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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे
षोडशोऽध्यायः देवयुद्धवर्णनम् -
जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध सनत्कुमार उवाच पुनर्दैत्यं समायान्तं दृष्ट्वा देवाः सवासवाः । भयात्प्रकम्पिताः सर्वे सहैवादुद्रुवुर्द्रुतम् ॥ १ ॥ वैकुण्ठं प्रययुः सर्वे पुरस्कृत्य प्रजापतिम् । तुष्टुवुस्ते सुरा नत्वा सप्रजापतयोऽखिलाः ॥ २ ॥ सनत्कुमार बोले-इन्द्रसहित सभी देवता उस दैल्यको पुनः आता हुआ देखकर भयसे काँप उठे और शीघ्र ही एक साथ भाग गये । प्रजापतिको आगेकर वे सब वैकुण्ठमें गये और फिर प्रजापतिसहित सभी देवता प्रणामकर विष्णुकी स्तुति करने लगे- ॥ १-२ ॥ देवा ऊचुः हृषीकेश महाबाहो भगवन् मधुसूदन । नमस्ते देवदेवेश सर्वदैत्यविनाशक ॥ ३ ॥ मत्स्यरूपाय ते विष्णो वेदान्नीतवते नमः । सत्यव्रतेन सद्राज्ञा प्रलयाब्धिविहारिणे ॥ ४ ॥ देवता बोले-हे हृषीकेश ! हे महाबाहो ! हे भगवन् ! हे मधुसूदन ! हे देवदेवेश ! हे सर्वदैत्यविनाशक ! आपको नमस्कार है । मत्स्यरूप धारणकर सत्यव्रत राजाके साथ प्रलयाब्धिमें विहार करनेवाले तथा वेदोंको लानेवाले मत्स्यरूप हे विष्णो ! आपको नमस्कार है ॥ ३-४ ॥ कुर्वाणानां सुराणां च मथनायोद्यमं भृशम् । बिभ्रते मन्दरगिरिं कूर्मरूपाय ते नमः ॥ ५ ॥ नमस्ते भगवन्नाथ क्रतवे सूकरात्मने । वसुन्धरां जनाधारां मूर्द्धतो बिभ्रते नमः ॥ ६ ॥ समुद्रमन्थनके लिये देवताओंके महान् उद्योग करते समय मन्दराचलपर्वतको धारण करनेवाले कच्छपरूप आपको नमस्कार है । मनुष्योंको आश्रय देनेवाली इस वसुन्धराको दाढ़पर धारण करनेवाले यज्ञवाराहस्वरूप हे भगवन् ! आपको नमस्कार है ॥ ५-६ ॥ वामनाय नमस्तुभ्यमुप्रेन्द्राख्याय विष्णवे । विप्ररूपेण दैत्येन्द्रं बलिं छलयते विभो ॥ ७ ॥ विप्ररूपसे दैत्येन्द्र बलिको छलनेवाले उपेन्द्र नामक वामनरूपधारी हे विष्णु । हे विभो ! आपको नमस्कार है ॥ ७ ॥ नमः परशुरामाय क्षत्रनिःक्षत्रकारिणे । मातुर्हितकृते तुभ्यं कुपितायासतां द्रुहे ॥ ८ ॥ रामाय लोकरामाय मर्यादापुरुषाय ते । रावणान्तकरायाशु सीतायाः पतये नमः ॥ ९ ॥ क्षत्रियोंके क्षत्रका अन्त करनेवाले, माताका हित करनेवाले, कुपित होनेवाले तथा दुष्टजनोंका विनाश करनेवाले और परशुरामके रूपसे अवतार धारण करनेवाले आपको नमस्कार है । लोकको प्रसन्न करनेवाले, मर्यादापुरुष तथा शीघ्र रावणका वध करनेवाले और सीतापति रामके रूपमें अवतार ग्रहण करनेवाले आपको नमस्कार है ॥ ८-९ ॥ नमस्ते ज्ञानगूढाय कृष्णाय परमात्मने । राधाविहारशीलाय नानालीलाकराय च ॥ १० ॥ नमस्ते गूढदेहाय वेदनिन्दाकराय च । योगाचार्याय जैनाय बौद्धरूपाय मापते ॥ ११ ॥ गूढ ज्ञानवाले, राधाके साथ विहार करनेवाले तथा विविध लीला करनेवाले कृष्णरूपधारी आप परमात्माको नमस्कार है । गुप्त शरीर धारण करनेवाले, योगके आचार्य तथा वेदविरुद्ध जैनरूप एवं बौद्धरूपको धारण करनेवाले आप लक्ष्मीपतिको नमस्कार है ॥ १०-११ ॥ नमस्ते कल्किरूपाय म्लेच्छानामन्तकारिणे । अनन्तशक्तिरूपाय सद्धर्मस्थापनाय च ॥ १२ नमस्ते कपिलरूपाय देवहूत्यै महात्मने । वदते साङ्ख्ययोगं च साङ्ख्याचार्याय वै प्रभो ॥ १३ ॥ - सद्धर्मकी स्थापनाके लिये म्लेच्छोंका विनाश करनेवाले, अनन्त शक्तिसे सम्पन्न तथा कल्किरूप धारण करनेवाले आपको नमस्कार है । हे प्रभो ! देवहूतिके लिये कपिलरूप धारणकर सांख्ययोगका उपदेश करनेवाले आप महात्मा सांख्याचार्यको नमस्कार है ॥ १२-१३ ॥ नमः परमहंसाय ज्ञानं संवदते परम् । विधात्रे ज्ञानरूपाय येनात्मा सम्प्रसीदति ॥ १४ ॥ परमहंसरूपसे आत्ममुक्तिपरक परम ज्ञानका उपदेश करनेवाले, ज्ञानरूप विधाता आपको नमस्कार है ॥ १४ ॥ वेदव्यासाय वेदानां विभागं कुर्वते नमः । हिताय सर्वलोकानां पुराणरचनाय च ॥ १५ ॥ एवं मत्स्यादितनुभिर्भक्तकार्योद्यताय ते । सर्गस्थितिध्वंसकर्त्रे नमस्ते ब्रह्मणे प्रभो ॥ १६ ॥ समस्त लोकोंके हितके लिये पुराणोंकी रचना करनेवाले तथा वेदोंका विभाग करनेवाले वेदव्यासरूपधारी आपको नमस्कार है । इस प्रकार मत्स्यादिरूपोंसे भक्तोंके कार्यके लिये तत्पर रहनेवाले तथा सृष्टि, पालन एवं प्रलय करनेवाले ब्रह्मरूप है प्रभो ! आपको नमस्कार है ॥ १५-१६ ॥ आर्तिहन्त्रे स्वदासानां सुखदाय शुभाय च । पीताम्बराय हरये तार्क्ष्ययानाय ते नमः ॥ सर्वक्रियायैककर्त्रे शरण्याय नमोनमः । १७ ॥ अपने दासोंके दु:खोंको दूर करनेवाले, सुखद, शुभस्वरूप, गरुड़पर सवारी करनेवाले, पीताम्बरधारी आप विष्णुको नमस्कार है । सभी क्रियाओंके एकमात्र कर्ता तथा शरणागतरक्षक आपको बार-बार नमस्कार है ॥ १७ ॥ दैत्यसन्तापितामर्त्य दुःखादिध्वंसवज्रक । शेषतल्पशयायार्कचन्द्रनेत्राय ते नमः ॥ १८ ॥ दैत्योंके द्वारा सन्तप्त देवताओंके दु:खका नाश करनेवाले हे वास्वरूप ! शेषरूपी शव्यापर शयन करनेवाले तथा सूर्यचन्द्रनेत्रवाले आपको नमस्कार है ॥ १८ ॥ कृपासिन्धो रमानाथ पाहि नः शरणागतान् । जलन्धरेण देवाश्च स्वर्गात्सर्वे निराकृताः ॥ १९ ॥ सूर्यो निःसारितः स्थानाच्चन्द्रो वह्निस्तथैव च । पातालान्नागराजश्च धर्मराजो निराकृतः ॥ २० ॥ हे कृपासागर ! हे रमानाथ ! हम शरणागतोंकी रक्षा कीजिये, जलन्धरने सभी देवताओंको स्वर्गसे निकाल दिया है । उसने सूर्य, चन्द्रमा तथा अग्निको उनके स्थानसे हटा दिया है तथा पातालसे नागराजको और धर्मराजको भी निकाल दिया है ॥ १९-२० ॥ विचरन्ति यथा मर्त्याश्शोभन्ते नैव ते सुराः । शरणं ते वयं प्राप्ता वधस्तस्य विचिन्त्यताम् ॥ २१ ॥ वे देवता मनुष्योंके समान भटक रहे हैं, इससे वे शोभित नहीं हो रहे हैं । इसलिये हम आपकी शरणमें आये हुए हैं, आप उसके वधका उपाय सोचिये ॥ २१ ॥ सनत्कुमार उवाच इति दीनवचश्श्रुत्वा देवानां मधुसूदनः । जगाद करुणासिन्धुर्मेघनिर्ह्रादया गिरा ॥ २२ ॥ सनत्कुमार बोले-तब करुणासिन्धु मधुसूदन देवताओंका यह दीन वचन सुनकर मेघके समान गम्भीर वाणीमें कहने लगे- ॥ २२ ॥ विष्णुरुवाच भयं त्यजत हे देवा गमिष्याम्यहमाहवम् । जलन्धरेण दैत्येन करिष्यामि पराक्रमम् ॥ २३ ॥ इत्युक्त्वा सहसोत्थाय दैत्यारिः खिन्नमानसः । आरोहद्गरुडं वेगात्कृपया भक्तवत्सलः ॥ २४ ॥ विष्णुजी बोले-हे देवताओ ! आपलोग भयका त्याग कीजिये, मैं स्वयं युद्ध में जाऊँगा और दैत्य जलन्धरसे युद्ध करूँगा । इस प्रकार कहकर दुखी मनवाले भक्तवत्सल दैत्यारि विष्णु अनुग्रहपूर्वक सहसा उठकर गरुड़पर वेगसे सवार हो गये ॥ २३-२४ ॥ गच्छन्तं वल्लभं दृष्ट्वा देवैःसार्द्धं समुद्रजा । साञ्जलिर्बाष्पनयना लक्ष्मीर्वचनमब्रवीत् ॥ २५ ॥ उस समय देवताओंके साथ जाते हुए अपने पति [श्रीविष्णु] को देखकर नेत्रोंमें जल भरकर हाथ जोड़कर समुद्रपुत्री लक्ष्मीजीने यह वचन कहा- ॥ २५ ॥ लक्ष्म्युवाच अहं ते वल्लभा नाथ भक्ता यदि च सर्वदा । तत्कथं ते मम भ्राता युद्धे वध्यः कृपानिधे ॥ २६ ॥ लक्ष्मीजी बोलीं-हे नाथ ! यदि मैं आपकी प्रिया और सदा आपकी भक्त हूँ, तो हे कृपानाथ ! आप मेरे भाईका वध युद्धमें कैसे कर सकते हैं ? ॥ २६ ॥ विष्णुरुवाच जलन्धरेण दैत्येन करिष्यामि पराक्रमम् । तैःसंस्तुतो गमिष्यामि युद्धाय त्वरितान्वितः ॥ २७ ॥ रुद्रांशसम्भवत्वाच्च ब्रह्मणो वचनादपि । प्रीत्या च तव नैवायं मम वध्यो जलन्धरः ॥ २८ ॥ विष्णुजी बोले-मैं उस जलन्धरके साथ अपना पराक्रम करूंगा, देवोंने मेरी स्तुति की है, अत: मैं शीघ्र ही युद्धके लिये जाऊँगा, किंतु रुद्रांशसे उसके उत्पन्न होने, ब्रह्माको वचन देने तथा तुम्हारी प्रीतिके कारण इस जलन्धरका वध नहीं करूंगा ॥ २७-२८ ॥ सनत्कुमार उवाच इत्युक्त्वा गरुडारूढः शङ्खचक्रगदासिभृत् । विष्णुर्वेगाद्ययौ योद्धुं देवैः शक्रादिभिः सह ॥ २९ ॥ द्रुतं स प्राप तत्रैव यत्र दैत्यो जलन्धरः । कुर्वन् सिंहरवं देवैर्ज्वलद्भिर्विष्णुतेजसा ॥ ३० ॥ अथारुणानुजजवपक्षवातप्रपीडिताः । वात्याविवर्तिता दैत्या बभ्रमुः खे यथा घनाः ॥ ३१ ॥ सनत्कुमार बोले-यह कहकर विष्णु शंख, चक्र, गदा तथा तलवार धारणकर गरुड़पर सवार हो गये और इन्द्रादि देवताओंको साथ लेकर युद्ध करनेके लिये वेगपूर्वक चल पड़े । विष्णुके तेजसे प्रकाशित होते देवताओंके साथ सिंहनाद करते हुए वे [विष्णु] शीघ्र वहाँ पहुँचे, जहाँ वह जलन्धर था । उस समय अरुणके लघु भ्राता गरुड़के पंखोंके वायुवेगसे पीड़ित हुए दैत्य इस प्रकार चक्कर काटने लगे, जैसे वायुके द्वारा उड़ाये गये बादल आकाशमण्डलमें घूमने लगते हैं ॥ २९-३१ ॥ ततो जलन्धरो दृष्ट्वा दैत्यान् वात्याप्रपीडितान् । उद्धृत्य वचनं क्रोधाद् द्रुतं विष्णुं समभ्यगात् ॥ ३२ ॥ एतस्मिन्नन्तरे देवाश्चक्रुर्युद्धं प्रहर्षिताः । तेजसा च हरेः पुष्टा महाबलसमन्विताः ॥ ३३ ॥ तब वायुके वेगसे पीड़ित हुए दैत्योंको देखकर अमर्षयुक्त वचन कहता हुआ जलन्धर बड़ी तेजीसे विष्णुपर झपटा । इसी बीच विष्णुके तेजसे देदीप्यमान महाबलशाली देवता भी प्रसन्न होकर युद्ध करने लगे ॥ ३२-३३ ॥ युद्धोद्यतं समालोक्य देवसैन्यमुपस्थितम् । दैत्यानाज्ञापयामास समरे चातिदुर्मदान् ॥ ३४ ॥ तब वहाँपर उपस्थित देवसेनाको युद्धके लिये उद्यत देखकर जलन्धरने युद्ध में दुर्मद दैत्योंको आज्ञा दी ॥ ३४ ॥ जलन्धर उवाच भोभो दैत्यवरा यूयं युद्धं कुरुत दुस्तरम् । शक्राद्यैरमरैरद्य प्रबलैः कातरैः सदा ॥ ३५ ॥ जलन्धर बोला-हे श्रेष्ठ दैत्यो ! तुमलोग सदासे कायर, किंतु प्रबल इन इन्द्रादि देवताओंके साथ आज अत्यन्त कठिन युद्ध करो ॥ ३५ ॥ मौर्यास्तु लक्षसङ्ख्याता धौम्रा हि शतसङ्ख्यकाः । असुराः कोटिसङ्ख्याताः कालकेयास्तथैव च ॥ ३६ ॥ कालकानां दौर्हृदानां कङ्कानां लक्षसङ्ख्यया । अन्येऽपि स्वबलैर्युक्ता विनिर्यान्तु ममाज्ञया ॥ ३७ ॥ सर्वे सज्जा विनिर्यात बहुसेनाभिसंयुताः । नानाशस्त्रास्त्रसंयुक्ता निर्भयाः गतसंशयाः ॥ ३८ ॥ भो भो शुम्भनिशुम्भौ च देवान्समरकातरान् । क्षणेन सुमहावीर्यौ तुच्छान्नाशयतं युवाम् ॥ ३९ ॥ एक लाख संख्यावाले मौर्य, सौ संख्यावाले धौम्र, करोड़ोंकी संख्यावाले कालकेय, एक लाखकी संख्यावाले कालक-दौर्हद तथा कंक नामक असुर तथा अन्य असुर भी मेरी आज्ञासे अपनी-अपनी सेनाओंके साथ निकलें । सभी लोग सज्जित होकर विशाल सेनाओंसे युक्त हो अनेक प्रकारके अस्त्रशस्त्र धारण किये हुए निर्भय एवं संशयरहित होकर निकल पड़ें । हे शुम्भ एवं निशुम्भ ! महाबलवान् तुम दोनों क्षणमात्रमें युद्ध करने में कायर तथा तुच्छ देवताओंका विनाश कर दो ॥ ३६-३९ ॥ सनत्कुमार उवाच दैत्या जलन्धराज्ञप्ता इत्थं युद्धविशारदाः । युयुधुस्ते सुराःसर्वे चतुरङ्गबलान्विताः ॥ ४० ॥ सनत्कुमार बोले-जब जलन्धरने इस प्रकार दैत्योंको आज्ञा दी, तब युद्धविशारद वे समस्त असुर अपनी चतुरंगिणी सेना लेकर युद्ध करने लगे ॥ ४० ॥ गदाभिस्तीक्ष्णबाणैश्च शूलपट्टिशतोमरैः । केचित्परशुशूलैश्च निजघ्नुस्ते परस्परम् ॥ ४१ ॥ वे गदा, तीक्ष्ण बाण, शूल, पट्टिश, तोमर, परशु और शूलादि अस्त्रोंसे एक-दूसरेपर प्रहार करने लगे ॥ ४१ ॥ नानायुधैश्च परैस्तत्र निजघ्नुस्ते बलान्विता । देवास्तथा महावीरा हृषीकेशबलान्विताः ॥ युयुधुस्तीक्ष्णबाणाश्च क्षिपन्तः सिंहवद्रवाः ॥ ४२ ॥ केचिद्बाणैस्तु तीक्ष्णैश्च केचिन्मुसलतोमरैः । केचित्परशुशूलैश्च निजघ्नुस्ते परस्परम् ॥ ४३ ॥ इत्थं सुराणां दैत्यानां सङ्ग्रामः समभून्महान् । अत्युल्बणो मुनीनां हि सिद्धानां भयकारकः ॥ ४४ ॥ विष्णुके बलसे युक्त वे महाबलवान् देवगण सेनाओंको साथ लेकर अनेक प्रकारके श्रेष्ठ आयुधोंसे प्रहार करने लगे । वे सिंहके समान गर्जन करते हुए तथा बाणोंको छोड़ते हुए युद्ध कर रहे थे । कोई तीक्ष्ण बाणोंसे, कोई मूसलों और तोमरोंसे तथा कोई परशुसे एवं त्रिशूलसे एक-दूसरेपर प्रहार कर रहे थे । इस प्रकार देव-दानवोंमें महाभयंकर संग्राम छिड़ गया, जो मुनियों तथा सिद्धोंमें भय उत्पन्न करनेवाला था ॥ ४२-४४ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखण्डे देवयुद्धवर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें जलन्धरवधोपाख्यानके अन्तर्गत देवयुद्धवर्णन नामक सोलहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १६ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |