोवरोंमें मानसरोवर हैं ॥ ३५ ॥

शैलानां गिरिजातातः कामधुक्त्वं च गोषु ह ।
क्षीरोदधिस्तु सिन्धूनां धातूनां हाटको भवान् ॥ ३६ ॥
आप पर्वतोंमें हिमालय, गायोंमें कामधेनु, समुद्रोंमें क्षीरसागर एवं धातुओंमें सुवर्ण हैं ॥ ३६ ॥

वर्णानां ब्राह्मणोऽसि त्वं नृणां राजासि शंकर ।
मुक्तिक्षेत्रेषु काशी त्वं तीर्थानां तीर्थराड् भवान् ॥ ३७ ॥
उपलेषु समस्तेषु स्फटिकस्त्वं महेश्वर ।
कमलस्त्वं प्रसूनेषु शैलेषु हिमवांस्तथा ॥ ३८ ॥
हे शंकर ! आप वर्गों में ब्राह्मण, मनुष्योंमें राजा, मुक्तिक्षेत्रोंमें काशी तथा तीर्थोंमें प्रयाग हैं । हे महेश्वर ! आप समस्त पाषाणोंमें स्फटिक मणि, पुष्पोंमें कमल तथा पर्वतोंमें हिमालय हैं ॥ ३७-३८ ॥

भवान्वाग्व्यवहारेषु भार्गवस्त्वं कविष्वपि ।
पक्षिष्वेवासि शरभः सिंहो हिंस्रेषु संमतः ॥ ३९ ॥
आप व्यवहारोंमें वाणी हैं, कवियोंमें भार्गव, पक्षियोंमें शरभ और हिंसक प्राणियोंमें सिंह कहे गये हैं ॥ ३९ ॥

शालग्रामशिला च त्वं शिलासु वृषभध्वज ।
पूज्य रूपेषु सर्वेषु नर्मदालिङ्‌गमेव हि ॥ ४० ॥
नन्दीश्वरोऽसि पशुषु वृषभः परमेश्वर ।
वेदेषूपनिष‌द्‌रूपी यज्वनां शीतभानुमान् ॥ ४१ ॥
हे वृषभध्वज ! आप शिलाओंमें शालग्रामशिला और सभी पूज्योंमें नर्मदा-लिंग हैं । हे परमेश्वर ! आप पशुओंमें नन्दीश्वर नामक वृषभ (बैल), वेदोंमें उपनिषद्प और यज्ञ करनेवालोंमें चन्द्रमा हैं । ४०-४१ ॥

प्रतापिनां पावकस्त्वं शैवानामच्युतो भवान् ।
भारतं त्वं पुराणानां मकारोऽस्यक्षरेषु च ॥ ४२ ॥
प्रणवो बीजमन्त्राणां दारुणानां विषं भवान् ।
व्योमव्याप्तिमतां त्वं वै परमात्मासि चात्मनाम् ॥ ४३ ॥
आप तेजस्वियोंमें अग्नि, शैवोंमें विष्णु, पुराणों में महाभारत तथा अक्षरोंमें मकार हैं । बीजमन्त्रोंमें प्रणव (ओंकार), दारुण पदार्थो में विष, व्यापक वस्तुओंमें आकाश तथा आत्माओंमें परमात्मा हैं । ४२-४३ ॥

इन्द्रियाणां मनश्च त्वं दानानामभयं भवान् ।
पावनानां जलं चासि जीवनानां तथा मतम् ॥ ४४ ॥
आप सम्पूर्ण इन्द्रियोंमें मन, सभी प्रकारके दानोंमें अभयदान, पवित्र करनेवालोंमें जल तथा जीवित करनेवाले पदार्थोंमें अमृत हैं ॥ ४४ ॥

लाभानां पुत्रलाभोऽसि वायुर्वेगवतामसि ।
नित्यकर्मसु सर्वेषु सन्ध्योपास्तिर्भवान्मतः ॥ ४५ ॥
आप लाभोंमें पुत्रलाभ तथा वेगवानोंमें वायु हैं । आप सभी प्रकारके नित्यकर्मोंमें सन्ध्योपासन कहे गये हैं ॥ ४५ ॥

क्रतूनामश्वमेधोऽसि युगानां प्रथमो युगः ।
पुष्यस्त्वं सर्वधिण्यानाममावास्या तिथिष्वसि ॥ ४६ ॥
आप सम्पूर्ण यज्ञोंमें अश्वमेधयज्ञ, युगोंमें सत्ययुग, नक्षत्रोंमें पुष्य तथा तिथियोंमें अमावास्या हैं ॥ ४६ ॥

सर्वर्तुषु वसन्तस्त्वं सर्वपर्वसु सङ्‌क्रमः ।
कुशोऽसि तृणजातीनां स्थूलवृक्षेषु वै वटः ॥ ४७ ॥
आप सभी ऋतुओंमें वसन्त, पोंमें संक्रान्ति, तृणोंमें कुश और स्थूल वृक्षोंमें वटवृक्ष हैं ॥ ४७ ॥

योगेषु च व्यतीपातःसोमवल्ली लतासु च ।
बुद्धीनां धर्मबुद्धिस्त्वं कलत्रं सुहृदां भवान् ॥ ४८ ॥
साधकानां शुचीनां त्वं प्राणायामो महेश्वर ।
ज्योतिर्लिङ्‌गेषु सर्वेषु भवान् विश्वेश्वरो मतः ॥ ४९ ॥
आप योगोंमें व्यतीपात, लताओंमें सोमलता, बुद्धियोंमें धर्मबुद्धि तथा सुहदोंमें कलत्र हैं । हे महेश्वर ! आप सम्पूर्ण पवित्र साधनोंमें प्राणायाम हैं तथा सभी ज्योतिर्लिंगोंमें विश्वेश्वर कहे गये हैं ॥ ४८-४९ ॥

धर्मस्त्वं सर्वबन्धूनामाश्रमाणां परो भवान् ।
मोक्षस्त्वं सर्ववर्णेषु रुद्राणां नीललोहितः ॥ ५० ॥
आप सभी बन्धुओंमें धर्म, आश्रमोंमें संन्यासाश्रम, सभी वर्गोमें मोक्ष तथा रुद्रोंमें नीललोहित हैं ॥ ५० ॥

आदित्यानां वासुदेवो हनूमान्वानरेषु च ।
यज्ञानां जपयज्ञोऽसि रामः शस्त्रभृतां भवान् ॥ ५१ ॥
आप आदित्योंमें वासुदेव, वानरोंमें हनुमान्, यज्ञोंमें जपयज्ञ तथा शस्त्रधारियोंमें राम हैं ॥ ५१ ॥

गन्धर्वाणां चित्ररथो वसूनां पावको ध्रुवम् ।
मासानामधिमासस्त्वं व्रतानां त्वं चतुर्दशी ॥ ५२ ॥
आप गन्धर्वो में चित्ररथ, वसुओंमें पावक, मासोंमें अधिमास और व्रतोंमें चतुर्दशीव्रत हैं ॥ ५२ ॥

ऐरावतो गजेन्द्राणां सिद्धानां कपिलो मतः ।
अनन्तस्त्वं हि नागानां पितॄणामर्यमा भवान् ॥ ५३ ॥
कालः कलयतां च त्वं दैत्यानां बलिरेव च ।
किं बहूक्तेन देवेश सर्वं विष्टभ्य वै जगत् ॥ ५४ ॥
एकांशेन स्थितस्त्वं हि बहिःस्थोऽन्वित एव च ॥ ५५ ॥
आप गजेन्द्रोंमें ऐरावत, सिद्धोंमें कपिल, नागोंमें अनन्त और पितरोंमें अर्यमा माने गये हैं । आप कलना करनेवालोंमें काल तथा दैत्योंमें बलि हैं । हे देवेश ! अधिक कहनेसे क्या लाभ, आप सारे जगत्को आक्रान्तकर बाहर तथा भीतर सर्वत्र एकांशरूपसे स्थित हैं ॥ ५३-५५ ॥

सनत्कुमार उवाच
इति स्तुत्वा सुराः सर्वे महादेवं वृषध्वजम् ।
स्तोत्रैर्नानाविधैदिंव्यैः शूलिनं परमेश्वरम् ॥ ५६ ॥
प्रत्यूचुः प्रस्तुतं दीनाःस्वार्थं स्वार्थविचक्षणाः ।
वासवाद्या नतस्कधाः कृताञ्जलि पुटा मुने ॥ ५७ ॥
सनत्कुमार बोले-हे मुने ! इस प्रकार सिर झुकाकर हाथ जोड़कर अनेक प्रकारके दिव्य स्तोत्रोंसे त्रिशूलधारी परमेश्वर, वृषभध्वज महादेवकी स्तुतिकर स्वार्थसाधनमें कुशल इन्द्र आदि सभी देवता अत्यन्त दीन हो प्रस्तुत स्वार्थकी बात कहने लगे- ॥ ५६-५७ ॥

देवा ऊचुः
पराजिता महादेव भ्रातृभ्यां सहितेन तु ।
भगवंस्तारकोत्पन्नैः सर्वे देवाः सवासवाः ॥ ५८ ॥
त्रैलोक्यं स्ववशं नीतं तथा च मुनिसत्तमाः ।
विध्वस्ताः सर्वसंसिद्धाः सर्वमुत्सादितं जगत् ॥ ५९ ॥
यज्ञभागान्समग्राँस्तु स्वयं गृह्णाति दारुणः ।
प्रवर्तितो ह्यधर्मस्तैर्ऋषीणां च निवारितः ॥ ६० ॥
देवता बोले-हे महादेव ! हे भगवन् ! इन्द्रसहित सभी देवताओंको तारकासरके तीनों पत्रोंने पराजित कर दिया । उन्होंने समस्त त्रैलोक्यको अपने वशमें कर लिया है । उन लोगोंने सभी मनिवरों तथा सिद्धाका विध्वंस कर दिया है और सारे जगत्को तहस-नहस कर दिया है । वह भयंकर दैत्य समस्त यज्ञभागोंको स्वयं ग्रहण करता है । उन तारकपुत्रोंने वेदविरुद्ध अधर्मको बढ़ावा दे रखा है ॥ ५८-६० ॥

अवध्याःसर्वभूतानां नियतं तारकात्मजाः ।
तदिच्छया प्रकुर्वन्ति सर्वे कर्माणि शंकर ॥ ६१ ॥
हे शंकर ! वे तारकपुत्र सभी प्राणियोंसे निश्चित रूपसे अवध्य हैं, सभी लोग उन्हींकी इच्छासे कार्य करते हैं ॥ ६१ ॥

यावन्न क्षीयते दैत्यैर्घोरैस्त्रिपुरवासिभिः ।
तावद्विधीयतां नीतिर्यया संरक्ष्यते जगत् ॥ ६२ ॥
जबतक त्रिपुरवासी दैत्योंके द्वारा जगत्का विध्वंस नहीं हो जाता है, तबतक आप ऐसी नीतिका निर्धारण करें, जिससे जगत्की रक्षा हो सके ॥ ६२ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तेषामिन्द्रादीनां दिवौकसाम् ।
शिवः सम्भाषमाणानां प्रतिवाक्यमुवाच सः ॥ ६३ ॥
सनत्कुमार बोले-वार्तालाप करते हुए उन इन्द्रादि देवताओंका यह वचन सुनकर शिवजीने कहा- ॥ ६३ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां
पञ्चमे युद्धखण्डे देवस्तुतिर्नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें देवस्तुतिवर्णन नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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