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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां
षट्त्रिंशोध्यायः शिवसहस्रनामस्तोत्रफलवर्णनम् -
शिवसहस्रनामस्तोत्रकी फल-श्रुति - सूत उवाच - श्रुत्वा विष्णुकृतं दिव्यं परनामविभूषितम् । सहस्रनामस्वस्तोत्रं प्रसन्नोऽभून्महेश्वरः ॥ १ ॥ परीक्षार्थं हरेरीशः कमलेषु महेश्वरः । गोपयामास कमलं तदैकं भुवनेश्वरः ॥ २ ॥ सूतजी बोले-विष्णुजीके द्वारा किये गये अपने उत्कृष्ट सहस्रनामस्तवनको सुनकर शिवजी प्रसन्न हो गये । उस समय जगत्के स्वामी महेश्वरने विष्णुकी परीक्षाके लिये उन कमलोंमेंसे एक कमलको छिपा लिया ॥ १-२ ॥ पंकजेषु तदा तेषु सहस्रेषु बभूव च । न्यूनमेकं तदा विष्णुर्विह्वलश्शिवपूजने ॥ ३ ॥ हृदा विचारितं तेन कुतो वै कमलं गतम् । यातं यातु सुखेनैव मन्नेत्रं कमलं न किम् ॥ ४ ॥ तब शिवपूजनमें उन सहस्रकमलोंमेंसे एक कमलके कम हो जानेपर भगवान् विष्णु व्याकुल हो उठे और वे अपने मनमें विचार करने लगे कि एक कमल कहाँ चला गया ! यदि वह चला गया तो जाने दो, क्या मेरा नेत्र कमलके समान नहीं है ? ॥ ३-४ ॥ ज्ञात्वेति नेत्रमुद्धृत्य सर्वसत्त्वावलम्बनात् । पूजयामास भावेन स्तवयामास तेन च ॥ ५ ॥ इस प्रकार विचारकर सत्त्वगुणका सहारा लेकर [पूर्ण धैर्यके साथ] उन्होंने अपना एक नेत्र निकालकर भक्तिपूर्वक शिवजीका पूजन किया तथा उसी स्तोत्रसे उनकी स्तुति की ॥ ५ ॥ ततः स्तुतमथो दृष्ट्वा तथाभूतं हरो हरिम् । मा मेति व्याहरन्नेव प्रादुरासीज्जगद्गुरुः ॥ ६ ॥ तस्मादवतताराशु मण्डलात्पार्थिवस्य च । प्रतिष्ठितस्य हरिणा स्वलिंगस्य महेश्वरः ॥ ७ ॥ उसके बाद स्तुति करते हुए विष्णुको अपना नेत्रकमल निकालते देखकर जगद्गुरु महादेव 'ऐसा मत करो-मत करो'-इस प्रकार कहते हुए स्वयं प्रकट हो गये । इस प्रकार वे महेश्वर विष्णुके द्वारा प्रतिष्ठित किये गये अपने पार्थिव लिंगके मण्डलसे शीघ्र ही अवतरित हो गये ॥ ६-७ ॥ यथोक्तरूपिणं शम्भुं तेजोराशिसमुत्थितम् । नमस्कृत्य पुरः स्थित्वा स तुष्टाव विशेषतः ॥ ८ ॥ तदा प्राह महादेवः प्रसन्नः प्रहसन्निव । सम्प्रेक्ष्य कृपया विष्णुं कृतांजलिपुटं स्थितम् ॥ ९ ॥ शास्त्रवर्णित रूप धारण किये तेजोराशिसे युक्त साक्षात् प्रकट हुए शिवको प्रणाम करके उनके सामने स्थित होकर वे विष्णु विशेषरूपसे स्तुति करने लगे । तब प्रसन्न हुए महादेवने अपने आगे हाथ जोड़कर खड़े विष्णुकी ओर कृपापूर्वक देखकर हँसते हुए कहा- ॥ ८-९ ॥ शङ्कर उवाच - ज्ञातं मयेदं सकलं तव चित्तेप्सितं हरे । देवकार्यं विशेषेण देवकार्य्यरतात्मनः ॥ १० ॥ शंकर बोले-हे हरे ! देवकार्यमें तत्पर मनवाले आपके मनोभिलषित इस सम्पूर्ण देवकार्यको मैंने भलीभाँति जान लिया ॥ १० ॥ देवकार्य्यस्य सिद्ध्यर्थं दैत्यनाशाय चाश्रमम् । सुदर्शनाख्यं चक्रं च ददामि तव शोभनम् ॥ ११ ॥ अतः मैं देवताओंकी कार्यसिद्धिके लिये तथा बिना परिश्रम दैत्योंके विनाशके लिये आपको यह सुदर्शन नामक उत्तम चक्र देता हूँ ॥ ११ ॥ यद्रूपं भवता दृष्टं सर्वलोकसुखावहम् । हिताय तव देवेश धृतं भावय तद्ध्रुवम् ॥ १२ ॥ रणाजिरे स्मृतं तद्वै देवानां दुःखनाशनम् । इदं चक्रमिदं रूपमिदं नामसहस्रकम् ॥ १३ ॥ ये शृण्वन्ति सदा भक्त्या सिद्धि स्यादनपायिनी । कामानां सकलानां च प्रसादान्मम सुव्रत ॥ १४ ॥ हे देवेश ! आपने सम्पूर्ण लोकोंको सुख देनेवाले मेरे जिस रूपको देखा है, उसे मैंने आपके हितके लिये धारण किया है, ऐसा आप निश्चित रूपसे जानिये । युद्धस्थलमें मेरे इस चक्रका, मेरे इस रूपका तथा सहस्रनामका स्मरण करनेपर देवताओंके दुःखका विनाश होगा; हे सुव्रत ! जो लोग मेरे इस सहस्रनामस्तोत्रको सदा भक्तिपूर्वक सुनते हैं, उन्हें मेरी कृपासे सम्पूर्ण कामनाओंकी अविनाशिनी सिद्धि प्राप्त होती है । १२-१४ ॥ सूत उवाच - एवमुक्त्वा ददौ चक्रं सूर्यायुतसमप्रभम् । सुदर्शनं स्वपादोत्थं सर्वशत्रुविनाशनम् ॥ १५ ॥ विष्णुश्चापि सुसंस्कृत्य जग्राहोदङ्मुखस्तदा । नमस्कृत्य महादेवं विष्णुर्वचनमब्रवीत् ॥ १६ ॥ सूतजी बोले-ऐसा कहकर शिवजीने करोड़ों सूर्योक समान प्रभावाला, अपने चरणोंसे उत्पन्न तथा शत्रुओंका नाश करनेवाला वह सुदर्शनचक्र विष्णुको दे दिया । उस समय विष्णुने भी उत्तराभिमुख होकर अपनेको भलीभाँति संस्कार सम्पन्न करके उस चक्रको ग्रहण किया और पुनः महादेवको नमस्कारकर विष्णुने यह वचन कहा- ॥ १५-१६ ॥ विष्णुरुवाच - शृणु देव मया ध्येयं पठनीयं च किं प्रभो । दुःखानां नाशनार्थं हि वद त्वं लोकशंकर ॥ १७ ॥ विष्णुजी बोले-हे देव ! हे प्रभो ! हे लोकोंका कल्याण करनेवाले ! आप सुनें, मुझे दुःखोंके नाशके लिये किसका ध्यान और किसका पाठ करना चाहिये, मुझे यह बताइये ? ॥ १७ ॥ सूत उवाच - इति पृष्टस्तदा तेन सन्तुष्टस्तु शिवोऽब्रवीत् । प्रसन्नमानसो भूत्वा विष्णुं देवसहायकम् ॥ १८ ॥ सूतजी बोले-उनके द्वारा इस प्रकार पूछे जानेपर सन्तुष्ट हुए वे शिवजी प्रसन्नचित्त होकर देवताओंके सहायक विष्णुसे कहने लगे- ॥ १८ ॥ शिव उवाच - रूपं ध्येयं हरे मे हि सर्वानर्थप्रशान्तये । अनेकदुःखनाशार्थं पठ नामसहस्रकम् ॥ १९ ॥ शिवजी बोले-हे हरे ! सम्पूर्ण उपद्रवोंकी शान्तिके लिये आपको मेरे इस रूपका ध्यान करना चाहिये और अनेक दु:खोंके नाशके लिये इस सहस्त्रनामका पाठ करना चाहिये ॥ १९ ॥ धार्य्यं चक्रं सदा मे हि सवार्भीष्टस्य सिद्धये । त्वया विष्णो प्रयत्नेन सर्वचक्रवरं त्विदम् ॥ २० ॥ हे विष्णो ! आप समस्त अभीष्टोंकी सिद्धिके लिये सभी चक्रोंमें श्रेष्ठ मेरे इस चक्र सुदर्शनको प्रयत्नपूर्वक सर्वदा धारण कीजिये ॥ २० ॥ अन्ये च ये पठिष्यन्ति पाठयिष्यन्ति नित्यशः । तेषां दुःखं न स्वप्नेऽपि जायते नात्र संशयः ॥ २१ ॥ अन्य जो लोग नित्य इस शिवसहस्रनामस्तोत्रका पाठ करेंगे अथवा इसका पाठ करायेंगे, उन्हें स्वजमें भी दुःख नहीं होगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २१ ॥ राज्ञा च संकटे प्राप्ते शतावृत्तिं चरेद्यदा । साङ्गः च विधिसंयुक्तं कल्याणं लभते नरः ॥ २२ ॥ राजाओंके द्वारा संकट प्राप्त होनेपर यदि मनुष्य सांगोपांग विधिपूर्वक इस सहस्रनामकी सौ आवृत्ति करे, तो वह कल्याणको प्राप्त करता है ॥ २२ ॥ रोगनाशकरं ह्येतद्विद्यावित्तदमुत्तमम् । सर्वकामप्रदं पुण्यं शिवभक्तिप्रदं सदा ॥ २३ ॥ यदुद्दिश्य फलं श्रेष्ठं पठिष्यन्ति नरास्त्विह । सप्स्यन्ते नात्र संदेहः फलं तत्सत्यमुत्तमम् ॥ २४ ॥ यह उत्तम सहस्त्रनामस्तोत्र रोगोंका नाश करनेवाला, विद्या तथा वित्त प्रदान करनेवाला, सम्पूर्ण अभिलाषाओंको पूर्ण करनेवाला, सदा शिवभक्ति देनेवाला तथा पुण्यप्रद है । जो मनुष्य जिस श्रेष्ठ फलको उद्देश्य करके इसका पाठ करेंगे, वे उस फलको प्राप्त करेंगे, यह ध्रुव सत्य है, इसमें सन्देह नहीं है । २३-२४ ॥ यश्च प्रातस्समुत्थाय पूजां कृत्वा मदीयिकाम् । पठते मत्समक्षं वै नित्यं सिद्धिर्न दूरतः ॥ २५ ॥ ऐहिकीं सिद्धिमाप्नोति निखिलां सर्वकामिकाम् । अन्ते सायुज्यमुक्तिं वै प्राप्नोत्यत्र न संशयः ॥ २६ ॥ जो प्रात:काल उठकर नित्य मेरी पूजा करनेके उपरान्त मेरे सम्मुख इसका पाठ करता है, सिद्धि उससे दूर नहीं रहती । वह इस लोकमें समस्त मनोरथोंको पूर्ण करनेवाली सम्पूर्ण सिद्धि प्राप्त करता है और अन्तमें सायुज्य मुक्ति प्राप्त करता है, इसमें संशय नहीं है । २५-२६ ॥ सूत उवाच - एवमुक्त्वा तदा विष्णुं शंकरः प्रीतमानसः । उपस्पृश्य कराभ्यां तमुवाच गिरिशः पुनः ॥ २७ ॥ सूतजी बोले-इतना कहकर प्रसन्न चित्तवाले कल्याणकारी शिवजीने अपने दोनों हाथोंसे विष्णुका स्पर्श करके पुनः उनसे कहा- ॥ २७ ॥ शिव उवाच - वरदोऽस्मि सुरश्रेष्ठ वरान्वृणु यथेप्सितान् । भक्त्या वशीकृतो नूनं स्तवेनानेन सुव्रतः ॥ २८ ॥ शिवजी बोले-हे सुरश्रेष्ठ ! मैं वर देना चाहता हूँ । अत: आप यथेष्ट वरोंको माँगिये । हे सुव्रत ! आपने अपनी भक्तिसे तथा इस स्तोत्रसे मुझे निश्चित रूपसे वशमें कर लिया है ॥ २८ ॥ सूत उवाच - इत्युक्तो देवदेवेन देवदेवं प्रणम्य तम् । सुप्रसन्नतरो विष्णुस्सांजलिर्वाक्यमब्रवीत् ॥ २९ ॥ सूतजी बोले-देवाधिदेवके इस प्रकार कहनेपर विष्णुने उनको नमस्कार करके अत्यन्त प्रसन्न हो हाथ जोड़कर यह वचन कहा- ॥ २९ ॥ विष्णुरुवाच - यथेदानीं कृपानाथ क्रियते चान्यतः परा । कार्य्या चैव विशेषेण कृपालुत्वात्त्वया प्रभो ॥ ३० ॥ विष्णुजी बोले-हे नाथ ! हे प्रभो ! जिस प्रकार आपने मेरे ऊपर इस समय महती कृपा की है, कृपालु होनेके कारण इसी प्रकारको कृपा विशेषरूपसे आगे भी करते रहें ॥ ३० ॥ त्वयि भक्तिर्महादेव प्रसीद वरमुत्तमम् । नान्यमिच्छामि भक्तानामार्त्तयो नैव यत्प्रभो ॥ ३१ ॥ हे महादेव ! आपमें सदा मेरी भक्ति बनी रहे. मैं यही उत्तम वरदान चाहता हूँ । हे प्रभो ! आप मुझपर प्रसन्न रहें और कभी भी आपके भक्तोंको कोई दुःख न हो, मैं अन्य और कुछ नहीं चाहता हूँ ॥ ३१ ॥ सूत उवाच - तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य दया वान्सुतरां भवः । पस्पर्श च तदंगं वै प्राह शीतांशुशेखरः ॥ ३२ ॥ सूतजी बोले-उनका यह वचन सुनकर अत्यन्त दयालु चन्द्रशेखर शिवजीने उन विष्णुके शरीरका स्पर्श किया और कहा- ॥ ३२ ॥ शिव उवाच - मयि भक्तिस्सदा ते तु हरे स्यादनपायिनी । सदा वन्द्यश्च पूज्यश्च लोके भव सुरैरपि ॥ ३३ ॥ विष्वंभरेति ते नाम सर्वपापहरं परम् । भविष्यति न संदेहो मत्प्रसादात्सुरोत्तम ॥ ३४ ॥ शिवजी बोले-हे विष्णो ! आपकी अविनाशिनी भक्ति मुझमें सदा रहेगी और आप लोकमें देवताओंसे भी वन्दनीय एवं पूज्य रहेंगे । हे देवश्रेष्ठ ! मेरी कृपासे तुम्हारा नाम विश्वम्भर होगा, जो सभी पापोंको दूर करनेवाला होगा, इसमें संशय नहीं है ॥ ३३-३४ ॥ सूत उवाच - इत्युक्त्वांतर्दधे रुद्रस्सर्वदेवेश्वरः प्रभुः । पश्यतस्तस्य विष्णोस्तु तत्रैव च मुनीश्वराः ॥ ३५ ॥ सूतजी बोले-हे मुनीश्वरो ! ऐसा कहकर सभी देवताओंके स्वामी प्रभु रुद्र उन विष्णुके देखते-देखते अन्तर्धान हो गये ॥ ३५ ॥ जनार्दनोऽपि भगवान्वचनाच्छङ्करस्य च । प्राप्य चक्रं शुभं तद्वै जहर्षाति स्वचेतसि ॥ ३६ ॥ भगवान् विष्णु भी शंकरके कथनानुसार उस उत्तम चक्रको प्राप्तकर अपने मनमें बहुत प्रसन्न हुए । वे शिवका ध्यान करके निरन्तर इस स्तोत्रका पाठ करते रहे तथा भक्तोंको पढ़ाते रहे और उसीका उपदेश भी करते रहे ॥ ३६-३७ ॥ कृत्वा ध्यानं च तच्छम्भोः स्तोत्रमेतन्निरन्तरम् । पपाठाध्यापयामास भक्तेभ्यस्तदुपादिशत् ॥ ३७ ॥ इति पृष्टं मयाख्यातं शृण्वताम्पापहारकम् । अतःपरं च किं श्रेष्ठाः प्रष्टुमिच्छथ वै पुनः ॥ ३८ ॥ हे मुनिश्रेष्ठो ! आपलोगोंने जो पूछा था, उसे मैंने कह दिया, यह सुननेवालोंका पाप नष्ट करनेवाला है, इसके बाद आपलोग और क्या पूछना चाहते हैं ? ॥ ३८ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां शिवसहस्रनामस्तोत्रफलवर्णनं नाम षट्त्रिंशोध्यायः ॥ ३६ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरुजसंहितामें शिवसहस्त्रनामस्तोत्रफलवर्णन नामक छत्तीसवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३६ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |