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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ चतुर्थी कोटीरुद्रसंहितायां
सप्तत्रिंशोऽध्यायः शिवरात्रिव्रतमहिमनिरूपणम् -
शिवकी पूजा करनेवाले विविध देवताओं, ऋषियों एवं राजाओंका वर्णन - ऋषय ऊचुः - सूतसूत महाभाग ज्ञानवानसि सुव्रत । पुनरेव शिवस्य वै चरितं ब्रूहि विस्तरात् ॥ १ ॥ पुरातनाश्च राजान ऋषयो देवतास्तथा । आराधनञ्च तस्यैव चकुर्देववरस्य हि ॥ २ ॥ ऋषिगण बोले-हे महाभाग सूत ! हे सुव्रत ! आप ज्ञानी हैं, आप शिवजीके चरित्रका ही विस्तारपूर्वक पुन: वर्णन करें । पुरातन ऋषियों, देवताओं एवं राजाओंने उन देवाधिदेव शिवकी ही आराधना की है ॥ १-२ ॥ सूत उवाच - साधु पृष्टमृषिश्रेष्ठाः श्रूयतां कथयामि वः । चरित्रं शांकरं रम्यं शृण्वतां भुक्तिमुक्तिदम् ॥ ३ ॥ सूतजी बोले-हे श्रेष्ठ ऋषियो ! आपलोगोंने उत्तम बात पूछी है, आपलोग सुनें । अब मैं शंकरके मनोहर चरित्रका वर्णन आपलोगोंसे करता है, जो सुननेवालोंको भोग तथा मोक्ष प्रदान करता है ॥ ३ ॥ एतदेव पुरा पृष्टो नारदेन पितामहः । प्रत्युवाच प्रसन्नात्मा नारदं मुनिसत्तमम् ॥ । ४ ॥ पूर्वकालमें नारदने यही बात ब्रह्माजीसे पूछी थी, तब उन्होंने प्रसन्नचित्त होकर मुनिश्रेष्ठ नारदसे कहा था- ॥ ४ ॥ ब्रह्मोवाच - शृणु नारद सुप्रीत्या शांकरं चरितं वरम् । प्रवक्ष्यामि भवत्स्नेहान्महापातकनाशनम् ॥ ५ ॥ रमया सहितो विष्णुश्शिवपूजां चकार ह । कृपया परमेशस्य सर्वान्कामानवाप हि ॥ ६ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! आप प्रेमसे सुनिये, मैं आपके स्नेहके कारण महापापोंका नाश करनेवाले शिवके श्रेष्ठ चरित्रका वर्णन करूँगा । लक्ष्मीसहित विष्णुने शिवजीकी पूजा की और परमेश्वरकी कपासे उन्होंने समस्त मनोरथोंको प्राप्त किया ॥ ५-६ ॥ अहं पितामहश्चापि शिवपूजनकारकः । तस्यैव कृपया तात विश्वसृष्टिकरस्सदा ॥ ७ ॥ हे तात ! मैं ब्रह्मा भी शिवकी पूजा करता हूँ और उन्हींकी कृपासे सदा विश्वकी सृष्टि करता हूँ ॥ ७ ॥ शिवपूजाकरा नित्यं मत्पुत्राः परमर्षयः । अन्ये च ऋषयो ये ते शिवपूजनकारकाः ॥ ८ ॥ नारद त्वं विशेषेण शिवपूजनकारकः । सप्तर्षयो वसिष्ठाद्याः शिवपूजनकारकाः ॥ ९ ॥ मेरे पुत्र परमर्षिगण भी नित्य शिवपूजन करते हैं एवं अन्य जो ऋषि हैं, वे भी शिवजीकी पूजा करते हैं । हे नारद ! आप तो विशेष रूपसे शिवकी पूजा करते हैं, वसिष्ठादि सातों ऋषि भी शिवकी पूजा करते हैं ॥ ८-९ ॥ अरुंधती मदासाध्वी लोपामुद्रा तथैव च । अहल्या गौतमस्त्री च शिवपूजनकारिकाः ॥ १० ॥ महापतिव्रता अरुन्धती, लोपामुद्रा तथा गौतमस्त्री अहल्या भी शिवकी पूजा करनेवाली हैं ॥ १० ॥ दुर्वासाः कौशिकश्शक्तिर्दधीचो गौतमस्तथा । कणादो भार्गवो जीवो वैशंपायन एव च ॥ ११ ॥ एते च मुनयस्सर्वे शिवपूजाकरा मताः । तथा पराशरो व्यासश्शिवपूजारतस्सदा ॥ १२ ॥ दुर्वासा, कौशिक, शक्ति, दधीच, गौतम, कणाद, भार्गव, बृहस्पति, वैशम्पायन-ये सभी मुनि शिवजीकी पूजा करनेवाले कहे गये हैं । पराशर तथा व्यास भी सर्वदा शिवकी ही पूजामें लगे रहते हैं ॥ ११-१२ ॥ उपमन्युर्महाभक्तश्शिवस्य परमात्मनः । याज्ञवल्क्यो महाशैवो जैमिनिर्गर्ग एव च ॥ १३ ॥ उपमन्यु तो परमात्मा शिवके महाभक्त हैं । याज्ञवल्क्य, जैमिनि एवं गर्ग भी महाशैव हैं ॥ १३ ॥ शुकश्च शौनकाद्याश्च शङ्करस्य प्रपूजकाः । अन्येऽपि बहवस्सन्ति मुनयो मुनिसत्तमाः ॥ १४ ॥ शुक, शौनक आदि ऋषि शिवकी भलीभाँति पूजा करनेवाले हैं । इसी प्रकार अन्य भी बहुत-से मुनि तथा मुनिश्रेष्ठ हैं ॥ १४ ॥ अदितिर्देवमाता च नित्यं प्रीत्या चकार ह । पार्थिवीं शैवपूजां वै सवधूः प्रेमतत्परा ॥ १५ ॥ देवमाता अदिति अपनी पुत्रवधुओंके साथ प्रेमसे तत्पर हो प्रीतिपूर्वक नित्य पार्थिव शिवपूजन करती रहती हैं ॥ १५ ॥ शक्रादयो लोकपाला वसवश्च सुरास्तथा । महाराजिकदेवाश्च साध्याश्च शिवपूजकाः ॥ १६ ॥ गन्धर्वा किन्नराद्याश्चोपसुराश्शिवपूजकाः । तथाऽसुरा महात्मानश्शिवपूजाकरा मताः ॥ १७ ॥ इन्द्र आदि लोकपाल, अष्टवसुगण, देवता, महाराजिक देवता तथा साध्यगण भी शिवका पूजन करते रहते हैं । गन्धर्व, किन्नर आदि उपदेवता शिवपूजक हैं एवं महात्मा असुरगण भी शिवके उपासक माने गये हैं ॥ १६-१७ ॥ हिरण्यकशिपुर्देत्यस्सानुजत्ससुतो मुने । शिवपूजाकरो नित्यं विरोचनबली तथा ॥ १८ ॥ महाशैव स्मृतो बाणो हिरण्याक्षसुतास्तथा । वृषपर्वा दनुस्तात दानवाः शिवपूजकाः ॥ १९ ॥ हे मुने । अपने छोटे भाई एवं पत्रसहित हिरण्यकशिपु तथा विरोचन एवं बलि भी नित्य शिवपूजन करते थे । हे तात ! बलिपुत्र बाण महाशैव कहा ही गया है तथा हिरण्याक्षपुत्र [अन्धक], दनुपुत्र वृषपर्वा आदि दानव भी शिवपूजक थे ॥ १८-१९ ॥ शेषश्च वासुकिश्चैव तक्षकश्च तथा परे । शिवभक्ता महानागा गरुडाद्याश्च पक्षिणः ॥ २० ॥ शेष, वासुकि, तक्षक एवं अन्य महानाग तथा गरुड़ आदि पक्षी भी शिवभक्त हुए हैं ॥ २० ॥ सूर्यचन्द्रावुभौ देवौ पृथ्व्यां वंशप्रवर्त्तकौ । शिवसेवारतौ नित्यं सवंश्यौ तौ मुनीश्वर ॥ २१ ॥ हे मुनीश्वर ! इस पृथ्वीपर वंशको चलानेवाले सूर्य एवं चन्द्र-वे दोनों भी अपने-अपने वंशजोंके सहित नित्य शिवपूजामें निरत रहते हैं ॥ २१ ॥ मनवश्च तथा चक्रुस्स्वायंभुवपुरस्सराः । शिवपूजां विशेषेण शिववेषधरा मुने ॥ २२ ॥ हे मुने ! स्वायम्भुव आदि मनु भी शैव वेष धारणकर विशेष रूपसे शिवपूजन करते थे ॥ २२ ॥ प्रियव्रतश्च तत्पुत्रास्तथा चोत्तानपात्सुतः । तद्वंशाश्चैव राजानश्शिवपूजनकारकाः ॥ २३ ॥ ध्रुवश्च ऋषभश्चैव भरतो नव योगिनः । तद्भ्रातरः परे चापि शिवपूजनकारकाः ॥ २४ ॥ प्रियव्रत, उनके पुत्र, उत्तानपादके पुत्र एवं उनके वंशमें उत्पन्न हुए सभी राजा शिवपूजन करनेवाले थे । ध्रुव, ऋषभ, भरत, नवयोगीश्वर एवं उनके अन्य भाई भी शिवपूजन करनेवाले थे ॥ २३-२४ ॥ वैवस्वतसुतास्तार्क्ष्य इक्ष्वाकुप्रमुखा नृपाः । शिवपूजारतात्मानः सर्वदा सुखभोगिनः ॥ २५ ॥ वैवस्वत मनु, उनके पुत्र इक्ष्वाकु आदि राजागण तथा ताऱ्या शिवपूजामें अपने चित्तको समर्पितकर निरन्तर सुखका भोग करनेवाले हुए हैं ॥ २५ ॥ ककुत्स्थश्चापि मांधाता सगरश्शैवसत्तमः । मुचुकुन्दो हरिश्चन्द्रः कल्माषांघ्रिस्तथैव च ॥ २६ ॥ भगीरथादयो भूपा बहवो नृपसत्तमाः । शिवपूजाकरा ज्ञेयाः शिववेषविधायिनः ॥ २७ ॥ ककुत्स्थ, मान्धाता, शैवश्रेष्ठ सगर, मुचुकुन्द, हरिश्चन्द्र, कल्माषपाद, भगीरथ आदि राजाओं तथा बहुतसे अन्य श्रेष्ठ राजाओंको शैववेष धारण करनेवाला तथा शिवजीका पूजन करनेवाला जानना चाहिये ॥ २६-२७ ॥ खट्वांगश्च महाराजो देवसाहाय्यकारकः । विधितः पार्थिवीम्मूर्तिं शिवस्यापूजयत्सदा ॥ २८ ॥ तत्पुत्रो हि दिलीपश्च शिवपूजनकृत्सदा । रघुस्तत्तनयः शैवः सुप्रीत्याः शिवपूजकः ॥ २९ ॥ देवताओंकी सहायता करनेवाले महाराज खट्वांग विधानपूर्वक पार्थिव शिवमूर्तिका सदा पूजन किया करते थे । उनके पुत्र महाराज दिलीप भी सदा शिवपूजन करते थे तथा उनके पुत्र शिवभक्त रघु थे, जो प्रीतिसे शिवका पूजन करते थे ॥ २८-२९ ॥ अजश्शिवार्चकस्तस्य तनयो धर्मयुद्धकृत् । जातो दशरथो भूयो महाराजो विशेषतः ॥ ३० ॥ धर्मयुद्ध करनेवाले उनके पुत्र अज शिवकी पूजा करनेवाले थे और अजपुत्र महाराज दशरथ तो विशेष रूपसे शिवजीके पूजक थे ॥ ३० ॥ पुत्रार्थे पार्थिवी मूर्त्ति शैवी दशरथो हि सः । समानर्च विशेषेण वसि ष्ठस्याज्ञया मुनेः ॥ ३१ ॥ पुत्रेष्टिं च चकारासौ पार्थिवो भवभक्तिमान् । ऋष्यशृङ्गमुनेराज्ञां संप्राप्य नृपसत्तमः ॥ ३२ ॥ वे महाराज दशरथ पुत्रप्राप्तिके लिये वसिष्ठ मुनिकी आज्ञासे विशेषरूपसे पार्थिव शिवलिंगका पूजन करते थे । उन शिवभक्त नृपश्रेष्ठ महाराज दशरथने शृंगी ऋषिकी आज्ञा प्राप्तकर पुत्रेष्टियज्ञका अनुष्ठान किया था ॥ ३१-३२ ॥ कौसल्या तत्प्रिया मूर्त्ति पार्थिवीं शांकरीं मुदा । ऋष्यशृंगसमादिष्टा समानर्च सुताप्तये ॥ ३३ ॥ सुमित्रा च शिवं प्रीत्या कैकेयी नृपवल्लभा । पूजयामास सत्पुत्रप्राप्तये मुनिसत्तम ॥ ३४ ॥ उनकी पत्नी कौसल्या पुत्रप्राप्तिहेतु श्रृंगीऋषिकी आज्ञासे आनन्दपूर्वक शिवकी पार्थिवमूर्तिका अर्चन करती थीं । हे मुनिश्रेष्ठ ! इसी प्रकार उन राजाकी प्रिय पत्नी सुमित्रा तथा कैकेयी भी श्रेष्ठ पुत्रकी प्राप्तिहेतु प्रेमपूर्वक शिवकी पूजा करती थीं ॥ ३३-३४ ॥ शिवप्रसादतस्ता वै पुत्रान्प्रापुश्शुभंकरान् । महाप्रतापिनो वीरान्सन्मार्गनिरतान्मुने ॥ ३५ ॥ हे मुने ! उन सभी रानियोंने शिवजीकी कपासे कल्याणकारी, महाप्रतापी, वीर तथा सन्मार्गपर चलनेवाले पुत्रोंको प्राप्त किया ॥ ३५ ॥ ततः शिवाज्ञया तस्मात्तासु राज्ञस्स्वयं हरिः । चतुर्भिश्चैव रूपैश्चाविर्बभूव नृपात्मजः ॥ ३६ ॥ कौसल्यायाः सुतो राम सुमित्रायाश्च लक्ष्मण । शत्रुघ्नश्चैव कैकेय्या भरतश्चेति सुव्रताः ॥ ३७ ॥ उसके बाद शिवजीकी आज्ञासे स्वयं भगवान विष्णु उन राजासे उन रानियोंके गर्भसे राजाके पुत्र होकर चार रूपोंसे प्रकट हुए । कौसल्यासे रामचन्द्र, सुमित्रासे लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न तथा कैकेयीसे भरत-ये उत्तम व्रतवाले पुत्र उत्पन्न हुए । ३६-३७ ॥ रामस्ससहजो नित्यं पार्थिवं समपूजयत् । भस्म रुद्राक्षधारी च विरजागममास्थितः ॥ ३८ ॥ वे रामचन्द्र शैवागमके अनुसार विरजादीक्षामें दीक्षित हो गये और वे भस्म तथा रुद्राक्ष धारणकर भाइयोसहित नित्य पार्थिवपूजन किया करते थे ॥ ३८ ॥ तद्वंशे ये समुत्पन्ना राजानः सानुगा मुने । ते सर्वे पार्थिवं लिंगं शिवस्य समपूजयन् ॥ ३९ ॥ हे मुने ! उस वंशमें जितने भी राजा उत्पन्न हुए थे, वे सभी अपने अनुगामियोंके साथ पार्थिव शिवलिंगका पूजन किया करते थे ॥ ३९ ॥ सुद्युम्नश्च महाराजश्शैवो मुनिसुतो मुने । शिवशापात्प्रियाहेतोरभून्नारी ससेवकः ॥ ४० ॥ हे मुने ! मनुपुत्र शिवभक्त महाराज सुद्युम्न शिवके शापसे* अपने सेवकोंसहित स्त्री हो गये थे ॥ ४० ॥ पार्थिवेशसमर्चातः पुनस्सोऽभूत्पुमान्वरः । मासं स्त्री पुरुषो मासमेवं स्त्रीत्वं न्यवर्त्तत ॥ ४१ ॥ ततो राज्यं परित्यज्य शिवधर्मपरायणः । शिववेषधरो भक्त्या दुर्लभं मोक्षमाप्तवान् ॥ ४२ ॥ पुनः वे शिवकी पार्थिव मूर्तिका पूजन करनेसे उत्तम पुरुष बन गये । वे एक मासतक स्त्री तथा एक मासतक पुरुष हो जाते थे, इस प्रकार वे स्त्रीत्वसे निवृत्त हो गये । तत्पश्चात् उन्होंने राज्य त्यागकर शैव वेष धारणकर भक्तिपूर्वक शिवधर्ममें परायण हो दुर्लभ मोक्षको प्राप्त किया ॥ ४१-४२ ॥ पुरूरवाश्च तत्पुत्रो महाराजस्तु पूजक । शिवस्य देवदेवस्य तत्सुतः शिवपूजकः ॥ ४३ ॥ भरतस्तु महापूजां शिवस्यैव सदाकरोत् । नहुषश्च महा शैवः शिवपूजारतो ह्यभूत् ॥ ४४ ॥ उनके पुत्र महाराज पुरूरवा भी शिवोपासक थे तथा उनके पुत्र भी देवाधिदेव शिवके पूजक हुए थे । महाराज भरत नित्य ही शिवकी महापूजा किया करते थे । इसी प्रकार महाशैव नहुष भी [निरन्तर] शिवकी पूजामें तत्पर रहते थे ॥ ४३-४४ ॥ ययातिः शिवपूजातः सर्वान्कामानवाप्तवान् । अजीजनत्सुतान्पंच शिवधर्मपरायणान् ॥ ४५ ॥ तत्सुता यदुमुख्याश्च पंचापि शिवपूजकाः । शिवपूजाप्रभावेण सर्वान्कामांश्च लेभिरे ॥ ४६ ॥ ययातिने भी शिवपूजाके प्रभावसे अपने सभी मनोरथ प्राप्त किये और [शिवकी कृपासे] शिवधर्मपरायण पाँच पुत्रोंको उत्पन्न किया । उन ययातिके यदु आदि पाँचों पुत्र शिवाराधक हुए और शिवकी पूजाके प्रभावसे उन सभीने अपनी समस्त कामनाएँ पूर्ण की । ४५-४६ ॥ अन्येऽपि ये महाभागाः समानर्चुश्शिवं हि ते । तद्वंश्या अन्यवंश्याश्च भुक्तिमुक्तिप्रदं मुने ॥ ४७ ॥ हे मुने ! इसी प्रकार उनके वंशवाले तथा अन्य वंशवाले जो अन्य महाभाग्यवान् राजागण थे, उन्होंने भी भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाले शिवकी पूजा की थी ॥ ४७ ॥ कृष्णेन च कृतं नित्यं बदरीपर्वतोत्तमे । पूजनं तु शिवस्यैव सप्तमासावधि स्वयम् ॥ ४८ ॥ प्रसन्नाद्भगवांस्तस्माद्वरान्दिव्यानने कशः । सम्प्राप्य च जगत्सर्वं वशेऽनयत शङ्करात् ॥ ४९ ॥ स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने पर्वतश्रेष्ठ हिमालयके बदरिकाश्रममें स्थित होकर सात मासपर्यन्त नित्य शिवका ही पूजन किया और प्रसन्न हुए भगवान् शंकरसे अनेक दिव्य वरदान प्राप्तकर सम्पूर्ण जगत्को अपने वशमें कर लिया ॥ ४८-४९ ॥ प्रद्युम्नः तत्सुतस्तात शिवपूजाकरस्सदा । अन्ये च कार्ष्णिप्रवरास्साम्बाद्याश्शिवपूजकाः ॥ ५० ॥ जरासंधो महाशैवस्तद्वंश्याश्च नृपास्तथा । निमिश्शैवश्च जनकस्तत्पुत्राश्शिवपूजकाः ॥ ५१ ॥ हे तात ! उनके पुत्र प्रद्युम्न सदा शिवकी पूजा करते थे तथा कृष्णके साम्ब आदि अन्य प्रमुख पुत्र भी शिवपूजक थे । जरासन्ध तो महाशैव था ही, उसके वंशवाले राजा भी शिवपूजक थे । महाशैव निमि, जनक तथा उनके पुत्र भी शिवपूजक थे ॥ ५०-५१ ॥ नलेन च कृता पूजा वीरसेनसुतेन वै । पूर्वजन्मनि यो भिल्लो वने पान्थसुरक्षकः ॥ ५२ ॥ यतिश्च रक्षितस्तेन पुरा हरसमीपतः । स्वयंव्याघ्रादिभी रात्रौ भक्षितश्च मृतो वृषात् ॥ ५३ ॥ तेन पुण्यप्रभावेण स भिल्लो हि नलोऽभवत् । चक्रवर्ती महाराजो दमयन्ती प्रियोऽभवत् ॥ ५४ ॥ वीरसेनके पुत्र राजा नलने भी शिवकी पूजा की थी, जो पूर्वजन्ममें बनके भौल होकर पथिकोंकी रक्षा किया करते थे । पूर्वकालमें उस भीलने शिवलिंगके पास किसी संन्यासीकी रक्षा की थी और वह स्वयं [अतिथिरक्षारूप] धर्मपालनके प्रसंगमें रात्रिमें बाघ आदिके द्वारा भक्षण कर लेनेसे मर गया । उसी पुण्यप्रभावके वह भील [दूसरे जन्ममें] चक्रवर्ती महाराज नल हुआ, जो दमयन्तीका प्रिय पति था ॥ ५२-५४ ॥ इति ते कथितं तात यत्पृष्टं भवतानघ । शाङ्करं चरितं दिव्यं किमन्यत्प्रष्टुमिच्छसि ॥ ५५ ॥ हे तात ! हे अनघ ! आपने शिवजीका जो दिव्य चरित्र पूछा था, वह सब मैं निवेदन किया, अब और क्या पूछना चाहते हैं ? ॥ ५५ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसहितायां देवर्षिनृपशैवत्ववर्णनं नाम सप्तत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३७ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत चतुर्थ कोटिरूद्रसंहितामें देवर्षिनुपर्शवत्ववर्णन नामक सैंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३७ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |