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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां

चतुस्त्रिंशोऽध्यायः

विष्णुसुदर्शनचक्रलाभवर्णनम् -
हरीश्वरलिंगका माहात्म्य और भगवान् विष्णुके सुदर्शनचक्र प्राप्त करनेकी इच्छा -


व्यास उवाच -
इति श्रुत्वा वचस्तस्य सूतस्य च मुनीश्वराः ।
समूचुस्तं सुप्रशस्य लोकानां हितकाम्यया ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-उन सूतजीका यह वचन सुनकर सभी मुनीश्वरोंने उनकी प्रशंसा करके लोकहितकी कामनासे कहा- ॥ १ ॥

ऋषय ऊचुः -
सूत सर्वं विजानासि ततः पृच्छामहे वयम् ।
हरीश्वरस्य लिंगस्य महिमानं वद प्रभो ॥ २ ॥
चक्रं सुदर्शनं प्राप्तं विष्णुनेति श्रुतं पुरा ।
तदाराधनतस्तात तत्कथा च विशेषतः ॥ ३ ॥
ऋषिगण बोले-हे सूतजी ! आप सब कुछ जानते हैं, इसीलिये हमलोग पूछ रहे हैं । हे प्रभो ! अब आप हरीश्वर लिंगका माहात्म्य कहिये । हमने सुना है कि पूर्वकालमें विष्णुने उनकी आराधनासे सुदर्शन चक्र प्राप्त किया था, इसलिये आप विशेष रूपसे उस कथाको कहिये ॥ २-३ ॥

सूत उवाच -
श्रूयतां च ऋषिश्रेष्ठा हरीश्वरकथा शुभा ।
यतस्सुदर्शनं लब्धं विष्णुना शंकरात्पुरा ॥ ४ ॥
कस्मिंश्चित्समये दैत्याः संजाता बलवत्तराः ।
लोकांस्ते पीडयामासुर्धर्मलोपं च चक्रिरे ॥ ५ ॥
ते देवाः पीडिता दैत्यैर्महाबलपराक्रमैः ।
स्वं दुखं कथयामासुर्विष्णुं निर्जररक्षकम् ॥ ६ ॥
सूतजी बोले-हे श्रेष्ठ ऋषियो ! अब आपलोग हरीश्वरकी शुभ कथा सुनिये, विष्णुने पूर्वकालमें शंकरजीसे सुदर्शनचक्र प्राप्त किया था । किसी समय दैत्य महाबलवान् हो गये । वे लोकोंको पीड़ित करने और धर्मका लोप करने लगे । उसके अनन्तर महान् बल तथा पराक्रमवाले दैत्योंसे पीड़ित हुए उन देवताओंने देवरक्षक विष्णुसे अपना दु:ख निवेदन किया ॥ ४-६ ॥

देवा ऊचुः -
कृपां कुरु प्रभो त्वं च दैत्यैस्संपीडिता भृशम् ।
कुत्र यामश्च किं कुर्मश्शरण्यं त्वां समाश्रिताः ॥ ७ ॥
देवगण बोले-हे प्रभो ! आप कृपा कीजिये, हमलोगोंको दैत्य अत्यन्त पीड़ा दे रहे हैं, हमलोग कहाँ जायें, क्या करें, हमलोग आप शरणदाताके आश्रित हैं ॥ ७ ॥

सूत उवाच -
इत्येवं वचनं श्रुत्वा देवानां दुःखितात्मनाम् ।
स्मृत्वा शिवपदांभोजं विष्णुर्वचनमब्रवीत ॥ ८ ॥
सूतजी बोले-[हे ऋषियो !] दुखी मनवाले देवताओंका वचन सुनकर विष्णुने शिवके चरणकमलोंका ध्यान करके यह वचन कहा- ॥ ८ ॥

विष्णुरुवाच -
करिष्यामि च वः कार्य्यमाराध्य गिरिशं सुराः ।
बलिष्ठाश्शत्रवो ह्येते विजेतव्याः प्रयत्नतः ॥ ९ ॥
विष्णुजी बोले-हे देवताओ ! मैं भगवान् शिवकी आराधनाकर आपलोगोंका कार्य करूँगा; क्योंकि ये शत्रु बड़े बलवान् हैं, इन्हें प्रयत्‍नपूर्वक जीतना चाहिये ॥ ९ ॥

सूत उवाच -
इत्युक्तास्ते सुरास्सर्वे विष्णुना प्रभविष्णुना ।
मत्वा दैत्यान्हतान्दुष्टान्ययुर्धाम स्वकंस्वकम् ॥ १० ॥
विष्णुरप्यमराणां तु जयार्थमभजच्छिवम् ।
सर्वामराणामधिपं सर्वसाक्षिणमव्ययम् ॥ ११ ॥
सूतजी बोले-[हे ऋषियो !] सर्वसामर्थ्यशाली विष्णुके इस प्रकार कहनेपर वे सभी देवता उन दुष्ट दैत्योंको हत मानकर अपने-अपने स्थानको चले गये । विष्णु भी देवताओंकी विजयके लिये सभी देवताओंके स्वामी, सर्वसाक्षी एवं अव्यय शिवकी आराधना करने लगे ॥ १०-११ ॥

गत्वा कैलासनिकटे तपस्तेपे हरिस्स्वयम् ।
कृत्वा कुंडं च संस्थाप्य जातवेदसमग्रतः ॥ १२ ॥
पार्थिवेन विधानेन मंत्रैर्नानाविधैरपि ।
स्तोत्रैश्चैवाप्यनेकैश्च गिरिशं चाभजन्मुदा ॥ १३ ॥
कमलैस्सरसो जातैर्मानसाख्यान्मुनीश्वराः ।
बद्ध्वा चैवासनं तत्र न चचाल हरिस्स्वयम् ॥ १४ ॥
वे कैलासपर्वतके समीप जाकर स्वयं कुण्डका निर्माणकर उसमें अग्निस्थापनकर उसीके समक्ष तप करने लगे । हे मुनीश्वरो ! वे पार्थिव-विधिके अनुसार अनेक प्रकारके मन्त्रों एवं अनेक प्रकारके स्तोत्रोंद्वारा मानसरोवरमें उत्पन्न हुए कमलोंसे प्रसन्नतापूर्वक शिवजीका पूजन करते रहे । वे हरि स्वयं आसन लगाकर स्थित रहे और विचलित नहीं हुए । १२-१४ ॥

प्रसादावधि चैवात्र स्थेयं वै सर्वथा मया ।
इत्येवं निश्चयं कृत्वा समानर्च शिवं हरिः ॥ १५ ॥
जबतक शिवजी प्रसन्न नहीं होंगे, तबतक मैं इसी प्रकारसे स्थिर रहूँगा-ऐसा निश्चयकर विष्णुने शिवका अर्चन किया ॥ १५ ॥

यदा नैव हरस्तुष्टो बभूव हरये द्विजाः ।
तदा स भगवान्विष्णुर्विचारे तत्परोऽभवत् ॥ १६ ॥
विचार्यैवं स्वमनसि सेवनं बहुधा कृतम् ।
तथापि न हरस्तुष्टो बभूवोतिकरः प्रभुः ॥ १७ ॥
हे ब्राह्मणो ! जब सदाशिव विष्णुपर प्रसन्न नहीं हुए, तब वे विष्णु विचार करने लगे । इस प्रकार अपने मनमें विचारकर वे नाना प्रकारसे भगवान् शिवकी सेवा करने लगे, फिर भी लीलाविशारद प्रभु सदाशिव प्रसन्न नहीं हुए । १६-१७ ॥

ततस्तु विस्मितो विष्णुर्भक्त्या परमयान्वितः ।
सहस्रैर्नामभिः प्रीत्या तुष्टाव परमेश्वरम् । १८ ॥
प्रत्येकं कमलं तस्मै नाममंत्रमुदीर्य च ।
पूजयामास वै शंभुं शरणागतवत्सलम् ॥ १९ ॥
इसके बाद विष्णु आश्चर्यचकित हो अत्यन्त उत्तम भक्तिसे युक्त होकर शिवके सहस नामोंसे प्रेमपूर्वक परमेश्वरकी स्तुति करने लगे । वे एक-एक नाममन्त्रका उच्चारणकर उन्हें एक-एक कमल अर्पित करते हुए शरणागतवत्सल शम्भुकी पूजा करने लगे ॥ १८-१९ ॥

परीक्षार्थं विष्णुभक्तेस्तदा वै शंकरेण ह ।
कमलानां सहस्रात्तु हृतमेकं च नीरजम् ॥ २० ॥
न ज्ञातं विष्णुना तच्च मायाकारणमद्भुतम् ।
न्यूनं तच्चापि सञ्ज्ञाय तदन्वेषणतत्परः ॥ २१ ॥
उस समय शिवने विष्णुकी भक्तिकी परीक्षाके लिये उन सहस्रकमलोंमेंसे एक कमलका अपहरण कर लिया । उस समय विष्णुको शिवकी मायासे हुए इस अद्‌भुत चरित्रका पता न चला । वे एक कमलको कम जानकर | उसे ढूँढ़नेमें तत्पर हो गये । २०-२१ ॥

बभ्राम सकलां पृथ्वीं तत्प्रीत्यै सुदृढव्रतः ।
तदप्राप्य विशुद्धात्मा नेत्रमेकमुदाहरत् ॥ २२ ॥
तं दृष्ट्‍वा स प्रसन्नोऽभूच्छंकरस्सर्वदुःखहा ।
आविर्बभूव तत्रैव जगाद वचनं हरिम् ॥ २३ ॥
अविचल व्रतधारी विष्णुने उस कमलको प्राप्त करनेके लिये सारी पृथ्वीका भ्रमण किया । परंतु उसके प्राप्त न होनेपर विशुद्ध आत्मावाले उन्होंने अपना एक नेत्र ही अर्पण कर दिया । तब यह देखकर सभी प्रकारके दुःखोंको दूर करनेवाले वे शंकर उनपर प्रसन्न हो गये, वे वहींपर प्रकट हो गये और विष्णुसे यह वचन कहने लगे- ॥ २२-२३ ॥

शिव उवाच -
प्रसन्नोऽस्मि हरे तुभ्यं वरं ब्रूहि यथेप्सितम् ।
मनोऽभिलषितं दद्मि नादेयं विद्यते तव ॥ २४ ॥
शिवजी बोले-हे विष्णो ! मैं आपपर प्रसन्न हूँ, आप मनोवांछित वर माँगिये । मैं आपको मनोभिलषित वर दूंगा, आपके लिये मुझे कुछ भी अदेय नहीं है ॥ २४ ॥

सूत उवाच -
तच्छ्रुत्वा शंभुवचनं केशवः प्रीतमानसः ।
महाहर्षसमापन्नो ह्यब्रवीत्सांजलिश्शिवम् ॥ २५ ॥
सूतजी बोले-शिवजीकी यह बात सुनकर प्रसन्नचित्त भगवान् विष्णु परम हर्षसे युक्त होकर हाथ जोड़कर शिवजीसे कहने लगे- ॥ २५ ॥

विष्णुरुवाच -
वाच्यं किं मे त्वदग्रे वै ह्यन्तर्यामी त्वमास्थितः ।
तथापि कथ्यते नाथ तव शासनगौरवात् ॥ २६ ॥
दैत्यैश्च पीडितं विश्वं सुखं नो नस्सदा शिव ।
दैत्यान्हंतुं मम स्वामिन्स्वायुधं न प्रवर्त्तते ॥ २७ ॥
किं करोमि क्व गच्छामि नान्यो मे रक्षकः परः ।
अतोऽहं परमेशान शरणं त्वां समागतः ॥ २८ ॥
हैं, अत: मैं आपके सामने अपना मनोरथ क्या कहूँ, फिर भी आपकी आज्ञासे कह रहा हूँ । हे सदाशिव ! दैत्योंने सारे संसारको अत्यन्त पीड़ित कर दिया है, इसलिये हम देवताओंको सुख प्राप्त नहीं हो रहा है । हे स्वामिन् ! मेरा आयुध दैत्योंको मारनेमें समर्थ नहीं हो पा रहा है । अब मैं क्या करता, कहाँ जाता ? आपके अतिरिक्त कोई दूसरा मेरा रक्षक नहीं है, इसलिये हे महेश्वर ! मैं आपकी शरणमें आया हूँ ॥ २६-२८ ॥

सूत उवाच -
इत्युक्त्वा च नमस्कृत्य शिवाय परमात्मने ।
स्थितश्चैवाग्रतश्शंभोः स्वयं च पुरुपीडितः ॥ २९ ॥
सूतजी बोले-ऐसा कहकर परमात्मा शिवको नमस्कारकर दैत्योंसे अत्यन्त पीड़ित हुए स्वयं विष्णुजी शिवजीके आगे खड़े हो गये ॥ २९ ॥

सूत उवाच -
इति श्रुत्वा वचो विष्णोर्देवदेवो महेश्वरः ।
ददौ तस्मै स्वकं चक्रं तेजोराशिं सुदर्शनम् ॥ ३० ॥
विष्णुका यह वचन सुनकर देवाधिदेव महेश्वरने उन्हें अपना महातेजस्वी सुदर्शनचक्र प्रदान किया ॥ ३० ॥

तत्प्राप्य भगवान्विष्णुर्दैत्यांस्तान्बलवत्तरान् ।
जघान तेन चक्रेण द्रुतं सर्वान्विना श्रमम् ॥ ३१ ॥
जगत्स्वास्थ्यं परं लेभे बभूवुस्सुखिनस्सुराः ।
सुप्रीतः स्वायुधं प्राप्य हरिरासीन्महासुखी ॥ ३२ ॥
तब उसे प्राप्तकर भगवान् विष्णुने उस चक्रसे बिना परिश्रमके शीघ्र ही उन महाबली राक्षसोंको विनष्ट कर दिया । इस प्रकार संसारमें शान्ति हुई । देवता सुखी हुए और सुन्दर सुदर्शनचक्र प्राप्तकर अतिप्रसन्न विष्णु भी परम सुखी हो गये ॥ ३१-३२ ॥

ऋषय ऊचुः -
किं तन्नामसहस्रं वै कथय त्वं हि शांकरम् ।
येन तुष्टो ददौ चक्रं हरये स महेश्वरः ॥ ३३ ॥
तन्माहात्म्यम्मम ब्रूहि शिवसंवादपूर्वकम् ।
कृपालुत्वं च शंभोर्हि विष्णूपरि यथातथम् ॥ ३४ ॥
ऋषिगण बोले-शंकरजीका वह सहस्त्रनाम कौनसा है, जिससे सन्तुष्ट हो शिवजीने विष्णुको सुदर्शनचक्र प्रदान किया, उसे आप कहिये । शिवकी चर्चासे पूर्ण उसके माहात्म्यको आप मुझसे यथार्थरूपसे कहिये, जिसके कारण विष्णुके ऊपर शिवजी कृपालु हुए ॥ ३३-३४ ॥

व्यास उवाच -
इति तेषां वचश्श्रुत्वा मुनीनां भावितात्मनाम् ।
स्मृत्वा शिवपदांभोजं सूतो वचनमब्रवीत् ॥ ३५ ॥
व्यासजी बोले-उदार चित्तवाले उन मुनियोंके इस वचनको सुनकर शिवजीके चरणकमलोंका ध्यान करके सूतजी यह वचन कहने लगे- ॥ ३५ ॥

इति श्रीशिव महापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां
विष्णुसुदर्शनचक्रलाभवर्णनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३४ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुद्रसंहितामें विष्णुसुदर्शनचक्रलाभवर्णन नामक बाँतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३४ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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