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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

सप्तविंशोऽध्यायः

शङ्‌खचूडोत्पत्तिवर्णनम् -
शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा -


सनत्कुमार उवाच
अथान्यच्छम्भुचरितं प्रेमतः शृणु वै मुने ।
यस्य श्रवणमात्रेण शिवभक्तिर्दृढा भवेत् ॥ १ ॥
सनत्कुमार बोले-हे मुने ! अब आप शंकरजीका एक और चरित प्रेमपूर्वक सुनिये, जिसके सुननेमात्रसे शंकरजीके प्रति दृढ़ भक्ति उत्पन्न हो जाती है ॥ १ ॥

शङ्‌खचूडाभिधो वीरो दानवो देवकंटकः ।
यथा शिवेन निहतो रणमूर्ध्नि त्रिशूलतः ॥ २ ॥
तच्छम्भुचरितं दिव्यं पवित्रं पापनाशनम् ।
शृणु व्यास सुसम्प्रीत्या वच्मि सुस्नेहतस्तव ॥ ३ ॥
एक शंखचूड नामक दानव था, जो महावीर और देवताओंके लिये कण्टक था । शिवजीने त्रिशूलसे जिस प्रकार युद्धभूमिमें उसका वध किया, हे व्यासजी ! उस पवित्र, पापनाशक तथा दिव्य चरित्रको आप अत्यन्त प्रेमपूर्वक सुनिये, मैं आपके स्नेहसे उसको कह रहा हूँ ॥ २-३ ॥

मरीचेस्तनयो धातुः पुत्रो यः कश्यपो मुनिः ।
स धर्मिष्ठःसृष्टिकर्त्ता विद्याज्ञप्तः प्रजापतिः ॥ ४ ॥
पूर्व समयमें ब्रह्माजीके मरीचि नामक पुत्र हुए । उन मरीचिके पुत्र जो कश्यप मुनि हुए, वे बड़े धर्मशील, सृष्टिकर्ता, विद्यावान् तथा प्रजापति थे ॥ ४ ॥

दक्षः प्रीत्या ददौ तस्मै निजकन्यास्त्रयोदश ।
तासां प्रसूतिः प्रसभं न कथ्या बहुविस्तृताः ॥ ५ ॥
यत्र देवादिनिखिलं चराचरमभूज्जगत् ।
विस्तरात्तत्प्रवक्तुं च कः क्षमोऽस्ति त्रिलोकके ॥ ६ ॥
प्रस्तुतं शृणु वृत्तान्तं शम्भुलीलान्वितं च यत् ।
तदेव कथयाम्यद्य शृणु भक्तिप्रवर्द्धनम् ॥ ७ ॥
तासु कश्यपत्नीषु दनुस्त्वेका वराङ्‌गना ।
महारूपवती साध्वी पतिसौभाग्यवर्द्धिता ॥ ८ ॥
दक्षने उन्हें प्रेमपूर्वक अपनी तेरह कन्याएँ प्रदान की, उनकी बहुत-सी सन्तानें हुई, जिन्हें विस्तारसे यहाँ कहना सम्भव नहीं है । उनसे ही सम्पूर्ण देवता तथा चराचर जगत् उत्पन्न हुआ । तीनों लोकोंमें उनको विस्तारसे कहने में कौन समर्थ है ? अब प्रस्तुत वृत्तान्तको सुनिये, जो शिवलीलासे युक्त तथा भक्तिको बढ़ानेवाला है, मैं उसको कह रहा हूँ, सुनिये । कश्यपकी उन स्त्रियोंमें एक दनु नामवाली थी, जो सुन्दरी, महारूपवती, साध्वी एवं पतिके सौभाग्यसे सम्पन्न थी ॥ ५-८ ॥

आसंस्तस्या दनोः पुत्रा बहवो बलवत्तराः ।
तेषां नामानि नोच्यन्ते विस्तारभयतो मुने ॥ ९ ॥
उस दनुके अनेक बलवान् पुत्र थे । हे मुने ! विस्तारके भयसे मैं उनके नामोंको यहाँ नहीं बता रहा हूँ ॥ ९ ॥

तेष्वेको विप्रचित्तिस्तु महाबलपराक्रमः ।
तत्पुत्रो धार्मिको दम्भो विष्णुभक्तो जितेन्द्रियः ॥ १० ॥
नासीत्तत्तनयो वीरस्ततश्चिन्तापरोऽभवत् ।
शुक्राचार्यं गुरुं कृत्वा कृष्णमन्त्रमवाप्य च ॥ ११ ॥
तपश्चकार परमं पुष्करे लक्षवर्षकम् ।
कृष्णमन्त्रं जजापैव दृढं बद्धासनं चिरम् ॥ १२ ॥
उनमें एक विप्रचित्ति नामवाला दानव था, जो महाबली और पराक्रमी था । उसका दम्भ नामक पुत्र धार्मिक, विष्णुभक्त तथा जितेन्द्रिय हुआ । उसे कोई पुत्र नहीं था, इसलिये वह चिन्ताग्रस्त रहता था । उसने शुक्राचार्यको गुरु बनाकर उनसे कृष्णमन्त्र प्राप्त करके पुष्कर क्षेत्रमें एक लाख वर्षपर्यन्त घोर तपस्या की । उसने दृढ़तापूर्वक आसन लगाकर दीर्घकालतक कृष्णमन्त्रका जप किया ॥ १०-१२ ॥

तपः प्रकुर्वतस्तस्य मूर्ध्नो निःसृत्य प्रज्वलत् ।
विससार च सर्वत्र तत्तेजो हि सुदुःसहम् ॥ १३ ॥
तपस्या करते हुए उस दैत्यके सिरसे एक जलता हुआ दुःसह तेज निकलकर चारों ओर फैलने लगा ॥ १३ ॥

तेन तप्ताः सुराःसर्वे मुनयो मनवस्तथा ।
सुनासीरं पुरस्कृत्य ब्रह्माणं शरणं ययुः ॥ १४ ॥
प्रणम्य च विधातारं दातारं सर्वसम्पदाम् ।
तुष्टुवुर्विकलाः प्रोचुः स्ववृत्तान्तं विशेषतः ॥ १५ ॥
उस तेजसे सभी देवता, मुनि एवं मनुगण सन्तप्त हो उठे और इन्द्रको आगेकर वे ब्रह्माजीकी शरणमें गये । उन लोगोंने सम्पूर्ण सम्पत्तियोंके दाता ब्रह्माजीको प्रणाम करके उनकी स्तुति की और व्याकुल होकर अपना वृत्तान्त विशेषरूपसे निवेदन किया ॥ १४-१५ ॥

तदाकर्ण्य विधातापि वैकुण्ठं तैर्ययौ सह ।
तदेव विज्ञापयितुं निखिलेन हि विष्णवे ॥ १६ ॥
उसे सुनकर ब्रह्मा भी उन देवताओंको साथ लेकर उसे पूर्णरूपसे विष्णुसे कहनेके लिये वैकुण्ठलोक गये ॥ १६ ॥

तत्र गत्वा त्रिलोकेशं विष्णुं रक्षाकरं परम् ।
प्रणम्य तुष्टुवुःसर्वे करौ बद्ध्वा विनम्रकाः ॥ १७ ॥
वहाँ जाकर सबकी रक्षा करनेवाले त्रिलोकेश विष्णुको हाथ जोड़कर प्रणाम करके विनम्र होकर वे सब उनकी स्तुति करने लगे ॥ १७ ॥

देवा ऊचुः
देवदेव न जानीमो जातं किं कारणं त्विह ।
सन्तप्ताः सकला जातास्तेजसा केन तद्वद ॥ १८ ॥
तप्तात्मनां त्वमविता दीनबन्धोऽनुजीविनाम् ।
रक्षरक्ष रमानाथ शरण्यः शरणागतान् ॥ १९ ॥
देवता बोले-हे देवदेव ! हम नहीं जानते कि किस तेजसे हम सभी अत्यधिक सन्तप्त हो रहे हैं, इसमें कौन-सा कारण है, उसे आप बताइये ? हे दीनबन्धो । आप सन्तप्तचित्त अपने सेवकोंकी रक्षा करनेवाले हैं । हे रमानाथ ! आप [सबको] शरण देनेवाले हैं । हम शरणागतोंकी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ॥ १८-१९ ॥

सनत्कुमार उवाच
इति श्रुत्वा वचो विष्णुर्ब्रह्मादीनां दिवौकसाम् ।
उवाच विहसन्प्रेम्णा शरणागतवत्सलः ॥ २० ॥
सनत्कुमार बोले-ब्रह्मादि देवताओंकी यह बात सुनकर शरणागतवत्सल भगवान् विष्णुजी हँसते हुए प्रेमपूर्वक कहने लगे- ॥ २० ॥

विष्णुरुवाच
सुस्वस्था भवताव्यग्रा न भयं कुरुतामराः ।
नोपप्लवा भविष्यन्ते लयकालो न विद्यते ॥ २१ ॥
दानवो दम्भनामा हि मद्‌भक्तः कुरुते तपः ।
पुत्रार्थी शमयिष्यामि तमहं वरदानतः ॥ २२ ॥
विष्णुजी बोले-हे देवताओ ! आपलोग निश्चिन्त तथा शान्त रहिये और भयभीत न होइये, प्रलयकाल अभी उपस्थित नहीं हुआ है और न तो कोई उपद्रव ही होनेवाला है । मेरा भक्त दम्भ नामक दानव तप कर रहा है, वह पुत्र चाहता है, इसलिये मैं उसे वरदान देकर शान्त कर दूंगा ॥ २१-२२ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्युक्तास्ते सुराःसर्वे धैर्यमालम्ब्य वै मुने ।
ययुर्ब्रह्मादयःसुस्थाः स्वस्वधामानि सर्वशः ॥ २३ ॥
सनत्कुमार बोले-हे मुने ! विष्णुजीके ऐसा कहनेपर ब्रह्मा आदि वे सभी देवता धैर्य धारणकर पूर्णरूपसे स्वस्थ होकर अपने-अपने निवासस्थानको चले गये ॥ २३ ॥

अच्युतोऽपि वरं दातुं पुष्करं सञ्जगाम ह ।
तपश्चरति यत्रासौ दम्भनामा हि दानवः ॥ २४ ॥
भगवान् विष्णु भी वर देनेके लिये पुष्कर क्षेत्रमें गये, जहाँ वह दम्भ नामक दानव तप कर रहा था ॥ २४ ॥

तत्र गत्वा वरं ब्रूहीत्युवाच परिसान्त्वयन् ।
गिरा सूनृतया भक्तं जपन्तं स्वमनुं हरिः ॥ २५ ॥
तच्छ्रुत्वा वचनं विष्णोर्दृष्ट्‍वा तं च पुरः स्थितम् ।
प्रणनाम महाभक्त्या तुष्टाव च पुनः पुनः ॥ २६ ॥
वहाँ जाकर विष्णुने अपने मन्त्रका जप करते हुए उस भक्तको सान्त्वना देते हुए मधुर वाणीमें कहा-वर माँगो । तब विष्णुका यह वचन सुनकर तथा उनको अपने सामने खड़ा देखकर उसने महाभक्तिसे उन्हें प्रणाम किया तथा बार-बार उनकी स्तुति की- ॥ २५-२६ ॥

दम्भ उवाच
देवदेव नमस्तेऽस्तु पुण्डरीकविलोचन ।
रमानाथ त्रिलोकेश कृपां कुरु ममोपरि ॥ २७ ॥
स्वभक्तं तनयं देहि महाबल पराक्रमम् ।
त्रिलोकजयिनं वीरमजेयं च दिवौकसाम् ॥ २८ ॥
दम्भ बोला-हे देवदेव ! हे कमललोचन ! हे रमानाथ ! हे त्रिलोकेश ! आपको प्रणाम है, मेरे ऊपर कृपा कीजिये । आप मुझे महाबली, पराक्रमी, तीनों लोकोंको जीतनेवाला, वीर, देवताओंके लिये अजेय तथा आपकी भक्तिसे युक्त पुत्र प्रदान कीजिये ॥ २७-२८ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्युक्तो दानवेन्द्रेण तं वरं प्रददौ हरिः ।
निवर्त्य चोग्रतपसस्ततःसोन्तरधान्मुने ॥ २९ ॥
सनत्कुमार बोले-दानवेन्द्रके इस प्रकार कहनेपर नारायणने उसे वैसा ही वरदान दिया और हे मुने ! उसे तपस्यासे विरतकर वे अन्तर्धान हो गये ॥ २९ ॥

गते हरौ दानवेन्द्रः कृत्वा तस्यै दिशे नमः ।
जगाम स्वगृहं सिद्धतदाः पूर्ण मनोरथः ॥ ३० ॥
भगवान्के अन्तर्धान हो जानेपर सिद्ध हुए तपवाला तथा पूर्ण मनोरथवाला वह दानव उस दिशाको नमस्कार करके अपने घर चला गया ॥ ३० ॥

कालेनाल्पेन तत्पत्नी सगर्भा भाग्यवत्यभूत् ।
रराज तेजसात्यन्तं रोचयन्ती गृहान्तरम् ॥ ३१ ॥
इसके बाद थोड़े ही समयमें उसकी भाग्यवती पत्नीने गर्भ धारण किया और अपने तेजसे घरको प्रकाशित करती हुई वह शोभा प्राप्त करने लगी ॥ ३१ ॥

सुदामानाम गोपो यो कृष्णस्य पार्षदाग्रणीः ।
तस्या गर्भे विवेशासौ राधाशप्तश्च यन्मुने ॥ ३२ ॥
असूत समये साध्वी सुप्रभं तनयं ततः ।
जातकं सुचकारासौ पिताऽऽहूय मुनीन्बहून् ॥ ३३ ॥
हे मुने ! सुदामा नामक गोप, जो कृष्णका प्रधान पार्षद था, जिसे राधाने शाप दिया था, वही उसके गर्भमें आया । समय आनेपर उस साध्वीने तेजस्वी पुत्रको जन्म दिया । इसके अनन्तर पिताने बहुत से मुनियोंको बुलाकर उसका जातकर्म-संस्कार कराया ॥ ३२-३३ ॥

उत्सवःसुमहानासीत्तस्मिञ्जाते द्विजोत्तम ।
नाम चक्रे पिता तस्य शङ्‌खचूडेति सद्दिने ॥ ३४ ॥
पितुर्गेहे स ववृधे शुक्लपक्षे यथा शशी ।
शैशवेभ्यस्तविद्यस्तु स बभूव सुदीप्तिमान् ॥ ३५ ॥
हे द्विजश्रेष्ठ ! उसके उत्पन्न होनेपर महान् उत्सव हुआ और पिताने शुभ दिनमें उसका शंखचूड-यह नाम रखा । वह [शंखचूड] पिताके घरमें शुक्लपक्षके चन्द्रमाके समान बढ़ने लगा और बाल्यावस्थामें ही विद्याका अभ्यासकर अत्यन्त तेजस्वी हो गया ॥ ३४-३५ ॥

स बालक्रीडया नित्यं पित्रोर्हर्षं ततान ह ।
प्रियो बभूव सर्वेषां कुलजानां विशेषतः ॥ ३६ ॥
वह अपनी बालक्रीडासे माता-पिताके हर्षको नित्य बढ़ाने लगा । वह सभीको प्रिय हुआ और अपने कुटुम्बियोंको विशेष प्रिय हुआ ॥ ३६ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे
युद्धखण्डे शङ्‌खचूडोत्पत्तिवर्णनं नाम सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें शंखचूजोत्पत्तिवर्णन नामक सत्ताईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २७ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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