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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां
त्रितीयोऽध्यायः अनसूयात्रितपोवर्णनम् -
अत्रीश्वरलिंगके प्राकट्यके प्रसंगमें अनसूया तथा अत्रिकी तपस्याका वर्णन - सूत उवाच - ब्रह्मपुर्यां चित्रकूटं लिंगं मत्तगजेन्द्रकम् । ब्रह्मणा स्थापितं पूर्वं सर्वकामसमृद्धिदम् ॥ १ ॥ तत्पूर्वदिशि कोटीशं लिंगं सर्ववरप्रदम् । गोदावर्य्याः पश्चिमे तल्लिंगं पशुपतिनामकम् ॥ २ ॥ सूतजी बोले-ब्रह्मपुरीके समीपमें चित्रकूटपर्वतपर मत्तगजेन्द्र नामक लिंग है, जिसे ब्रह्माजीने पूर्वकालमें स्थापित किया था; वह सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है । उसके पूर्व में सभी प्रकारके वरोंको देनेवाला कोटीश्वर नामक लिंग है । गोदावरी नदीके पश्चिमकी ओर पशुपति नामक लिंग है ॥ १-२ ॥ दक्षिणस्यां दिशि कश्चिदत्रीश्वर इति स्वयम् । लोकानामुपकारार्थमनसूयासुखाय च ॥ ३ ॥ प्रादुर्भूतः स्वयं देवो ह्यनावृष्ट्यामजीवयत् । स एव शंकरः साक्षादंशेन स्वयमेव हि ॥ ४ ॥ दक्षिण दिशामें कोई अत्रीश्वर नामक लिंग है, जिसके रूपमें लोककल्याणके लिये एवं अनसूयाको सुख देनेहेतु साक्षात् शिवजीने अपने अंशसे स्वयं प्रकट होकर अनावृष्टि होनेपर [मरणासन्न] समस्त प्राणियोंको जीवनदान दिया था ॥ ३-४ ॥ ऋषय ऊचुः - सूतसूत महाभाग कथमत्रीश्वरो हरः । उत्पन्नः परमो दिव्यस्तत्त्वं कथय सुव्रत ॥ ५ ॥ ऋषिगण बोले-हे महाभाग्यवान् सूत ! हे सुव्रत ! वहाँपर परम दिव्य अत्रीश्वर नामक लिंगका प्रादुर्भाव किस प्रकार हुआ है, उसे आप [यथार्थ रूपसे] बताइये ? ॥ ५ ॥ सूत उवाच - साधु पृष्ठमृषिश्रेष्ठाः कथयामि कथां शुभाम् । यां कथां सततं श्रुत्वा पातकैर्मुच्यते ध्रुवम् ॥ ६ ॥ सूतजी बोले-हे श्रेष्ठ ऋषियो ! आपलोगोंने बहुत ही उत्तम प्रश्न किया है । अब मैं उस शुभ कथाको कहता हूँ, जिसे निरन्तर सुनकर मनुष्य निश्चितरूपसे सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ६ ॥ दक्षिणस्यां दिशि महत् कामदं नाम यद्वनम् । चित्रकूटसमीपेस्ति तपसां हितदं सताम् ॥ ७ ॥ तत्र च ब्रह्मणः पुत्रो ह्यत्रिनामा ऋषिः स्वयम् । तपस्तेपेऽति कठिनमनसूयासमन्वितः ॥ ८ ॥ चित्रकूटके समीप दक्षिण दिशामें कामद नामक एक विशाल वन है, जो सज्जनों एवं तपस्वियोंका कल्याण करनेवाला है । वहाँ ब्रह्माके पुत्र महर्षि अत्रि [ अपनी पत्नी] अनसूयाके साथ अति कठिन तप करते थे ॥ ७-८ ॥ पूर्वं कदाचित्तत्रैव ह्यनावृष्टिरभून्मुने । दुःखदा प्राणिनां दैवाद्विकटा शतवार्षिकी ॥ ९ ॥ हे मुने ! पहले किसी समय दुर्भाग्यसे जीवोंको दुःख देनेवाली सौ वर्षकी भयानक अनावृष्टि हुई ॥ ९ ॥ वृक्षाश्शुष्कास्तदा सर्वे पल्लवानि फलानि च । नित्यार्थं न जलं क्वापि दृष्टमासीन्मुनीश्वराः ॥ १० ॥ हे मुनीश्वरो ! उस समय सभी वृक्ष, पत्ते तथा फलसुख गये । नित्यकर्मके लिये भी कहीं [नाममात्रका] | जल नहीं दिखायी पड़ता था ॥ १० ॥ आर्द्रीभावो न लभ्येत खरा वाता दिशो दश । हाहाकारो महानासीत्पृथिव्यां दुःखदोऽति हि ॥ ११ ॥ संवर्तं चैव भूतानां दृष्ट्वात्रि गृहिणी प्रिया । साध्वी चैवाब्रवीदत्रिं मया दुःखं न सह्यते ॥ १२ ॥ आर्द्रता कहीं भी नहीं थी और दसों दिशाओंमें शुष्क पवन बहने लगा, जिससे पृथ्वीपर चारों ओर अतिशय दुःखदायक महान् हाहाकार मच गया । तब अत्रिकी पतिव्रता पत्नीने प्राणियोंका विनाश देखकर अत्रिसे कहा कि यह दुःख मुझसे सहन नहीं हो रहा है ॥ ११-१२ ॥ समाधौ च विलीनोभूदासने संस्थितः स्वयम् । प्राणायामं त्रिरावृत्त्या कृत्वा मुनिवरस्तदा ॥ १३ ॥ ध्यायति स्म परं ज्योतिरात्मस्थमात्मना च सः । अत्रिर्मुनिवरो ज्ञानी शंकरं निर्विकारकम् ॥ १४ ॥ तब वे मुनिवर [अत्रि] स्वयं आसनपर स्थित हो तीन बार प्राणायामकर समाधिमें लीन हो गये । इस प्रकार वे ज्ञानी मुनिश्रेष्ठ अत्रि आत्मामें स्थित निर्विकार शिवस्वरूप परमज्योतिका ध्यान करने लगे ॥ १३-१४ ॥ स्वामिनि ध्यानलीने च शिष्यास्ते दूरतो गताः । अन्नं विना तदा ते तु मुक्त्वा तं स्वगुरुं मुनिम् ॥ १५ ॥ एकाकिनी तदा जाता सानसूया पतिव्रता । १६ ॥ सिषेवे सा च सततं तं मुदा मुनिसत्तमम् । पार्थिवं सुन्दरं कृत्वा मंत्रेण विधि पूर्वकम् ॥ १७ ॥ मानसैरुपचारैश्च पूजयामास शंकरम् । तुष्टाव शंकरं भक्त्या संसेवित्वा मुहुर्मुहुः ॥ १८ ॥ बद्धाञ्जलिपुटा भूत्वा प्रक्रम्य स्वामिनं शिवम् । दण्डवत्प्रणिपातेन प्रतिप्रक्रमणं तदा ॥ १९ ॥ तब गुरुके समाधिमें लीन हो जानेपर उनके शिष्य अन्नके अभावमें अपने गुरुको छोड़कर दूर चले गये । तब वे पतिव्रता अनसूया अकेली हो गयीं और वे प्रसन्नताके साथ निरन्तर उन मुनिश्रेष्ठकी सेवा करने लगीं । वे सुन्दर पार्थिव शिवलिंग बनाकर मन्त्रके द्वारा विधिवत् मानस उपचारोंसे पूजन करती थीं और बारंबार शंकरजीकी सेवाकर भक्तिसे उनकी स्तुति करती थीं । हाथ जोड़कर स्वामी सदाशिवकी प्रदक्षिणाकर सुन्दर चरित्रवाली वे मुनिपत्नी अनसूया प्रत्येक परिक्रमामें दण्डवत् प्रणाम करती थीं ॥ १५-१९ ॥ चकार सुचरित्रा सानसूया मुनिकामिनी । दैत्याश्च दानवाः सर्वे दृष्ट्वा तु सुन्दरीं तदा ॥ २० ॥ विह्वलाश्चाभवंस्तत्र तेजसा दूरतः स्थिताः । अग्निं दृष्ट्वा यथा दूरे वर्तन्ते तद्वदेव हि ॥ २१ ॥ उस समय उन शोभाशालिनी [अनसूया]-को देखकर सम्पूर्ण दैत्य एवं दानव वहाँ घबड़ा गये और उनके तेजके कारण दूर खड़े हो गये । जिस प्रकार अग्निको देखकर लोग दूर रहते हैं, उसी प्रकार उनको देखकर लोग समीपमें नहीं आते थे ॥ २०-२१ ॥ तथैनां च तदा दृष्ट्वा नायान्तीह समीपगाः । अत्रेश्च तपसश्चैवानसूया शिवसेवनम् ॥ २२ ॥ विशिष्यते स्म विप्रेन्द्रा मनोवाक्कायसंस्कृतम। तावत्कालं तु सा देवी परिचर्यां चकार ह । २३ ॥ यावत्कालं मुनिवरः प्राणायामपरायणः । तौ दम्पती तदा तत्र स्वस्व कार्यपरायणौ ॥ २४ ॥ संस्थितौ मुनिशार्दूल नान्यः कश्चित्परः स्थितः । एवं जातं तदा काले ह्यत्रिश्च ऋषिसत्तमः ॥ २५ ॥ हे विप्रेन्द्रो ! अत्रिकी तपस्याकी अपेक्षा अनसूयाद्वारा मन, वाणी एवं कर्मसे किया गया शिवसेवन विशिष्ट था । इस प्रकार जबतक मुनिवर अत्रि प्राणायामपरायण होकर समाधिमें लीन रहे, तबतक वे देवी उनकी सेवा करती रहीं । हे मुनिवर ! इस प्रकार वे दोनों पति-पत्नी अपने-अपने कार्यमें परायण होकर स्थित रहे, वहाँ कोई अन्य स्थित न रहा, चिरकाल व्यतीत हो जानेपर भी इस प्रकार ध्यानमें मग्न ऋषि श्रेष्ठ अत्रिको किसी वस्तका भान न रहा ॥ २२–२५ ॥ ध्याने च परमे लीनो न व्यबुध्यत किंचन । अनसूयापि सा साध्वी स्वामिनं वै शिवं तथा ॥ २६ ॥ नान्यत्परं किंचिज्जानीते स्म च सा सती । तस्यैव तपसा सर्वे तस्याश्च भजनेन च ॥ २७ ॥ देवाश्च ऋषयश्चैव गंगाद्यास्सरितस्तथा । दर्शनार्थं तयोः सर्वाः परे प्रीत्या समाययुः ॥ २८ ॥ पतिव्रता अनसूया भी अपने पति अत्रि तथा अपने इष्टदेव सदाशिवकी सेवा करने लगों और उन सतीको भी किसी अन्य वस्तुका ज्ञान न रहा । तब उन अत्रिकी तपस्या तथा अनसूयाके शिवाराधनसे प्रसन्न होकर सम्पूर्ण देवता, ऋषिगण तथा गंगा आदि सभी नदियाँये सभी उन दोनोंका दर्शन करनेके लिये प्रेमपूर्वक वहाँ आये । अत्रिकी तपश्चर्या एवं अनसूयाकी सेवा देखकर वे बड़े आश्चर्यमें पड़ गये ॥ २६-२८ ॥ दृष्ट्वा च तत्तपस्सेवां विस्मयं परमं ययुः । तयोस्तदद्भुतं दृष्ट्वा समूचुर्भजनं वरम् ॥ २९ ॥ उभयोः किं विशिष्टं च तपसो भजनस्य च । अत्रेश्चैव तपः प्रोक्तमनसूयानुसेवनम् ॥ ३० ॥ तत्सर्वमुभयोर्दृष्ट्वा समूचुर्भजनं वरम् । पूर्वैश्च ऋषिभिश्चैव दुष्करं तु तपः कृतम् ॥ ३१ ॥ एतादृशं तु केनापि क्व कृतं नैतदब्रुवन् । धन्योऽयं च मुनिर्धन्या तथेयमनसूयिका ॥ ३२ ॥ यदैताभ्यां परप्रीत्या क्रियते सुतपः पुनः । एतादृशं शुभं चैतत्तपो दुष्करमुत्तमम् ॥ ३३ ॥ उन दोनोंके अद्भुत तप तथा उत्तम सेवाभावको देखकर वे कहने लगे कि अत्रिका तप तथा अनसूयाकी आराधना-इन दोनोंमें कौन श्रेष्ठ है ? इसके बाद उन दोनोंको देखकर उन्होंने कहा कि भजन श्रेष्ठ है । पूर्वकालीन ऋषियोंने भी दुष्कर तप किया था, किंतु ऐसा कठिन तप किसीने कभी भी नहीं किया ऐसा उन्होंने कहा । ये अत्रि धन्य हैं एवं ये अनसूया भी धन्य हैं, जो कि ये दोनों प्रेमपूर्वक घोर तपस्या कर रहे हैं । त्रिलोकीमें इस प्रकारका शुभ, उत्तम तथा कठिन तप किसीने किया हो, यह बात इस समयतक जानी नहीं जा सकी है ॥ २९-३३ ॥ त्रिलोक्यां क्रियते केन साम्प्रतं ज्ञायते न हि । तयोरेव प्रशंसां च कृत्वा ते तु यथागतम् ॥ ३४ ॥ गतास्ते च तदा तत्र गंगा न गिरिशं विना। गंगा मद्भजनप्रीता साध्वी धर्मविमोहिता । ३५ ॥ इस प्रकार उनकी प्रशंसाकर वे जैसे आये थे, वैसे ही [अपने-अपने स्थानको] चले गये । परंतु गंगाजी और शिवजी वहीं स्थित रहे । गंगा तो साध्वी अनसूयाके पातिव्रत्य धर्म तथा उनकी सेवासे मुग्ध होकर वहीं रह गयीं । गंगाने कहा कि मैं इन अनसूयाका उपकार करके ही जाऊँगी ॥ ३४-३५ ॥ कृत्वोपकारमेतस्या गमिष्यामीत्युवाच सा । शिवोऽपि ध्यानसम्बद्धो मुनेरत्रेर्मुनीश्वराः ॥ ३६ ॥ पूर्णांशेन स्थितस्तत्र कैलासं तं जगाम ह । पंचाशच्च तथा चात्र चत्वारि ऋषिसत्तमाः ॥ ३७ ॥ वर्षाणि च गतान्यासन्वृष्टिर्नैवाभवत्तदा । यावच्चाप्यत्रिणा ह्येवं तपसा ध्यानमाश्रितम् ॥ ३८ ॥ अनसूया तदा नैव गृह्णामीतीषणा कृता । एवं च क्रियमाणे हि मुनिना तपसि स्थिते । अनसूयासुभजने यज्जातं श्रूयतामिति ॥ ३९ ॥ हे मुनीश्वरो ! शिवजी भी महर्षि अत्रिके ध्यानसे बँधे रहनेके कारण पूर्णाशसे वहीं स्थित हो गये और कैलास नहीं गये । हे ऋषिश्रेष्ठो ! चौवन वर्ष बीत गये, किंतु वर्षा नहीं हुई । इधर, अनसूयाने यह प्रतिज्ञा कर रखी थी कि जबतक महर्षि समाधिमें लीन रहेंगे, तबतक मैं कुछ भी ग्रहण नहीं करूँगी । इस प्रकार [हे महर्षियो !] मुनिके द्वारा की जाती हुई तपस्यामें स्थित रहने और अनसूयाके शिवभजनमें तत्पर रहनेके कारण जो कुछ हुआ, उसे आप लोग सुनें ॥ ३६-३९ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां अनसूयात्रितपोवर्णनं नाम तृतीयो ऽध्यायः ॥ ३ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरूद्रसंहितामें अनसूयात्रितपोवर्णन नामक तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |