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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां
दशमोऽध्यायः महाबाह्वशिवलिंगमाहात्म्यवर्णनम् -
महाबलेश्वर शिवलिंगके माहात्म्य-वर्णन-प्रसंगमें राजा मित्रसहकी कथा - सूत उवाच - श्रीमतीक्ष्वाकुवंशे हि राजा परमधार्मिकः । आसीन्मित्रसहो नाम श्रेष्ठस्सर्वधनुष्मताम् ॥ १ ॥ सूतजी बोले-[हे महर्षियो !] समृद्धिसम्पन्न इक्ष्वाकुवंशमें परम धार्मिक तथा सभी धनुषधारियोंमें श्रेष्ठ मित्रसह नामक राजा था ॥ १ ॥ तस्य राज्ञः सुधर्मिष्ठा मदयन्ती प्रिया शुभा । दमयन्ती नलस्येव बभूव विदिता सती ॥ २ ॥ उस राजाकी मदयन्ती नामक धर्मनिष्ठ तथा कल्याणमयी पत्नी थी, जो कि राजा नलकी प्रसिद्ध गुणोंवाली साध्वी दमयन्तीके समान सतीत्वसम्पन्न थी ॥ २ ॥ स एकदा हि मृगयास्नेही मित्रसहो नृपः । महद्बलेन संयुक्तो जगाम गहनं वनम् ॥ ३ ॥ आखेटमें रुचि रखनेवाला वह राजा मित्रसह एक बार विशाल सेनाको साथ लेकर घने वनमें गया ॥ ३ ॥ विहरंस्तत्र स नृपः कमठाह्वं निशाचरम् । निजघान महादुष्टं साधुपीडाकरं खलम् ॥ ४ ॥ अथ तस्यानुजः पापी जयेयं छद्मनैव तम् । मत्वा जगाम नृपतेरन्तिक च्छद्मकारकः ॥ ५ ॥ वहाँ घूमते हुए उस राजाने साधुओंको दुःख देनेवाले महादुष्ट तथा नीच कमठ नामक राक्षसको मार डाला । तब उस निशाचरका पापी छोटा भाई 'मैं इस राजाको छलसे जीत लूंगा'-ऐसा निश्चय करके कपटरूप धारणकर राजाके पास गया ॥ ४-५ ॥ तं विनम्राकृतिं दृष्ट्वा भृत्यतां कर्तुमागतम् । चक्रे महानसाध्यक्षमज्ञानात्स महीपतिः ॥ ६ ॥ उसे विनम्र आकृतिवाला तथा सेवा करनेके लिये आया हुआ देखकर उस राजाने बिना सोचे-समझे ही उसे रसोईका अध्यक्ष बना दिया ॥ ६ ॥ अथ तस्मिन्वने राजा कियत्कालं विहृत्य सः । निवृत्तो मृगयां हित्वा स्वपुरीमाययौ मुदा ॥ ७ ॥ उसके अनन्तर कुछ समयतक उस वनमें विहार करके वह राजा शिकारसे निवृत्त हो उस वनको छोड़कर आनन्दपूर्वक अपने नगरको लौट आया ॥ ७ ॥ पितुः क्षयाहे सम्प्राप्ते निमंत्र्य स्वगुरुं नृपः । वसिष्ठं गृहमानिन्ये भोजयामास भक्तितः ॥ ८ ॥ उसके बाद राजाने पिताका श्राद्धदिन आनेपर अपने गुरु वसिष्ठजीको आमन्त्रितकर उन्हें घर बुलाया और भक्तिपूर्वक भोजन करावा ॥ ८ ॥ रक्षसा सूदरूपेण संमिश्रितनरामिषम् । शाकामिषं पुरः क्षिप्तं दृष्ट्वा गुरुरथाब्रवीत् ॥ ९ ॥ रसोइयेका रूप धारण करनेवाले उस राक्षसने वसिष्ठजीके सामने मनुष्यके मांससे मिश्रित शाकामिष परोसा; तब गुरु इसे देखकर कहने लगे- ॥ ९ ॥ गुरुरुवाच - धिक् त्वां नरामिषं राजंस्त्वयैतच्छद्मकारिणा । खलेनोपहृतं मह्यं ततो रक्षो भविष्यसि ॥ १० ॥ रक्षःकृतं च विज्ञाय तदैवं स गुरुस्तदा । पुनर्विमृश्य तं शापं चकार द्वादशाब्दिकम् ॥ ११ ॥ गुरुजी बोले-हे राजन् ! तुम्हें धिक्कार है, जो कि कपटी तथा दुष्ट तुमने मुझे मनुष्यका मांस परोस दिया; अत: तुम राक्षस हो जाओगे । पुनः इसे उस राक्षसका कृत्य जानकर उन गुरुने विचार करके उस शापकी अवधि बारह वर्षपर्यन्त कर दी ॥ १०-११ ॥ स राजानुचितं शापं विज्ञाय क्रोधमूर्छितः । जलांजलिं समादाय गुरुं शप्तुं समुद्यतः ॥ १२ ॥ तदा च तत्प्रिया साध्वी मदयन्ती सुधर्मिणी । पतित्वा पादयोस्तस्य शापं तं हि न्यवारयत् ॥ १३ ॥ तब वह राजा [गुरुके द्वारा बिना सोचे-समझे दिये गये] इस शापको अनुचित जानकर क्रोधसे व्याकुल हो गया और अंजलिमें जल लेकर गुरुको शाप देनेको उद्यत हुआ । तब उसकी धर्मशीला पतिव्रता स्त्री मदयन्तीने उसके चरणों में गिरकर उसे गुरुको शाप देनेसे मना किया ॥ १२-१३ ॥ ततो निवृत्तशापस्तु तस्या वचनगौरवात् । तत्याज पादयोरंभः पादौ कल्मषतां गतौ ॥ १४ ॥ तब राजा अपनी पत्नीकी बातका आदर करके शाप देनेसे रुक गया और उसने जलको अपने चरणोंपर गिरा दिया, जिससे उसके चरण काले पड़ गये ॥ १४ ॥ ततःप्रभृति राजाभूत्स लोकेस्मिन्मुनीश्वराः । कल्मषांघ्रिरिति ख्यातः प्रभावात्तज्जलस्य हि ॥ १५ ॥ हे मुनीश्वरो ! उसी समयसे वह राजा उस जलके प्रभावसे इस लोकमें कल्माषपाद नामसे प्रसिद्ध हुआ ॥ १५ ॥ राजा मित्रसहः शापाद्गुरो ऋषिवरस्य हि । बभूव राक्षसो घोरो हिंसको वनगोचरः ॥ १६ ॥ स बिभ्रद्राक्षसं रूपं कालान्तकयमोपमम् । चखाद विविधाञ्जंतून्मानुषादीन्वनेचरः ॥ १७ ॥ तदनन्तर ऋषिश्रेष्ठ गुरुके शापसे वह राजा मित्रसह वनमें विचरण करनेवाला भयानक हिंसक राक्षस हो गया । कालान्तक यमके समान राक्षसरूप धारणकर वह राजा वनमें घूमता हुआ अनेक प्रकारके जन्तुओं एवं मनुष्योंका भक्षण करने लगा ॥ १६-१७ ॥ स कदाचिद्वने क्वापि रममाणौ किशोरकौ । अपश्यदन्तकाकारो नवोढौ मुनिदम्पती ॥ १८ ॥ राक्षसः स नराहारः किशोरं मुनिनन्दनम् । जग्धुं जग्राह शापार्त्तो व्याघ्रो मृगशिशुं यथा ॥ १९ ॥ यमराजके समान रूपवाले उस राक्षसने किसी समय वनमें विहार करते हुए किन्हीं नवविवाहित किशोर मुनिदम्पतीको देखा । तब मनुष्यका आहार करनेवाले उस शापग्रस्त राक्षसने किशोर मुनिपुत्रको खानेके लिये इस प्रकार पकड़ लिया, जिस प्रकार व्याघ्र मृगशावकको पकड़ लेता है ॥ १८-१९ ॥ कुक्षौ गृहीतं भर्तारं दृष्ट्वा भीता च तत्प्रिया । सा चक्रे प्रार्थनं तस्मै वदंती करुणं वचः ॥ २० ॥ इसके बाद राक्षसद्वारा काँखमें दबाये गये अपने पतिको देखकर उसकी पत्नी भयभीत होकर करुण वचन बोलती हुई उससे प्रार्थना करने लगी ॥ २० ॥ प्रार्थ्यमानोऽपि बहुशः पुरुषादः स निर्घृणः । चखाद शिर उत्कृत्य विप्रसूनोर्दुराशयः ॥ २१॥ किंतु उसके अनेक बार प्रार्थना करनेपर भी नरभक्षी, निर्दयी तथा दूषित अन्त:करणवाला वह [राक्षस] ब्राह्मणपुत्रका सिर नोचकर खा गया ॥ २१ ॥ अथ साध्वी च सा दीना विलप्य भृशदुःखिता । आहृत्य भर्तुरस्थीनि चितां चक्रे किलोल्बणाम् । २२ ॥ तब अत्यन्त दुःखित उस दीन साध्वी स्त्रीने विलापकर पतिकी अस्थियाँ एकत्रितकर विशाल चिताका निर्माण किया ॥ २२ ॥ भर्तारमनुगच्छन्ती संविशंती हुताशनम् । राजानं राक्षसाकारं सा शशाप द्विजाङ्गना ॥ २३ ॥ अद्यप्रभृति नारीषु यदा त्वं संगतो भवेः । तदा मृतिस्तवेत्युक्त्वा विवेश ज्वलनं सती ॥ २४ ॥ उसके बाद पतिका अनुगमन करनेवाली उस ब्राह्मणपत्नीने अग्निमें प्रवेश करते समय राक्षसरूपधारी राजाको शाप दिया कि 'आजसे यदि तुम किसी स्त्रीसे संगम करोगे, तो उसी क्षण तुम्हारी मृत्यु हो जायगी'-ऐसा कहकर वह पतिव्रता अग्निमें प्रविष्ट हो गयी ॥ २३-२४ ॥ सोपि राजा गुरोश्शापमनुभूय कृतावधिम् । पुनः स्वरूपमास्थाय स्वगृहं मुदितो ययौ ॥ २५ ॥ वह राजा भी निर्धारित अवधितक गुरुके शापका अनुभव करके पुनः अपना [वास्तविक रूप धारणकर प्रसन्न होकर अपने घर चला गया ॥ २५ ॥ ज्ञात्वा विप्रसतीशापं मदयन्ती रतिप्रियम् । पतिं निवारयामास वैधव्यादतिबिभ्यती ॥ २६ ॥ ब्राह्मणीके शापको जानकर वैधव्यसे अत्यन्त डरती हुई मदयन्तीने रतिके लिये उत्सुक अपने पतिको रोका ॥ २६ ॥ अनपत्यो विनिर्विण्णो राज्यभोगेषु पार्थिवः । विसृज्य सकलां लक्ष्मीं वनमेव जगाम ह ॥ २७ ॥ तब सन्तानविहीन वह राजा राज्यभोगोंसे उदासीन होकर सम्पूर्ण राज्यको छोड़कर वनमें ही चला गया ॥ २७ ॥ स्वपृष्ठतः समायान्तीं ब्रह्महत्यां सुदुःखदाम् । ददर्श विकटाकारां तर्जयन्ती मुहुर्मुहुः ॥ २८ ॥ तस्या निर्भद्रमन्विच्छन् राजा निर्विण्णमानसः । चकार नानोपायान्स जपव्रतमखादिकान् ॥ २९ ॥ उसने अपने पीछे-पीछे आती हुई तथा बारबार धमकाती हुई विकट आकारवाली दुःखदायिनी ब्रह्महत्याको देखा । उससे पीछा छुड़ानेकी इच्छावाले दुःखितचित्त उस राजाने जप, व्रत, यज्ञ आदि अनेक उपाय किये । २८-२९ ॥ नानोपायैर्यदा राज्ञस्तीर्थस्नानादिभिर्द्विजाः । न निवृत्ता ब्रह्महत्या मिथिलां स ययौ तदा ॥ ३० ॥ बाह्योद्यानगतस्तस्याश्चितया परयार्दितः । ददर्श मुनिमायान्तं गौतमं पार्थिवश्च सः ॥ ३१ ॥ हे ब्राह्मणो ! जब तीर्थ-स्नान आदि अनेक उपायोंसे भी उस राजाकी ब्रह्महत्या दूर नहीं हुई, तब वह राजा मिथिलापुरी चला गया । उस ब्रह्महत्याकी चिन्तासे अत्यन्त दुःखित राजा मिथिलापुरीके बाहर उद्यानमें पहुंचा; वहाँ उसने मुनि गौतमको आते हुए देखा ॥ ३०-३१ ॥ अभिसृत्य स राजेन्द्रो गौतमं विमलाशयम् तद्दर्शनाप्तकिंचित्कः प्रणनाम मुहुर्मुहुः ॥ ३२ ॥ राजाने विशुद्ध अन्त:करणवाले उन महर्षिके पास जाकर उनके दर्शनसे कुछ शान्ति प्राप्त करके बार-बार उन्हें प्रणाम किया ॥ ३२ ॥ अथ तत्पृष्टकुशलो दीर्घमुष्णं च निश्वसन् तत्कृपादृष्टिसंप्राप्तसुख प्रोवाच तं नृपः ॥ ३३ ॥ उसके अनन्तर ऋषिने उसका कुशल-मंगल पूछा । तब उनकी कृपादृष्टिसे कुछ सुखका अनुभव करके दीर्घ तथा गर्म श्वास लेकर राजाने उनसे कहा- ॥ ३३ ॥ राजोवाच - मुने मां बाधते ह्येषा ब्रह्महत्या दुरत्यया । अलक्षिता परैस्तात तर्जयंती पदेपदे ॥ ३४ ॥ राजा बोले-हे मुने ! हे तात ! दूसरोंके द्वारा न देखी जा सकनेवाली यह दुस्तर ब्रह्महत्या पग-पगपर धमकी देती हुई मुझे बहुत दुःख दे रही है ॥ ३४ ॥ यन्मया शापदग्धेन विप्रपुत्रश्च भक्षितः । तत्पापस्य न शान्तिर्हि प्रायश्चित्तसहस्रकैः ॥ ३५ ॥ शापग्रस्त होनेके कारण जो मैंने ब्राह्मणपुत्रका भक्षण किया था, उस पापकी शान्ति हजारों प्रायश्चित्त करनेपर भी नहीं हो पा रही है ॥ ३५ ॥ नानोपायाः कृता मे हि तच्छान्त्यै भ्रमता मुने । न निवृत्ता ब्रह्महत्या मम पापात्मनः किमु ॥ ३६ ॥ हे मुने ! [इधर-उधर] घूमते हुए उसकी शान्तिके लिये मेरे द्वारा अनेक उपाय किये गये, फिर भी मुझ पापीकी ब्रह्महत्या निवृत्त नहीं हुई ॥ ३६ ॥ अद्य मे जन्मसाफल्यं संप्राप्तमिव लक्षये । यतस्त्वद्दर्शनादेव ममानन्दभरोऽभवत् ॥ ३७ ॥ आज मुझे मालूम पड़ता है कि मेरा जन्म सफल हो गया; क्योंकि आपके दर्शनमात्रसे मुझे विशेष आनन्द प्राप्त हो रहा है ॥ ३७ ॥ अद्य मे तवपादाब्ज शरणस्य कृतैनसः । शांतिं कुरु महाभाग येनाहं सुखमाप्नुयाम् ॥ ३८ ॥ अतः हे महाभाग ! आपके चरणकमलकी शरणमें आये हुए मुझ पापकर्माको शान्ति प्रदान कीजिये, जिससे मैं सुख प्राप्त कर सकूँ ॥ ३८ ॥ सूत उवाच - इति राज्ञा समादिष्टो गौतमः करुणार्द्रधीः । समादिदेश घोराणामघानां साधु निष्कृतिम् ॥ ३९ ॥ सूतजी बोले-[हे ऋषियो !] राजाके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर करुणासे आई चित्तवाले गौतमजीने घोर पापोंसे छुटकारा पानेके लिये [राजाको] श्रेष्ठ उपाय बताया ॥ ३९ ॥ गौतम उवाच - साधु राजेन्द्र धन्योसि महाघेभ्यो भयन्त्यज । शिवे शास्तरि भक्तानां क्व भयं शरणैषिणाम् ॥ ४० ॥ गौतमजी बोले-हे राजेन्द्र ! तुम धन्य हो, अब तुम महापापोंके भयका त्याग करो; सबपर शासन करनेवाले शिवके रहनेपर उनके शरणागतोंको भय कहाँ ? ॥ ४० ॥ शृणु राजन्महाभाग क्षेत्रमन्यत्प्रतिष्ठितम् । महापातकसंहारि गोकर्णाख्यं शिवालयम् ॥ ४१ ॥ तत्र स्थितिर्न पापानां महद्भ्यो महतामपि । महाबलाभिधानेन शिवः संनिहितः स्वयम् ॥ ४२ ॥ हे राजन् ! हे महाभाग ! सुनो; महापातकोंको दूर करनेवाला गोकर्ण नामक एक अन्य प्रसिद्ध शिवक्षेत्र है, वहाँपर शिवजी महाबल नामसे स्वयं विराजमान रहते हैंवहाँ बड़े-से-बड़े पाप भी टिक नहीं सकते ॥ ४१-४२ ॥ सर्वेषां शिवलिंगानां सार्वभौमो महाबलः । चतुर्युगे चतुर्वर्णस्सर्वपापापहारकः ॥ ४३ ॥ महाबलेश्वर लिंग सभी लिंगोंका सार्वभौम सम्राट है, जो चार युगोंमें चार प्रकारके वर्ण धारण करता है और सभी प्रकारके पापोंको विनष्ट करनेवाला है ॥ ४३ ॥ पश्चिमाम्बुधितीरस्थं गोकर्णं तीर्थमुत्तमम् । तत्रास्ति शिवलिंगं तन्महापातकनाशकम् ॥ ४४ ॥ तत्र गत्वा महापापाः स्नात्वा तीर्थेषु भूरिशः । महाबलं च संपूज्य प्रयाताश्शांकरम्पदम् ॥ ४५ ॥ पश्चिमी समुद्रके तटपर उत्तम गोकर्णतीर्थ स्थित है; वहाँपर जो शिवलिंग है, वह महापातकोंका नाश करनेवाला है । महापापी भी वहाँ जाकर सभी तीर्थों में बारंबार स्नानकर महाबलेश्वरकी पूजाकर शैव पदको प्राप्त हुए हैं ॥ ४४-४५ ॥ तथा त्वमपि राजेन्द्र गोकर्ण गिरिशालयम् । गत्वा सम्पूज्य तल्लिंगं कृतकृत्यत्वमाप्नुयाः ॥ ४६ ॥ तत्र सर्वेषु तीर्थेषु स्नात्वाभ्यर्च्य महाबलम् । सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवलोकन्त्वमाप्नुयाः ॥ ४७ ॥ हे राजेन्द्र ! उसी प्रकार तुम भी उस गोकर्ण नामक शिवस्थानमें जाकर उस लिंगका पूजनकर अपने मनोरथको प्राप्त करो । तुम वहाँ सभी तीर्थों में स्नानकर महाबलेश्वरका भलीभाँति पूजन करके सभी पापोंसे छुटकारा पाकर शिवलोकको प्राप्त करो ॥ ४६-४७ ॥ सूत उवाच - इत्यादिष्टः स मुनिना गौतमेन महात्मना । महाहृष्टमना राजा गोकर्णं प्रत्यपद्यत ॥ ४८ ॥ तत्र तीर्थेषु सुस्नात्वा समभ्यर्च्य महाबलम् । निर्धूताशेषपापौघोऽलभच्छंभोः परम्पदम् ॥ ४९ ॥ सूतजी बोले-[हे महर्षियो !] इस प्रकार महान् आत्मावाले महर्षि गौतम मुनिसे आज्ञा प्राप्तकर वह राजा अत्यन्त प्रसन्नचित्त होकर गोकर्णतीर्थमें गया और वहाँ सभी तीर्थो में स्नानकर महाबलेश्वरकी पूजा करके अपने सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर उसने शिवके परम पदको प्राप्त किया ॥ ४८-४९ ॥ य इमां शृणुयान्नित्यं महाबलकथां प्रियाम् । त्रिसप्तकुलजैस्सार्द्धं शिवलोके व्रजत्यसौ ॥ ५० ॥ इति वश्च समाख्यातं माहात्म्यं परमाद्भुतम् । महाबलस्य गिरिशलिंगस्य निखिलाघहृत् ॥ ५१ ॥ जो [मनुष्य] महाबलेश्वरकी इस प्रिय कथाको नित्य सुनता है, वह इक्कीस पीढ़ीके वंशजोंसहित शिवलोकको जाता है । [हे महर्षियो !] इस प्रकार मैंने आपलोगोंसे महाबलेश्वर नामक शिवलिंगके सर्वपापनाशक परम अद्भुत माहात्म्यका वर्णन किया ॥ ५०-५१ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां महाबाह्वशिवलिंगमाहात्म्यवर्णनं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुद्रसंहितामें महाबल नामक शिवलिंगका माहात्म्यवर्णन नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १० ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |