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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

द्वितीया रुद्रसंहितायां पञ्चमः युद्धखण्डे

द्वात्रिंशोऽध्यायः

शङ्‌खचूडवधे दूतगमनम् -
भगवान् शिवके द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना -


सनत्कुमार उवाच
अथेशानो महारुद्रो दुष्टकालःसतां ‌गतिः ।
शङ्‌खचूडवधं चित्ते निश्चिकाय सुरेच्छया ॥ १ ॥
दूतं कृत्वा चित्ररथं गन्धर्वेश्वरमीप्सितम् ।
शीघ्रं प्रस्थापयामास शङ्‌खचूडान्तिके मुदा ॥ २ ॥
सर्वेश्वराज्ञया दूतो ययौ तन्नगरं च सः ।
महेन्द्रनगरोत्कृष्टं कुबेरभवनाधिकम् ॥ ३ ॥
सनत्कुमार बोले-तब दुष्टोंके लिये कालस्वरूप तथा सज्जनोंके रक्षक महारुद्र ईश्वरने देवताओंकी इच्छासे अपने मनमें शंखचूडके वधका निश्चय किया और गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त)को अपना अभीष्ट दूत बनाकर शीघ्र ही प्रसन्नतापूर्वक शंखचूडके समीप भेजा । तब सर्वेश्वरकी आज्ञासे वह दूत इन्द्रकी अमरावतीपुरीसे भी अधिक ऐश्वर्यसम्पन्न तथा कुबेरके भवनसे भी उत्कृष्ट भवनोंवाले उस दैत्येन्द्रके नगरमें गया ॥ १-३ ॥

गत्वा ददर्श तन्मध्ये शङ्‌खचूडालयं वरम् ।
राजितं द्वादशैर्द्वारैर्द्वारपालसमन्वितम् ॥ ४ ॥
उसने वहाँ जाकर बारह दरवाजोंसे युक्त शंखचूडका भवन देखा, जहाँ प्रत्येक द्वारपर द्वारपाल नियुक्त थे ॥ ४ ॥

स दृष्ट्‍वा पुष्पदन्तस्तु वरं द्वारं ददर्श सः ।
कथयामास वृत्तान्तं द्वारपालाय निर्भयः ॥ ५ ॥
अतिक्रम्य च तद् द्वारं जगामाभ्यन्तरे मुदा ।
अतीव सुन्दरं रम्यं विस्तीर्णं समलङ्‌कृतम् ॥ ६ ॥
स गत्वा शङ्‌खचूडं तं ददर्श दनुजाधिपम् ।
वीरमण्डल मध्यस्थं रत्नसिंहासनस्थितम् ॥ ७ ॥
दानवेन्द्रैः परिवृतं सेवितं च त्रिकोटिभिः ।
शतः कोटिभिरन्यैश्च भ्रमद्‌भिः शस्त्रपाणिभिः ॥ ८ ॥
एवम्भूतं च तं दृष्ट्‍वा पुष्पदन्तः सविस्मयः ।
उवाच रणवृत्तान्तं यदुक्तं शंकरेण च ॥ ९ ॥
उनको देखते हुए उस पुष्पदन्तने प्रधान द्वारको देखा और निर्भय हो वहाँके द्वारपालसे सारा वृत्तान्त निवेदन किया । तब अत्यन्त सुन्दर, रम्य, विस्तृत तथा भलीभांति अलंकृत उस द्वारको पार करके वह प्रसन्नतापूर्वक भीतर गया । वहाँ जाकर उसने वीरोंके मण्डलमें विराजमान तथा रत्नसिंहासनपर बैठे हुए उस दानवाधिपति शंखचूडको देखा । उस समय वह तीन करोड़ दैत्यराजोंसे घिरा हुआ था तथा वे उसकी सेवा कर रहे थे और अन्य सौ करोड़ दानव हाथोंमें शस्त्र लेकर उसके चारों ओर पहरा दे रहे थे । इस प्रकार उसे देखकर पुष्पदन्तको बड़ा आश्चर्य हुआ और उसने शंकरके द्वारा कहे गये युद्धका सन्देश इस प्रकार कहा- ॥ ५-९ ॥

पुष्पदन्त उवाच
राजेन्द्र शिवदूतोऽहं पुष्पदन्ताभिधः प्रभो ।
यदुक्तं शंकरेणैव तच्छृणु त्वं ब्रवीमि ते ॥ १० ॥
पुष्पदन्त बोला-हे राजेन्द्र ! मैं शिवजीका पुष्पदन्त नामक दूत हूँ । हे प्रभो ! शंकरने जो सन्देश भेजा है, उसे श्रवण कीजिये, मैं आपसे कह रहा हूँ ॥ १० ॥

शिव उवाच
राज्यं देहि च देवानामधिकारं हि साम्प्रतम् ।
नोचेत्कुरु रणं सार्द्धं परेण च मया सताम् ॥ ११ ॥
शिवजी बोले-तुम सजन देवताओंका राज्य तथा उनका अधिकार इस समय लौटा दो, अन्यथा मुझे अपना शत्रु समझकर मेरे साथ युद्ध करो ॥ ११ ॥

देवा मां शरणापन्ना देवेशं शंकरं सताम् ।
अहं क्रुद्धो महारुद्रस्त्वां वधिष्याम्यसंशयम् ॥ १२ ॥
मैं सजनोंका रक्षक हूँ और देवतालोग मेरी शरणमें आये हैं, अतः मैं महारुद्र क्रुद्ध होनेपर निःसन्देह तुम्हारा वध करूँगा ॥ १२ ॥

हरोऽस्मि सर्वदेवेभ्यो ह्यभयं दत्तवानहम् ।
खलदण्डधरोऽहं वै शरणागतवत्सलः ॥ १३ ॥
मैं हर हूँ, मैंने सभी देवताओंको अभयदान दिया है । मैं शरणागतवत्सल हूँ और दुष्टोंको दण्ड देनेवाला हूँ ॥ १३ ॥

राज्यं दास्यसि किं वा त्वं करिष्यसि रणं च किम् ।
तत्त्वं ब्रूहि द्वयोरेकं दानवेन्द्र विचार्य वै ॥ १४ ॥
हे दानवेन्द्र ! तुम राज्य लौटाओगे अथवा युद्ध करोगे, विचार करके इन दोनोंमें एक तात्त्विक बात बताओ ॥ १४ ॥

पुष्पदन्त उवाच
इत्युक्तं यन्महेशेन तुभ्यं तन्मे निवेदितम् ।
वितथं शम्भुवाक्यं न कदापि दनुजाधिप ॥ १५ ॥
अहं स्वस्वामिनं गन्तुमिच्छामि त्वरितं हरम् ।
गत्वा वक्ष्यामि किं शम्भुं तथा त्वं वद मामिह ॥ १६ ॥
पुष्पदन्त बोला-हे दैत्यराज ! शंकरने मुझसे जो कुछ कहा है, उसे मैंने तत्वतः आपसे निवेदन किया । शंकरजीका वचन कभी झूठा होनेवाला नहीं है । अब मैं शीघ्र ही अपने स्वामी सदाशिवके पास जाना चाहता हूँ । मैं जाकर शम्भुसे क्या कहूँगा, इसे मुझको तुम बताओ ॥ १५-१६ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्थं च पुष्पदन्तस्य शिवदूतस्य सत्पतेः ।
आकर्ण्य वचनं राजा हसित्वा तमुवाच सः ॥ १७ ॥
सनत्कुमार बोले-इस प्रकार श्रेष्ठ स्वामीवाले शिवदूत पुष्पदन्तकी बात सुनकर वह दानवेन्द्र हँसकर उससे कहने लगा- ॥ १७ ॥

शङ्‌खचूड उवाच
राज्यं दास्ये न देवेभ्यो वीरभोग्या वसुन्धरा ।
रणं दास्यामि ते रुद्र देवानां पक्षपातिने ॥ १८ ॥
यस्योपरि प्रयायी स्यात्स वीरो भुवेनऽधमः।
अतः पूर्वमहं रुद्र त्वां गमिष्याम्यसंशयम् ॥ १९ ॥
शंखचूड बोला-मैं देवताओंको राज्य नहीं दूँगा । यह पृथ्वी वीरभोग्या है । हे रुद्र ! देवताओंके पक्षमें रहनेवाले तुमसे मैं युद्ध करूँगा । जिस राजाके ऊपर शत्रुकी चढ़ाई हो जाती है, वह भुवनमें अधम वीर होता है । अतः हे रुद्र ! मैं निश्चित रूपसे पहले तुम्हारे ऊपर चढ़ाई करूँगा ॥ १८-१९ ॥

प्रभात आगमिष्यामि वीरयात्रा विचारतः ।
त्वं गच्छाचक्ष्व रुद्राय हीदृशं वचनं मम ॥ २० ॥
[हे दूत !] तुम जाओ और मेरा यह वचन रुद्रसे कह दो कि मैं वीरयात्राके विचारसे प्रातःकाल आऊँगा ॥ २० ॥

इति श्रुत्वा शङ्‌खचूडवचनं सुप्रहस्य सः ।
उवाच दानवेन्द्रं स शम्भुदूतस्तु गर्वितम् ॥ २१ ॥
शंखचूडका यह वचन सुनकर उस शिवदूतने हँस करके गर्वयुक्त उस दानवेन्द्रसे कहा- ॥ २१ ॥

अन्येषामपि राजेन्द्र गणानां शंकरस्य च ।
न स्थातुं संमुखे योग्यः किं पुनस्तस्य संमुखम् ॥ २२ ॥
पुष्पदन्त बोला-हे राजेन्द्र ! तुम शिवजीके अन्य गणोंके सामने भी नहीं ठहर सकते, तब शिवजीके सम्मुख कैसे खड़े हो सकते हो ? ॥ २२ ॥

स त्वं देहि च देवानामधिकाराणि सर्वशः ।
त्वमरे गच्छ पातालं यदि जीवितुमिच्छसि ॥ २३ ॥
सामान्यममरं तं नो विद्धि दानवसत्तम ।
शंकरः परमात्मा हि सर्वेषामीश्वरेश्वरः ॥ २४ ॥
अतः तुम्हें उचित यही है कि देवताओंका समस्त अधिकार उन्हें प्रदान कर दो और यदि जीवित रहना चाहते हो, तो शीघ्र ही पातालमें चले जाओ । हे दानवश्रेष्ठ ! तुम शंकरजीको सामान्य देवता मत समझो; शंकरजी सभी ईश्वरोंके ईश्वर तथा परमात्मा हैं ॥ २३-२४ ॥

इन्द्राद्याःसकला देवा यस्याज्ञावर्तिनः सदा ।
सप्रजापतयःसिद्धा मुनयश्चाप्यहीश्वराः ॥ २५ ॥
हरेर्विधेश्च स स्वामी निर्गुणःसगुणः स हि ।
यस्य भ्रूभङ्‌गमात्रेण सर्वेषां प्रलयो भवेत् ॥ २६ ॥
शिवस्य पूर्णरूपश्च लोकसंहारकारकः ।
सतां गतिर्दुष्टहन्ता निर्विकारः परात्परः ॥ २७ ॥
[हे दैत्येन्द्र !] प्रजापतियोंके सहित इन्द्रादि समस्त देवता, सिद्ध, मुनिगण तथा नागराज सभी सर्वदा उनकी आज्ञामें रहते हैं । वे विष्णु तथा ब्रह्माके स्वामी हैं और वे सगुण होकर भी निर्गुण हैं । जिनके भृकुटीको टेढ़ा करनेमात्रसे सभीका प्रलय हो जाता है । शिवका यह पूर्णरूप लोकसंहारकारक है । वे सज्जनोंके रक्षक, दुष्टोंके हन्ता, निर्विकार तथा परसे भी परे हैं । २५-२७ ॥

ब्रह्मणोधिपतिः सोऽपि हरेरपि महेश्वरः ।
अवमान्या न वै तस्य शासना दानवर्षभ ॥ २८ ॥
किं बहूक्तेन राजेन्द्र मनसा संविचार्य च ।
रुद्रं विद्धि महेशानं परं ब्रह्म चिदात्मकम् ॥ २९ ॥
देहि राज्यं हि देवानामधिकारांश्च सर्वशः ।
एवं ते कुशलं तात भविष्यत्यन्यथा भयम् ॥ ३० ॥
वे महेश्वर ब्रह्मा तथा विष्णुके भी अधिपति हैं । हे दानव श्रेष्ठ ! उनकी आज्ञाकी अवहेलना नहीं करनी चाहिये । हे राजेन्द्र ! बहुत कहनेसे क्या लाभ ? तुम मनसे विचार करके रुद्रको महेशान तथा चिदात्मक परब्रह्म जानो । अत: तुम देवताओंका राज्य तथा सम्पूर्ण अधिकार लौटा दो । हे तात ! ऐसा करनेसे तुम्हारा कल्याण होगा, अन्यथा भय होगा ॥ २८-३० ॥

सन्त्कुमार उवाच
इति श्रुत्वा दानवेन्द्रः शङ्‌खचूडः प्रतापवान् ।
उवाच शिवदूतं तं भवितव्यविमोहितः ॥ ३१ ॥
सनत्कुमार बोले-दूतकी इस प्रकारकी बात सुनकर प्रतापी दानवेन्द्र शंखचूड भवितव्यसे मोहित होकर उस शिवदूतसे कहने लगा- ॥ ३१ ॥

शङ्‌खचूड उवाच
स्वतो राज्यं न दास्यामि नाधिकारान् विनिश्चयात् ।
विना युद्धं महेशेन सत्यमेतद्‌ब्रवीम्यहम् ॥ ३२ ॥
कालाधीनं जगत्सर्वं विज्ञेयं सचराचरम् ।
कालाद्‌भवति सर्वं हि विनश्यति च कालतः ॥ ३३ ॥
त्वं गच्छ शंकरं रुद्रं मयोक्तं वद तत्त्वत ।
स च युक्तं करोत्वेवं बहुवार्तां कुरुष्व नो ॥ ३४ ॥
शंखचूड बोला-[हे दूत !] मैं यह सत्य कहता हूँ कि शिवसे बिना युद्धके स्वयं न तो देवताओंका राज्य दूंगा और न तो अधिकार ही दूंगा । इस सम्पूर्ण चराचर जगत्को कालके अधीन जानना चाहिये । कालसे ही सब कुछ उत्पन्न होता है तथा कालसे ही विनष्ट भी हो जाता है । तुम रुद्र शंकरके पास जाओ और यथार्थ रूपसे मेरे द्वारा कही गयी बात कह दो, जैसा उचित हो, वे करें, तुम बहुत बातें मत करो ॥ ३२-३४ ॥

सनत्कुमार उवाच
इत्युक्त्वा शिवदूतोऽसौ जगाम स्वामिनं निजम् ।
यथार्थं कथयामास पुष्पदन्तश्च सन्मुने ॥ ३५ ॥
सनत्कुमार बोले-हे मुने ! इस प्रकार बात करके वह पुष्पदन्त नामका शिवदूत अपने स्वामीके पास चला गया और उसने सारा वृत्तान्त यथार्थरूपसे निवेदित किया ॥ ३५ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे
युद्धखण्डे शङ्‌खचूडवधे दूतगमनं नाम द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके पंचम युद्धखण्डमें शंखचूडवपके अन्तर्गत दूतगमनवर्णन नामक बत्तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३२ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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