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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे
एकत्रिंशोऽध्यायः शङ्खचूडवधे शिवोपदेशोः -
शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना - सनत्कुमार उवाच अथाकर्ण्य वचः शम्भुर्हरिविध्योः सुदीनयोः । उवाच विहसन्वाण्या मेघनादगभीरया ॥ १ ॥ सनत्कुमार बोले-अत्यन्त दीन ब्रह्मा तथा विष्णुजीका वचन सुनकर शंकरजी हँसते हुए मेघके समान गम्भीर वाणीमें कहने लगे- ॥ १ ॥ शिव उवाच हे हरे वत्स हे ब्रह्मंस्त्यजतं सर्वशो भयम् । शङ्खचूडोद्भवं भद्रं सम्भविष्यत्यसंशयम् ॥ २ ॥ शङ्खचूडस्य वृत्तान्तं सर्वं जानामि तत्त्वतः । कृष्णभक्तस्य गोपस्य सुदाम्नश्च पुरा प्रभो ॥ ३ ॥ शिवजी बोले-हे हरे ! हे वत्स ! हे ब्रह्मन् ! आप दोनों शंखचूडसे उत्पन्न भयका पूर्णरूपसे त्याग कर दीजिये, आप लोगोंका निःसन्देह कल्याण होगा । हे प्रभो ! शंखचूडका सारा वृत्तान्त मैं जानता हूँ, वह पूर्वजन्ममें श्रीकृष्णका परम भक्त सुदामा नामका गोप था ॥ २-३ ॥ मदाज्ञया हृषीकेशो कृष्णरूपं विधाय च । गोशालायां स्थितो रम्ये गोलोके मदधिष्ठिते ॥ ४ ॥ मेरी आज्ञासे ही विष्णु श्रीकृष्णका रूप धारण करके मेरे द्वारा अधिष्ठित रम्य गोलोककी गोशालामें निवास करते हैं ॥ ४ ॥ स्वतन्त्रोहमिति स्वं स मोहं मत्वा गतः पुरा । क्रीडाःसमकरोद्बह्वीः स्वैरवर्तीव मोहितः ॥ ५ ॥ 'मैं स्वतन्त्र हूँ' अपनेको ऐसा समझकर वे पहले मोहको प्राप्त हुए और इस प्रकार मोहित होकर स्वच्छन्दकी भाँति नाना प्रकारकी क्रीडाएँ करने लगे ॥ ५ ॥ तं दृष्ट्वा मोहमत्युग्रं तस्याहं मायया स्वया । तेषां संहृत्य सद्बुद्धिं शापं दापितवान् किल ॥ ६ ॥ इत्थं कृत्वा स्वलीलां तां मायां संहृतवानहम् । ज्ञानयुक्तास्तदा ते तु मुक्तमोहाः सुबुद्धयः ॥ ७ ॥ तब मैंने उन्हें अपनी मायासे मोहित कर दिया, जिससे उनकी सद्बुद्धि नष्ट हो गयी और उनसे उस सुदामाको शाप दिला दिया । इस प्रकार अपनी लीला करके मैंने [अपनी] माया हटा ली । तब मोहसे मुक्त हो जानेके कारण वे ज्ञानयुक्त तथा सद्बुद्धियुक्त हो गये ॥ ६-७ ॥ समीपमागतास्ते मे दीनीभूय प्रणम्य माम् । अकुर्वन्सुनुतिं भक्त्या करौ बद्ध्वा विनम्रकाः ॥ ८ ॥ वृत्तान्तमवदन्सर्वं लज्जाकुलितमानसाः । ऊचुर्मत्पुरतो दीना रक्षरक्षेति वै गिरः ॥ ९ ॥ तब वे मेरे समीप आये और दीन होकर मुझे प्रणामकर हाथ जोड़कर विनम्र भावसे भक्तिपूर्वक मेरी स्तुति करने लगे । तब लज्जासे युक्त मनवाले उन सभीने सारा वृत्तान्त कहा और दीन होकर 'रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये'-मेरे सामने ऐसा वचन कहने लगे ॥ ८-९ ॥ तदा त्वहं भवस्तेषां सन्तुष्टः प्रोक्तवान् वचः । भयं त्यजत हे कृष्ण यूयं सर्वे मदाज्ञया ॥ १० ॥ रक्षकोऽहं सदा प्रीत्या सुभद्रं वो भविष्यति । मदिच्छयाऽखिलं जातमिदं सर्वं न संशयः ॥ ११ ॥ स्वस्थानं गच्छ त्वं सार्द्धं राधया पार्षदेन च । दानवस्तु भवेत्सोऽयं भारतेऽत्र न संशयः ॥ १२ ॥ तब उनसे सन्तुष्ट होकर मैंने यह वचन कहा-हे कृष्ण ! आप सभी मेरी आज्ञासे भयका त्याग कर दीजिये । मैं आपलोगोंका सदा रक्षक हूँ । मेरे प्रसन्न रहनेसे आपलोगोंका कल्याण होगा । यह सब मेरी इच्छासे हुआ है, इसमें सन्देह नहीं है । [हे कृष्ण !] आप इन राधा एवं पार्षदके साथ अपने स्थानको जाइये । यह [सुदामा] इस भारतवर्षमें दानवके रूपमें जन्म लेगा, इसमें सन्देह नहीं है । समय आनेपर मैं आप दोनोंके शापका उद्धार करूँगा ॥ १०-१२ ॥ शापोद्धारं करिष्येऽहं युवयोः समये खलु । मदुक्तमिति सन्धार्य शिरसा राधया सह ॥ १३ ॥ श्रीकृष्णोऽमोददत्यन्तं स्वस्थानमगमत्सुधीः । न्यष्ठातां सभयं तत्र मदाराधनतत्परौ ॥ १४ ॥ तब बुद्धिमान् श्रीकृष्ण मेरे वचनको शिरोधार्य करके राधाके साथ बड़ी प्रसन्नतासे अपने स्थानको चले गये और वे दोनों ही भयपूर्वक मेरी आराधना करते हुए वहाँ निवास करने लगे ॥ १३-१४ ॥ मत्वाखिलं मदधीनमस्वतन्त्रं निजं च वै । स सुदामाऽभवद्राधाशापतो दानवेश्वरः ॥ १५ ॥ शङ्खचूडाभिधो देवद्रोही धर्मविचक्षणः । क्लिश्नाति सुबलात्कृत्स्नं सदा देवगणं कुधीः ॥ १६ ॥ मन्मायामोहितःसोतिदुष्टमन्त्रिसहायवान् । तद्भयं त्यजताश्वेव मयि शास्तरि वै सति ॥ १७ ॥ उस समय उन्हें ज्ञान हुआ कि यह सारा जगत् मेरे (शंकरके) अधीन है और मैं श्रीकृष्ण सर्वथा पराधीन हूँ । वह सुदामा राधाके शापसे शंखचूड नामक दानवेन्द्र हुआ, जो धर्ममें निपुण होकर भी देवद्रोही है और वह दुर्बुद्धि अपने बलसे सभी देवगणोंको सदा पीड़ा पहुँचा रहा है । मेरी मायासे मोहित होनेके कारण उसे दुष्ट मन्त्रियोंकी सहायता भी प्राप्त हो रही है । अत: मुझ शासकके रहते आपलोग शीघ्र ही उसके भयका त्याग कर दीजिये ॥ १५-१७ ॥ सनत्कुमार उवाच इत्यूचिवान् शिवो यावद्धरिब्रह्मपुरः कथाम् । अभवत्तावदन्यच्च चरितं तन्मुने शृणु ॥ १८ ॥ तस्मिन्नेवान्तरे कृष्णो राधया पार्षदैः सह । सद्गोपैराययौ शम्भुमनुकूलयितुं प्रभुम् ॥ १९ ॥ प्रभुं प्रणम्य सद्भक्त्या मिलित्वा हरिमादरात् । संमतो विधिना प्रीत्या सन्तस्थौ शिवशासनात् ॥ २० ॥ सनत्कुमार बोले-हे मुने ! अभी जब शिवजी ब्रह्मा एवं विष्णुके सामने इस प्रकारकी कथा कह ही रहे थे कि इतने में जो अन्य घटना घटी, उसे आप सुनिये । उसी समय श्रीकृष्ण राधिका, अन्य पार्षद एवं गोपोंके साथ प्रभु शंकरको अनुकूल करनेके लिये वहाँ आ गये । वे सद्भक्तिपूर्वक शंकरजीको प्रणाम करके विष्णुसे आदरपूर्वक मिलकर ब्रह्माकी सलाह मानकर शिवकी आज्ञासे प्रेमपूर्वक उनके समीप बैठ गये ॥ १८-२० ॥ ततः शम्भुं पुनर्नत्वा तुष्टाव विहिताञ्जलिः । श्रीकृष्णो मोहनिर्मुक्तो ज्ञात्वा तत्त्वं शिवस्य हि ॥ २१ ॥ इसके बाद शिवजीको पुनः प्रणामकर मोहनिर्मुक्त श्रीकृष्णजी शिवतत्त्वको जानकर हाथ जोड़े हुए उनकी स्तुति करने लगे- ॥ २१ ॥ श्रीकृष्ण उवाच देवदेव महादेव परब्रह्म सताङ्गते । क्षमस्व चापराधं मे प्रसीद परमेश्वर ॥ २२ ॥ त्वत्तः शर्व च सर्वं च त्वयि सर्वं महेश्वर । सर्वं त्वं निखिलाधीश प्रसीद परमेश्वर ॥ २३ ॥ श्रीकृष्ण बोले-हे देवदेव ! हे महादेव ! हे परब्रह्म ! हे सत्पुरुषोंकी गति ! हे परमेश्वर ! मेरा अपराध क्षमा कीजिये और मेरे ऊपर प्रसन्न होइये । हे शर्व ! सब कुछ आपसे ही उत्पन्न होता है और हे महेश्वर ! सब कुछ आपमें ही स्थित है । हे सर्वाधीश ! सब कुछ आप ही हैं, अत: हे परमेश्वर ! आप प्रसन्न होइये ॥ २२-२३ ॥ त्वं ज्योतिः परमं साक्षात्सर्वव्यापी सनातनः । त्वया नाथेन गौरीश सनाथाःसकला वयम् ॥ २४ ॥ आप ही साक्षात् परम ज्योति, सर्वव्यापी एवं सनातन हैं । हे गौरीश ! आपके नाथ होनेसे हम सभी सनाथ हैं ॥ २४ ॥ सर्वोपरि निजं मत्वा विहरन्मोहमाश्रितः । तत्फलं प्राप्तवानस्मि शापं प्राप्तः सवामकः ॥ २५ ॥ पार्षदप्रवरो यो मे सुदामा नाम गोपकः । स राधाशापतः स्वामिन्दानवीं योनिमाश्रितः ॥ २६ ॥ अस्मानुद्धर दुर्ग्गेश प्रसीद परमेश्वर । शापोद्धारं कुरुष्वाद्य पाहि नः शरणागतान् ॥ २७ ॥ इत्युक्त्वा विररामैव श्रीकृष्णो राधया सह । प्रसन्नोऽभूच्छिवस्तत्र शरणागतवत्सलः ॥ २८ ॥ मोहमें पड़ा हुआ मैं अपनेको सर्वोपरि मानकर विहार करता रहा, जिसका फल मुझे यह मिला कि मैं शापग्रस्त हो गया और हे स्वामिन् ! जो सुदामा नामक मेरा श्रेष्ठ पार्षद है, वह राधाके शापसे दानवी योनिको प्राप्त हो गया है । हे दुर्गेश ! हे परमेश्वर ! आप हमलोगोंका उद्धार कीजिये और प्रसन्न हो जाइये, शापसे उद्धार कीजिये और हम शरणागतोंकी रक्षा कीजिये । इस प्रकार कहकर श्रीकृष्ण राधाके सहित मौन हो गये । तब शरणागतवत्सल शिव उनपर प्रसन्न हो गये ॥ २५-२८ ॥ श्रीशिव उवाच हे कृष्ण गोपिकानाथ भयं त्यज सुखी भव । मयानुगृह्णता तात सर्वमाचरितं त्विदम् ॥ २९ ॥ श्रीशिव बोले-हे कृष्ण ! हे गोपिकानाथ ! आप भयका त्याग कीजिये और सुखी हो जाइये । हे तात ! मैंने ही अनुग्रह करते हुए यह सब किया है ॥ २९ ॥ सम्भविष्यति ते भद्रं गच्छ स्वस्थानमुत्तमम् । स्थातव्यं स्वाधिकारे च सावधानतया सदा ॥ ३० ॥ विहरस्व यथाकामं मां विज्ञाय परात्परम् । स्वकार्यं कुरु निर्व्यग्रं राधया पार्षदैः खलु ॥ ३१ ॥ आपका कल्याण होगा । अब आप अपने उत्तम स्थानको जाइये और सावधानीपूर्वक अपने अधिकारका पालन कीजिये । मुझको परात्पर जानकर इच्छानुसार विहार कीजिये और निर्भय होकर राधा तथा पार्षदोंके साथ अपना कार्य कीजिये ॥ ३०-३१ ॥ वाराहे प्रवरे कल्पे तरुण्या राधया सह । शापप्रभावं भुक्त्वा वै पुनरायास्यति स्वकम् ॥ ३२ उत्तम वाराहकल्पमें युवती राधाके साथ शापका फल भोगकर वह पुनः अपने लोकको प्राप्त करेगा ॥ ३२ ॥ सुदामा पार्षदो यो हि तव कृष्ण प्रियप्रियः । दानवीं योनिमाश्रित्येदानीं क्लिश्नाति वै जगत् ॥ ३३ ॥ शापप्रभावाद्राधाया देवशत्रुश्च दानवः । शङ्खचूडाभिधःसोऽति दैत्यपक्षी सुरद्रुहः ॥ ३४ ॥ हे कृष्ण ! आपका अत्यन्त प्रिय पार्षद जो सुदामा था, वही इस समय दानवी योनिमें जन्म ग्रहण करके सारे जगत्को क्लेश दे रहा है, यह शंखचूड नामक दानव राधाके शापके प्रभावसे ही देवशत्रु, दैत्योंका पक्ष लेनेवाला और देवताओंसे द्रोह करनेवाला हो गया है ॥ ३३-३४ ॥ तेन निःसारिता देवाः सेन्द्रा नित्यं प्रपीडिताः । हृताधिकारा विकृताः सर्वे याता दिशो दश ॥ ३५ ॥ उसने इन्द्रसहित सभी देवताओंको पीड़ा देकर निकाल दिया है, जिससे वे देवता अधिकारविहीन एवं व्याकुल होकर दसों दिशाओंमें भटक रहे हैं ॥ ३५ ॥ ब्रह्माच्युतौ तदर्थे ही हागतौ शरणं मम । तेषां क्लेशविनिर्मोक्षं करिष्ये नात्र संशयः ॥ ३६ ॥ उसीके वधके निमित्त ये ब्रह्मा तथा विष्णु मेरी शरणमें यहाँ आये हैं, मैं इनका दुःख दूर करूंगा, इसमें संशय नहीं है ॥ ३६ ॥ सनत्कुमार उवाच इत्युक्त्वा शंकरः कृष्णं पुनः प्रोवाच सादरम् । हरिं विधिं समाभाष्य वचनं क्लेशनाशनम् ॥ ३७ ॥ सनत्कुमार बोले-[हे व्यास !] श्रीकृष्णसे इतना कहकर भगवान् शंकर ब्रह्मा तथा विष्णुको सम्बोधित करके आदरपूर्वक क्लेशनाशक वचन पुनः कहने लगे- ॥ ३७ ॥ शिव उवाच हे हरे हे विधे प्रीत्या ममेदं वचनं शृणु । गच्छतं त्वरितं तातौ देवानन्दाय निर्भयम् ॥ ३८ ॥ कैलासवासिनं रुद्रं मद्रूपं पूर्णमुत्तमम् । देवकार्यार्थमुद्भूतं पृथगाकृतिधारिणम् ॥ ३९ ॥ शिवजी बोले-हे विष्णो ! हे ब्रह्मन् ! आप दोनों मेरी बात सुनिये । देवताओंको भयरहित करनेके लिये शीघ्र ही आप दोनों कैलासपर्वतपर जायें, जहाँ मेरे पूर्ण रूप रुद्रका निवास है । मैंने ही देवताओंका कार्य करनेके लिये पृथक् रूपको धारण किया है ॥ ३८-३९ ॥ एतदर्थे हि मद्रूपः परिपूर्णतमः प्रभुः । कैलासे भक्तवशतः सन्तिष्ठति गिरौ हरे ॥ ४० ॥ मत्तस्त्वत्तो न भेदोऽस्ति युवयोः सेव्य एव सः । चराचराणां सर्वेषां सुरादीनां च सर्वदा ॥ ४१ ॥ हे हरे ! परिपूर्णतम एवं भक्तपराधीन मुझ प्रभुका ही वह रुद्ररूप देवताओंके कार्यके लिये कैलासपर्वतपर विराजमान है । मुझमें एवं आपमें कोई भेद नहीं है । मेरा वह रुद्ररूप आप दोनोंका, चराचर जगत्का, सभी देवताओं एवं मुनियोंका सर्वदा सेव्य है ॥ ४०-४१ ॥ आवयोभेदकर्ता यः स नरो नरकं व्रजेत् । इहापि प्राप्नुयात्कृष्टं पुत्रपौत्रविवर्जितः ॥ ४२ ॥ इत्युक्तवन्तं दुर्गेशं प्रणम्य च मुहुर्मुहुः । राधया सहितः कृष्णः स्वस्थानं सगणो ययौ ॥ ४३ ॥ जो मनुष्य हम दोनोंमें भेद रखेगा, वह नरकगामी होगा और वह इस लोकमें पुत्र-पौत्रादिसे रहित होकर नाना प्रकारका क्लेश प्राप्त करेगा । ऐसा कहते हुए गौरीपत्तिको बार-बार प्रणामकर श्रीकृष्ण राधा तथा गणोंके साथ अपने स्थानको चले गये । ४२-४३ ॥ हरिर्ब्रह्मा च तौ व्यास सानन्दौ गतसाध्वसौ । मुहुर्मुहुः प्रणम्येशं वैकुण्ठं ययतुर्द्रुतम् ॥ ४४ ॥ हे व्यासजी ! इसी प्रकार वे ब्रह्मा तथा विष्णु भी सन्देहरहित हो शिवजीको बारंबार प्रणामकर आनन्दके साथ शीघ्र वैकुण्ठ चले गये । ४४ ॥ तत्रागत्याखिलं वृत्तं देवेभ्यो विनिवेद्य तौ । तानादाय ब्रह्मविष्णू कैलासं ययतुर्गिरिम् ॥ ४५ ॥ वे ब्रह्मा तथा विष्णु वहाँ आकर सारा वृत्तान्त देवताओंसे कहकर तथा उन्हें साथ लेकर कैलासपर्वतपर गये ॥ ४५ ॥ तत्र दृष्ट्वा महेशानं पार्वतीवल्लभं प्रभुम् । दीनरक्षात्तदेहं च सगुणं देवनायकम् ॥ ४६ ॥ तुष्टुवुः पूर्ववत्सर्वे भक्त्या गद्गदया गिरा । करौ बद्ध्वा नतस्कन्धा विनयेन समन्विताः ॥ ४७ ॥ दीनोंकी रक्षा करनेके लिये सगुण रूपसे शरीर धारण किये हुए देवाधिपति पार्वतीवल्लभ महेश्वर प्रभुको वहाँ देखकर सभी देवताओंने पूर्वकी भाँति हाथ जोड़कर विनयसे युक्त होकर सिर झुकाकर गद्गद वाणीसे भक्तिपूर्वक उनकी स्तुति करना प्रारम्भ किया ॥ ४६-४७ ॥ देवा ऊचुः देवदेव महादेव गिरिजानाथ शंकर । वयं त्वां शरणापन्ना रक्ष देवान्भयाकुलान् ॥ ४८ ॥ देवता बोले-हे देवदेव ! हे महादेव ! हे गिरिजानाथ ! हे शंकर ! हम सभी देवता आपकी शरणमें आये हैं, भयसे व्याकुल देवताओंकी रक्षा कीजिये ॥ ४८ ॥ शङ्खचूडदानवेन्द्रं जहि देवनिषूदनम् । तेन विक्लाविता देवाः सङ्ग्रामे च पराजिताः ॥ ४९ ॥ हृताधिकाराः कुतले विचरन्ति यथा नराः । देवलोको हि दुर्दृश्यस्तेषामासीच्च तद्भयात् ॥ ५० ॥ देवताओंको कष्ट देनेवाले दैत्यराज शंखचूडका वध कीजिये, उसने देवताओंको व्याकुल कर दिया है और युद्ध में पराजित कर दिया है । उसने देवताओंके समस्त अधिकार छीन लिये हैं, जिससे वे लोग मनुष्योंकी भाँति पृथ्वीपर भटक रहे हैं और उसके भयसे उनके लिये देवलोकका देखनातक दुर्लभ हो गया है ॥ ४९-५० ॥ दीनोद्धर कृपासिन्धो देवानुद्धर सङ्कटात् । शक्रं भयान्महेशान हत्वा तं दानवाधिपम् ॥ ५१ ॥ इति श्रुत्वा वचः शम्भुर्देवानां भक्तवत्सलः । उवाच विहसन् वाण्या मेघनादगभीरया ॥ ५२ ॥ अतः दीनोंका उद्धार करनेवाले हे कृपासिन्धो ! इस संकटसे देवताओंका उद्धार कीजिये और उस दानवेन्द्रका वधकर इन्द्रको भयसे मुक्त कीजिये । देवताओंके इस वचनको सुनकर हँसते हुए भक्तवत्सल भगवान् शंकरने मेघके समान गम्भीर वाणीमें कहा- ॥ ५१-५२ ॥ श्रीशंकर उवाच हे हरे हे विधे देवाः स्वस्थानं गच्छत धुवम् । शङ्खचूडं वधिष्यामि सगणं नात्र संशयः ॥ ५३ ॥ श्रीशंकरजी बोले-हे विष्णो ! हे ब्रह्मन् ! हे देवगण ! आपलोग अपने स्थानको जाइये, मैं सेनासहित उस शंखचूडका वध अवश्य करूँगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५३ ॥ सनत्कुमार उवाच इत्याकर्ण्य महेशस्य वचः पीयूषसंनिभम् । ते सर्वे प्रमुदा ह्यासन्नष्टं मत्वा च दानवम् ॥ ५४ ॥ सनत्कुमार बोले-शंकरकी इस अमृततुल्य वाणीको सुनकर सभी देवता दैत्योंको मरा जानकर अत्यन्त प्रसन्न हो गये ॥ ५४ ॥ हरिर्जगाम वैकुण्ठं सत्यलोके विधिस्तदा । प्रणिपत्य महेशं च सुराद्याः स्वपदं ययुः ॥ ५५ ॥ इसके बाद शंकरजीको प्रणामकर विष्णु वैकुण्ठलोक एवं ब्रह्मा सत्यलोक चले गये तथा देवगण अपने-अपने स्थानोंको चले गये ॥ ५५ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखण्डे शङ्खचूडवधे शिवोपदेशो नामैकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम युद्धखण्ड में शंखचूडवपके अन्तर्गत शिवोपदेशवर्णन नामक इकतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३१ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |