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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां
चतुर्थोऽध्यायः अत्रीश्वरमाहात्म्यवर्णनम् -
अनसूयाके पातिव्रतके प्रभावसे गंगाका प्राकट्य तथा अत्रीश्वरमाहात्म्यका वर्णन - सूत उवाच - कदाचित्स ऋषिश्रेष्ठो ह्यत्रिर्ब्रह्मविदां वरः । जागृतश्च जलं देहि प्रत्युवाच प्रियामिति ॥ १ ॥ सूतजी बोले-[हे महर्षियो !] किसी समय जब ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ऋषिवर अत्रि समाधिसे जगे, तब उन्होंने अपनी प्रिया पत्नीसे कहा-'जल दो' ॥ १ ॥ सापि साध्वी त्ववश्यं च गृहीत्वाथ कमण्डलुम् । जगाम विपिने तत्र जलं मे नीयते कुतः ॥ २ ॥ किं करोमि क्व गच्छामि कुतो नीयेत वै जलम् । इति विस्मयमापन्ना तां गंगां हि ददर्श सा ॥ ३ ॥ तामनुव्रजती यावत् साब्रवीच्च सदा हि ताम् । गंगा सरिद्वरा देवी बिभ्रती सुन्दरां तनुम् ॥ ४ ॥ वे साध्वी भी 'मैं जल अवश्य ही लाऊँगी' ऐसा निश्चयकर कमण्डलु लेकर वनकी ओर चल पड़ी और विचार करने लगीं कि 'मैं जल कहाँसे लाऊँ, मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ और कहाँसे जल लाऊँ'-इस विस्मयमें पड़ी हुई उन्होंने उन गंगाजीको मार्गमें देखा । गंगाजीके पीछे-पीछे अनसूया भी चलने लगीं । तब नदियों में श्रेष्ठ तथा सुन्दर शरीर धारण करनेवाली गंगा देवीने उनसे कहा- ॥ २-४ ॥ गंगोवाच - प्रसन्नास्मि च ते देवि कुत्र यासि वदाधुना । धन्या त्वं सुभगे सत्यं तवाज्ञां च करोम्यहम् ॥ ५ ॥ गंगाजी बोलीं-हे देवि ! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ, तुम यह बताओ कि इस समय कहाँ जा रही हो ? हे सुभगे ! सचमुच तुम धन्य हो, मैं तुम्हारी आज्ञाका पालन करूँगी ॥ ५ ॥ सूत उवाच - तद्वचश्च तदा श्रुत्वा ऋषिपत्नी तपस्विनी । प्रत्युवाच वचः प्रीत्या स्वयं सुचकिता द्विजाः ॥ ६ ॥ सूतजी बोले-हे ब्राह्मणो ! तब उनकी बात सुनकर तपस्विनी ऋषिपत्नी स्वयं आश्चर्यमें पड़ गयीं और प्रेमपूर्वक यह वचन कहने लगीं- ॥ ६ ॥ अनसूयोवाच - का त्वं कमलपत्राक्षि कुतो वा त्वं समागता । तथ्यं ब्रूहि कृपां कृत्वा साध्वी सुप्रवदा सती ॥ ७ ॥ अनसूया बोलीं-हे कमलनयने ! तुम कौन हो और कहाँसे आयी हो ? कृपा करके बताओ; तुम मनोहर बोलनेवाली साध्वी सती-जैसी मालूम पड़ रही हो ॥ ७ ॥ सूत उवाच - इत्युक्ते च तया तत्र मुनिपत्न्या मुनीश्वराः । सरिद्वरा दिव्यरूपा गंगा वाक्यमथाब्रवीत् ॥ ८ ॥ सूतजी बोले-हे मुनीश्वरो ! ऋषिपत्नीके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर नदियोंमें श्रेष्ठ दिव्यरूपधारिणी गंगाजीने यह वचन कहा- ॥ ८ ॥ गंगोवाच - स्वामिनः सेवनं दृष्ट्वा शिवस्य च परात्मनः । साध्वि धर्मं च ते दृष्ट्वा स्थितास्मि तव सन्निधौ ॥ ९ ॥ गंगाजी बोलीं-हे साध्वि ! अपने पति तथा परमेश्वर सदाशिवके प्रति तुम्हारी सेवाको देखकर एवं तुम्हारा धर्माचरण देखकर मैं तुम्हारे समीप ही स्थित हो गयी हूँ ॥ ९ ॥ अहं गंगा समायाता भजनात्ते शुचिस्मिते । वशीभूता ह्यहं जाता यदिच्छसि वृणीष्व तत् ॥ १० ॥ हे शुचिस्मिते ! मैं गंगा हूँ और तुम्हारे शिवाराधनसे प्रसन्न होकर यहाँ आयी हूँ तथा तुम्हारी वशवर्तिनी हो गयी हूँ, अत: तुम जो चाहती हो, उसे माँगो ॥ १० ॥ सूत उवाच - इत्युक्ते गंगया साध्वी नमस्कृत्य पुरः स्थिता । उवाचेति जलं देहि चेत्प्रसन्ना ममाऽधुना ॥ ११ ॥ सूतजी बोले-गंगाके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर वे साध्वी अनसूया उन्हें नमस्कारकर आगे खड़ी हो गयीं और बोली कि यदि आप इस समय मुझपर प्रसन्न हैं, तो जल दीजिये ॥ ११ ॥ इत्येतद्वचनं श्रुत्वा गर्तं कुर्ष्विति साऽब्रवीत् । शीघ्रं चायाच्च तत्कृत्वा स्थिता तत्क्षणमात्रतः । १२ ॥ तत्र सा च प्रविष्टा च जलरूपमभूत्तदा । आश्चर्य्यं परमं गत्वा गृहीतं च जलं तया ॥ १३ ॥ उवाच वचनं चैतल्लोकानां सुखहेतवे । अनसूया मुनेः पत्नी दिव्यरूपां सरिद्वराम् ॥ १४ ॥ यह वचन सुनकर गंगाजी बोलीं-गट्टा तैयार करो । तब क्षणमात्रमें वैसा करके वे अनसूया आकर वहाँ खड़ी हो गयीं । इसके बाद वे गंगा उस (गर्त)-में प्रविष्ट हो गयीं और जलरूपमें परिणत हो गयीं । तब उन्होंने आश्चर्यचकित हो जलको ग्रहण कर लिया । तत्पश्चात् मुनिपत्नी अनसूयाने लोकोंके सुखके लिये नदियोंमें श्रेष्ठ तथा दिव्य रूपवाली गंगाजीसे यह वचन कहा- ॥ १२-१४ ॥ अनसूयोवाच - यदि त्वं सुप्रसन्ना मे वर्तसे च कृपामयि । स्थातव्यं च त्वया तावन्मत्स्वामी यावदा व्रजेत् ॥ १५ ॥ अनसूया बोलीं-[हे कृपामयि !] यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं, तो आप तबतक यहीं स्थित रहें, जबतक मेरे स्वामी यहाँ न आ जायें ॥ १५ ॥ सूत उवाच - इति श्रुत्वानसूयाया वचनं सुखदं सताम् । गंगोवाच प्रसन्नाति ह्यत्रेर्दास्यसि मेऽनघे ॥ १६ ॥ इत्युक्ते च तया तत्र ह्यनपायि कृतन्तथा । स्वामिने तज्जलं दिव्यं दत्त्वा तत्पुरतः स्थिता ॥ १७ ॥ सूतजी बोले-सज्जनोंको सुख देनेवाले अनसूयाके इस वचनको सुनकर गंगाने अत्यन्त प्रसन्न होकर कहा-हे अनघे ! तुम मेरे इस जलको अत्रिको दे देना । उनके इस प्रकार कहनेपर अनसूयाने भी वैसा ही किया । वे कभी नष्ट न होनेवाले उस दिव्य जलको अपने स्वामीको देकर उनके आगे खड़ी हो गयीं ॥ १६-१७ ॥ स ऋषिश्चापि सुप्रीत्या स्वाचम्य विधिपूर्वकम् । पपौ दिव्यं जलं तच्च पीत्वा सुखमवाप ह ॥ १८ ॥ तब उन ऋषिने भी अत्यन्त प्रेमसे विधिपूर्वक आचमनकर उस दिव्य जलका पान किया और उसे पीकर सुखका अनुभव किया ॥ १८ ॥ अहो नित्यं जलं यच्च पीयते तज्जलं न हि । विचार्येति च तेनाशु परितश्चावलोकितम् ॥ १९ ॥ शुष्कान्वृक्षान्समालोक्य दिशो रूक्षतरास्तथा । उवाच तामृषिश्रेष्ठो न जातं वर्षणं पुनः ॥ २० ॥ 'अहो, आश्चर्य है, मैं जो जल प्रतिदिन पीता था, यह जल वैसा नहीं है'-ऐसा विचारकर उन्होंने वनमें चारों और अपनी दृष्टि दौड़ायी । तब सूखे वृक्षों तथा उससे भी अधिक सूखी हुई दिशाओंको देखकर ऋषिश्रेष्ठने उनसे कहा कि क्या फिर वर्षा नहीं हुई ? ॥ १९-२० ॥ तदुक्तं तत्समाकर्ण्य नेतिनेति प्रियान्तदा । तामुवाच पुनः सोऽपि जलं नीतं कुतस्त्वया ॥ २१ ॥ उनकी बात सुनकर अनसूयाने कहा-नहीं, वर्षा नहीं हुई । तब ऋषिने पुनः अनसूयासे कहा कि फिर तुमने यह जल कहाँसे प्राप्त किया ? ॥ २१ ॥ इत्युक्ते तु तदा तेन विस्मयं परमं गता । अनसूया स्वमनसि सचिन्ता तु मुनीश्वराः ॥ २२ ॥ निवेद्यते मया चेद्वै तदोत्कर्षो भवेन्मम । निवेद्यते यदा नैव व्रतभङ्गो भवेन्मम ॥ २३ ॥ नोभयं च तथा स्याद्वै निवेद्यं तत्तथा मम । इति यावद्विचार्येत तावत्पृष्टा पुनः पुनः ॥ २४ ॥ हे मुनीश्वरो ! ऋषिके ऐसा कहनेपर अनसूया असमंजसमें पड़ गयी और मनमें विचार करने लगी कि यदि मैं बता देती हूँ, तो इससे मेरी उत्कृष्टता सिद्ध होगी और यदि नहीं बताती, तो मेरा पातिव्रत्य भंग हो जायगा । अब मैं कौन-सा उपाय करूँ कि ये दोनों बातें न हों और मैं सच-सच बात कह भी दूं । अभी वह इस प्रकार विचार कर ही रही थी कि महर्षिने बारंबार पूछा ॥ २२-२४ ॥ अथानुग्रहतः शंभोः प्राप्तबुद्धिः पतिव्रता । उवाच श्रूयतां स्वामिन्यज्जातं कथयामि ते ॥ २५ ॥ तब शिवजीके अनुग्रहसे बुद्धि प्राप्तकर उन पतिव्रताने कहा-हे स्वामिन् ! इस विषयमें जो हुआ, उसे मैं कहती हूँ, आप सुनिये ॥ २५ ॥ अनसूयोवाच - शंकरस्य प्रतापाच्च तवैव सुकृतैस्तथा । गंगा समागतात्रैव तदीयं सलिलन्त्विदम् ॥ २६ ॥ अनसूया बोली-महादेवके प्रतापसे तथा आपके पुण्योंसे गंगा यहींपर आयी हुई हैं । यह उन्हींका जल है ॥ २६ ॥ सूत उवाच - एवं वचस्तदा श्रुत्वा मुनिर्विस्मयमानसः । प्रियामुवाच सुप्रीत्या शंकरं मनसा स्मरन् ॥ २७ ॥ सूतजी बोले-तब इस वचनको सुनकर महर्षिको बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने मनसे शंकरजीका स्मरण करते हुए प्रेमपूर्वक अपनी पत्नीसे कहा- ॥ २७ ॥ अत्रिरुवाच - प्रिये सुन्दरि त्वं सत्यमथ वाचं व्यलीककाम् । ब्रवीषि च यथार्थं त्वं न मन्ये दुर्लभन्त्विदम् ॥ २८ ॥ असाध्यं योगिभिर्यच्च देवैरपि सदा शुभे । तच्चैवाद्य कथं जातं विस्मयः परमो मम ॥ २९ ॥ यद्येवं दृश्यते चेद्वै तन्मयेहं न चान्यथा । इति तद्वचनं श्रुत्वा प्रत्युवाच पतिप्रिया ॥ ३० ॥ अत्रि बोले-हे प्रिये ! हे सुन्दरि । यह तुम सत्य वचन कह रही हो अथवा झूठ ? तुम सच कहती हो या मिथ्या, मैं निश्चय नहीं कर पा रहा है । क्योंकि यह अत्यन्त दुर्लभ है । हे शुभे ! जो सदा योगियों तथा देवताओंके लिये भी असाध्य है, वह आज किस प्रकार हो गया; मुझे तो महान् विस्मय हो रहा है । यदि ऐसा है, तो मैं देखना चाहता हूँ; तभी विश्वास करूंगा, अन्यथा नहीं । तब उनका वचन सुनकर उनकी पत्नी अनसूयाने पतिसे कहा- ॥ २८-३० ॥ अनसूयोवाच - आगम्यतां मया सार्द्धं त्वया नाथ महामुने । सरिद्वराया गंगाया द्रष्टुमिच्छा भवेद्यदि ॥ ३१ ॥ अनसूया बोलीं-हे नाथ ! हे महामुने ! यदि आपकी इच्छा नदियोंमें श्रेष्ठ गंगाके दर्शनकी हो, तो आप मेरे साथ चलिये ॥ ३१ ॥ सूत उवाच - इत्युक्त्वा तु समादाय पतिं तं सा पतिव्रता । गता द्रुतं शिवं स्मृत्वा यत्र गंगा सरिद्वरा ॥ ३२ ॥ सूतजी बोले-ऐसा कहकर वे पतिव्रता अपने पतिको साथ लेकर शिवजीका स्मरण करके शीघ्र ही वहाँ पहुँची, जहाँ नदियोंमें श्रेष्ठ गंगा विद्यमान थीं ॥ ३२ ॥ दर्शयामास तां तत्र गंगां पत्ये पतिव्रता । गर्ते च संस्थितां तत्र स्वयं दिव्यस्वरूपिणीम् ॥ ३३ ॥ उसके बाद उन पतिव्रताने अपने पतिको उस गड्डेमें स्थित दिव्यस्वरूपवाली गंगाका दर्शन कराया ॥ ३३ ॥ तत्र गत्वा ऋषिश्रेष्ठो गर्तं च जलपूरितम् । आकण्ठं सुन्दरं दृष्ट्वा धन्येयमिति चाब्रवीत् ॥ ३४ ॥ मुनिश्रेष्ठने वहाँ जाकर ऊपरतक जलसे परिपूर्ण सुन्दर गड्डेको देखकर कहा-ये धन्य हैं ॥ ३४ ॥ किं मदीयं तपश्चैव किमन्येषां पुनस्तदा । इत्युक्तो मुनिशार्दूलो भक्त्या तुष्टाव तां तदा ॥ ३५ ॥ ततो हि स मुनिस्तत्र सुस्नातः सुभगे जले । आचम्य पुनरेवात्र स्तुतिं चक्रे पुनः पुनः ॥ ३६ ॥ अनसूयापि संस्नाता सुन्दरे तज्जले तदा । नित्यं चक्रे मुनिः कर्म सानसूयापि सुव्रता ॥ ३७ ॥ क्या यह साक्षात् मेरा तप है अथवा अन्य किसीका-इस प्रकार कहकर मुनिश्रेष्ठने भक्तिपूर्वक उन गंगाकी स्तुति की । इसके बाद उन मुनिने निर्मल जलमें भलीभाँति स्नान किया और आचमनकर बार-बार उनकी स्तुति की । अनसूयाने भी उस निर्मल जलमें स्नान किया । इसके बाद उस पतिव्रता अनसूया तथा मुनिने वहाँ नित्यकर्म सम्पन्न किया ॥ ३५-३७ ॥ ततस्सोवाच तां गंगा गम्यते स्वस्थलं मया । इत्युक्ते च पुनः साध्वी तामुवाच सरिद्वराम् ॥ ३८ ॥ उसके बाद गंगाने अनसूयासे कहा कि अब मैं अपने स्थानको जा रही हूँ । गंगाके ऐसा कहनेपर उस साध्वीने पुनः उन श्रेष्ठ नदी गंगासे कहा- ॥ ३८ ॥ अनसूयोवाच - यदि प्रसन्ना देवेशि यद्यस्ति च कृपा मयि । त्वया स्थेयं निश्चलत्वादस्मिन्देवि तपोवने ॥ ३९ ॥ महतां च स्वभावश्च नांगीकृत्य परित्यजेत् । इत्युक्ता च करौ बद्ध्वा तां तुष्टाव पुनःपुनः ॥ ४० ॥ अनसूया बोलीं-हे देवेशि ! यदि आप प्रसन्न हैं और मुझपर आपकी कृपा है, तो हे देवि ! इस तपोवनमें आप स्थिर होकर निवास करें; क्योंकि बड़े लोगोंका ऐसा स्वभाव होता है कि वे एक बार किसीको स्वीकार करके उसे कभी छोड़ते नहीं-इतना कहकर दोनों हाथ जोड़कर वे पुनः उनकी स्तुति करने लगीं ॥ ३९-४० ॥ ऋषिश्चापि तथोवाच त्वया स्थेयं सरिद्वरे । सानुकूला भव त्वं हि सनाथान्देवि नः कुरु ॥ ४१ ॥ तदनन्तर ऋषिने भी इसी प्रकार प्रार्थना की कि हे सरिद्धरे ! हे देवि ! आप यहीं निवास करें, आप हमारे अनुकूल रहें और हम लोगोंको सनाथ करें ॥ ४१ ॥ तदीयं तद्वचः श्रुत्वा रम्यं गंगा सरिद्वरा । प्रसन्नमानसा गंगाऽनसूयां वाक्यमब्रवीत् ॥ ४२ ॥ तब उनके इस मनोहर वचनको सुनकर नदियोंमें श्रेष्ठ गंगाका मन प्रसन्न हो गया । इसके बाद गंगाने अनसूयासे यह वचन कहा- ॥ ४२ ॥ गंगोवाच - शंकरार्चनसंभूतफलं वर्षस्य यच्छसि । स्वामिनश्च तदा स्थास्ये देवानामुपकारणात् ॥ ४३ ॥ गंगाजी बोलीं-हे अनसूये ! यदि तुम भगवान् शंकरके अर्चन एवं अपने स्वामीकी सेवाका वर्षभरका फल मुझे प्रदान करो, तो मैं देवताओंके उपकारके लिये यहाँ स्थित रहूँगी ॥ ४३ ॥ तथा दानैर्न मे तुष्टिस्तीर्थस्नानैस्तथा च वै । यज्ञैस्तथाथ वा योगैर्यथा पातिव्रतेन च ॥ ४४ ॥ हे देवि ! दान, तीर्थ-स्नान, यज्ञ तथा योगसे मेरी उतनी सन्तुष्टि नहीं होती, जितनी [पतिव्रताओंके] पातिव्रत्यसे होती है ॥ ४४ ॥ पतिव्रतां यथा दृष्ट्वा मनसः प्रीणनं भवेत् । तथा नान्यैरुपायैश्च सत्यं मे व्याहृतं सति ॥ ४५ ॥ पतिव्रतां स्त्रियं दृष्ट्वा पापनाशो भवेन्मम । शुद्धा जाता विशेषेण गौरीतुल्या पतिव्रता ॥ ४६ ॥ पतिव्रताको देखकर मेरे मनको जैसी प्रसन्नता होती है, वैसी प्रसन्नता अन्य उपायोंसे नहीं होती । हे सती अनसूये ! मैं सत्य कहती हूँ । पतिव्रता स्त्रीको देखकर मेरा पाप नष्ट हो जाता है और मैं विशेषरूपसे शुद्ध हो जाती है, पतिव्रता [स्त्री] पार्वतीके तुल्य है । ४५-४६ ॥ तस्माच्च यदि लोकस्य हिताय तत्प्रयच्छसि । तर्ह्यहं स्थिरतां यास्ये यदि कल्याणमिच्छसि ॥ ४७ ॥ इसलिये यदि तुम लोकहितके लिये वह पुण्य मुझे देती हो और कल्याणकी इच्छा करती हो, तो मैं यहाँ स्थिर हो जाऊँगी ॥ ४७ ॥ सूत उवाच - इत्येवं वचनं श्रुत्वाऽनसूया सा पतिव्रता । गंगायै प्रददौ पुण्यं सर्वं तद्वर्षसंभवम् ॥ ४८ ॥ सूतजी बोले-यह वचन सुनकर पतिव्रता अनसूयाने वर्षभरका वह सारा पुण्य गंगाको दे दिया ॥ ४८ ॥ महतां च स्वभावो हि परेषां हितमावहेत् । सुवर्णं चन्दनं चेक्षुरसस्तत्र निदर्शनम् ॥ ४९ ॥ एतद्दृष्ट्वानसूयं तत्कर्म पातिव्रतं महत् । प्रसन्नोभून्महादेवः पार्थिवादाविराशु वै ॥ ५० ॥ बड़े लोगोंका ऐसा स्वभाव है कि वे दूसरोंका हित करते हैं; इस विषयमें सुवर्ण, चन्दन तथा इक्षुरस दृष्टान्तस्वरूप हैं । अनसूयाके उस महान् पातिव्रत्य कर्मको देखकर महादेव प्रसन्न हो गये और उसी क्षण पार्थिव लिंगसे प्रकट हो गये ॥ ४९-५० ॥ शंभुरुवाच - दृष्ट्वा ते कर्म साध्व्येतत् प्रसन्नोऽस्मि पतिव्रते । वरं ब्रूहि प्रिये मत्तो यतः प्रियतरासि मे ॥ ५१ ॥ शंभु बोले-हे साध्वि ! हे पतिव्रते ! तुम्हारे इस कर्मको देखकर मैं प्रसन्न हूँ । हे प्रिये ! तुम मुझसे वर माँगो, क्योंकि तुम मुझे अत्यन्त प्रिय हो ॥ ५१ ॥ अथ तौ दम्पती शंभुमभूतां सुन्दराकृतिम् । पञ्चवक्त्रादिसंयुक्तं हरं प्रेक्ष्य सुविस्मितौ ॥ ५२ ॥ नत्वा स्तुत्वा करौ बद्ध्वा महाभक्तिसमन्वितौ । अवोचेतां समभ्यर्च्य शंकरं लोकशंकरम् ॥ ५३ ॥ इसके बाद वे दोनों पति-पत्नी पाँच मुखोंसे युक्त तथा मनोरम आकृतिवाले शिवको देखकर अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गये और उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर महाभक्तिसे युक्त हो नमस्कार करके स्तवन किया, फिर लोकका कल्याण करनेवाले उन शंकरकी भलीभाँति अर्चना करके उनसे कहने लगे- ॥ ५२-५३ ॥ दम्पती ऊचतुः - यदि प्रसन्नो देवेश प्रसन्ना जगदम्बिका । अस्मिंस्तपोवने तिष्ठ लोकानां सुखदो भव ॥ ५४ ॥ पति-पत्नी बोले-हे देवेश ! यदि आप प्रसन्न हैं और ये जगदम्बा भी प्रसन्न हैं, तो आप इस तपोवनमें निवास करें और लोकोंके लिये सुखदायक हों ॥ ५४ ॥ प्रसन्ना च तदा गंगा प्रसन्नश्च शिवस्तदा । उभौ तौ च स्थितौ तत्र यत्रासीदृषिसत्तमः ॥ ५५ ॥ इस प्रकार प्रसन्न हुई गंगा तथा प्रसन्न हुए सदाशिव-वे दोनों वहाँ स्थित हो गये, जहाँ ऋषिश्रेष्ठ अत्रि रहते थे ॥ ५५ ॥ अत्रीश्वरश्च नाम्नासीदीश्वरः परदुःखहा । गंगा सापि स्थिता तत्र तदा गर्तेथ मायया ॥ ५६ ॥ दूसरोंका दुःख दूर करनेवाले सदाशिव अत्रीश्वर नामसे वहाँपर प्रसिद्ध हो गये और गंगाजी भी अपनी शक्तिसे उसी गड्ढे में स्थित हो गयीं ॥ ५६ ॥ तद्दिनं हि समारभ्य तत्राक्षय्यजलं सदा । हस्तमात्रे हि तद्गर्ते गंगा मन्दाकिनी ह्यभूत् ॥ ५७ ॥ उसी दिनसे वहाँपर जल सर्वदा अक्षय प्रवाहित होने लगा और हाथभरके उस गड़ेमें [प्रविष्ट हुई] गंगा मन्दाकिनी नामसे प्रसिद्ध हुई ॥ ५७ ॥ तत्रैव ऋषयो दिव्याः समाजग्मुस्सहांगनाः । तीर्थात्तीर्थाच्च ते सर्वे ते पुरा निर्गता द्विजाः ॥ ५८ ॥ हे द्विजो ! प्रत्येक तीर्थसे उस स्थानपर वे समस्त दिव्य ऋषि अपनी पत्नियोंके साथ आ गये, जो वहाँसे पहले दूसरी जगह चले गये थे ॥ ५८ ॥ यवाश्च व्रीहयश्चैव यज्ञयागपरायणाः । युक्ता ऋषिवरैस्तैश्च होमं चक्रुश्च ते जनाः ॥ ५९ ॥ वहाँका सारा प्रदेश यव और व्रीहिसे परिपूर्ण हो गया, जिनसे उन श्रेष्ठ ऋषियोंके साथ यज्ञ-यागादि करनेवाले वहकि लोग होम करने लगे ॥ ५९ ॥ कर्मभिस्तैश्च संतुष्टा वृष्टिं चक्रुर्घनास्तदा । आनन्दः परमो लोके बभूवातिमुनीश्वराः ॥ ६० ॥ हे मुनीश्वरो ! उस समय उन कर्मोसे सन्तुष्ट होकर मेघोंने बहुत वर्षा की, जिससे संसारमें परम आनन्द छा गया ॥ ६ ॥ अत्रीश्वरस्य माहात्म्यमित्युक्तं वः सुखावहम् । भुक्तिमुक्तिप्रदं सर्वकामदं भक्ति वर्द्धनम् ॥ ६१ ॥ [हे मुनीश्वरो !] इस प्रकार मैंने अत्रीश्वरका माहात्म्य आपलोगोंसे कहा, जो सुखप्रद, भोग-मोक्ष देनेवाला, समस्त मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला एवं भक्तिको बढ़ानेवाला है ॥ ६१ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां अत्रीश्वरमाहात्म्यवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुजसंहितामें अत्रीश्वरमाहात्म्यवर्णन नामक चौथा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |