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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

सप्तदशोऽध्यायः

जलन्धरोपाख्याने विष्णुजलन्धरयुद्धवर्णनम् -
विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना


सनत्कुमार उवाच
अथ दैत्या महावीर्याश्शूलैः परशुपट्टिशैः ।
निजघ्नुःसर्वदेवांश्च भयव्याकुलमानसान् ॥ १ ॥
दैत्यायुधैः समाविद्धदेहा देवाः सवासवाः ।
रणाद्विदुद्रुवुः सर्वे भयव्याकुलमानसाः ॥ २ ॥
पलायनपरान् दृष्ट्‍वा हृषीकेशःसुरानथ ।
विष्णुर्वै गरुडारूढो योद्धुमभ्याययौ द्रुतम् ॥ ३ ॥
सनत्कुमार बोले- इसके बाद महापराक्रमी दैत्य शूल, परशु और पट्टिशोंसे भयसे व्याकुल चित्तवाले देवताओंपर प्रहार करने लगे । तब दैत्योंके आयुधोंसे छिन्न-भिन्न शरीरवाले इन्द्रसहित सभी देवता भयसे व्याकुलचित्त हो उठे और रणसे भागने लगे । तत्पश्चात् देवताओंको भागते हुए देखकर हृषीकेश विष्णु गरुड़पर सवार होकर शीघ्र ही युद्ध करनेके लिये आ गये ॥ १-३ ॥

सुदर्शनेन चक्रेण सर्वतः प्रस्फुरन् रुचा ।
सुशोभितकराब्जश्च रेजे भक्ताभयङ्‌करः ॥ ४ ॥
शङ्‌खखड्गगदाशार्ङ्‌गधारी क्रोधसमन्वितः ।
कठोरास्त्रो महावीरः सर्वयुद्धविशारदः ॥ ५ ॥
धनुषं शार्ङ्‌गनामानं विस्फूर्य्य विननाद ह ।
तस्य नादेन त्रैलोक्यं पूरितं महता मुने ॥ ६ ॥
भक्तोंको अभय देनेवाले वे विष्णु चारों ओर प्रकाश फैलाते हुए सुदर्शन चक्रको हाथमें धारण करनेके कारण अत्यन्त शोभायमान हो रहे थे । हे मुने ! समस्त युद्धोंमें विशारद, शंख-खड्ग-गदा एवं शाङ्‌ग धनुष धारण किये हुए, कठोर अस्त्रोंसे युक्त तथा अत्यन्त कुपित उन महावीर विष्णुने शाङ्‌ग नामक धनुष चढ़ाकर उसकी टंकार की, उसके महान् नादसे त्रिलोकी व्याप्त हो गयी ॥ ४-६ ॥

शार्ङ्‌गनिःसृतबाणैश्च दितिजानां शिरांसि वै ।
चकर्त्त भगवान् विष्णुः कोटिशो रुट्समाकुलः ॥ ७ ॥
क्रोधमें भरे हुए भगवान् विष्णुने धनुषसे छोड़े गये बाणोंके द्वारा करोड़ों दैत्योंके सिर काट डाले ॥ ७ ॥

अथारुणानुजजवपक्षवातप्रपीडिताः ।
वात्याधिवर्त्तिता दैत्या बभ्रमुः खे यथा घनाः ॥ ८ ॥
ततो जलन्धरो दृष्ट्‍वा दैत्यान्वात्याप्रपीडितान् ।
चुक्रोधाति महादैत्यो देववृन्दभयङ्‌करः ॥ ९ ॥
उस समय अरुणके छोटे भाई गरुड़के पंखोंकी वायुके वेगसे पीड़ित हुए दैत्य आकाशमें पवनप्रेरित बादलोंके समान चक्कर काटने लगे । तब दैत्योंको गरुड़के पंखोंकी आँधीसे पीड़ित देखकर देवताओंमें भय उत्पन्न करनेवाले महादैत्य जलन्धरने अत्यधिक क्रोध किया ॥ ८-९ ॥

मर्द्दयन्तं च तं दृष्ट्‍वा दैत्यान् प्रस्फुरिताधरः ।
योद्धुमभ्याययौ वीरो वेगेन हरिणा सह ॥ १० ॥
स चकार महानादं देवासुरभयङ्‌करम् ।
दैत्यानामधिपः कर्णा विदीर्णाः श्रवणात्ततः ॥ ११ ॥
उन्हें दैत्योंको मर्दित करता हुआ देखकर फड़कते हुए ओठोंवाला वह जलन्धर विष्णुसे युद्ध करनेके लिये वेगपूर्वक आ गया । उस दैत्यपतिने देवताओं तथा असुरोंको भय उत्पन्न करनेवाला महानाद किया, उससे [सुननेवालोंके] कान विदीर्ण हो गये ॥ १०-११ ॥

भयंङ्करेण दैत्यस्य नादेन पूरितं तदा ।
जलन्धरस्य महता चकम्पे सकलं जगत् ॥ १२ ॥
दैत्य जलन्धरके महाभयंकर नादसे सारा जगत् व्याप्त हो गया और काँप उठा ॥ १२ ॥

ततःसमभवद्युद्धं विष्णुदैत्येन्द्रयोर्महत् ।
आकाशं कुर्वतोर्बाणैस्तदा निरवकाशवत् ॥ १३ ॥
इसके बाद बाणोंसे आकाशको पूर्ण करते हुए विष्णु तथा उस दैत्येन्द्रमें घमासान युद्ध होने लगा ॥ १३ ॥

तयोश्च तेन युद्धेन परस्परमभून्मुने ।
देवासुरर्षिसिद्धानां भीकरेणातिविस्मयः ॥ १४ ॥
विष्णुर्दैत्यस्य बाणौघैर्ध्वजं छत्रं धनुः शरान् ।
चिच्छेद तं च हृदये बाणेनैकेन ताडयन् ॥ १५ ॥
ततो दैत्यः समुत्पत्य गदापाणिस्त्वरान्वितः ।
आहत्य गरुडं मूर्ध्नि पातयामास भूतले ॥ १६ ॥
हे मुने ! परस्पर उन दोनोंके उस भयंकर युद्धसे देवों, असुरों, ऋषियों तथा सिद्धोंको बड़ा आश्चर्य उत्पन्न हुआ । विष्णुने दैत्यकी छातीमें एक बाणसे प्रहार करते हुए बाणसमूहोंसे उसके ध्वज, छत्र, धनुष तथा बाणोंको काट दिया । इसी बीच उस दैत्यने भी बड़ी शीघ्रतासे हाथमें गदा लेकर उछलकर [उस गदासे] गरुड़के सिरपर प्रहार करके उसे पृथ्वीपर गिरा दिया ॥ १४-१६ ॥

विष्णुं जघान शूलेन तीक्ष्णेन प्रस्फुरद्‌रुचा ।
हृदये क्रोधसंयुक्तो दैत्यः प्रस्फुरिताधरः ॥ १७ ॥
फड़कते हुए ओठोंवाले उस दैत्यने कुपित होकर अपने चमचमाते हुए तीक्ष्ण शूलसे भगवान् विष्णुकी छातीपर भी प्रहार किया ॥ १७ ॥

विष्णुर्गदां च खड्गेन चिच्छेद प्रहसन्निव ।
तं विव्याध शरैस्तीक्ष्णैः शार्ङ्‌गं विस्फूर्य दैत्यहा ॥ १८ ॥
उसके बाद दैत्यनाशक विष्णुने हँसते हुए अपने खड्गसे उसकी गदा काट दी और शार्ङ्‌ग धनुषकी प्रत्यंचा चढ़ाकर तीक्ष्ण बाणोंसे उसे बेध दिया ॥ १८ ॥

विष्णुर्जलन्धरं दैत्यं भयदेन शरेण ह ।
क्रोधाविष्टोऽतितीक्ष्णेन जघानाशु सुरारिहा ॥ १९ ॥
इस प्रकार देवताओंके शत्रुओंका वध करनेवाले विष्णु क्रोधमें भरकर अत्यन्त तीक्ष्ण एवं भयदायक बाणसे जलन्धर दैत्यपर शीघ्रतासे प्रहार करने लगे ॥ १९ ॥

आगतं तस्य तं बाणं दृष्ट्‍वा दैत्यो महाबलः ।
छित्त्वा बाणेन विष्णुं च जघान हृदये द्रुतम् ॥ २० ॥
तब महाबली दैत्यने उनके बाणको आया हुआ देखकर अपने बाणसे उसे काटकर बड़ी शीघ्रतासे विष्णुकी छातीपर प्रहार किया ॥ २० ॥

केशवोऽपि महाबाहुं विक्षिप्तमसुरेण तम् ।
शरं तिलप्रमाणेन च्छित्त्वा वीरो ननाद ह ॥ २१ ॥
महाबाहु वीर विष्णु भी असुरके द्वारा छोड़े गये, उस बाणको तिलके समान काटकर गर्जन करने लगे ॥ २१ ॥

पुनर्बाण समाधत्त धनुषि क्रोधवेपितः ।
महाबलोऽथ बाणेन चिच्छेद स शिलीमुखम् ॥ २२ ॥
वासुदेवः पुनर्बाणं नाशाय विबुधद्विषः ।
क्रोधेनाधत्त धनुषि सिंहवद्विननाद ह ॥ २३ ॥
जलन्धरोऽथ दैत्येन्द्रः कोपच्छिन्नाधरो बली ।
शरेण श्वेन शार्ङ्‌गाख्यं धनुश्चिच्छेद वैष्णवम् ॥ २४ ॥
फिर क्रोधसे काँपते हुए विष्णुने जब दूसरा बाण धनुषपर रखा, तभी महाबली उस दैत्यने अपने बाणसे उस बाणको काट डाला । तब वासुदेव विष्णुने क्रोधपूर्वक उस राक्षसके विनाशके लिये पुनः धनुषपर बाण चढ़ाया और सिंहकी भाँति गर्जना की । बलशाली दैत्येन्द्र जलन्धरने भी क्रोधसे अपने ओठोंको काटते हुए अपने बाणसे विष्णुके उस शार्ङ्‌ग नामक धनुषको काट डाला ॥ २२-२४ ॥

पुनर्बाणैःसुतीक्ष्णैश्च जघान मधुसूदनम् ।
उग्रवीर्यो महावीरो देवानां भयकारकः ॥ २५ ॥
स च्छिन्नधन्वा भगवान्केशवो लोकरक्षकः ।
जलन्धरस्य नाशाय चिक्षेप स्वगदां पराम् ॥ २६ ॥
सा गदा हरिणा क्षिप्ता ज्वलज्ज्वलनसन्निभा ।
अमोघगतिका शीघ्रं तस्य देहे ललाग ह ॥ २७ ॥
इसके बाद देवताओंको भय देनेवाला, उग्र पराक्रमवाला तथा महावीर वह दैत्य तीक्ष्ण बाणोंसे मधुसूदनपर प्रहार करने लगा । तब कटे हुए धनुषवाले लोकरक्षक भगवान् विष्णुने जलन्धरके विनाशके लिये अपनी विशाल गदा चलायी । जलती हुई अग्निके समान विष्णुके द्वारा चलायी गयी वह अमोघ गदा बड़ी शीघ्रतासे उस राक्षसके शरीरमें लगी ॥ २५-२७ ॥

तया हतो महादैत्यो न चचालापि किञ्चन ।
जलन्धरो मदोन्मत्तः पुष्पमालाहतो यथा ॥ २८ ॥
वह महादैत्य उसके प्रहारसे पुष्पमालासे आहत हुए मदोन्मत्त हाथीके समान कुछ भी विचलित नहीं हुआ ॥ २८ ॥

ततो जलन्धरः क्रोधी देवत्रासकरोऽक्षिपत् ।
त्रिशूलमनलाकारं हरये रणदुर्म्मदः ॥ २९ ॥
अथ विष्णुस्तत्त्रिशूलं चिच्छेद तरसा द्रुतम् ।
नन्दकाख्येन खड्गेन स्मृत्वा शिवपदाम्बुजम् ॥ ३० ॥
छिन्ने त्रिशूले दैत्येन्द्र उत्प्लुत्य सहसा द्रुतम् ।
आगत्य हृदये विष्णुं जघान दृढमुष्टिना ॥ ३१ ॥
तदनन्तर देवताओंमें भय उत्पन्न करनेवाले रणदुर्मद उस जलन्धरने क्रोधमें भरकर अग्निके सदृश त्रिशूल विष्णुपर चलाया । तब विष्णुने शिवजीके चरणकमलोंका स्मरण करके अपने नन्दक नामक खड्गसे शीघ्र ही बड़ी तेजीसे उस त्रिशूलको काट दिया । त्रिशूलके कट जानेपर उस दैत्यने सहसा उछलकर शीघ्रतापूर्वक आकर अपनी दृढ़ मुष्टिसे विष्णुकी छातीपर प्रहार किया ॥ २९-३१ ॥

सोपि विष्णुर्महावीरोऽविगणय्य च तद्व्यथाम ।
जलन्धरं च हृदये जघान दृढमुष्टिना ॥ ३२ ॥
ततस्तौ बाहुयुद्धेन युयुधाते महाबलौ ।
बाहुभिर्मुष्टिभिश्चैव जानुभिर्नादयन्महीम् ॥ ३३ ॥
एवं हि सुचिरं युद्धं कृत्वा तेनासुरेण वै ।
विस्मितोऽभून्मुनिश्रेष्ठ हृदि ग्लानिमवाप ह ॥ ३४ ॥
अथ प्रसन्नो भगवान्मायी मायाविदां वरः ।
उवाच दैत्यराजानं मेघगम्भीरया गिरा ॥ ३५ ॥
तब उन महावीर विष्णुने भी उस व्यथाकी चिन्ता न करके अपनी दृढ़ मुष्टिसे जलन्धरके हृदयपर प्रहार किया । तदनन्तर जानुओं, बाहुओं एवं मुष्टियोंसे पृथ्वीको शब्दायमान करते हुए उन दोनों महावीरोंका बाहुयुद्ध होने लगा । हे मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार उस दैत्यसे बहुत देरतक युद्ध करके विष्णु विस्मित हो गये और मनमें दुःखका अनुभव करने लगे । इसके बाद मायाविदोंमें श्रेष्ठ तथा माया करनेवाले विष्णुने प्रसन्न होकर मेघके समान गम्भीर वाणीमें दैत्यराजसे कहा- ॥ ३२-३५ ॥

विष्णुरुवाच
भो भो दैत्यवरश्रेष्ठ धन्यस्त्वं रणदुर्मदः ।
महायुधवरैर्यत्त्वं न भीतो हि महाप्रभुः ॥ ३६ ॥
एभिरेवायुधैरुग्रैर्दैत्या हि बहवो हताः ।
महाजौ दुर्मदा वीराश्छिन्नदेहा मृतिं गताः ॥ ३७ ॥
युद्धेन ते महादैत्य प्रसन्नोऽस्मि महान्भवान् ।
न दृष्टस्त्वत्समो वीरस्त्रैलोक्ये सचराचरे ॥ ३८ ॥
विष्णुजी बोले-हे दैत्यश्रेष्ठ ! तुम महाप्रभु, रणदुर्मद तथा धन्य हो, जो इन उत्तम आयुधोंसे तनिक भी भयभीत नहीं हुए । मैंने इन्हीं उग्र आयुधोंसे महायुद्धमें बहुत-से दुर्मद तथा वीर दैत्योंको मारा है, वे छिन्नदेह होकर मृत्युको प्राप्त हो गये । हे महादैत्य ! मैं तुम्हारे युद्धसे प्रसन्न हो गया हूँ, तुम महान् हो, तुम्हारे समान वीर चराचरसहित त्रिलोकीमें आजतक दिखायी नहीं पड़ा ॥ ३६-३८ ॥

वरं वरय दैत्येन्द्र प्रीतोऽस्मि तव विक्रमात् ।
अदेयमपि ते दद्मि यत्ते मनसि वर्तते ॥ ३९ ॥
हे दैत्यराज ! तुम्हारे पराक्रमसे मैं प्रसन्न हूँ, तुम्हारे मनमें जो भी हो, उस वरको माँगो, वह अदेय हो, तो भी तुम्हें दूँगा ॥ ३९ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य विष्णोर्मायाविनो हरेः ।
प्रत्युवाच महाबुद्धिर्दैत्यराजो जलन्धरः ॥ ४० ॥
सनत्कुमार बोले-उन महामायावी विष्णुका यह वचन सुनकर महाबुद्धिमान् दैत्यराज जलन्धरने कहा- ॥ ४० ॥

जलन्धर उवाच
यदि भावुक तुष्टोऽसि वरमे तन्ददस्व मे ।
मद्‌भगिन्या मया सार्धं मद्‌गेहे सगणो वस ॥ ४१ ॥
जलन्धर बोला-हे भावुक ! यदि आप प्रसन्न हैं, तो मुझे यह वरदान दीजिये कि आप मेरी बहन (महालक्ष्मी) तथा अपने गोंके साथ मेरे घरमें निवास करेंगे ॥ ४१ ॥

सनत्कुमार उवाच
तदाकर्ण्य वचस्तस्य महादैत्यस्य खिन्नधीः ।
तथास्त्विति च देवेशो जगाद भगवान् हरिः ॥ ४२ ॥
सनत्कुमार बोले-उस महादैत्यके इस वचनको सुनकर खिन्न मनवाले देवेश भगवान् विष्णुने-'ऐसा ही हो' यह कहा ॥ ४२ ॥

उवास स ततो विष्णुः सर्वदेवगणैः सह ।
जलन्धरं नाम पुरमागत्य रमया सह ॥ ४३ ॥
उसके बाद विष्णुजी सभी देवताओं एवं महालक्ष्मीके साथ जलन्धरके नगरमें आकर निवास करने लगे ॥ ४३ ॥

अथो जलन्धरो दैत्यः स्वभगिन्या च विष्णुना ।
उवास स्वालयं प्राप्तो हर्षाकुलितमानसः ॥ ४४ ॥
तब हर्षसे पूर्ण मनवाला वह जलन्धर भी अपने घर आकर अपनी बहन लक्ष्मी और विष्णुके साथ निवास करने लगा ॥ ४४ ॥

जलन्धरोऽथ देवानामधिकारेषु दानवान् ।
स्थापयित्वा सहर्षः सन् पुनरागान्महीतलम् ॥ ४५ ॥
वह जलन्धर देवताओंके अधिकारपर दानवोंको नियुक्तकर हर्षित होकर पुनः पृथ्वीपर लौट आया ॥ ४५ ॥

देवगन्धर्वसिद्धेषु यत्किञ्चिद्‌रत्नसञ्चितम् ।
तदात्मवशगं कृत्वाऽतिष्ठत्सागरनन्दनः ॥ ४६ ॥
पातालभवने दैत्यं निशुम्भं सुमहाबलम् ।
स्थापयित्वा स शेषादीनानयद्‌भूतलं बली ॥ ४७ ॥
देवगन्धर्वसिद्धौघान् सर्पराक्षसमानुषान् ।
स्वपुरे नागरान्कृत्वा शशास भुवनत्रयम् ॥ ४८ ॥
वह सागरपुत्र जलन्धर देव, गन्धर्व एवं सिद्धोंके पास जो रत्न संचित था, उसे अपने अधीन करके रहने लगा । वह महाबली पाताललोकमें महाबलवान् निशुम्भ नामक दैत्यको स्थापितकर शेषादिको पृथ्वीपर ले आया और देव, गन्धर्व, सिद्ध, सर्प, राक्षस तथा मनुष्योंको अपने पुरमें नागरिक बनाकर तीनों लोकोंपर शासन करने लगा ॥ ४६-४८ ॥

एवं जलन्धरः कृत्वा देवान्स्ववशवर्तिनः ।
धर्मेण पालयामास प्रजाः पुत्रानिवौरसान् ॥ ४९ ॥
न कश्चिद्व्याधितो नैव दुःखितो न कृशस्तथा ।
न दीनो दृश्यते तस्मिन्धर्माद्राज्यं प्रशासति ॥ ५० ॥
इस प्रकार देवगणोंको अपने वशमें करके जलन्धर धर्मपूर्वक प्रजाओंका पालन वैसे ही करने लगा, जैसे पिता अपने औरस पुत्रोंका पालन करता है । उसके धर्मपूर्वक राज्यका शासन करते रहनेपर कोई भी रोगी, दुखी, दुर्बल और दीन नहीं दिखायी पड़ता था । ४९-५० ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखण्डे
जलन्धरोपाख्याने विष्णुजलन्धरयुद्धवर्णनं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें जलन्धरोपाख्यानमें विष्णु जलन्धरयुद्धवर्णन नामक सत्रहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १७ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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