Menus in CSS Css3Menu.com


॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां

सप्तमोऽध्यायः

नन्दिकेश्वरशिवलिंगमाहात्म्यवर्णनम् -
नन्दिकेश्वरलिंगका माहात्म्य-वर्णन -


ऋषय ऊचुः -
कथं गंगा समायाता वैशाखे सप्तमीदिने ।
नर्मदायां विशेषेण सूतैतद्वर्णय प्रभो ॥ १ ॥
ईश्वरश्च कथं जातो नन्दिकेशो हि नामतः ।
वृत्तं तदपि सुप्रीत्या कथय त्वं महामते ॥ २ ॥
ऋषिगण बोले-हे सूत ! हे प्रभो ! वैशाखमासके शुक्लपक्षकी सप्तमीके दिन नर्मदानदीमें गंगाजी कैसे आयी थीं; इसे विशेषरूपसे बताइये । हे महामते ! उस स्थानपर शिवजी नन्दिकेश नामसे कैसे प्रसिद्ध हुए: आप इस वृत्तान्तको भी अत्यन्त प्रीतिपूर्वक कहिये ॥ १-२ ॥

सूत उवाच -
साधु पृष्टमृषिश्रेष्ठा नन्दिकेशाश्रितं वचः ।
तदहं कथयाम्यद्य श्रवणात्पुण्यवर्द्धनम् ॥ ३ ॥
ब्राह्मणी ऋषिका नाम्ना कस्यचिच्च द्विजन्मनः ।
सुता विवाहिता कस्मैचिद्द्विजाय विधानतः ॥ ४ ॥
सूतजी बोले-हे ऋषिश्रेष्ठो ! आपलोगोंने नन्दिकेशसे सम्बन्धित यह बहुत ही उत्तम बात पूछी है । अब मैं उसका वर्णन करता हूँ, इसके सुननेमात्रसे पुण्यकी वृद्धि होती है । [पूर्व समयमें] किसी ब्राह्मणकी ऋषिका नामक एक कन्या थी उसने अपनी उस कन्याका विवाह विधानपूर्वक किसी ब्राह्मणसे कर दिया ॥ ३-४ ॥

पूर्वकर्मप्रभावेन पत्नी सा हि द्विजन्मनः ।
सुव्रतापि च विप्रेन्द्रा बालवैधव्यमागता ॥ ५ ॥
हे ब्राह्मणश्रेष्ठो ! पूर्वजन्मके कर्मके प्रभावसे वह ब्राह्मणपत्‍नी पातिव्रत्यधर्ममें परायण होनेपर भी बाल्यावस्थामें ही विधवा हो गयी ॥ ५ ॥

अथ सा द्विजपत्नी हि ब्रह्मचर्य्यव्रतान्विता ।
पार्थिवार्चनपूर्वं हि तपस्तेपे सुदारुणम् ॥ ६ ॥
तब वह ब्राह्मणपत्‍नी ब्रह्मचर्यव्रतके पालनमें तत्पर हो, पार्थिवपूजनपूर्वक कठोर तप करने लगी ॥ ६ ॥

तस्मिन्नवसरे दुष्टो मूढनामाऽसुरो बली ।
ययौ तत्र महामायी कामबाणेन ताडितः ॥ ७ ॥
तपन्तीं तां समालोक्य सुन्दरीमतिकामिनीम् ।
तया भोगं ययाचे स नानालोभं प्रदर्शयन् ॥ ८ ॥
उसी समय महामायावी 'मूढ' नामक बलवान् दुष्ट असुर कामबाणसे पीड़ित होकर उस स्थानपर गया और तपस्या करती हुई उस परम सुन्दरी स्त्रीको देखकर वह अनेक प्रकारका प्रलोभन देते हुए उसके साथ सहवासकी याचना करने लगा ॥ ७-८ ॥

अथ सा सुव्रता नारी शिवध्यानपरायणा ।
तस्मिन्दृष्टिं दधौ नैव कामदृष्ट्या मुनीश्वराः ॥ ९ ॥
न मानितवती तं च ब्राह्मणी सा तपोरता ।
अतीव हि तपोनिष्ठासीच्छिवध्यानमाश्रिता ॥ १० ॥
हे मुनीश्वरो ! उस समय शिवध्यानमें परायण उस सुव्रता स्त्रीने कामभावनासे उसकी ओर देखातक नहीं । वह अत्यन्त तपोनिष्ठ तथा शिवध्यानमें मग्न थी । अतः तपस्यामें संलग्न उस ब्राह्मणीने उसका सम्मान भी नहीं किया ॥ ९-१० ॥

अथ मूढः स दैत्येन्द्रः तया तन्व्या तिरस्कृतः ।
चुक्रोध विकटं तस्यै पश्चाद्रूपमदर्शयत् ॥ ११ ॥
तब उस स्त्रीके द्वारा तिरस्कृत हुए उस मूर्ख दैत्यने | उसपर अत्यन्त क्रोध किया और उसे अपना विकट रूप दिखाया ॥ ११ ॥

अथ प्रोवाच दुष्टात्मा दुर्वचो भयकारकम् ।
त्रासयामास बहुशस्तां च पत्नीं द्विजन्मनः ॥ १२ ॥
तदा सा भयसंत्रस्ता बहुवारं शिवेति च ।
बभाषे स्नेहतस्तन्वी द्विजपत्नी शिवाश्रया ॥ १३ ॥
इसके बाद वह दुष्टात्मा [राक्षस] उस ब्राह्मणीको भयकारक दुर्वचन कहने लगा तथा उसे अनेक प्रकारसे डराने लगा । तब शिवपरायणा वह कृशांगी द्विजपली भयभीत होकर प्रेमपूर्वक बारंबार 'शिव-शिव'-ऐसा उच्चारण करने लगी ॥ १२-१३ ॥

विह्वलातीव सा नारी शिवनामप्रभाषिणी ।
जगाम शरणं शम्भोः स्वधर्मावनहेतवे ॥ १४ ॥
शरणागतरक्षार्थं कर्तुं सद्वृत्तमाहितम् ।
आनन्दार्थं हि तस्यास्तु शिव आविर्बभूव ह ॥ १५ ॥
अत्यन्त व्याकुल एवं शिवनामका जप करती हुई वह स्त्री अपने धर्मकी रक्षाके लिये जब शिवजीकी शरणमें चली गयी, तब शरणागतकी रक्षा, सदाचारकी स्थापना तथा उस ब्राह्मणीके आनन्दके लिये सदाशिव वहीं प्रकट हो गये ॥ १४-१५ ॥

अथ तं मूढनामानं दैत्येन्द्रं काम विह्वलम् ।
चकार भस्मसात्सद्यः शंकरो भक्तवत्सलः ॥ १६ ॥
तत्पश्चात् भक्तवत्सल शिवजीने कामपीड़ित उस मूढ नामक दैत्यको उसी समय भस्म कर दिया ॥ १६ ॥

ततश्च परमेशानो कृपादृष्ट्या विलोक्य ताम् ।
वरं ब्रूहीति चोवाच भक्तरक्षणदक्षधीः ॥ १७ ॥
इसके बाद भक्तोंकी रक्षा करनेमें दक्ष बुद्धिवाले शिवजीने दयादृष्टिसे उसकी ओर देखकर 'वर माँगो'इस प्रकार कहा ॥ १७ ॥

श्रुत्वा महेशवचनं सा साध्वी द्विजकामिनी ।
ददर्श शांकरं रूपमानन्दजनकं शुभम् ॥ १८ ॥
ततः प्रणम्य तं शंभुं परमेशसुखावहम् ।
तुष्टाव साञ्जलिः साध्वी नतस्कन्धा शुभाशया ॥ १९ ॥
वह पतिव्रता ब्राह्मणी शिवजीके इस वचनको सुनकर उनके मनोहर तथा आनन्दप्रद रूपकी ओर देखने लगी । तदनन्तर उत्तम विचारोंवाली वह पतिव्रता [ब्राहाणी] सुख देनेवाले महेश्वर शिवको प्रणाम करके सिर झुकाकर तथा हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगी ॥ १८-१९ ॥

ऋषिकोवाच -
देवदेव महादेव शरणागतवत्सल ।
दीनबन्धुस्त्वमीशानो भक्तरक्षाकरः सदा ॥ २० ॥
ऋषिका बोली-हे देवदेव ! हे महादेव ! हे शरणागतवत्सल ! आप दोनोंके बन्धु, सबके ईश्वर तथा सर्वदा भक्तोंकी रक्षा करनेवाले हैं ॥ २० ॥

त्वया मे रक्षितो धर्मो मूढनाम्नोऽसुरादिह ।
यदयं निहतो दुष्टो जगद्रक्षा कृता त्वया ॥ २१ ॥
[हे प्रभो !] आपने इस मूढ नामक दैत्यसे मेरे धर्मकी रक्षा की और आपने जो इसका वध किया है, उससे आपने [सम्पूर्ण] जगतकी भी रक्षा की है ॥ २१ ॥

स्वपादयोः परां भक्तिं देहि मे ह्यनपायिनीम् ।
अयमेव वरो नाथ किमन्यदधिकं ह्यतः ॥ २२ ॥
अन्यदाकर्णय विभो प्रार्थनां मे महेश्वर ।
लोकानामुपकारार्थमिह त्वं संस्थितो भव ॥ २३ ॥
अब आप मुझे अपने चरणोंमें सदा स्थिर रहनेवाली श्रेष्ठ भक्ति प्रदान कीजिये । हे नाथ ! यही मेरा वर है । इससे अधिक दूसरा वर क्या हो सकता है ! हे विभो ! हे महेश्वर ! मेरी एक और प्रार्थना आप सुनें-आप लोककल्याणके निमित्त यहीं पर निवास कीजिये ॥ २२-२३ ॥

सूत उवाच -
इति स्तुत्वा महादेवमृषिका सा शुभव्रता ।
तूष्णीमासाथ गिरिशः प्रोवाच करुणाकरः ॥ २४ ॥
सूतजी बोले-इस प्रकार महादेवकी स्तुतिकर उत्तम व्रतवाली वह ऋषिका चुप हो गयी; तब दयालु शिवजी कहने लगे- ॥ २४ ॥

गिरिश उवाच -
ऋषिके सुचरित्रा त्वं मम भक्ता विशेषतः ।
दत्ता वराश्च ते सर्वे तुभ्यं येये हि याचिताः ॥ २५ ॥
गिरिश बोले-हे ऋषिके ! तुम उत्तम चरित्रवाली हो और तुम मुझमें विशेष रूपसे भक्ति रखती हो, इसलिये तुमने जो-जो वर माँगा, उन सभी वरोंको मैंने तुम्हें प्रदान किया ॥ २५ ॥

एतस्मिन्नंतरे तत्र हरिब्रह्मादयः सुराः ।
शिवाविर्भावमाज्ञाय ययुर्हर्षसमन्विताः ॥ २६ ॥
शिवं प्रणम्य सुप्रीत्या समानर्चुश्च तेऽखिलाः ।
तुष्टुवुर्नतका विप्राः करौ बद्ध्वा सुचेतसः ॥ २७ ॥
इसी अवसरपर शिवजीको प्रकट हुआ जानकर ब्रह्मा, विष्णु आदि देवता हर्षयुक्त होकर वहाँ पहुँच गये । हे विप्रो ! उन सभीने अत्यन्त प्रीतिपूर्वक शिवजीको प्रणामकर उनका पूजन किया और सिर झुकाकर हाथ जोड़कर प्रसन्न चित्तसे उनकी स्तुति की ॥ २६-२७ ॥

एतस्मिन्समये गंगा साध्वी तां स्वर्धुनी जगौ ।
ऋषिकां सुप्रसन्नात्मा प्रशंसन्तो च तीद्विधिम् ॥ २८ ॥
इसी समय स्वर्नदी गंगाजीने [वहाँ आकर] साध्वी ऋषिकाके भाग्यकी प्रशंसा करते हुए प्रसन्नचित्त होकर उससे कहा- ॥ २८ ॥

गंगोवाच -
ममार्थे चैव वैशाखे मासि देयं त्वया वचः ।
स्थित्यर्थं दिनमेकं मे सामीप्यं कार्य्यमेव हि ॥ २९ ॥
गंगाजी बोलीं-[हे साध्वि !] तुम वैशाख महीने में एक दिन मेरे कल्याणके लिये अपने समीपमें मुझे रहनेका वचन दो, जिससे मैं एक दिन तुम्हारा सामीप्य प्राप्त करूँ ॥ २९ ॥

सूत उवाच -
गंगावचनमाकर्ण्य सा साध्वी प्राह सुव्रता ।
तथास्त्विति वचः प्रीत्या लोकानां हितहेतवे ॥ ३० ॥
सूतजी बोले-गंगाजीका वचन सुनकर श्रेष्ठ व्रतवाली उस साध्वीने लोकहितके लिये प्रेमपूर्वक यह वचन कहा-'ऐसा ही हो' ॥ ३० ॥

आनन्दार्थं शिवस्तस्याः सुप्रसन्नश्च पार्थिवे ।
तस्मिँल्लिंगे लयं यातः पूर्णांशेन तया हरः ॥ ३१ ॥
शिवजी भी उसके आनन्दके लिये उसके द्वारा निर्मित उस पार्थिव लिंगमें प्रसन्न होकर अपने पूर्णाशसे प्रविष्ट हो गये ॥ ३१ ॥

देवः सर्वे सुप्रसन्नाः प्रशंसंति शिवं च ताम् ।
स्वंस्वं धाम ययुर्विष्णुब्रह्माद्या अपि स्वर्णदी ॥ ३२ ॥
तद्दिनात्पावनं तीर्थमासीदीदृशमुत्तमम् ।
नन्दिकेशः शिवः ख्यातः सर्वपापविनाशनः ॥ ३३ ॥
इसके बाद ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवता तथा गंगाजी प्रसन्न हो शिवजीकी तथा उस [ब्राह्मणी]-की प्रशंसा करने लगे और अपने-अपने स्थानको चले गये । उसी दिनसे इस प्रकारका यह परम पावन तीर्थ हो गया और शिवजी भी वहाँ सभी पापोंका विनाश करनेवाले नन्दिकेश नामसे प्रसिद्ध हो गये ॥ ३२-३३ ॥

गंगापि प्रतिवर्षं तद्दिने याति शुभेच्छया।
क्षालनार्थं स्वपापस्य यद्ग्रहीतं नृणां द्विजाः । ३४ ॥
हे द्विजो ! तभीसे गंगाजी भी सबके कल्याणकी इच्छासे तथा मनुष्योंसे ग्रहण किया हुआ अपना पाप धोनेके लिये प्रत्येक वर्ष इस दिन यहाँ आती हैं ॥ ३४ ॥

तत्र स्नातो नरः सम्यङ् नंदिकेशं समर्च्य च ।
ब्रह्महत्यादिभिः पापैर्मुच्यते ह्यखिलैरपि ॥ ३५ ॥
मनुष्य वहाँ स्नानकर और भलीभाँति नन्दिकेश्वरकी पूजाकर ब्रह्महत्या आदि सभी पापोंसे छूट जाता है ॥ ३५ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां
नन्दिकेश्वरशिवलिंगमाहात्म्यवर्णनंनाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुद्रसंहितामें नन्दिकेश्वरशिवलिंगमाहात्यवर्णन नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


GO TOP