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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां
नवमोऽध्यायः चाण्डालीसद्गतिवर्णनम् -
संयोगवश हुए शिवपूजनसे चाण्डालीकी सद्गतिका वर्णन - ऋषय ऊचुः - सूतसूत महाभाग धन्यस्त्वं शैवसत्तमः । चाण्डाली का समाख्याता तत्कथां कथय प्रभो ॥ १ ॥ ऋषिगण बोले-हे सूतजी ! हे महाभाग ! आप परम शैव हैं, अतः आप धन्य हैं, हे विभो ! वह चाण्डाली कौन थी, उसकी कथा कहिये ॥ १ ॥ सूत उवाच - द्विजाः शृणुत सद्भक्त्या तां कथां परमाद्भुताम् । शिवप्रभावसंमिश्रां शृण्वतां भक्तिवर्द्धिनीम् ॥ २ ॥ सूतजी बोले-हे ब्राह्मणो ! सुननेवालोंकी भक्तिको बढ़ानेवाली तथा शिवके प्रभावसे मिश्रित उस अत्यन्त अद्भुत कथाको आपलोग भक्तिपूर्वक सुनिये ॥ २ ॥ चांडाली सा पूर्वभरेऽभवद्ब्राह्मणकन्यका । सौमिनी नाम चन्द्रास्या सर्वलक्षणसंयुता ॥ ३ ॥ अथ सा समये कन्या युवतिः सौमिनी द्विजाः । पित्रा दत्ता च कस्मैचिद्विधिना द्विजसूनवे ॥ ४ ॥ वह चाण्डाली पूर्वजन्ममें सभी लक्षणोंसे समन्वित तथा चन्द्रमाके समान मुखवाली सौमिनी नामक ब्राह्मणकन्या थी । हे द्विजो ! सौमिनीके युवती हो जानेपर उसके पिताने किसी ब्राह्मणपुत्रसे विधिपूर्वक उसका विवाह सम्पन्न कर दिया ॥ ३-४ ॥ सा भर्तारमनुप्राप्य किंचित्कालं शुभव्रता । रेमे तेन द्विजश्रेष्ठा नवयौवनशालिनी ॥ ५ ॥ हे ब्राह्मणश्रेष्ठो ! तदनन्तर नवीन यौवनशालिनी वह उत्तम व्रतवाली सौमिनी पतिको प्राप्त करके उसके साथ सुखपूर्वक रहने लगी ॥ ५ ॥ अथ तस्याः पतिर्विप्रस्तरुणस्सुरुजार्दितः । सौमिन्याः कालयोगात्तु पञ्चत्वमगमद्द्विजाः ॥ ६ ॥ हे द्विजो ! [कुछ काल बीतनेके पश्चात्] उस सौमिनीका नवयुवक ब्राह्मण पति रोगग्रस्त हो गया और कालयोगसे मृत्युको प्राप्त हो गया ॥ ६ ॥ मृते भर्तरि सा नारी दुखितातिविषण्णधीः । किंचित्कालं शुभाचारा सुशीलोवास सद्मनि ॥ ७ ॥ ततस्सा मन्मथाविष्टहृदया विधवापि च । युवावस्थाविशेषेण बभूव व्यभिचारिणी ॥ ८ ॥ पतिके मर जानेपर सुशील तथा उत्तम आचारवाली उस स्त्रीने दुःखित तथा व्यथितचित्त होकर कुछ काल अपने घरमें निवास किया । उसके अनन्तर विधवा होते हुए भी युवती होनेके कारण कामसे आविष्ट मनवाली वह व्यभिचारिणी हो गयी ॥ ७-८ ॥ तज्ज्ञात्वा गोत्रिणस्तस्या दुष्कर्म कुलदूषणम् । समेतास्तत्यजु दूरं नीत्वा तां सकचग्रहाम् ॥ ९ ॥ तब कुलको कलंकित करनेवाले उसके इस कुकर्मको जानकर उसके कुटुम्बियोंने परस्पर मिलकर उसके बालोंको खींचते हुए उसे दूर ले जाकर छोड़ दिया ॥ ९ ॥ कश्चिच्छूद्रवरस्तां वै विचरन्तीं निजेच्छया । दृष्ट्वा वने स्त्रियं चक्रे निनाय स्वगृहं तत ॥ १० ॥ कोई शूद्र उसे वनमें स्वच्छन्द विचरण करती हुई देख अपने घर ले आया और उसने उसे अपनी पत्नी बना लिया ॥ १० ॥ अथ सा पिशिताहारा नित्यमापीतवारुणी । अजीजनत्सुतान्तेन शूद्रेण सुरतप्रिया ॥ ११ ॥ अब वह प्रतिदिन मांसका भोजन करती, मदिरा पीती और व्यभिचारनिरत रहती थी । इस प्रकार उस शूद्रके सम्बन्धसे उसने एक कन्याको जन्म दिया ॥ ११ ॥ कदाचिद्भर्तरि क्वापि याते पीतसुराथ सा । इयेष पिशिताहारं सौमिनी व्यभिचारिणी ॥ १२ ॥ किसी समय पतिके कहीं चले जानेपर उस व्यभिचारिणी सौमिनीने मद्यपान किया और वह मांसके आहारकी इच्छा करने लगी ॥ १२ ॥ ततो मेषेषु बद्धेषु गोभिस्सह बहिर्व्रजे । निशामुखे तमोऽन्धे हि खड्गमादाय सा ययौ ॥ १३ ॥ अविमृश्य मदावेशान्मेषबुद्याऽऽमिष प्रिया । एकं जघान गोवत्सं क्रोशंतमतिदुर्भगा ॥ १४ ॥ इसके बाद रात्रिके समय घोर अन्धकारमें तलवार लेकर वह घरके बाहर गोष्ठमें गायोंके साथ बँधे हुए मेषोंके बीच गयी । उस समय मांससे प्रेम रखनेवाली उस दुर्भगाने मद्यके नशेके कारण बिना विचार किये चिल्लाते हुए एक बछड़ेको मेष समझकर मार डाला ॥ १३-१४ ॥ हतं तं गृहमानीय ज्ञात्वा गोवत्समंगना । भीता शिवशिवेत्याह केनचित्पुण्यकर्मणा ॥ १५ ॥ सा मुहूर्तं शिवं ध्यात्वामिषभोजनलालसा । छित्त्वा तमेव गोवत्सं चकाराहारमीप्सितम् ॥ १६ ॥ मरे हुए उस पशुको घर लाकर बादमें उसे बछड़ा जानकर वह स्त्री भयभीत हो गयी और किसी पुण्य कर्मसे [पश्चात्तापपूर्वक] 'शिव-शिव'-ऐसा उच्चारण करने लगी । क्षणभर शिवजीका ध्यान करके मांसके आहारकी इच्छावाली उसने उस बछड़ेको ही काटकर अभिलषित भोजन कर लिया ॥ १५-१६ ॥ एवं बहुतिथे काले गते सा सौमिनी द्विजाः । कालस्य वशमापन्ना जगाम यमसंक्षयम् ॥ १७ ॥ यमोऽपि धर्ममालोक्य तस्याः कर्म च पौर्विकम् । निवर्त्य निरयावासाच्चक्रे चाण्डालजातिकाम् ॥ १८ ॥ हे द्विजो ! इस प्रकार बहुत-सा समय बीतनेके पश्चात् वह सौमिनी कालके वशीभूत हो गयी और यमलोक चली गयी । यमराजने भी उसके पूर्वजन्मके कर्म तथा धर्मका निरीक्षणकर उसे नरकसे निकालकर चाण्डाल जातिवाली बना दिया ॥ १७-१८ ॥ साथ भ्रष्टा यमपुराच्चाण्डालीगर्भमाश्रिता । ततो बभूव जन्मान्धा प्रशांतांगारमेचका ॥ १९ ॥ जन्मान्धा साथ बाल्येऽपि विध्वस्तपितृमातृका । ऊढा न केनचिद्दुष्टा महाकुष्ठरुजार्दिता ॥ २० ॥ यमराजपुरीसे लौटकर वह [सौमिनी] चाण्डालीके गर्भसे उत्पन्न हुई । वह जन्मसे अन्धी एवं कोयलेके समान काली थी । जन्मसे अन्धी, बाल्यावस्थामें ही माता-पितासे रहित और महाकुष्ठ रोगसे ग्रस्त उस दुष्टासे किसीने विवाह भी नहीं किया ॥ १९-२० ॥ ततः क्षुधार्दिता दीना यष्टिपाणिर्गतेक्षणा । चाण्डालोच्छिष्टपिंडेन जठराग्निमतपर्यत् ॥ २१ ॥ एवं कृच्छ्रेण महता नीत्वा स्वविपुलं वयः । जरयाग्रस्तसवार्ङ्गी दुःखमाप दुरत्ययम् ॥ २२ ॥ उसके बाद वह अन्धी चाण्डाली भूखसे पीड़ित एवं दीन हो लाठी हाथमें लेकर जहाँ-तहाँ डोलती और चाण्डालोंके जूठे अन्नसे अपने पेटकी ज्वाला शान्त करती थी । इस प्रकार महान् कष्टसे अपनी अवस्थाका बहुत भाग बिता लेनेके पश्चात् वृद्धावस्थासे ग्रस्त शरीरवाली वह घोर दुःख पाने लगी ॥ २१-२२ ॥ कदाचित्साथ चांडाली गोकर्णं तं महाजनान् । आयास्यंत्यां शिवतिथौ गच्छतो बुबुधेऽन्वगान् ॥ २३ ॥ किसी समय उस चाण्डालीको ज्ञात हुआ कि आगे आनेवाली शिवतिथिमें बड़े-बड़े लोग उस गोकर्णक्षेत्रकी ओर जा रहे हैं ॥ २३ ॥ अथासावपि चांडाली वसनासनतृष्णया । महाजनान् याचयितुं संचचार शनैः शनैः ॥ २४ ॥ गत्वा तत्राथ चांडाली प्रार्थयन्ती महाजनान् । यत्र तत्र चचारासौ दीनवाक्प्रसृताञ्जलिः ॥ २५ ॥ वह चाण्डाली भी वस्त्र एवं भोजनके लोभसे महाजनोंसे माँगनेके लिये धीरे-धीरे [गोकर्णकी ओर] चल पड़ी । वहाँ जाकर वह हाथ फैलाकर दीनवचन बोलती हुई और महाजनोंसे प्रार्थना करती हुई इधर-उधर घूमने लगी ॥ २४-२५ ॥ एवमभ्यर्थयंत्यास्तु चांडाल्याः प्रसृताञ्जलौ । एकः पुण्यतमः पान्थः प्राक्षिपद्बिल्वमंजरीम् ॥ २६ ॥ तामंजलौ निपतिता सा विमृश्य पुनः पुनः । अभक्ष्यमिति मत्वाथ दूरे प्राक्षिपदातुरा ॥ २७ ॥ इस प्रकार याचना करती हुई उस चाण्डालीकी फैली हुई अंजलिमें एक पुण्यात्मा यात्रीने बेलकी मंजरी डाल दी । बार-बार विचार करके 'यह खानेयोग्य नहीं है'-ऐसा समझकर भूखसे व्याकुल उसने अंजलिमें पड़ी हुई उस मंजरीको दूर फेंक दिया ॥ २६-२७ ॥ तस्याः कराद्विनिर्मुक्ता रात्रौ सा बिल्वमंजरी । पपात कस्यचिद्दिष्ट्या शिवलिंगस्य मस्तके ॥ २८ ॥ उसके हाथसे छूटी हुई वह बिल्वमंजरी शिवरात्रिमें भाग्यवश किसी शिवलिंगके मस्तकपर जा गिरी ॥ २८ ॥ सैवं शिवचतुर्दश्यां रात्रौ पान्थजनान्मुहुः । याचमानापि यत्किंचिन्न लेभे दैवयोगतः ॥ २९ ॥ एवं शिवचतुर्दश्या व्रतं जातं च निर्मलम् । अज्ञानतो जागरणं परमानन्ददायकम् ॥ ३० ॥ ततः प्रभाते सा नारी शोकेन महता वृता । शनैर्निववृते दीना स्वदेशायैव केवलम् ॥ ३१ ॥ इस प्रकार चतुर्दशीके दिन यात्रियोंसे बार-बार याचना करनेपर भी दैवयोगसे उसे कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ । तब इस तरहसे अनजानेमें उसका शिवचतुर्दशीका उत्तम व्रत और अत्यन्त आनन्ददायक जागरण भी हो गया । उसके पश्चात् प्रभात होनेपर वह स्त्री महान् शोकसे युक्त होकर धीरे-धीरे अपने घरके लिये चल पड़ी ॥ २९-३१ ॥ श्रांता चिरोपवासेन निपतंती पदेपदे । अतीत्य तावतीं भूमिं निपपात विचेतना ॥ ३२ ॥ अथ सा शंभुकृपया जगाम परमं पदम् । आरुह्य सुविमानं च नीतं शिवगणैर्द्रुतम् ॥ ३३ ॥ बहुत समयके उपवाससे थक चुकी वह पग-पगपर गिरती हुई उसी (गोकर्णक्षेत्रकी) भूमिपर चलते-चलते प्राणहीन होकर गिर पड़ी । उसने शिवजीकी कृपासे परम पद प्राप्त किया; शिव गण उसे विमानपर बैठाकर शीघ्र ही ले गये ॥ ३२-३३ ॥ आदौ यदेषा शिवनाम नारी प्रमादतो वाप्यसती जगाद । तेनेह भूयः सुकृतेन विप्रा महाबलस्थानमवाप दिव्यम् ॥ ३४ ॥ हे ब्राह्मणो ! पूर्वजन्ममें इस व्यभिचारिणी स्त्रीने जो अज्ञानमें शिवजीके नामका उच्चारण किया था, उसी पुण्यसे उसने दूसरे जन्ममें महाबलेश्वरके दिव्य स्थानको प्राप्त किया ॥ ३४ ॥ श्रीगोकर्णे शिवतिथावुपोष्य शिवमस्तके । कृत्वा जागरणं सा हि चक्रे बिल्वार्चनं निशि ॥ ३५ ॥ अकामतः कृतस्यास्य पुण्यस्यैव च तत्फलम् । भुनक्त्यद्यापि सा चैव महाबलप्रसादतः ॥ ३६ ॥ उसने गोकर्णमें शिवतिथिको उपवास करके शिवके मस्तकपर बिल्वपत्र अर्पितकर पूजन किया तथा रात्रिमें जागरण किया । निष्कामभावसे किये गये इस पुण्यका ही फल है कि वह आज भी महाबलेश्वरकी कृपासे सुख भोग रही है ॥ ३५-३६ ॥ एवंविधं महालिंगं शंकरस्य महाबलम् । सर्वपापहरं सद्यः परमानन्ददायकम् ॥ ३७ ॥ [हे ब्राह्मणो !] शिवजीका इस प्रकारका महाबलेश्वर नामक महालिंग शीघ्र ही सभी पापोंको नष्ट करनेवाला तथा परमानन्द प्रदान करनेवाला है ॥ ३७ ॥ एवं वः कथितं विप्रा माहात्म्यं परमं मया । महाबलाभिधानस्य शिवलिंगवरस्य हि ॥ ३८ ॥ अथान्यदपि वक्ष्यामि माहात्म्यं तस्य चाद्भुतम् । श्रुतमात्रेण येनाशु शिवे भक्तिः प्रजायते ॥ ३९ ॥ हे ब्राह्मणो ! इस प्रकार मैंने महाबलेश्वर नामक उत्तम शिवलिंगके परम माहात्म्यका वर्णन आपलोगोंसे किया । अब मैं उसके अन्य अद्भुत माहात्म्यको भी कह रहा हूँ, जिसके सुननेमात्रसे शीघ्र ही शिवजीके प्रति भक्ति उत्पन्न होती है ॥ ३८-३९ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां चाण्डालीसद्गतिवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुद्रसंहितामें चाण्डालीसदगतिवर्णन नामक नौवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |