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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां
षष्ठोऽध्यायः नंदिकेश्वरलिंगमाहात्म्यवर्णने ब्राह्मणीस्वर्गतिवर्णनम् -
नर्मदा एवं नन्दिकेश्वरके माहात्म्य-कथनके प्रसंगमें ब्राह्मणीकी स्वर्गप्राप्तिका वर्णन - सूत उवाच - गौश्चैकाप्यभवत्तत्र ह्यंगणे बंधिता शुभा । तदैव ब्राह्मणो रात्रावाजगाम बहिर्गतः ॥ १ ॥ स उवाच प्रियां स्वीयां दृष्ट्वा गामंगणे स्थिताम् । अदुग्धां खेदनिर्विण्णो दोग्धुकामो मुनीश्वराः ॥ २ ॥ गौः प्रिये नैव दुग्धा ते सेत्युक्ता वत्समानयत् । दोहनार्थं समाहूय स्त्रियं शीघ्रतरं तदा ॥ ३ ॥ वत्सं कीले स्वयं बद्धुं यत्नं चैवाकरोत्तदा । ब्राह्मणस्स गृहस्वामी मुनयो दुग्धलालसः ॥ ४ ॥ सूतजी बोले-[हे ऋषियो!] वहाँपर आँगनमें एक उत्तम गाय बँधी थी। रातको जब बाहर गया हुआ [गृहपति] ब्राह्मण आया, तब हे मुनीश्वरो! गायको बिना दुही हुई आँगनमें स्थित देख करके खिन्न हो उसे दुहनेकी इच्छासे उसने अपनी पत्नीसे कहा-हे प्रिये! तुमने अभीतक गाय नहीं दुही? पत्नीसे ऐसा कहकर वह बछड़ेको ले आया। इसके बाद हे मुनियो! दुहनेके उद्देश्यसे शीघ्र ही स्त्रीको बुलाकर दूधकी इच्छावाला वह गृहपति ब्राह्मण स्वयं बछड़ेको खूटमें बाँधनेका प्रयत्न करने लगा॥ १-४ ॥ वत्सोपि कर्षमाणश्च पादे वै पादपीडनम् । चकार ब्राह्मणश्चैव कष्टं प्राप्तश्च सुव्रताः ॥ ५ ॥ हे सुव्रतो ! ब्राह्मणद्वारा खींचे जानेपर बछड़ेने उसके पैरमें लात मार दी, जिससे ब्राह्मणको कष्ट हुआ॥५॥ तेन पादप्रहारेण स द्विजः क्रोधमूर्छितः । वत्सं च ताडयामास कूपैर्दृढतरं तदा ॥ ६ ॥ उस पादप्रहारके कारण क्रोधसे तमतमाये हुए उस ब्राह्मणने कुहनीसे उस बछड़ेको जोरसे मारा ॥ ६॥ वत्सोपि पीडितस्तेन श्रांतश्चैवाभवत्तदा । दुग्धा गौर्मोचितो वत्सो न क्रोधेन द्विजन्मना ॥ ७ ॥ इस प्रकार उसके द्वारा मारे जानेपर बछड़ा भी शान्त हो गया। उसके बाद उस ब्राह्मणने गायको दुह लिया, किंतु क्रोधके कारण बछड़ेको मुक्त नहीं किया ॥७॥ गौर्दोग्धुं महत्प्रीत्या रोदनं चाकरोत्तदा । दृष्ट्वा च रोदनं तस्या वत्सो वाक्यमथाब्रवीत् ॥ ८ ॥ वह गाय अपने बछड़ेको प्रीतिपूर्वक दूध पिलानेके लिये महान् रुदन करने लगी; तब उसका रुदन देखकर बछड़ेने यह वाक्य कहा--- ॥ ८ ॥ वत्स उवाच - कथं च रुद्यते मातः किन्ते दुःखमुपस्थितम् । तन्निवेदय मे प्रीत्या तच्छ्रुत्वा गौरवोचत ॥ ९ ॥ श्रूयतां पुत्र मे दुःखं वक्तुं शक्नोम्यहं न हि । दुष्टेन ताडितत्वं च तेन दुःखं ममाप्यभूत् ॥ १० ॥ बछड़ा बोला-हे माता! तुम क्यों रो रही हो, तुम्हें कौन-सा दुःख आ पहुँचा; उसे प्रेमपूर्वक मुझे बताओ। यह सुनकर गाय बोली-हे पुत्र! मेरा दुःख सुनो; मैं उसे कह नहीं सकती हूँ। इस दुष्टने तुमको मारा है, इससे मुझे भी [बहुत] दुःख हुआ है ॥ ९-१०॥ सूत उवाच - स्वमातुर्वचनं श्रुत्वा स वत्सः प्रत्यबोधयत् । प्रत्युवाच स्वजननीं प्रारब्धपरिनिष्ठितः ॥ ११ ॥ सूतजी बोले- अपनी माताकी बात सुनकर प्रारब्धसे सन्तुष्ट उस बछड़ेने अपनी माताको समझाते हुए कहा-॥११॥ किं कर्त्तव्यं क्व गंतव्यं कर्मबद्धा वयं यतः । कृतं चैव यथापूर्वं भुज्यते च तथाधुना ॥ १२ ॥ हे मातः ! क्या किया जाय और कहाँ जाया जाय; क्योंकि हम सभी कर्मके बन्धनमें बँधे हुए हैं, इसलिये पूर्वमें जैसा कर्म किया गया है, वहीं इस समय भोगना पड़ रहा है ॥ १२ ॥ हसता क्रियते कर्म रुदता परिभुज्यते । दुःखदाता न कोप्यस्ति सुखदाता न कश्चन ॥ १३ ॥ प्राणी हँसते हुए तो कर्म करता है और रोते हुए उसका फल भोगता है। कोई किसीको न सुख देनेवाला है और न ही किसीको दुःख देनेवाला है ॥ १३ ॥ सुखदुःखे परो दत्त इत्येषा कुमतिर्मता । अहं चापि करोम्यत्र मिथ्याज्ञानं तदोच्यते ॥ १४ ॥ स्वकर्मणा भवेद्दुखं सुखं तेनैव कर्मणा । तस्माच्च पूज्यते कर्म सर्वं कर्मणि संस्थितम ॥ १५ ॥ 'कोई दूसरा सुख और दुःख देनेवाला है'-यह दुर्बुद्धि मानी गयी है । मैं ही करता हूँ' यह मिथ्या ज्ञान कहा जाता है । [प्राणीको] अपने कर्मोंसे दुःख होता है और उसी कर्मसे सुख भी होता है, इसलिये कर्मकी पूजा होती है; सब कुछ कर्ममें ही स्थित है ॥ १४-१५ ॥ त्वं चैवाहं च जननी इमे जीवादयश्च ये । ते सर्वे कर्मणा बद्धा न शोच्याः कर्हिचित्त्वया ॥ १६ ॥ हे माता ! तुम, मैं और ये जीव आदि जो भी हैंवे सब कर्मसे बंधे हुए हैं, इसलिये तुम किसी प्रकारका सोच मत करो ॥ १६ ॥ सूत उवाच - एवं श्रुत्वा स्वपुत्रस्य वचनं ज्ञानगर्भितम् । पुत्रशोकान्विता दीना सा च गौरब्रवीदिदम् ॥ १७ ॥ सूतजी बोले-इस प्रकार अपने पुत्रके ज्ञानपूर्ण वचनको सुनकर पुत्रशोकसे युक्त एवं दुःखित उस गायने यह कहा- ॥ १७ ॥ गौरुवाच - वत्स सर्वं विजानामि कर्माधीनाः प्रजा इति । तथापि मायया ग्रस्ता दुःखं प्राप्नोम्यहं पुनः ॥ १८ ॥ रोदनं च कृतं भूरि दुःखशान्तिर्भवेन्नहि । इत्येतद्वचनं श्रुत्वा प्रसूं वत्सोऽब्रवीदिदम् ॥ १९ ॥ गाय बोली-हे वत्स ! मैं सब जानती हूँ कि सभी प्राणी कर्मके अधीन हैं, किंतु मोहसे ग्रस्त होनेके कारण मैं बारंबार दुःख प्राप्त कर रही हूँ । मैंने [तुम्हारी ममतावश] बहुत रुदन भी किया, किंतु तब भी दुःख शान्त नहीं हो रहा है । तब यह बात सुनकर बछड़ेने मातासे यह कहा- ॥ १८-१९ ॥ वत्स उवाच - यद्येवं च विजानामि पुनश्च रुदनं कुतः । कृत्वा च साध्यते किञ्चित्तस्माद्दुःखं त्यजाधुना ॥ २० ॥ बछड़ा बोला-यदि तुम ऐसा जानती हो, तो फिर रोना कैसा ! कुछ भी करके उसका भोग करना ही पड़ता है, अतः अब दुःख छोड़ो ॥ २० ॥ सूत उवाच - एवं पुत्रवचः श्रुत्वा तन्माता दुःखसंयुता । निःश्वस्याति तदा धेनुर्वत्सं वचनमब्रवीत् ॥ २१ ॥ सूतजी बोले-पुत्रकी यह बात सुनकर उसकी माता बहुत दुःखित हुई । इसके बाद लम्बी साँस लेकर गायने बछड़ेसे यह वचन कहा- ॥ २१ ॥ गौरुवाच - मम दुःखं तदा गच्छेद्यथा दुखं तथाविधम् । भवेद्धि ब्राह्मणस्यापि सत्यमेतद्ब्रवीम्यहम् ॥ २२ ॥ गाय बोली-हे पुत्र ! मेरा दुःख तो तभी दूर होगा, जब वैसा ही दुःख इस ब्राह्मणको भी होगा; यह मैं सत्य कह रही हूँ ॥ २२ ॥ प्रातश्चैव मया पुत्र शृंगाभ्यां हि हनिष्यते । हतस्य जीवितं सद्यो यास्यत्यस्य न संशयः ॥ २३ ॥ हे पुत्र ! मैं प्रात:काल उसे अवश्य ही दोनों सींगोंसे मारूँगी और तब घायल होनेपर इसके प्राण अवश्य छूट जायँगे; इसमें संशय नहीं है ॥ २३ ॥ वत्स उवाच - प्रथमं यत्कृतं कर्म तत्फलं भुज्यतेऽधुना । अस्याश्च ब्रह्महत्याया मातः किं फलमाप्स्यसे ॥ २४ ॥ बछड़ा बोला-हे मातः ! तुमने पूर्वजन्ममें जो कर्म किया है, उसका फल इस समय भोग रही हो और अब इस ब्रह्महत्याका फल किस प्रकार भोगोगी ? ॥ २४ ॥ समाभ्यां पुण्यपापाभ्यां भवेज्जन्म च भारते । तयोः क्षये च भोगेन मातर्मुक्तिरवाप्यते ॥ २५ ॥ हे माता ! पुण्य और पापके समान होनेपर भारतमें जन्म प्राप्त होता है और भोगके द्वारा उन दोनोंके नष्ट होनेपर मुक्ति प्राप्त होती है ॥ २५ ॥ कदापि कर्मणो नाशः कदा भोगः प्रजायते । तस्माच्च पुनरेवं त्वं कर्म मा कर्तुमुद्यता ॥ २६ ॥ अहं कुतस्ते पुत्रोद्य त्वं माता कुत एव च । वृथाभिमानः पुत्रत्वे मातृत्वे च विचार्य्यताम् ॥ २७ ॥ कभी-कभी कर्मके द्वारा कर्मका नाश हो जाता है तो कभी वह कर्म भोगका भी कारण बनता है । इसलिये तुम पुन: इस प्रकारका कर्म करनेके लिये तत्पर मत होओ । मैं कहाँसे आज तुम्हारा पुत्र हूँ और कहाँसे तुम मेरी माता हो; अतः पुत्रत्व और मातृत्वका अभिमान व्यर्थ है-तुम इसपर विचार करो ॥ २६-२७ ॥ क्व माता क्व पिता विद्धि क्व स्वामी क्व कलत्रकम् । न कोऽपि कस्य चास्तीह सर्वेपि स्वकृतं भुजः ॥ २८ ॥ तुम विचार करो कि कौन किसकी माता और कौन किसका पिता है ? कौन किसका स्वामी और कौन किसकी स्त्री है; यहाँपर कोई भी किसीका नहीं है, सभी अपने किये हुए कर्मका फल भोगते हैं ॥ २८ ॥ एवं ज्ञात्वा त्वया मातर्दुःखं त्याज्यं सुयत्नतः । सुभगाचरणं कार्यं परलोकसुखेप्सया ॥ २९ ॥ हे मातः ! ऐसा विचारकर आपको धैर्यसे दुःखका त्याग करना चाहिये और परलोकमें सुखकी इच्छासे सद्धर्मका आचरण करना चाहिये ॥ २९ ॥ गौरुवाच - एवं जानाम्यहं पुत्र माया मां न जहात्यसौ । त्वद्दुःखेन सुदुःखं मे तस्मै दास्ये तदेव हि ॥ ३० ॥ पुनश्च ब्रह्महत्याया नाशो यत्र भवेदिह । तत्स्थलं च मया दृष्टं हत्या मे हि गमिष्यति ॥ ३१ ॥ गाय बोली-हे पुत्र ! [यद्यपि] मैं यह जानती हूँ, किंतु यह मोह मुझे नहीं छोड़ता । उसने तुम्हें जिस प्रकारका दु:ख दिया है, मैं वैसा ही दुःख उसे भी दूंगी । उसके बाद मैं वहाँ जाऊँगी, जहाँ ब्रह्महत्याका नाश होता है, वह स्थान मैंने देखा है, जिससे मेरी हत्या दूर हो जायगी ॥ ३०-३१ ॥ सूत उवाच - इत्येतद्वचनं श्रुत्वा स्वमातुर्गोर्द्विजोत्तमाः । मौनत्वं स्वीकृतं तत्र वत्सेनोक्तं न किञ्चन ॥ ३२ ॥ सूतजी बोले-हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो ! अपनी माता उस गायकी बात सुनकर बछड़ा चुप हो गया और [इसके आगे] कुछ भी नहीं कह सका ॥ ३२ ॥ तयोस्तदद्भुतं वृत्तं श्रुत्वा पान्थो द्विजस्तदा । हृदा विचारयामास विस्मितो हि मुनीश्वराः ॥ ३३ ॥ इदमत्यद्भुतं वृत्तं दृष्ट्वा प्रातर्मया खलु । गंतव्यं पुनरेवातो गंतव्यं तत्स्थलं पुनः ॥ ३४ ॥ हे मुनीश्वरो ! तब उन दोनोंकी यह अद्भुत बात सुनकर वह तीर्थयात्री ब्राह्मण विस्मित होकर मनमें विचार करने लगा कि प्रातःकाल इस अद्भुत घटनाको देखकर ही मुझे जाना चाहिये । फिर मुझे उस [ब्रह्महत्याविनाशक] स्थानपर अवश्य चलना चाहिये ॥ ३३-३४ ॥ सूत उवाच - विचार्येति हृदा विप्रः स द्विजाः सेवकेन च । सुष्वाप तत्र जननीभक्तः परमविस्मितः ॥ ३५ ॥ सूतजी बोले-हे ब्राह्मणो ! वह मातृभक्त ब्राह्मण मनमें ऐसा निश्चयकर सेवकसहित अति विस्मित हो रात्रिमें सो गया ॥ ३५ ॥ प्रातःकाले तदा जाते गृहस्वामी समुत्थितः । बोधयामास तं पान्थं वचनं चेदमब्रवीत् ॥ ३६ ॥ इसके बाद प्रात:काल होनेपर गृहपति ब्राह्मण उठा और उस पथिकको जगाने लगा तथा उससे यह वचन कहने लगा- ॥ ३६ ॥ द्विज उवाच - स्वपिषि त्वं किमर्थं हि प्रातःकालो भवत्यलम् । स्वयात्रां कुरु तं देशं गमनेच्छा च यत्र ह ॥ ३७ ॥ तेनोक्तं श्रूयताम्ब्रह्मञ्च्छरीरे सेवकस्य मे । वर्तते हि व्यथा स्थित्वा मुहूर्तं गम्यते ततः ॥ ३८ ॥ ब्राह्मण बोला-[हे पथिक !] तुम अभीतक क्यों सो रहे हो ? प्रात:काल हो गया है, अतः जहाँ जानेकी इच्छा हो, उस स्थानके लिये अपनी यात्रा आरम्भ करो । तब उसने कहा-हे ब्रह्मन् ! सुनिये, मेरे सेवकके शरीरमें वेदना है, अत: मुहूर्तभर रुककर हम चले जायेंगे ॥ ३७-३८ ॥ सूत उवाच - इत्येवं च मिषं कृत्वा सुष्वाप पुरुषस्तदा । तद्वृत्तमखिलं ज्ञातुमद्भुतं विस्मयावहम् ॥ ३९ ॥ दोहनस्य तदा काले ब्राह्मणः स्वसुतं प्रति । उवाच गंतुकामश्च कार्यार्थं कुत्रचिच्च सः ॥ ४० ॥ सूतजी बोले-इस प्रकार बहाना बनाकर उस अद्भुत तथा आश्चर्यजनक सम्पूर्ण घटनाके विषयमें जाननेके लिये वह व्यक्ति पुनः सो गया । तदनन्तर गाय दुहनेके समय कार्यवश कहीं जानेकी इच्छावाले उस [गृहपति] ब्राह्मणने अपने पुत्रसे कहा- ॥ ३९-४० ॥ पितोवाच - मया तु गम्यते पुत्र कार्यार्थं कुत्रचित्पुनः । धेनुर्दोह्या त्वया वत्स सावधानादियं निजा ॥ ४१ ॥ पिता बोला-हे पुत्र ! मैं कार्यवश फिर कहीं अन्यत्र जा रहा हूँ, तुम सावधानीपूर्वक अपनी इस गायको दुह लेना ॥ ४१ ॥ सूत उवाच - इत्युक्त्वा ब्राह्मणवरस्स जगाम च कुत्रचित् । पुत्रः समुत्थितस्तत्र वत्सं च मुक्तवांस्तदा ॥ ४२ ॥ सूतजी बोले-[हे महर्षियो ! ऐसा कहकर वह ब्राह्मणश्रेष्ठ कहीं चला गया । फिर पुत्र उठा और उसने बछड़ेको खोला ॥ ४२ ॥ माता च तस्य दोहार्थमाजगाम स्वयन्तदा । द्विजपुत्रस्तदा वत्सं खिन्नं कीलेन ताडितम् ॥ ४३ ॥ बंधनार्थं हि गोः पार्श्वमनयद्दुग्धलालसः । पुनर्गौश्च तदा क्रुद्धा शृंगेनाताडयच्च तम् ॥ ४४ ॥ उसी समय उसकी माता गाय दुहनेके लिये स्वयं आयी । तब ब्राह्मणपुत्र कोहनीसे मारे जानेके कारण दुखी बछड़ेको दूधकी इच्छासे बाँधनेके लिये जब गायके पास ले गया, तब गाय क्रोधमें भरकर उसे सींगसे मारने लगी ॥ ४३-४४ ॥ पपात मूर्च्छां संप्राप्य सोपि मर्मणि ताडितः । लोकाश्च मिलितास्तत्र गवा बालो विहिंसितः ॥ ४५ ॥ जलं जलं वदन्तस्ते पित्राद्या यत्र संस्थिताः । यत्नश्च क्रियते यावत्तावद्बालो मृतस्तदा ॥ ४६ ॥ तब मर्मस्थानमें चोट खाया हुआ वह मूच्छित होकर गिर पड़ा । उसी समय सब लोग एकत्रित हो गये । 'गायने बालकको मार डाला, जल लाओ, जल लाओ' इस प्रकार कहते हुए वे जहाँ उसके पिता आदि थे, वहाँ पहुंचे । जबतक उसे बचानेका प्रयत्न किया गया, इतने वह बालक मर गया ॥ ४५-४६ ॥ मृते च बालके तत्र हाहाकारो महानभूत् । तन्माता दुःखिता ह्यासीद्रुरोद च पुनः पुनः ॥ ४७ ॥ बालकके मर जानेपर वहाँ हाहाकार मच गया; उसकी माता दुखी हो उठी और बारंबार रोने लगी ॥ ४७ ॥ किं करोमि क्व गच्छामि को मे दुःखं व्यपोहति । रुदित्वेति तदा गां च ताडयित्वा व्यमोचयत् ॥ ४८ ॥ 'अब मैं क्या करूँ ! कहाँ जाऊँ ! कौन मेरे दुःखको दूर करेगा'-इस प्रकार विलाप करके उसने गायको मारकर उसका बन्धन खोल दिया ॥ ४८ ॥ श्वेतवर्णा तदा सा गौर्द्रुतं श्यामा व्यदृश्यत । अहो च दृश्यतां लोकाश्चुक्रुशुश्च परस्परम् ॥ ४९ ॥ श्वेतवर्णकी वह गाय [ब्रह्महत्याके पापसे] श्यामवर्ण हो गयी । सभी लोग आपसमें जोर-जोरसे कहने लगेदेखिये, यह कैसा आश्चर्य है ! ॥ ४९ ॥ ब्राह्मणश्च तदा पान्र्थौ दृष्ट्वाश्चर्यं विनिर्गतः । यत्र गौश्च गतस्तत्र तामनु ब्राह्मणो गतः ॥ ५० ॥ तब यात्री ब्राह्मण यह आश्चर्य देखकर चल दिया और वह गाय जहाँ गयी, वहाँ उसीके पीछे-पीछे वह ब्राह्मण भी गया ॥ ५० ॥ ऊर्ध्वपुच्छं तदा कृत्वा शीघ्रं गौर्नर्मदां प्रति । आगत्य नन्दिकस्यास्य समीपे नर्मदाजले ॥ ५१ ॥ संनिमज्य त्रिवारं तु श्वेतत्वं च गता हि सा । यथागतं गता सा च ब्राह्मणो विस्मयं गतः ॥ ५२ ॥ अहो धन्यतमं तीर्थं ब्रह्महत्यानिवारणम् । स्वयं ममज्ज तत्रासौ ब्राह्मणस्सेवकस्तथा ॥ ५३ ॥ निमज्ज्य हि गतौ तौ च प्रशंसन्तौ नदी च ताम् । मार्गे च मिलिता काचित्सुन्दरी भूषणान्विता ॥ ५४ ॥ वह गाय अपनी पूँछ ऊपर उठाये शीघ्र ही नर्मदा नदीकी ओर आकर इन नन्दिकेश्वरके निकट नर्मदा नदीके जलमें तीन बार अवगाहन करके पुनः श्वेतवर्ण हो गयी । फिर वह जैसे आयी थी, वैसे चली गयी । इससे ब्राह्मण आश्चर्यचकित हो गया । वह बोला-अहो ! ब्रह्महत्याका नाश करनेवाला यह तीर्थ परम धन्य है । तब स्वयं उस ब्राह्मणने सेवकके साथ वहीं स्नान किया । स्नान करके उस नदीकी प्रशंसा करते हुए वे दोनों चल दिये । इसके बाद मार्गमें आभूषणसे भूषित कोई सुन्दरी स्त्री उन्हें मिली ॥ ५१-५४ ॥ तयोक्तं तं च भोः पांथ कुतो यासि सुविस्मितः । सत्यं ब्रूहि च्छलं त्यक्त्वा विप्रवर्य ममाग्रतः ॥ ५५ ॥ उसने पूछा-हे पथिक ! आप चकित होकर कहाँ जा रहे हैं ? हे विप्रवर ! छल त्यागकर आप मेरे सामने सत्य-सत्य कहिये ॥ ५५ ॥ सूत उवाच - एवं वचस्तदा श्रुत्वा द्विजेनोक्तं यथातथम् । पुनश्चायं द्विजस्तत्र स्त्रियोक्तः स्थीयतां त्वया ॥ ५६ ॥ तयोक्तं च समाकर्ण्य स्थितस्य ब्राह्मणस्ततः । प्रत्युवाच विनीतात्मा कथ्यते किं वदेति च ॥ ५७ ॥ सूतजी बोले-उस स्त्रीकी बात सुनकर ब्राह्मणने सारी घटना यथार्थ रूपमें बता दी; फिर स्वीने उस ब्राह्मणसे कहा-तुम यहाँ रुको । तब उसकी बात सुनकर वह ब्राह्मण रुक गया और विनम्र होकर बोला-तुम क्या कहती हो ? मुझे यह बताओ ॥ ५६-५७ ॥ सा चाह पुनरेवात्र त्वया दृष्टं स्थलं च यत् । तत्राधुना क्षिपास्थीनि मातुः किं गम्यतेऽन्यतः ॥ ५८ ॥ तव माता पान्थवर्य्य साक्षाद्दिव्यमयं वरम् । देहं धृत्वा द्रुतं साक्षाच्छंभोर्यास्यति सद्गतिम् ॥ ५९ ॥ वैशाखे चैव संप्राप्ते सप्तम्याश्च दिने शुभे । सितेपक्षे सदा गंगा ह्यायाति द्विजसत्तम ॥ ६० ॥ अद्यैव सप्तमी या सा गंगारूपास्ति तत्र वै । इत्युक्त्वान्तर्दधे देवी सा गंगा मुनिसत्तमाः ॥ ६१ ॥ तब वह पुनः बोली-'तुमने जिस स्थलको अभी देखा है, वहीं अपनी माताकी अस्थियोंको विसर्जित कर दो । अन्यत्र क्यों जाते हो ? हे पथिकश्रेष्ठ ! [ऐसा करनेसे] तुम्हारी माता साक्षात् दिव्य तथा उत्तम शरीर धारणकर शीघ्र ही शिवकी [कृपासे] सद्गतिको प्राप्त कर लेंगी । हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! वैशाखमासमें शुक्लपक्षकी सप्तमीके शुभ अवसरमें यहाँ सर्वदा गंगाजी आती हैं । आज ही वह सप्तमी तिथि है और वह गंगा मैं ही हूँ तथा वहीं जा भी रही हूँ' हे मुनीश्वरो ! यह कहकर [स्त्रीरूपधारी] वे गंगाजी अन्तर्धान हो गयीं ॥ ५८-६१ ॥ निवृत्तश्च द्विजः सोपि मात्रस्थ्यर्द्धं स्ववस्त्रतः । क्षिपेद्यावत्तत्र तीर्थे तावच्चित्रमभूत्तदा ॥ ६२ ॥ इसके बाद उस ब्राह्मणने भी लौटकर माताकी आधी ही अस्थियोंको अपने वस्वसे ज्यों ही उस तीर्थमें विसर्जित किया, तभी एक विचित्र दृश्य उपस्थित हो गया ॥ ६२ ॥ दिव्यदेहत्वमापन्ना स्वमाता च व्यदृश्यत । धन्योसि कृतकृत्योसि पवित्रं च कुलं त्वया ॥ ६३ ॥ धनं धान्यं तथा चायुर्वंशो वै वर्द्धतां तव । इत्याशिषं मुहुर्दत्त्वा स्वपुत्राय दिवं गता ॥ ६४ ॥ उसने दिव्य शरीर धारण की हुई अपनी माताको देखा; माताने उससे कहा-[हे पुत्र !] तुम धन्य हो, कृतकृत्य हो; तुमने अपने कुलको पवित्र कर दिया, तुम्हारे धन, धान्य, आयु एवं वंशकी वृद्धि हो-बारबार अपने पुत्रको इस प्रकारका आशीर्वाद देकर वे स्वर्ग चली गयीं ॥ ६३-६४ ॥ तत्र भुक्त्वा सुखं भूरि चिरकालं महोत्तमम् । शंकरस्य प्रसादेन गता सा ह्युत्तमां गतिम् ॥ ६५ ॥ वहाँपर बहुत समयतक अत्युत्तम परम सुख भोगकर शिवकृपासे उन्होंने श्रेष्ठ गति प्राप्त की ॥ ६५ ॥ ब्राह्मणश्च सुतस्तस्याः क्षिप्त्वास्थीनि पुनस्ततः । प्रसन्नमानसोऽभूत्स शुद्धात्मा स्वगृहं गतः ॥ ६६ ॥ इसके बाद उसका पुत्र वह ब्राह्मण भी अस्थियाँ विसर्जितकर प्रसन्न मनवाला हो गया एवं शुद्धचित्त हो अपने घर चला गया ॥ ६६ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां नंदिकेश्वरलिंगमाहात्म्यवर्णने ब्राह्मणीस्वर्गतिवर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुद्रसंहिताके नन्दिकेश्वरलिंगमाहात्यवर्णनमें ब्राह्मणीस्वर्गतिवर्णन नामक छठवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |