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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां

त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः

घुश्मेशज्योतिर्लिंगोत्पत्तिमाहात्म्यवर्णनम् -
घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग एवं शिवालयके नामकरणका आख्यान -


सूत उवाच -
पुत्रं दृष्ट्‍वा कनिष्ठाया ज्येष्ठा दुःखमुपागता ।
विरोधं सा चकाराशु न सहंती च तत्सुखम् ॥ १ ॥
सूतजी बोले-अपनी छोटी बहनके पुत्रको देखकर बड़ी बहन दुखी हुई और वह उसके पुत्रसुखको सहन न करती हुई उससे विरोध करने लगी ॥ १ ॥

सर्वे पुत्रप्रसूतिं तां प्रशशंसुर्निरन्तरम् ।
तया तत्सह्यते न स्म शिशो रूपादिकं तथा ॥ २ ॥
सब लोग उस पुत्रवतीकी निरन्तर प्रशंसा करते थे, किंतु सुदेहाको यह सब तथा शिशुका रूप आदि सहन नहीं होता था ॥ २ ॥

सुप्रियं तनयं तं च पित्रोस्सद्गुणभाजनम् ।
दृष्ट्‍वाऽभवत्तदा तस्या हृदयं तप्तमग्निवत् ॥ ३ ॥
माता-पिताके अत्यन्त प्रिय तथा सद्‌गुणोंके पात्र उस पुत्रको देखकर उसका हृदय अग्निके समान तप्त हो जाता था ॥ ३ ॥

एतस्मिन्नंतरे विप्राः कन्यां दातुं समागताः ।
विवाहं तस्य तत्रैव चकार विधिवच्च सः ॥ ४ ॥
इसी बीच कुछ विप्र कन्या देनेके लिये आये और सुधर्माने विधिपूर्वक उस [अपने पुत्र]-का विवाह वहीं सम्पन्न कर दिया ॥ ४ ॥

सुधर्मा घुश्मया सार्द्धमानन्दं परमं गतः ।
सर्वे संबंधिनस्तस्यां घुश्मायां मानमादधुः ॥ ५ ॥
तं दृष्ट्‍वा सा सुदेहा हि मनसि ज्वलिता तदा ।
अत्यन्तं दुःखमापन्ना हा हतास्मीति वादिनी ॥ ६ ॥
सुधर्मा [ अपनी छोटी स्त्री] घुश्माके साथ परम आनन्दको प्राप्त हुआ और सभी सम्बन्धी उस घुश्माका सम्मान करने लगे । उसे देखकर सुदेहा मन-ही-मन जलने लगी और 'हाय मैं मारी गयी'-ऐसा कहती हुई बहुत दुखी हुई ॥ ५-६ ॥

सुधर्म्मा गृहमागत्य वधूं पुत्रं विवाहितम् ।
उत्साहं दर्शयामास प्रियाभ्यां हर्षयन्निव ॥ ७ ॥
सुधर्मा अपने विवाहित पुत्र तथा पुत्रवधूको लेकर घर आकर अपनी दोनों स्त्रियोंके साथ हर्षित होते हुए उत्साह प्रदर्शित करने लगा ॥ ७ ॥

अभवद्धर्षिता घुष्मा सुदेहा दुःखमागता ।
न सहंती सुखं तच्च दुःखं कृत्वापतद्भुवि ॥ ८ ॥
इससे घुश्मा तो आनन्दित हुई, पर सुदेहा दुःखित हो गयी । वह उस सुखको सहन न करती हुई दुखी हो पृथ्वीपर गिर पड़ी ॥ ८ ॥

घुश्माऽवदद्वधूपुत्रौ त्वदीयौ न मदीयकौ ।
वधूः पुत्रश्च तां प्रीत्या प्रसूं श्वश्रममन्यत ॥ ९ ॥
तब घुश्माने कहा-ये पुत्र तथा पुत्रवधू तुम्हारे ही हैं, मेरे नहीं । पुत्र तथा बहू-ये दोनों भी उसे अपनी माता तथा सास ही मानते थे ॥ ९ ॥

भर्त्ता प्रियां तां ज्येष्ठां च मेने नैव कनिष्ठिकाम् ।
तथापि सा तदा ज्येष्ठा स्वान्तर्मलवती ह्यभूत् ॥ १० ॥
पति [सुधर्मा] भी अपनी ज्येष्ठ स्त्रीका जैसा आदर करता था, वैसा कनिष्ठाका नहीं । फिर भी वह ज्येष्ठ पत्‍नी अपने मनमें कपट रखती थी ॥ १० ॥

एकस्मिन्दिवसे ज्येष्ठा सा सुदेहा च दुःखिनी ।
हृदये संचिचिन्तेति दुःखशांतिः कथं भवेत् ॥ ११ ॥
एक दिन ज्येष्ठा सुदेहाने दुखी होकर अपने मनमें विचार किया कि मेरे इस दुःखकी शान्ति कैसे हो ? ॥ ११ ॥

सुदेहोवाच -
मदीयो हृदयाग्निश्च घुश्मानेत्रजलेन वै ।
भविष्यति ध्रुवं शांतो नान्यथा दुःखजेन हि ॥ १२ ॥
सुदेहा [ मन-ही-मन] बोली-मेरे हृदयकी अग्नि घुश्माके दुःखजनित आँसुओंसे ही शान्त होगी, अन्य किसी प्रकार नहीं, यह निश्चित है ॥ १२ ॥

अतोऽहं मारयाम्यद्य तत्पुत्रं प्रियवादिनम् ।
अग्रे भावि भवेदेवं निश्चयः परमो मम ॥ १३ ॥
इसलिये मैं आज ही मधुर भाषण करनेवाले उसके पुत्रको मार डालूँगी, यह मेरा दृढ़ निश्चय है, आगे जो होनहार होगा, वह तो होकर ही रहेगा ॥ १३ ॥

सूत उवाच -
कदर्य्याणां विचारश्च कृत्याकृत्ये भवेन्नहि ।
कठोरः प्रायशो विप्राः सापत्नो भाव आत्महा ॥ १४ ॥
सूतजी बोले-हे ब्राह्मणो ! कपटी मनुष्यको कर्तव्य-अकर्तव्यका विचार नहीं रहता, कठोर सौतियाडाहका भाव प्रायः अपना ही विनाश कर देता है ॥ १४ ॥

एकस्मिन्दिवसे ज्येष्ठा सुप्तं पुत्रं वधूयुतम् ।
चिच्छिदे निशि चांगेषु गृहीत्वा छुरिकां च सा ॥ १५ ॥
सर्वांगं खण्डयामास रात्रौ घुश्मासुतस्य सा ।
नीत्वा सरसि तत्रैवाक्षिपद्दृप्ता महाबला ॥ १६ ॥
यत्र क्षिप्तानि लिंगानि घुश्मया नित्यमेव हि ।
तत्र क्षिप्त्वा समायाता सुष्वाप सुखमागता ॥ १७ ॥
एक दिन सुधर्माकी ज्येष्ठ पत्‍नीने हुरी लेकर रातमें वधूके साथ सोये हुए पुत्रके अंगोंको खण्ड-खण्ड काट डाला । इस प्रकार उस घमण्डी तथा महाबलाने घुश्माके पुत्रके सभी अंगोंको खण्ड-खण्ड कर दिया और रात्रिमें ही ले जाकर तालाबमें उसी स्थानपर फेंक दिया, जहाँ घुश्मा नित्य पार्थिव शिवलिंगोंको विसर्जित किया करती थी । इस प्रकार वहाँपर फेंककर लौट आयी और सुखपूर्वक सो गयी ॥ १५-१७ ॥

प्रातश्चैव समुत्थाय घुश्मा नित्यं तथाकरोत् । ।
सुधर्मा च स्वयं श्रेष्ठो नित्यकर्म समाचरत् ॥ १८ ॥
प्रात:काल होनेपर घुश्मा नित्यकर्म करने लगी तथा श्रेष्ठ सुधर्मा भी स्वयं नित्यकर्म सम्पादन करने लगा ॥ १८ ॥

एतस्मिन्नंतरे सा च ज्येष्ठा कार्यं गृहस्य वै ।
चकारानन्दसंयुक्ता सुशांतहृदयानला ॥ १९ ॥
इसी बीच ज्येष्ठा सुदेहा, जिसके हृदयकी अग्नि शान्त हो चुकी थी, अत्यन्त आनन्दयुक्त होकर गृहकार्य करने लगी ॥ १९ ॥

प्रातःकाले समुत्थाय वधूश्शय्यां विलोक्य सा ।
रुधिरार्द्रां देहखंडैर्युक्तां दुःखमुपागता ॥ २० ॥
श्वश्रूं निवेदयामास पुत्रस्ते च कुतो गतः ।
शय्या च रुधिरार्द्रा वै दृश्यंते देहखंडकाः ॥ २१ ॥
प्रात:काल होनेपर उठ करके वह वधू खूनसे लथपथ तथा पतिके शरीरके टुकड़ोंसे युक्त शय्याको देखकर बहुत दुखी हुई और उसने अपनी साससे कहा-आपके पुत्र कहाँ गये ? शय्या रुधिरसे लथपथ है तथा वहाँ शरीरके टुकड़े-टुकड़े दिखायी पड़ रहे हैं । २०-२१ ॥

हा हतास्मि कृतं केन दुष्टं कर्म शुचिव्रते ।
इत्युच्चार्य रुरोदातिविविधं तत्प्रिया च सा ॥ २२ ॥
ज्येष्ठा दुःखं तदापन्ना हा हतास्मि किलेति च ।
बहिर्दुःखं चकारासौ मनसा हर्षसंयुता ॥ २३ ॥
हे शुचिव्रते ! मैं तो मारी गयी, किसने यह दुष्टकर्म किया है-ऐसा कहकर उसकी पत्‍नी अत्यधिक विलाप करने लगी । तब ज्येष्ठा सुदेहा भी बाहरसे दुःख प्रकट करने लगी और भीतरसे प्रसन्न हुई । वह दुःखित होकर बोली-हाय ! मैं तो निश्चय ही मर गयी ॥ २२-२३ ॥

घुश्मा चापि तदा तस्या वध्वा दुखं निशम्य सा ।
न चचाल व्रतात्तस्मान्नित्यपार्थिवपूजनात् ॥ २४ ॥
वह घुश्मा अपनी पुत्रवधूके दुःखको सुनकर भी नित्य पार्थिवपूजनरूप व्रतसे विचलित नहीं हुई ॥ २४ ॥

मनश्चैवोत्सुकं नैव जातं तस्या मनागपि ।
भर्तापि च तथैवासीद्यावद्व्रतविधिर्भवेत् ॥ २५ ॥
उसका मन [पुत्रशोकसे] थोड़ा भी उत्कण्ठित नहीं हुआ और उसका पति भी जबतक व्रतविधि समाप्त नहीं हुई, तबतक वैसा ही रहा ॥ २५ ॥

मध्याह्ने पूजनांते च दृष्ट्‍वा शय्यां भयावहाम् ।
तथापि न तदा किञ्चित्कृतं दुःखं हि घुश्मया ॥ २६ ॥
पूजनके बाद मध्याह्नकालमें उस भयानक शय्याको देखकर भी उस घुश्माने कुछ भी दुःख नहीं किया ॥ २६ ॥

येनैव चार्पितश्चायं स वै रक्षां करिष्यति ।
भक्तप्रियस्स विख्यातः कालकालस्सतां गतिः ॥ २७ ॥
जिन्होंने यह पुत्र दिया है, वे ही रक्षा भी करेंगे । वे भक्तवत्सल, कालके भी काल और सज्जनोंकी रक्षा करनेवाले कहे गये हैं ॥ २७ ॥

यदि नो रक्षिता शंभुरीश्वरः प्रभुरेकलः ।
मालाकार इवासौ यान्युङ्क्ते तान्वियुनक्ति च ॥ २८ ॥
यदि हमारी रक्षा करनेवाले एकमात्र प्रभु ईश्वर सदाशिव हैं, तो चिन्ताकी बात ही क्या है ? वे ही मालीके समान उन प्राणियोंका संयोग कराते हैं और पुन: उन्हें अलग भी कर देते हैं ॥ २८ ॥

अद्य मे चिंतया किं स्यादिति तत्त्वं विचार्य सा ।
न चकार तदा दुःखं शिवे धैर्यं समागता ॥ २९ ॥
इस समय मेरे चिन्ता करनेसे भी क्या होनेवाला है, इस तत्त्वका विचारकर वह दुखी नहीं हुई और शिवजीका ध्यानकर धैर्य धारण किये रही ॥ २९ ॥

पार्थिवांश्च गृहीत्वा सा पूर्ववत्स्वस्थमानसा ।
शंभोर्नामान्युच्चरंती जगाम सरसस्तटे ॥ ३० ॥
क्षिप्त्वा च पार्थिवांस्तत्र परावर्त्तत सा यदा ।
तदा पुत्रस्तडागस्थो दृश्यते स्म तटे तया ॥ ३१ ॥
स्थिरचित्त होकर पूर्वकी भाँति पार्थिव शिवलिंगोंको लेकर शिवके नामोंका उच्चारण करती हुई वह सरोवरके तटपर गयी । जब वहाँ पार्थिव लिंगोंको डालकर वह लौटने लगी, तब उसने सरोवरके तटपर खड़े अपने पुत्रको देखा ॥ ३०-३१ ॥

पुत्र उवाच -
मातरेहि मिलिष्यामि मृतोऽहं जीवितोऽधुना ।
तव पुण्यप्रभावाद्धि कृपया शंकरस्य वै ॥ ३२ ॥
पुत्र बोला-हे माता ! आओ, मैं तुमसे मिलूंगा, मैं तो मर गया था, किंतु तुम्हारे पुण्यके प्रभावसे और शंकरजीकी कृपासे अब जीवित हो गया हूँ ॥ ३२ ॥

सूत उवाच -
जीवितं तं सुतं दृष्ट्‍वा घुष्मा सा तत्प्रसूर्द्विजाः ।
प्रहृष्ट्‍वा नाभवत्तत्र दुःखिता न यथा पुरा ॥ ३३ ॥
सूतजी बोले-हे द्विजो ! वह घुश्मा अपने उस पुत्रको जीवित देखकर भी वैसे ही अधिक प्रसन्न न हुई, जैसा कि उसके मरनेपर दुखी न थी, किंतु यथावत् शिवजीके ध्यानमें तत्पर रही ॥ ३३ ॥

एतस्मिन्समये तत्र स्वाविरासीच्छिवो द्रुतम् ।
ज्योतिरूपो महेशश्च संतुष्टः प्रत्युवाच ह ॥ ३४ ॥
इसी समय वहाँ सन्तुष्ट हुए ज्योतिःस्वरूप सदाशिव शीघ्र प्रकट हो गये और उससे कहने लगे- ॥ ३४ ॥

शिव उवाच -
प्रसन्नोऽस्मि वरं ब्रूहि दुष्टया मारितो ह्ययम् ।
एनां च मारयिष्यामि त्रिशूलेन वरानने ॥ ३५ ॥
शिवजी बोले-हे वरानने ! मैं प्रसन्न हूँ, तुम वर माँगो, उस दुष्टाने इसे मारा था, अब मैं अपने त्रिशूलसे उसे मारूंगा ॥ ३५ ॥

सूत उवाच -
पुरा तदा वरं वव्रे सुप्रणम्य शिवं नता ।
रक्षणीया त्वया नाथ सुदेहेयं स्वसा मम ॥ ३६ ॥
सूतजी बोले-तब विनत हुई घुश्माने शिवजीको प्रणामकर यह वर माँगा-हे नाथ ! आप मेरी इस बहन सुदेहाकी रक्षा कीजिये ॥ ३६ ॥

शिव उवाच -
अपकारः कृतस्तस्यामुपकारः कथं त्वया ।
क्रियते हननीया च सुदेहा दुष्टकारिणी ॥ ३७ ॥
शिवजी बोले-उसने तो अपकार किया है, फिर भी तुम उसका उपकार क्यों कर रही हो ? दुष्टकर्म करनेवाली सुदेहा तो वधके योग्य है ॥ ३७ ॥

घुश्मोवाच -
तव दर्शनमात्रेण पातकं नैव तिष्ठति ।
इदानीं त्वां च वै दृष्ट्‍वा तत्पापं भस्मतां व्रजेत् ॥ ३८ ॥
घुश्मा बोली-[हे प्रभो !] आपके दर्शनमात्रसे पाप नहीं रह जाता है, इसलिये आपका दर्शन करते ही उसके सभी पाप दूर हो गये ॥ ३८ ॥

अपकारेषु यश्चैव ह्युपकारं करोति च ।
तस्य दर्शनमात्रेण पापं दूरतरं व्रजेत् ॥ ३९ ॥
इति श्रुतं मया देव भगवद्वाक्यमद्भुतम् ।
तस्माच्चैवं कृतं येन क्रियतां च सदाशिव ॥ ४० ॥
जो पुरुष अपकार करनेवालोंके प्रति उपकार करता है, उसके दर्शनमात्रसे ही पाप दूर भाग जाते हैं । हे देव ! मैंने भगवान्का ऐसा अद्‌भुत वाक्य सुना है, इसलिये हे सदाशिव ! जिसने जैसा किया है, वह वैसा करे । ३९-४० ॥

सूत उवाच -
इत्युक्तस्तु तया तत्र प्रसन्नोऽत्यभवत्पुनः ।
महेश्वरः कृपासिंधुः समूचे भक्तवत्सलः ॥ ४१ ॥
सूतजी बोले-उसके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर भक्तवत्सल कृपासिन्धु महेश्वर अतीव प्रसन्न हो गये और उन्होंने पुनः कहा- ॥ ४१ ॥

शिव उवाच -
अन्यद्वरं ब्रूहि घुश्मे ददामि च हितं तव ।
त्वद्भक्त्या सुप्रसन्नोऽस्मि निर्विकारस्वभावतः ॥ ४२ ॥
शिवजी बोले-हे घुश्मे ! अब तुम कोई अन्य वर माँगो, मैं दूंगा । मैं तुम्हारी भक्तिसे तथा निर्विकार स्वभावसे अत्यन्त प्रसन्न हूँ, इसलिये तुम्हारा हित करना चाहता हूँ ॥ ४२ ॥

सूत उवाच -
सोवाच तद्वचश्श्रुत्वा यदि देयो वरस्त्वया ।
लोकानां चैव रक्षार्थमत्र स्थेयं मदाख्यया ॥ ४३ ॥
सूतजी बोले-उनका वचन सुनकर उसने कहायदि आप मुझे वर देना ही चाहते हैं, तो आप संसारकी रक्षाके निमित्त मेरे नामसे यहींपर स्थित हो जाइये ॥ ४३ ॥

तदोवाच शिवस्तत्र सुप्रसन्नो महेश्वरः ।
स्थास्येऽत्र तव नाम्नाहं घुश्मेशाख्यस्सुखप्रदः ॥ ४४ ॥
तब अत्यन्त प्रसन्न हुए महेश्वर शिवजी बोलेहे घुश्मे ! मैं तुम्हारे नामसे घुश्मेश्वरके रूपमें प्रसिद्ध होकर यहाँ निवास करूंगा और सबको सुख प्रदान करूँगा ॥ ४४ ॥

घुश्मेशाख्यं सुप्रसिद्धं लिंगं मे जायतां शुभम् ।
इदं सरस्तु लिंगानामालयं जायतां सदा ॥ ४५ ॥
तस्माच्छिवालयं नाम प्रसिद्धं भुवनत्रये ।
सर्वकामप्रदं ह्येतद्दर्शनात्स्यात्सदा सरः ॥ ४६ ॥
यहाँपर मेरा घुश्मेश्वर नामक शुभ ज्योतिर्लिंग प्रसिद्ध होगा और यह सरोवर सदा सभी लिंगोंका निवासस्थान होगा । इसलिये यह शिवालय नामसे तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध होगा । यह सरोवर दर्शनमात्रसे सदा सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाला होगा । ४५-४६ ॥

तव वंशे शतं चैकं पुरुषावधि सुव्रते ।
ईदृशाः पुत्रकाः श्रेष्ठा भविष्यंति न संशयः ॥ ४७ ॥
सुस्त्रीकास्सुधनाश्चैव स्वायुष्याश्च विचक्षणाः ।
विद्यावंतो ह्युदाराश्च भुक्तिमुक्तिफलाप्तये ॥ ४८ ॥
शतमेकोत्तरं चैव भविष्यंति गुणाधिकाः ।
ईदृशो वंशविस्तारो भविष्यति सुशोभनः ॥ ४९ ॥
हे सुव्रते ! तुम्हारे वंशमें एक सौ एक पीढीपर्यन्त इसी प्रकारके श्रेष्ठ पुत्र होते रहेंगे, इसमें सन्देह नहीं है, वे सुन्दर स्त्रीवाले, महाधनी, दीर्घजीवी, मेधावी, विद्वान्, उदार तथा भोग-मोक्षके फलको प्राप्त करनेवाले होंगे । इन सबको एक सौ एक पुत्र होंगे, जो गुणोंमें परस्पर एक-से-एक अधिक होंगे । इस प्रकार तुम्हारे वंशका अति सुन्दर विस्तार होगा ॥ ४७-४९ ॥

सूत उवाच -
इत्युक्त्वा च शिवस्तत्र लिंगरूपोऽभवत्तदा ।
घुश्मेशो नाम विख्यातः सरश्चैव शिवालयम् ॥ ५० ॥
सूतजी बोले-ऐसा कहकर शिवजी वहाँ ज्योतिर्लिंगरूपसे स्थित हो गये । वे घुश्मेश्वर नामसे विख्यात हुए और वह सरोवर शिवालय नामसे विख्यात हुआ ॥ ५० ॥

सुधर्मा स च घुश्मा च सुदेहा च समागताः ।
प्रदक्षिणं शिवस्याशु शतमेकोत्तरं दधुः ॥ ५१ ॥
पूजां कृत्वा महेशस्य मिलित्वा च परस्परम् ।
हित्वा चांतर्मलं तत्र लेभिरे परमं सुखम् ॥ ५२ ॥
उस समय वहाँपर आये हुए सुधर्मा, सुदेहा और घुश्माने बड़ी शीघ्रतासे शिवजीकी एक सौ एक बार परिक्रमा की । शिवजीकी पूजा करके परस्पर मिलकर तथा अपने अन्त:करणका पाप दूरकर उन्होंने परम सुख प्राप्त किया ॥ ५१-५२ ॥

पुत्रं दृष्ट्‍वा सुदेहा सा जीवितं लज्जिताभवत् ।
तौ क्षमाप्याचरद्विप्रा निजपापापहं व्रतम् ॥ ५३ ॥
हे विप्रो ! पुत्रको जीवित देखकर वह सुदेहा लज्जित हो गयी और उसने उन दोनोंसे क्षमा माँगकर अपने पापोंको दूर करनेवाले व्रतका आचरण किया ॥ ५३ ॥

घुश्मेशाख्यमिदं लिंगमित्थं जातं मुनीश्वराः ।
तं दृष्ट्‍वा पूजयित्वा हि सुखं संवर्द्धते सदा ॥ ५४ ॥
इति वश्च समाख्याता ज्योतिर्लिंगावली मया ।
द्वादशप्रमिता सर्वकामदा भुक्ति मुक्तिदा ॥ ५५ ॥
हे मुनीश्वरो ! इस प्रकार घुश्मेश्वर नामक यह लिंग उत्पन्न हुआ, उसका पूजन तथा दर्शन करनेसे सुखकी सदा वृद्धि होती है । इस प्रकार मैंने आपलोगोंसे बारह ज्योतिर्लिंगोंका वर्णन किया, जो सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले और भोग तथा मोक्ष देनेवाले हैं । ५४-५५ ॥

एतज्ज्योतिर्लिंगकथां यः पठेच्छृणुयादपि ।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो भुक्तिं मुक्तिं च विंदति ॥ ५६ ॥
जो इन ज्योतिर्लिंगोंकी कथाओंको पढ़ता और सुनता है, वह सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है और भोग तथा मोक्ष प्राप्त करता है ॥ ५६ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसहितायां
घुश्मेशज्योतिर्लिंगोत्पत्तिमाहात्म्यवर्णनं
नाम त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३३ ॥
इति द्वादशज्योतिर्लिंगमाहात्म्यं समाप्तम् ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुद्रसंहितामें घुश्मेशज्योतिलिंगोत्पत्ति माहात्यवर्णन नामक तैतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३३ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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