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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे
षड्विंशोऽध्यायः जलन्धरवधानन्तरदेवीस्तुतिविष्णुमोहविध्वंसवर्णनम् -
विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति, मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान - व्यास उवाच ब्रह्मपुत्र नमस्तेऽस्तु धन्यस्त्वं शैवसत्तम । यच्छ्राविता महादिव्या कथेयं शाङ्करी शुभा ॥ १ ॥ इदानीं ब्रूहि सुप्रीत्या चरितं वैष्णवं मुने । स वृन्दां मोहयित्वा तु किमकार्षीत्कुतो गतः ॥ २ ॥ व्यासजी बोले-हे ब्रह्मपुत्र ! आपको नमस्कार है । हे श्रेष्ठ शिवभक्त ! आप धन्य हैं, जो आपने शंकरजीकी यह महादिव्य शुभ कथा सुनायी । हे मुने ! अब आप प्रेमपूर्वक श्रीविष्णुजीके चरित्रको सुनाइये, उन्होंने वृन्दाको मोहितकर क्या किया और वे कहाँ गये ? ॥ १-२ ॥ सनत्कुमार उवाच शृणु व्यास महाप्राज्ञ शैवप्रवर सत्तम । वैष्णवं चरितं शम्भुचरिताढ्यं सुनिर्मलम् ॥ ३ ॥ मौनीभूतेषु देवेषु ब्रह्मादिषु महेश्वरः । सुप्रसन्नोऽवदच्छम्भुः शरणागतवत्सलः ॥ ४ ॥ सनत्कुमार बोले-हे महाप्राज्ञ ! हे शिवभक्तोंमें श्रेष्ठ व्यासजी ! अब आप शिवचरित्रसे परिपूर्ण तथा निर्मल विष्णुचरित्रको सुनिये । जब ब्रह्मादिक देवता [स्तुतिकर] मौन हो गये, तब शरणागतवत्सल शंकर अति प्रसन्न होकर कहने लगे- ॥ ३-४ ॥ शम्भुरुवाच ब्रह्मन्देववराः सर्वे भवदर्थे मया हतः । जलन्धरो मदंशोपि सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥ ५ ॥ सुखमापुर्न वा ताताः सत्यं ब्रूतामराः खलु । भवत्कृते हि मे लीला निर्विकारस्य सर्वदा ॥ ६ ॥ शम्भु बोले-हे ब्रह्मन् ! हे सभी श्रेष्ठ देवगण ! मैं यह सत्य-सत्य कह रहा हूँ कि यद्यपि जलन्धर मेरा ही अंश था, फिर भी मैंने आपलोगोंके लिये उसका वध किया । हे तात ! हे देवतागण ! आपलोग सचसच बताइये कि आपलोगोंको सुख प्राप्त हुआ अथवा नहीं । सर्वदा मुझ निर्विकारकी लीला आपलोगोंके निमित्त ही हुआ करती है ॥ ५-६ ॥ सनत्कुमार उवाच अथ ब्रह्मादयो देवा हर्षादुत्फुल्ललोचनाः । प्रणम्य शिरसा रुद्रं शशंसुर्विष्णुचेष्टितम् ॥ ७ ॥ सनत्कुमार बोले-तदनन्तर देवताओंके नेत्र हर्षसे खिल उठे और वे शंकरजीको प्रणामकर विष्णुका वृत्तान्त निवेदन करने लगे ॥ ७ ॥ देवा ऊचुः महादेवा त्वया देव रक्षिताः शत्रुजाद् भयात् । किञ्चिदन्यत्समुद्भूतं तत्र किं करवामहै ॥ ८ ॥ देवता बोले-हे महादेव ! हे देव ! आपने शत्रुओंके भयसे हमारी रक्षा की, किंतु एक बात और हुई है, उसमें हम क्या करें ? ॥ ८ ॥ वृन्दां विमोहिता नाथ विष्णुना हि प्रयत्नतः । भस्मीभूता द्रुतं वह्नौ परमां गतिमागता ॥ ९ ॥ वृन्दालावण्यसम्भ्रान्तो विष्णुस्तिष्ठति मोहितः । तच्चिताभस्मसन्धारी तव मायाविमोहितः ॥ १० ॥ हे नाथ ! विष्णुने बड़े प्रयत्नके साथ वृन्दाको मोहित किया और वह शीघ्र ही अग्निमें भस्म होकर परम गतिको प्राप्त हुई है, किंतु इस समय वृन्दाके लावण्यपर आसक्त हुए विष्णु मोहित होकर उसकी चिताका भस्म धारण करते हैं, वे आपकी मायासे विमोहित हो गये हैं ॥ ९-१० ॥ स सिद्धमुनिसङ्घैश्च बोधितोऽस्माभिरादरात् । न बुध्यते हरिः सोथ तव मायाविमोहितः ॥ ११ ॥ सिद्धों, मुनियों तथा हमलोगोंने उन्हें बड़े आदरके साथ समझाया, किंतु वे हरि आपकी मायासे मोहित होनेके कारण कुछ भी नहीं समझ रहे हैं ॥ ११ ॥ कृपां कुरु महेशान विष्णुं बोधय बोधय । त्वदधीनमिदं सर्वं प्राकृतं सचराचरम् ॥ १२ ॥ अतः हे महेशान ! आप कृपा कीजिये और विष्णुको समझाइये; यह प्राकृत सम्पूर्ण चराचर जगत् आपके ही अधीन है ॥ १२ ॥ सनत्कुमार उवाच इत्याकर्ण्य महेशो हि वचनं त्रिदिवौकसाम् । प्रत्युवाच महालीलः स्वच्छन्दस्तान्कृताञ्जलीन् ॥ १३ ॥ सनत्कुमार बोले-देवगणोंके इस वचनको सुनकर महालीला करनेवाले तथा स्वतन्त्र [भगवान्] शंकर हाथ जोड़े हुए उन देवगणोंसे कहने लगे- ॥ १३ ॥ महेश उवाच हे ब्रह्मन्हे सुराःसर्वे मद्वाक्यं शृणुतादरात् । मोहिनी सर्वलोकानां मम माया दुरत्यया ॥ १४ ॥ तदधीनं जगत्सर्वं यद्देवासुरमानुषम् । तयैव मोहितो विष्णुः कामाधीनोऽभवद्धरिः ॥ १५ ॥ महेश बोले-हे ब्रह्मन् ! हे देवो ! आपलोग श्रद्धापूर्वक मेरे वचनको सुनें । सम्पूर्ण लोकोंको मोहित करनेवाली मेरी माया दुस्तर है । देवता, असुर एवं मनुष्योंके सहित सारा जगत् उसीके अधीन है । उसी मायासे मोहित होनेके कारण विष्णु कामके अधीन हो गये हैं ॥ १४-१५ ॥ उमाख्या सा महादेवी त्रिदेवजननी परा । मूलप्रकृतिराख्याता सुरामा गिरिजात्मिका ॥ १६ ॥ गच्छध्वं शरणा देवा विष्णुमोहापनुत्तये । शरण्यां मोहिनीं मायां शिवाख्यां सर्वकामदाम् ॥ १७ ॥ स्तुतिं कुरुत तस्याश्च मच्छक्तेस्तोषकारिणीम् । सुप्रसन्ना यदि च सा सर्वकार्यं करिष्यति ॥ १८ ॥ वह माया ही उमा नामसे विख्यात है, जो इन तीनों देवताओंकी जननी है । वही मूलप्रकृति तथा परम मनोहर गिरिजाके नामसे विख्यात है । हे देवताओ ! आपलोग विष्णुका मोह दूर करनेके लिये शीघ्र ही शरणदायिनी, मोहिनी तथा सभी कामनाएँ पूर्ण करनेवाली शिवा नामक मायाकी शरणमें जाइये और उस मेरी शक्तिको सन्तुष्ट करनेवाली स्तुति कीजिये, यदि वे प्रसन्न हो जायेंगी तो [आपलोगोंका] सारा कार्य पूर्ण करेंगी ॥ १६-१८ ॥ सनत्कुमार उवाच इत्युक्त्वा तान्सुरान् शम्भुः पञ्चास्यो भगवान्हरः । अन्तर्दधे द्रुतं व्यास सर्वैश्च स्वगणैः सह ॥ १९ ॥ देवाश्च शासनाच्छम्भोर्ब्रह्माद्या हि सवासवाः । मनसा तुष्टुवुर्मूलप्रकृतिं भक्तवत्सलाम् ॥ २० ॥ सनत्कुमार बोले-हे व्यास ! पंचमुख भगवान् शंकर हर उन देवताओंसे ऐसा कहकर अपने सभी गणोंके साथ अन्तर्धान हो गये और शंकरकी आज्ञाके अनुसार इन्द्रसहित ब्रह्मादिक देवता मनसे भक्तवत्सला मूलप्रकृतिकी स्तुति करने लगे ॥ १९-२० ॥ देवा ऊचुः यदुद्भवाःसत्त्वरजस्तमोगुणाः सर्गस्थितिध्वंसविधानकारका । यदिच्छया विश्वमिदं भवाभवौ तनोति मूलप्रकृतिं नताः स्म ताम् ॥ २१ ॥ पाहि त्रयोविंशगुणान् सुशब्दितान् जगत्यशेषे समधिष्ठिता परा । यद्रूपकर्माणिजगत्त्रयोऽपि ते विदुर्न मूलप्रकृतिं नताः स्म ताम् ॥ २२ ॥ देवता बोले-जिस मूलप्रकृतिसे उत्पन्न हुए सत्व, रज और तम-ये गुण इस सृष्टिका सृजन, पालन तथा संहार करते हैं और जिसकी इच्छासे इस विश्वका आविर्भाव तथा तिरोभाव होता है, उस मूलप्रकृतिको हम नमस्कार करते हैं । जो परा शक्ति शब्द आदि तेईस गुणोंसे समन्वित हो इस जगत्में व्याप्त है, जिसके रूप और कर्मको वे तीनों लोक नहीं जानते, उस मूलप्रकृतिको हम नमस्कार करते हैं ॥ २१-२२ ॥ यद्भक्तियुक्ताः पुरुषास्तु नित्यं दारिद्र्यमोहात्ययसम्भवादीन् । न प्राप्नुवन्त्येव हि भक्तवत्सलां सदैव मूलप्रकृतिं नताः स्म ताम् ॥ २३ ॥ जिनकी भक्तिसे युक्त पुरुष दारिख्य, मोह, उत्पत्ति तथा विनाश आदिको नहीं प्राप्त करते हैं, उन भक्तवत्सला मूलप्रकृतिको हम नमस्कार करते हैं ॥ २३ ॥ कुरु कार्यं महादेवि देवानां नः परेश्वरि । विष्णुमोहं ह शिवे दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते ॥ २४ ॥ हे महादेवि ! हे परमेश्वरि ! हम देवताओंका कार्य कीजिये । हे शिवे ! विष्णुके मोहको दूर कीजिये । हे दुर्गे ! आपको नमस्कार है ॥ २४ ॥ जलन्धरस्य शम्भोश्च रणे कैलासवासिनः । प्रवृत्ते तद्वधार्थाय गौरीशासनतः शिवे ॥ २५ ॥ वृन्दा विमोहिता देवि विष्णुना हि प्रयत्नतः । स्ववृषात्त्याजिता वह्नौ भस्मीभूता गतिं गता ॥ २६ ॥ हे देवि ! कैलासवासी शंकर एवं जलन्धरके युद्धमें उसका वध करनेके लिये शिवके प्रवृत्त होनेपर गौरीके आदेशसे ही विष्णुने बड़े प्रयत्नके साथ वृन्दाको मोहित किया और उसका सतीत्व नष्ट किया । तब वह अग्निमें भस्म हो गयी और उत्तम गतिको प्राप्त हुई । २५-२६ ॥ जलन्धरो हतो युद्धे तद्भयान्मोचिता वयम् । गिरिशेन कृपां कृत्वा भक्तानुग्रहकारिणा ॥ २७ ॥ तब भक्तोंपर अनुग्रह करनेवाले शंकरने हमलोगोंपर कृपा करके जलन्धरका वध कर दिया और हम सभीको उसके भयसे मुक्त भी कर दिया है ॥ २७ ॥ तदाज्ञया वयं सर्वे शरणं ते समागताः । त्वं हि शम्भुर्युवां देवि भक्तोद्धारपरायणौ ॥ २८ ॥ हे देवि ! हम सभी उन शंकरकी आज्ञासे आपकी शरणमें आये हैं; क्योंकि आप और शंकर दोनों ही अपने भक्तोंका उद्धार करनेमें निरत रहते हैं ॥ २८ ॥ वृन्दालावण्यसम्भ्रातो विष्णुस्तिष्ठति तत्र वै । तच्चिताभस्मसन्धारी ज्ञानभ्रष्टो विमोहितः ॥ २९ ॥ [हे भगवति !] वृन्दाके लावण्यसे भ्रमित हुए विष्णु इस समय ज्ञानसे भ्रष्ट तथा विमोहित होकर उसकी चिताका भस्म धारणकर वहीं स्थित हैं ॥ २९ ॥ संसिद्धसुरसङ्घैश्च बोधितोऽपि महेश्वरि । न बुध्यते हरिःसोथ तव मायाविमोहितः ॥ ३० ॥ कृपां कुरु महादेवि हरिं बोधय बोधय । यथा स्वलोकं पायात्स सुचित्तः सुरकार्यकृत् ॥ ३१ ॥ हे महेश्वरि ! आपकी मायासे मोहित होनेके कारण सिद्धों तथा देवताओंके द्वारा समझाये जानेपर भी वे विष्णु नहीं समझ रहे हैं । हे महादेवि ! कृपा कीजिये और विष्णुको समझाइये, जिससे देवताओंका कार्य करनेवाले वे विष्णु स्वस्थचित्त होकर अपने लोककी रक्षा करें ॥ ३०-३१ ॥ इति स्तुवन्तस्ते देवाः तेजोमण्डलमास्थितम् । ददृशुर्गगने तत्र ज्वालाव्याप्तादिगन्तरम् ॥ ३२ ॥ तन्मध्याद्भारतीं सर्वे ब्रह्माद्याश्च सवासवाः । अमराः शुश्रुवुर्व्यास कामदां व्योमचारिणीम् ॥ ३३ ॥ इस प्रकारको स्तुति करते हुए देवताओंने अपनी कान्तिसे समस्त दिशाओंको व्याप्त किये हुए एक तेजोमण्डलको आकाशमें स्थित देखा । हे व्यास ! इन्द्रसहित ब्रह्मा आदि सभी देवताओंने मनोरथोंको देनेवाली आकाशवाणी उस [तेजोमण्डल] के मध्यसे सुनी ॥ ३२-३३ ॥ आकाशवाण्युवाच अहमेव त्रिधा भिन्ना तिष्ठामि त्रिविधैर्गुणैः । गौरी लक्ष्मीः सुरा ज्योती रजःसत्त्वतमोगुणैः ॥ ३४ ॥ तत्र गच्छत यूयं वै तासामन्तिक आदरात् । मदाज्ञया प्रसन्नास्ता विधास्यन्ते तदीप्सितम् ॥ ३५ ॥ आकाशवाणी बोली-हे देवताओ ! मैं ही तीन प्रकारके गुणोंके द्वारा अलग-अलग तीन रूपोंमें स्थित हूँ: रजोगुणरूपसे गौरी, सत्त्वगुणसे लक्ष्मी तथा तमोगुणसे सुराज्योतिके रूपमें स्थित हूँ । अत: आपलोग मेरी आज्ञासे उन देवियोंके समीप आदरपूर्वक जाइये, वे प्रसन्न होकर उस मनोरथको पूर्ण करेंगी ॥ ३४-३५ ॥ सनत्कुमार उवाच शृण्वतामिति तां वाचमन्तर्द्धानमगान्महः । देवानां विस्मयोत्फुल्लनेत्राणां तत्तदा मुने ॥ ३६ ॥ ततःसर्वेऽपि ते देवाः श्रुत्वा तद्वाक्यमादरात् । गौरीं लक्ष्मीं सुरां चैव नेमुस्तद्वाक्यचोदिताः ॥ ३७ ॥ सनत्कुमार बोले-हे मुने ! विस्मयसे उत्फुल्ल नेत्रोंवाले देवताओंद्वारा उस वाणीको सुनते ही वह तेज अन्तर्धान हो गया । तत्पश्चात् सभी देवगण उस आकाश-वाणीको सुनकर तथा उस वाक्यसे प्रेरित होकर गौरी, लक्ष्मी तथा सुरादेवीको प्रणाम करने लगे ॥ ३६-३७ ॥ तुष्टुवुश्च महाभक्त्या देवीस्ताः सकलाःसुराः । नानाविधाभिर्वाग्भिस्ते ब्रह्माद्या नतमस्तकाः ॥ ३८ ॥ ब्रह्मादि सभी देवताओंने नतमस्तक होकर विविध स्तुतियोंसे परम भक्तिपूर्वक उन देवियोंकी स्तुति की ॥ ३८ ॥ ततोऽरं व्यास देव्यस्ता आविर्भूताश्च तत्पुरः । महाद्भुतैः स्वतेजोभिर्भासयन्त्यो दिगन्तरम् ॥ ३९ ॥ अथ ता अमरा दृष्ट्वा सुप्रसन्नेन चेतसा । प्रणम्य तुष्टुवुर्भक्त्या स्वकार्यं च न्यवेदयन् ॥ ४० ॥ हे व्यासजी ! तब वे देवियाँ अपने अद्भुत तेजसे सभी दिशाओंको प्रकाशित करती हुई शीघ्र ही उनके समक्ष प्रकट हो गयौं । तब देवताओंने उन देवियोंको देखकर अत्यन्त प्रसन्नमनसे उन्हें प्रणाम करके भक्तिसे उनकी स्तुति की और अपना कार्य निवेदित किया ॥ ३९-४० ॥ ततश्चैताः सुरान्दृष्ट्वा प्रणतान्भक्तवत्सलः । बीजानि प्रददुस्तेभ्यो वाक्यमूचुश्च सादरम् ॥ ४१ ॥ इसके बाद भक्तवत्सला उन देवियोंने प्रणाम करते हुए देवताओंको देखकर उन्हें अपना-अपना बीज दिया और आदरपूर्वक उनसे यह वचन कहा- ॥ ४१ ॥ देव्य ऊचुः इमानि तत्र बीजानि विष्णुर्यत्रावतिष्ठति । निर्वपध्वं ततः कार्यं भवतां सिद्धिमेष्यति ॥ ४२ ॥ देवियाँ बोलीं-हे देवगणो !] जहाँ विष्णु स्थित हैं, वहाँ इन बीजोंको बो देना, इससे आपलोगोंका कार्य सिद्ध हो जायगा ॥ ४२ ॥ सनत्कुमार उवाच इत्युक्त्वा तास्ततो देव्योऽन्तर्हिता अभवन्मुने । रुद्रविष्णुविधीनां हि शक्तयस्त्रिगुणात्मिकाः ॥ ४३ ॥ ततस्तुष्टाः सुराःसर्वे ब्रह्माद्याश्च सवासवाः । तानि बीजानि सङ्गृह्य ययुर्यत्र हरिः स्थितः ॥ ४४ ॥ सनत्कुमार बोले-हे मुने ! इस प्रकार कहकर वे देवियाँ अन्तर्धान हो गयीं । वे ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्रकी त्रिगुणात्मक शक्तियाँ थीं । तब इन्द्रसहित ब्रह्मा आदि सभी देवता प्रसन्न हो गये और उन बीजोंको लेकर वहाँ गये, जहाँ भगवान् विष्णु स्थित थे ॥ ४३-४४ ॥ वृन्दाचिताभूमितले चिक्षिपुस्तानि ते सुराः । स्मृत्वा ताः संस्थितास्तत्र शिवशक्त्यंशका मुने ॥ ४५ ॥ हे मुने ! उन देवताओंने वृन्दाकी चिताके नीचे भूतलपर उन बीजोंको डाल दिया और उन शिव-शक्तियोंका स्मरण करके वे वहींपर स्थित हो गये ॥ ४५ ॥ निक्षिप्तेभ्यश्च बीजेभ्यो वनस्पत्यस्त्रयोऽभवन् । धात्री च मालती चैव तुलसी च मुनीश्वर ॥ ४६ ॥ धात्र्युद्भवा स्मृता धात्री माभवा मालती स्मृता । गौरीभवा च तुलसी तमःसत्त्वरजोगुणाः ॥ ४७ ॥ हे मुनीश्वर ! उन डाले गये बीजोंसे धात्री, मालाती तथा तुलसी नामक तीन वनस्पतियाँ उत्पन्न हो गयीं । धात्रीके अंशसे धात्री, महालक्ष्मीके अंशसे मालाती तथा गौरीके अंशसे तुलसी हुई, जो तम, सत्त्व तथा रजोगुणसे युक्त थीं ॥ ४६-४७ ॥ विष्णुर्वनस्पतीर्दृष्ट्वा तदा स्त्रीरूपिणीर्मुने । उदतिष्ठत्तदा तासु रागातिशयविभ्रमः ॥ ४८ ॥ दृष्ट्वा स याचते मोहात्कामासक्तेन चेतसा । तं चापि तुलसी धात्री रागेणैवावलोकताम् ॥ ४९ ॥ हे मुने ! तब स्त्रीरूपिणी उन वनस्पतियोंको देखकर उनके प्रति विशेष रागविलासके विभ्रमसे युक्त होकर विष्णुजी उठ बैठे । उन्हें देखकर मोहके कारण कामासक्त चित्तसे वे उनके प्रेमकी याचना करने लगे । तुलसी एवं धात्रीने भी रागपूर्वक उनका अवलोकन किया ॥ ४८-४९ ॥ यच्च बीजं पुरा लक्ष्म्या माययैव समर्पितम् । तस्मात्तदुद्भवा नारी तस्मिन्नीर्ष्यापराभवत् ॥ ५० ॥ अतःसा बर्बरीत्याख्यामवापातीव गर्हिताम् । धात्रीतुलस्यौ तद्रागात्तस्य प्रीतिप्रदे सदा ॥ ५१ ॥ सर्वप्रथम लक्ष्मीने जिस बीजको मायासे देवताओंको दिया था, उससे उत्पन्न हुई स्त्री मालती उनसे इं करने लगी । इसलिये वह बर्बरी-इस गर्हित नामसे पृथ्वीपर विख्यात हुई और धात्री तथा तुलसी रागके कारण उन विष्णुके लिये सदा प्रीतिप्रद हुई ॥ ५०-५१ ॥ ततो विस्मृतदुःखोऽसौ विष्णुस्ताभ्यां सहैव तु । वैकुण्ठमगमत्तुष्टः सर्वदेवैर्नमस्कृतः ॥ ५२ ॥ कार्तिके मासि विप्रेन्द्र धात्री च तुलसी सदा । सर्वदेवप्रियाज्ञेया विष्णोश्चैव विशेषतः ॥ ५३ ॥ तत्रापि तुलसी धन्यातीव श्रेष्ठा महामुने । त्यक्त्वा गणेशं सर्वेषां प्रीतिदा सर्वकामदा ॥ ५४ ॥ तब विष्णुका दुःख दूर हो गया और वे सभी देवताओंसे नमस्कृत होते हुए प्रसन्न होकर उन दोनोंके साथ वैकुण्ठ-लोकको चले गये । हे विप्रेन्द्र । कार्तिकके महीनेमें धात्री और तुलसीको सभी देवताओंके लिये प्रिय जानना चाहिये और विशेष करके ये विष्णुको अत्यन्त प्रिय हैं । हे महामुने ! उन दोनोंमें भी तुलसी अत्यन्त श्रेष्ठ तथा धन्य है । यह गणेशको छोड़कर सभी देवताओंको प्रिय है तथा सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाली है ॥ ५२-५४ ॥ वैकुण्ठस्थं हरिं दृष्ट्वा ब्रह्मेन्द्राद्याश्च तेऽमराः । नत्वा स्तुत्वा महाविष्णुं स्वस्वधामानि वै ययुः ॥ ५५ ॥ इस प्रकार ब्रह्मा, इन्द्र आदि वे देवता विष्णुको वैकुण्ठ में स्थित देखकर उनको नमस्कारकर तथा उनकी स्तुतिकर अपने-अपने स्थानको चले गये ॥ ५५ ॥ वैकुण्ठोऽपि स्वलोकस्थो भ्रष्टमोहः सुबोधवान् । सुखी चाभून्मुनिश्रेष्ठ पूर्ववत्संस्मरन् शिवम् ॥ ५६ ॥ इत्याख्यानमघोघघ्नं सर्वकामप्रदं नृणाम् । सर्व कामविकारघ्नं सर्वविज्ञानवर्द्धनम् ॥ ५७ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! मोह भंग हो जानेसे विष्णुजी ज्ञान प्राप्तकर शिवजीका स्मरण करते हुए अपने वैकुण्ठलोकमें सुखपूर्वक निवास करने लगे । यह आख्यान मनुष्योंके सभी पापोंको दूर करनेवाला, मनुष्योकी सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाला, समस्त कामविकारोंको नष्ट करनेवाला तथा सभी प्रकारके विज्ञानको बढ़ानेवाला है । ५६-५७ ॥ य इदं हि पठेन्नित्यं पाठयेद्वापि भक्तिमान् । शृणुयाच्छ्रावयेद्वापि स याति परमां गतिम् ॥ ५८ ॥ पठित्वा य इदं धीमानाख्यानं परमोत्तमम् । सङ्ग्रामं प्रविशेद्वीरो विजयी स्यान्न संशयः ॥ ५९ ॥ जो भक्तिसे युक्त होकर इस आख्यानको नित्य पढ़ता, पढ़ाता है, सुनता अथवा सुनाता है, वह परम गतिको प्राप्त करता है । जो बुद्धिमान् वीर इस अत्युत्तम आख्यानको पढ़कर संग्राममें जाता है, वह विजयी होता है, इसमें सन्देह नहीं है । ५८-५९ ॥ विप्राणां ब्रह्मविद्यादं सत्रियाणां जयप्रदम् । वैश्यानां सर्वधनदं शूद्राणां सुखदं त्विदम् ॥ ६० ॥ यह [आख्यान] ब्राह्मणोंको ब्रह्मविद्या देनेवाला, क्षत्रियोंको जय प्रदान करनेवाला, वैश्योंको अनेक प्रकारका धन देनेवाला तथा शूद्रोंको सुख देनेवाला है ॥ ६० ॥ शम्भुभक्तिप्रदं व्यास सर्वेषां पापनाशनम् । इहलोके परत्रापि सदा सद्गतिदायकम् ॥ ६१ ॥ हे व्यासजी ! यह शिवजीमें भक्ति प्रदान करनेवाला, सभीके पापोंका नाश करनेवाला और इस लोक तथा परलोकमें उत्तम गति देनेवाला है ॥ ६१ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखण्डे जलन्धरवधानन्तरदेवीस्तुतिविष्णुमोहविध्वंसवर्णनं नाम षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें जलन्धरके वधके पश्चात् देवीस्तुति-विष्णुमोहविध्वंसवर्णन नामक छब्बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २६ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |