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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

एकोनविंशोऽध्यायः

जलन्धरवधोपाख्याने दूतसंवादः -
पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगणोंमें प्रतिष्ठित होना तथा शिवद्वारपर स्थित रहना


व्यास उवाच
सनत्कुमार सर्वज्ञ नारदे हि गते दिवि ।
दैत्यराट् किमकार्षीत्स तन्मे वद सुविस्तरात् ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे सर्वज्ञ सनत्कुमार ! देवर्षि नारदके स्वर्गलोक चले जानेपर उस दैत्यराजने क्या किया ? उसे विस्तारपूर्वक मुझसे कहिये ॥ १ ॥

सनत्कुमार उवाच
तमामन्त्र्य गते दैत्यं नारदे दिवि दैत्यराट् ।
तद् रूपश्रवणादासीदनङ्‌गज्वरपीडितः ॥ २ ॥
सनत्कुमार बोले-उस दैत्यसे कहकर नारदजीके स्वर्गलोक चले जानेपर पार्वतीके रूपके श्रवणसे वह दैत्यराज जलन्धर कामज्वरसे पीड़ित हो गया ॥ २ ॥

अथो जलन्धरो दैत्यः कालाधीनः प्रनष्टधीः ।
दूतमाह्वाय यामास सैंहिकेयं विमोहितः ॥ ३ ॥
उसके बाद कालके अधीन होनेसे उसकी बुद्धि नष्ट हो गयी और मोहको प्राप्त हो उसने सँहिकेय नामक दूतको बुलाया ॥ ३ ॥

आगतं तं समालोक्य कामाक्रान्तमनाः स हि ।
सुसम्बोध्य समाचष्ट सिन्धुपुत्रो जलन्धरः ॥ ४ ॥
उसे आया हुआ देखकर कामसे आक्रान्त मनवाला वह सागरपुत्र जलन्धर उसे समझाकर कहने लगा- ॥ ४ ॥

जलन्धर उवाच
भोभो दूतवरश्रेष्ठ सर्वकार्यप्रसाधक ।
सैंहिकेय महाप्राज्ञ कैलासं गच्छ पर्वतम् ॥ ५ ॥
तत्रास्ति योगी शम्भ्वाख्य स्तपस्वी च जटाधरः ।
भस्मभूषितसर्वाङ्‌गो विरक्तो विजितेन्द्रियः ॥ ६ ॥
जलन्धर बोला-हे दूतोंमें श्रेष्ठ ! हे सभी कार्य सिद्ध करनेवाले ! हे महाप्राज्ञ सिंहिकापुत्र ! तुम कैलास-पर्वतपर जाओ, वहाँपर जटाधारण किये हुए, सर्वांगमें भस्म लपेटे हुए. परम विरक्त, तपस्वी एवं जितेन्द्रिय शिव नामक योगी रहता है ॥ ५-६ ॥

तत्र गत्वेति वक्तव्यं योगिनं दूत शंकरम् ।
जटाधरं विरक्तं तं निर्भयेन हृदा त्वया ॥ ७ ॥
हे योगिंस्ते दयासिन्धो जायारत्नेन किं भवेत् ।
भूतप्रेतपिशाचादिसेवितेन वनौकसा ॥ ८ ॥
मन्नाथे भुवने योगिन्नोचिता गतिरीदृशी ।
जायारत्नमतस्त्वं मे देहि रत्नभुजे निजम् ॥ ९ ॥
हे दूत ! उस जटाधारी परम विरक्त योगी शंकरके पास जाकर भयरहित मनसे तुम [मेरा सन्देश] इस प्रकार कहना-हे योगिन् ! हे दयासिन्धो ! वनमें निवास करनेवाले और भूत-प्रेत-पिशाचादिसे सेवित आपको स्त्रीरत्नसे क्या प्रयोजन है ? हे योगिन् ! जब समस्त भुवनाधिपति मुझ-जैसा स्वामी विद्यमान है, तब तुम्हें ऐसा करना उचित नहीं है, अतः तुम अपना स्त्रीरत्न सभी रत्नोंका सेवन करनेवाले मुझे दे दो ॥ ७-९ ॥

यानियानि सुरत्नानि त्रैलोक्ये तानि सन्ति मे ।
मदधीनं जगत्सर्वं विद्धि त्वं सचराचरम् ॥ १० ॥
तुम इस बातको जान लो कि सारा चराचर जगत् मेरे अधीन है और त्रिलोकीमें जो-जो उत्तम रत्न हैं, वे सब मेरे अधीन हैं ॥ १० ॥

इन्द्रस्य गजरत्नं चोच्चैःश्रवोरत्नमुत्तमम् ।
बलाद्‌गृहीतं सहसा पारिजा ततरुस्तथा ॥ ११ ॥
मैंने इन्द्रका ऐरावत हाथी, उच्चैःश्रवा घोड़ा एवं पारिजात वृक्ष बलपूर्वक सहसा छीन लिया है ॥ ११ ॥

विमानं हंससंयुक्तमङ्‌गणे मम तिष्ठति ।
रत्नभूतं महादिव्यमुत्तमं वेधसोद्‌भुतम् ॥ १२ ॥
ब्रह्माका हंसयुक्त विमान मेरे आँगनमें विद्यमान है, जो रत्नस्वरूप महादिव्य एवं अद्‌भुत है ॥ १२ ॥

महापद्मादिकं दिव्यं निधिरत्नं स्वदस्य च ।
छत्रं मे वारुणं गेहे काञ्चनस्रावि तिष्ठति ॥ १३ ॥
किञ्जल्किनी महामाला सर्वदाऽम्लानपङ्‌कजा ।
मत्पितुःसा ममैवास्ति पाशश्च कम्पतेस्तथा ॥ १४ ॥
मृत्योरुत्क्रान्तिदा शक्तिर्मया नीता बलाद्वरा ।
ददौ मह्यं शुचिर्दिव्ये शुचिशौचे च वाससी ॥ ।१५ ॥
एवं योगीन्द्र रत्नानि सर्वाणि विलसन्ति मे ।
अतस्त्वमपि मे देहि स्वस्त्रीरत्नं जटाधर ॥ १६ ॥
कुबेरके महापद्म आदि दिव्य निधिरत्न तथा सुवर्णकी वर्षा करनेवाला वरुणका छत्र मेरे घरमें है । सर्वदा विकसित कमलोंवाली किंजल्किनी नामक मेरे पिताकी माला तो मेरी ही है और जलाधिपति वरुणका पाश भी मेरे यहाँ ही है । मृत्युकी सर्वश्रेष्ठ शक्ति, जिसका नाम उत्क्रान्तिदा है, उसे भी मैंने मृत्युसे बलपूर्वक छीन लिया है । अग्निदेवने मुझे दिव्य परम पवित्र तथा कभी भी मलिन न होनेवाले दो वस्त्र दिये हैं । इस प्रकार हे योगीन्द्र ! सभी रत्न मेरे पास शोभित हो रहे हैं । अतः हे जटाधर ! तुम भी मुझे अपना स्त्रीरत्न प्रदान करो ॥ १३-१६ ॥

सनत्कुमार उवाच
इति श्रुत्वा वचस्तस्य नन्दिना स प्रवेशितः ।
जगामोग्रसभां राहुर्विस्मयोद्‌भुतलोचनः ॥ १७ ॥
तत्र गत्वा शिवं साक्षाद्देवदेवं महाप्रभुम् ।
स्वतेजोध्वस्ततमसं भस्मलेपविराजितम् ॥ १८ ॥
महाराजोपचारेण विलसन्तं महाद्‌भुतम् ।
सर्वाङ्‌गसुन्दरं दिव्यभूषणैर्भूषितं हरम् ॥ १९ ॥
प्रणनाम च तं गर्वात्तत्तेजः क्रान्तविग्रहः ।
निकटं गतवाञ्छम्भोः स दूतो राहुसञ्ज्ञकः ॥ २० ॥
सनत्कुमार बोले-उसका यह वचन सुनकर नन्दीने उसे भीतर प्रवेश कराया, तब अद्‌भुत नेत्रोंवाला वह (सिंहिकापुत्र) राहु विस्मित होकर शिवजीकी सभाकी ओर चला । उसने उस सभामें जाकर अपने तेजसे समस्त अन्धकारको दूर करनेवाले, भरमका लेप लगाये हुए, महाराजोपचारसे सुशोभित होते हुए, अत्यन्त अद्धत, दिव्य भूषणोंसे भूषित तथा सर्वांगसुन्दर साक्षात् देवदेव महाप्रभु शिवजीको देखा, उनके तेजसे पराभूत शरीरवाले राहु नामक उस दूतने गर्वसे शिवजीको प्रणाम किया और उनके समीप गया । १७-२० ॥

अथो तदग्र आसीनो वक्तुकामो हि सैंहिकः ।
त्र्यम्बकं स तदा सञ्ज्ञाप्रेरितो वाक्यमब्रवीत् ॥ २१ ॥
इसके बाद वह सिंहिकापुत्र शिवके आगे बैठकर उनसे कुछ कहनेकी इच्छा करने लगा, तब उनका संकेत पाकर उसने यह वचन कहा- ॥ २१ ॥

दैत्यपन्नगसेव्यस्य त्रैलोक्याधिपतेःसदा ।
दूतोऽहं प्रेषितस्तेन त्वत्सकाशमिहागतः ॥ २२ ॥
राहुरुवाच
जलन्धरोब्धितनयःसर्वदैत्यजनेश्वरः ॥ ऽ
त्रैलोक्यस्येश्वरः सोथाभवत्सर्वाधिनायकः ॥ २३ ॥
राहु बोला-दैत्य एवं साँसे सदा सेवित तथा तीनों लोकोंके अधिपति जलन्धरका मैं दूत हूँ और उनके द्वारा भेजे जानेपर आपके पास आया हूँ । वे जलन्धर समुद्रके पुत्र हैं, सभी दैत्योंके स्वामी हैं और अब वे त्रिलोकीके अधिपति हैं, सभीके अधिनायक हैं ॥ २२-२३ ॥

स दैत्यराजो बलवान्देवानामन्तकोपमः ।
योगिनं त्वां समुद्दिश्य स यदाह शृणुष्व तत् ॥ २४ ॥
वे बलवान् दैत्यराज देवगणों के लिये महाकालके समान हैं । आप योगीको उद्देश्य करके उन्होंने जो कहा है, उसे श्रवण कीजिये ॥ २४ ॥

महादिव्यप्रभावस्य तस्य दैत्यपतेः प्रभोः ।
सर्वरत्नेश्वरस्य त्वमाज्ञां शृणु वृषध्वज ॥ २५ ॥
हे वृषध्वज ! महादिव्य प्रभाववाले तथा सभी रत्नोंके स्वामी उन प्रभु दैत्यपतिकी आज्ञाको आप सुनिये ॥ २५ ॥

श्मशानवासिनो नित्यमस्थिमालाधरस्य च ।
दिगम्बरस्य ते भार्या कथं हैमवती शुभम् ॥ २६ ॥
श्मशानमें निवास करनेवाले, सदा अस्थियोंकी माला धारण करनेवाले तथा दिगम्बर रहनेवाले तुम्हारी भार्या वह शुभ हिमालयपुत्री [पार्वती] कैसे हो सकती है ? ॥ २६ ॥

अहं रत्नाधिनाथोस्मि सा च स्त्रीरत्नसञ्ज्ञिता ।
तस्मान्ममैव सा योग्या नैव भिक्षाशिनस्तव ॥ २७ ॥
मम वश्यास्त्रयो लोका भुञ्जेऽहं मखभागकान् ।
यानि सन्ति त्रिलोकेस्मिन् रत्नानि मम सद्मनि ॥ २८ ॥
वयं रत्नभुजस्त्वं तु योगी खलु दिगम्बरः ।
स्वस्त्रीरत्नं देहि मह्यं राज्ञः सुखकराः प्रजाः ॥ २९ ॥
वह स्त्रीरल है और मैं समस्त रत्नोंका अधिपति हूँ, अतः वह मेरे ही योग्य है, भिक्षा मांगकर खानेवाले तुम्हारे योग्य वह नहीं है । तीनों लोक मेरे वशमें हैं, मैं ही यज्ञभागोंको ग्रहण करता हूँ । इस त्रिलोकीमें जो भी रत्न हैं, वे सभी मेरे घरमें हैं । रत्नोंका उपभोग करनेवाले हम हैं, तुम तो दिगम्बर योगी हो, तुम अपना स्त्रीरत्न मुझे प्रदान करो; क्योंकि प्रजाएँ राजाको सुख देनेवाली होती हैं । २७-२९ ॥

सनत्कुमार उवाच
वदत्येवं तथा राहौ भ्रूमध्याच्छूलपाणिनः ।
अभवत्पुरुषो रौद्रस्तीव्राशनिसमस्वनः ॥ ३० ॥
सिंहास्यप्रचलजिह्वः सज्ज्वालनयनो महान् ।
ऊर्ध्वकेशः शुष्कतनुर्नृसिंह इव चापरः ॥ ३१ ॥
सनत्कुमार बोले-अभी राहु अपनी बात कह ही रहा था कि शंकरके भू-मध्यसे वजके समान शब्द करता हुआ एक महाभयंकर पुरुष प्रकट हो गया । सिंहके समान उसका मुख था, उसकी जीभ लपलपा रही थी, नेत्रोंसे अग्नि निकल रही थी; ऊर्ध्वकेश तथा सूखे शरीरवाला वह पुरुष दूसरे सिंहके समान जान पड़ता था ॥ ३०-३१ ॥

महातनुर्महाबाहुस्तालजङ्‌घो भयङ्‌करः ।
अभिदुद्राव वेगेन राहुं स पुरुषो द्रुतम् ॥ ३२ ॥
विशाल शरीर तथा भुजाओंवाला, ताड़ वृक्षाके समान जाँघवाला तथा भयंकर वह पुरुष [प्रकट होते ही बड़े वेगसे शीघ्रताके साथ राहुपर झपट पड़ा ॥ ३२ ॥

स तं खादितु मायान्तं दृष्ट्‍वा राहुर्भयातुरः ।
अधावदात वेगेन बहिस्तस्य च दधार तम् ॥ ३३ ॥
तब खानेके लिये उसे आता हुआ देखकर भयभीत वह राहु बड़े वेगसे भागने लगा, किंतु सभाके बाहर ही उस पुरुषने उसे पकड़ लिया ॥ ३३ ॥

राहुरुवाच
देवदेव महेशान पाहि मां शरणा गतम् ।
सुराऽसुरैः सदा वन्द्यः परमैश्वर्यवान् प्रभुः ॥ ३४ ॥
राहु बोला-हे देवदेव ! हे महेशान ! मुझ शरणागतकी रक्षा कीजिये । आप देवताओं तथा असुरोंसे सदा वन्दनीय, महान् ऐश्वर्य तथा प्रभुतासे सम्पन्न हैं ॥ ३४ ॥

ब्राह्मणं मां महादेव खादितुं समुपागतः ।
पुरुषोयं तवेशान सेवकोतिभयङ्‌करः ॥ ३५ ॥
हे महादेव ! हे ईशान ! आपका यह महाभयंकर सेवक पुरुष मुझ ब्राह्मणको खानेके लिये आया हुआ है ॥ ३५ ॥

एतस्माद्‍रक्ष देवेश शरणागतवत्सलः ।
न खादेत यथायं मां नमस्तेऽस्तु मुहुर्मुहुः ॥ ३६ ॥
हे देवेश ! हे शरणागतवत्सल ! इस पुरुषसे मेरी रक्षा कीजिये, जिससे यह मुझे खा न सके, आपको बार-बार नमस्कार है ॥ ३६ ॥

सनत्कुमार उवाच
महादेवो वचः श्रुत्वा ब्राह्मणस्य तदा मुने ।
अब्रवीत्स्वगणं तं वै दीनानाथप्रियः प्रभुः ॥ ३७ ॥
सनत्कुमार बोले-हे मुने ! तब ब्राह्मणकी बात सुनकर दीनों तथा अनाथोंसे प्रेम करनेवाले प्रभु महादेवने अपने उस गणसे कहा- ॥ ३७ ॥

महादेव उवाच
प्रभुं च ब्राह्मणं दूतं राह्वाख्यं शरणागतम् ।
शरण्या रक्षणीया हि न दण्ड्या गणसत्तम ॥ ३८ ॥
महादेवजी बोले-हे गणसत्तम ! शरणमें आये हुए राहु नामक ब्राहाण दूतको छोड़ दो; क्योंकि ऐसे लोग शरणके योग्य, रक्षाके पात्र होते हैं, दण्डके योग्य नहीं होते हैं ॥ ३८ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्युक्तौ गिरिजेशेन सगणः करुणात्मना ।
राहुं तत्याज सहसा ब्राह्मणेति श्रुताक्षरः ॥ ३९ ॥
सनत्कुमार बोले-करुणामय हृदयवाले गिरिजापतिके ऐसा कहनेपर उस गणने 'ब्राह्मण' यह शब्द सुनते ही राहुको सहसा छोड़ दिया ॥ ३९ ॥

राहुं त्यक्त्वाम्बरे सोथ पुरुषो दीनया गिरा ।
शिवोपकण्ठमागत्य महादेवं व्यजिज्ञपत् ॥ ४० ॥
तब राहुको आकाशमें छोड़कर वह पुरुष महादेवजीके पास आकर दीनवाणीमें कहने लगा- ॥ ४० ॥

पुरुष उवाच
देवदेव महादेव करुणाकर शंकर ।
त्याजितं मम भक्ष्यं ते शरणागतवत्सलः ॥ ४१ ॥
क्षुधा मां बाधते स्वामिन्क्षुत्क्षामश्चास्मि सर्वथा ।
किं भक्ष्यं मम देवेश तदाज्ञापय मां प्रभो ॥ ४२ ॥
पुरुष बोला-हे देवदेव ! महादेव ! हे करुणाकर ! हे शंकर ! हे शरणागतवत्सल ! आपने मेरे भक्ष्यको छुड़ा दिया । हे स्वामिन् ! इस समय मुझको भूख कष्ट दे रही है, मैं भूखसे अत्यन्त दुर्बल हो गया हूँ । हे देवेश ! हे प्रभो ! मेरा क्या भक्ष्य है, उसे मुझे बताइये ॥ ४१-४२ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य पुरुषस्य महाप्रभुः ।
प्रत्युवाचाद्‌भुतोतिः स कौतुकी स्वहितङ्‌करः ॥ ४३ ॥
सनत्कुमार बोले-उस पुरुषका यह वचन सुनकर अद्‌भुत लीला करनेवाले तथा भक्तोंका कल्याण करनेवाले कौतुकी महाप्रभुने कहा- ॥ ४३ ॥

महेश्वर उवाच
बुभुक्षा यदि तेऽतीव क्षुधा त्वां बाधते यदि ।
सम्भक्षयात्मनः शीघ्रं मांसं त्वं हस्तपादयोः ॥ ४४ ॥
महेश्वर बोले-यदि तुम्हें बहुत भूख लगी है और तुम भूखसे व्याकुल हो रहे हो, तो तुम शीघ्र अपने हाथों एवं पैरोंके मांसका भक्षण करो ॥ ४४ ॥

सनत्कुमार उवाच
शिवेनैवमाज्ञप्तश्चखाद पुरुषः स्वकम् ।
हस्तपादोद्‌भवं मांसं शिरः शेषोऽभवद्यथा ॥ ४५ ॥
दृष्ट्‍वा शिरोवशेषं तु सुप्रसन्नःसदाशिवः ।
पुरुषं भीमकर्माणं तमुवाच सविस्मयः ॥ ४६ ॥
सनत्कुमार बोले-इस प्रकार शिवजीके द्वारा आदिष्ट वह पुरुष अपने हाथों तथा पैरोंका मांस भक्षण करने लगा । जब केवल सिरमात्र शेष रह गया, तब सिरमात्र शेष देखकर वे सदाशिव उसपर बहुत प्रसन्न होकर आश्चर्यचकित हो उस भयंकर कर्मवाले पुरुषसे कहने लगे- ॥ ४५-४६ ॥

शिव उवाच
हे महागण धन्यस्त्वं मदाज्ञाप्रतिपालकः ।
सन्तुष्टश्चास्मि तेऽतीव कर्मणानेन सत्तम ॥ ४७ ॥
त्वं कीर्तिमुखसञ्ज्ञो हि भव मद्‍द्वारकः सदा ।
महागणो महावीरः सर्वदुष्टभयङ्‌करः ॥ ४८ ॥
शिवजी बोले-हे महागण ! मेरी आज्ञाका पालन करनेवाले तुम धन्य हो, हे सत्तम ! मैं तुम्हारे इस कर्मसे अत्यन्त ही प्रसन्न हूँ । आजसे तुम्हारा नाम कीर्तिमुख होगा, तुम महावीर एवं सभी दुष्टोंके लिये भयंकर महागण होकर मेरे द्वारपाल बनो ॥ ४७-४८ ॥

मत्प्रियस्त्वं मदर्चायां सदा पूज्योऽहि मज्जनैः ।
त्वदर्चां ये न कुर्वन्ति नैव ते मत्प्रियङ्‌कराः ॥ ४९ ॥
तुम मेरे अत्यन्त प्रिय हो और मेरे भक्तजन मेरी अर्चनाके समय सदा तुम्हारी भी पूजा करेंगे. जो लोग तुम्हारी पूजा नहीं करेंगे, वे मुझे प्रिय नहीं होंगे ॥ ४९ ॥

सनत्कुमार उवाच
इति शम्भोर्वरं प्राप्य पुरुषः प्रजहर्ष सः ।
तदाप्रभृति देवेश द्वारे कीर्तिमुखः स्थितः ॥ ५० ॥
सनत्कुमार बोले-शिवजीसे इस प्रकारका वरदान प्राप्तकर वह पुरुष अत्यन्त प्रसन्न हो गया और उसी समयसे वह कीर्तिमुख शिवजीके द्वारपर रहने लगा ॥ ५० ॥

पूजनीयो विशेषेण स गणःशिवपूजने ।
नार्चयन्तीह ये पूर्वं तेषामर्चा वृथा भवेत् ॥ ५१ ॥
अतः शिवपूजामें उस गणकी विशेषरूपसे पूजा करनी चाहिये, जो पहले उसकी पूजा नहीं करते हैं, उनकी पूजा व्यर्थ हो जाती है ॥ ५१ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखण्डे
जलन्धरवधोपाख्याने दूतसंवादो नाम एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुजसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें जलन्धरवधोपाख्यानमें दूतसंवादवर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १९ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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