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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
कैलाससंहिता
॥ एकविंशोऽध्यायः ॥ यतीनान्मरणानन्तरदशाहपर्यन्तकृत्यवर्णनम्
यतिके अन्त्येष्टिकर्मकी दशाहपर्यन्त विधिका वर्णन वामदेव उवाचः - ये मुक्ता यतयस्तेषां दाहकर्म न विद्यते । मृते शरीरे खननं तद्देहस्य श्रुतं मया ॥ १ ॥ तत्कर्माचक्ष्व सुप्रीत्या कार्तिकेय गुरो मम । त्वत्तोन्यो न हि संवक्ता त्रिषु लोकेषु विद्यते ॥ २ ॥ वामदेवजी बोले-जो मुक्त यति हैं, उनके शरीरका दाहकर्म नहीं होता । मरनेपर उनके शरीरको गाड़ दिया जाता है, यह मैंने सुना है । मेरे गुरु कार्तिकेय ! आप प्रसन्नतापूर्वक यतियोंके उस अन्त्येष्टिकर्मका मुझसे वर्णन कीजिये; क्योंकि तीनों लोकोंमें आपके सिवा दूसरा कोई इस विषयका वर्णन करनेवाला नहीं है ॥ १-२ ॥ पूर्णाहंभावमाश्रित्य ये मुक्ता देहपंजरात् । ये तूपासनमार्गेण देहमुक्ताः परं गतः ॥ ३ ॥ तेषां गतिविशेषं च भगवन् शङ्करात्मज । वक्तुमर्हसि सुप्रीत्या मां विचार्य स्वशिष्यतः ॥ ४ ॥ भगवन् ! शंकरनन्दन ! जो पूर्ण परब्रह्ममें अहंभावका आश्रय ले देहपंजरसे मुक्त हो गये हैं तथा जो उपासनाके मार्गसे शरीरबन्धनसे मुक्त हो परमात्माको प्राप्त हुए हैं, उनकी गतिमें क्या अन्तर है-यह बताइये । प्रभो ! मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिये अच्छी तरह विचार करके प्रसन्नतापूर्वक मुझसे इस विषयका वर्णन कीजिये ॥ ३-४ ॥ सूत उवाचः - मुनिविज्ञप्तिमाकर्ण्य शक्तिपुत्रः सुरारिहा । प्राहात्यन्तरहस्यं तद् भृगुणा श्रुतमीश्वरात् ॥ ५ ॥ सूतजी बोले-मुनि वामदेवजीका निवेदन सुनकर देवशत्रुओंका नाश करनेवाले पार्वतीनन्दन स्कन्दजी शिवजीसे भृगुके द्वारा सुने गये परम रहस्यको कहने लगे- ॥ ५ ॥ सुब्रह्मण्य उवाचः - इदमेव मुने गुह्यं भृगवे शिवयोगिने । उक्तं भगवता साक्षात्सर्वज्ञेन पिनाकिना ॥ ६ ॥ वक्ष्ये तदद्य ते ब्रह्मन्न देयं यस्य कस्यचित् । देयं शिष्याय शान्ताय शिवभक्तियुताय वै ॥ ७ ॥ सुब्रह्मण्य बोले-हे मुने ! हे ब्रह्मन् ! इस गुप्त बातका सर्वज्ञ सदाशिवने परम शैव भूगसे जैसा वर्णन किया था । मैं वही आपसे कह रहा हूँ । यह ज्ञान जिस किसीको नहीं देना चाहये, इसे शान्तचित्त तथा शिवभक्तिसमन्वित शिष्यको ही देना चाहिये ॥ ६-७ ॥ समाधिस्थो यतिः कश्चिच्छिवभावेन देहमुक् । अस्ति चेत्स महाधीरः परिपूर्णः शिवो भवेत् ॥ ८ ॥ अधैर्यचित्तो यः कश्चित्समाधिं न च विंदति । तदुपायं प्रवक्ष्यामि सावधानतया शृणु ॥ ९ ॥ जो कोई यति समाधिस्थ हो शिवके चिन्तनपूर्वक अपने शरीरका परित्याग करता है, वह यदि महान् धीर हो तो परिपूर्ण शिवरूप हो जाता है; किंतु यदि कोई अधीरचित्त होनेके कारण समाधिलाभ नहीं कर पाता तो उसके लिये उपाय बताता हूँ: सावधान होकर सुनो ॥ ८-९ ॥ त्रिपदार्थपरिज्ञानं वेदान्तागमवाक्यजम् । श्रुत्वा गुरोर्मुखाद्योगमभ्यसेत्स यमादिकम् ॥ १० ॥ तत्कुर्वन्स यतिः सम्यक् शिवध्यानपरो भवेत् । नियमेन मुने नित्यं प्रणवासक्तमानसः ॥ ११ ॥ वेदान्त-शास्त्रके वाक्योंसे जो ज्ञाता, ज्ञान और शेय-इन तीन पदार्थोंका परिज्ञान होता है, उसे गुरुके मुखसे सुनकर यति यम-नियमादिरूप योगका अभ्यास करे । उसे करते हुए वह भलीभाँति शिवके ध्यानमें तत्पर रहे । मुने ! उसे नित्य नियमपूर्वक प्रणवके जप और अर्थचिन्तनमें मनको लगाये रखना चाहिये ॥ १०-११ ॥ देहदौर्बल्यवशतो यद्यधैर्यधरो यतिः । अकामश्च शिवं स्मृत्वा स जीर्णां स्वां तनुं त्यजेत् ॥ १२ ॥ सदाशिवानुग्रहतो नंदिना प्रेरिता मुने । आतिवाहिकरूपिण्यो देवताः पञ्च विश्रुताः ॥ १३ ॥ मुने ! यदि देहकी दुर्बलताके कारण धीरता धारण करनेमें असमर्थ यति निष्कामभावसे शिवका स्मरण करके अपने जीर्ण शरीरको त्याग दे तो भगवान् सदाशिवके अनुग्रहसे नन्दीके भेजे हुए विख्यात पाँच आतिवाहिक देवता आते हैं ॥ १२-१३ ॥ आत्महन्ताकृतिः काचिज्ज्योत्तिःपुंजवपुष्मती । अह्नोऽभिमानिनी काचिच्छुक्लपक्षाभिमानिनी ॥ १४ ॥ उत्तरायणरूपा च पंचानुग्रहतत्परा । धूम्रा तमस्विनी रात्रिः कृष्णपक्षाभिमानिनी ॥ १५ ॥ दक्षिणायनरूपेति विश्रुताः पञ्च देवताः । तासां वृत्तिं शृणुष्वाद्य वामदेव महामुने ॥ १६ ॥ उनमेंसे कोई तो अग्निका अभिमानी, कोई ज्योति:पुंजस्वरूप, कोई दिनाभिमानी, कोई शुक्लपक्षाभिमानी और कोई उत्तरायणका अभिमानी होता है । ये पाँचों सब प्राणियोंपर अनुग्रह करनेमें तत्पर रहते हैं । इसी तरह धूमाभिमानी, तमका अभिमानी, रात्रिका अभिमानी, कृष्णपक्षका अभिमानी और दक्षिणायनका अभिमानीये सब मिलकर पाँच होते हैं । ये पाँचों विख्यात देवता दक्षिण मार्गमें प्रसिद्ध हैं । महामुने वामदेव ! अब तुम उन सब देवताओंकी वृत्तिका वर्णन सुनो ॥ १४-१६ ॥ ताः पंचदेवता जीवान्कर्मानुष्ठान तत्परान् । गृहीत्वा त्रिदिवं यान्ति तत्पुण्यवशतो मुने ॥ १७ ॥ भुक्त्वा भोगान्यथोक्तांश्च ते तत्पुण्यक्षये पुनः । मानुषं लोकमासाद्य भजते जन्मपूर्ववत् ॥ १८ ॥ कर्मक अनुष्ठानमें लगे हुए जीवोंको साथ ले वे पाँचों देवता उनके पुण्यवश स्वर्गलोकको जाते हैं और वहाँ यथोक्त भोगोंका उपभोग करके वे जीव पुण्य क्षीण होनेपर पुन: मनुष्यलोकमें आते तथा पूर्ववत् जन्म ग्रहण करते हैं ॥ १७-१८ ॥ ताः पुनः पंचधा मार्गं विभज्यारभ्य भूतलम् । अग्न्यादिक्रमतां गृह्यं सदाशिवपदं यतिः ॥ १९ ॥ निनीय वन्द्यचरणौ देवदेवस्य पृष्ठतः । तिष्ठन्त्यनुग्रहाकाराः कर्मण्येव प्रयोजिताः ॥ २० ॥ इनके सिवा जो उत्तर मार्गके पाँच देवता हैं, वे भूतलसे लेकर ऊर्ध्वलोकतकके मार्गको पाँच भागोंमें विभक्त करके यतिको साथ ले क्रमशः अग्नि आदिके मार्गमें होते हुए उसे सदाशिवके धाममें पहुँचाते हैं । वहाँ देवाधिदेव महादेवके चरणों में प्रणाम करके लोकानुग्रहके कर्ममें ही लगाये गये वे अनुग्रहाकार देवता उन सदाशिवके पीछे खड़े हो जाते हैं ॥ १९-२० ॥ समागतमभिप्रेक्ष्य देवदेवः सदा शिवः । विरक्तश्चेन्महामन्त्रतात्पर्यमुपदिश्य च ॥ २१ ॥ स्वसाम्यं च वपुर्दत्ते गाणपत्येभिषिच्य च । अनुगृह्णाति सर्वेशः शङ्करः सर्वनायकः ॥ २२ ॥ यतिको आया देख देवाधिदेव सदाशिव यदि वह विरक्त हो तो उसे महामन्त्रके तात्पर्यका उपदेश दे गणपतिके पदपर अभिषिक्त करके अपने ही समान शरीर देते हैं । इस प्रकार सर्वेश्वर सर्वनियन्ता भगवान् शंकर उसपर अनुग्रह करते हैं ॥ २१-२२ ॥ मृगटङ्कत्रिशूलाग्र्यवरदानविभूषितम् । त्रिनेत्रं चन्द्रशकलं गङ्गोल्लासिजटाधरम् ॥ २३ ॥ उसे मृग, टंक, त्रिशूल, वरदान [मुद्रा]-से विभूषितकर अर्धचन्द्रसमन्वित तथा गंगाप्रवाहसे उल्लसित जटाओंवाला बना देते हैं ॥ २३ ॥ अधिष्ठितविमानाग्र्यं सर्वदं सर्वकामदम् । इति शाखाविरक्तश्चेद्रुद्रकन्यासमावृतम् ॥ २४ ॥ नृत्यगीतमृदङ्गादिवाद्यघोषमनोहरम् । दिव्याम्बरस्रगालेप भूषणैरपि भूषितम् ॥ २५ ॥ दिव्यामृतघटैः पूर्णं दिव्यांभःपरिपूरितम् । सूर्यकोटिप्रतीकाशं चंद्रकोटिसुशीतलम् ॥ २६ ॥ मनोवेगं सर्वगं च विमानमनुगृह्य च । भुक्तभोगस्य तस्यापि भोगकौतूहलक्षये ॥ २७ ॥ निपात्य शक्तिं तीव्रतरां प्रकृत्या ह्यति दुर्गमाम् । कान्तारं दग्धुकामां तां मलयानलसुप्रभाम् ॥ २८ ॥ जो यति नाना शाखाओंवाले विषयभोगोंसे विरक्त नहीं हुआ है, उसे कृपापूर्वक शिवजी सभी कामनाओंको प्रदान करनेवाला, रुद्रकन्याओंसे समावृत, मृदंगादि वाद्यध्वनियों तथा नृत्य-गीतादिसे मनोहर, दिव्य वस्त्र, माल्य, आभूषण आदिसे विभूषित, दिव्य अमृत घटोंसे पूर्ण, दिव्य शय्याओंसे युक्त, करोड़ों सूर्योक समान दीप्तिमान् तथा करोड़ों चन्द्रोंके समान शीतल, मनके समान वेगवाला, सर्वत्रगामी विमान प्रदान करते हैं । इन भोगोंको भोग लेनेपर निवृत्त हुई भोगासक्तिवाले यतिको स्वभावतः अत्यन्त दुर्गम, तीव्रतर, [विषयवासनारूपी] वनको दाध करनेके लिये उद्यत, प्रलयकालीन अग्निके सदृश प्रभावाली शक्ति प्रदान करते हैं ॥ २४-२८ ॥ अनुगृह्य महामन्त्रतात्पर्यं परमेश्वरः । पूर्णोऽहं भावनारूपः शंभुरस्मीति निश्चलम् ॥ २९ ॥ वे परमेश्वर अनुग्रहपूर्वक उस यतिको महामन्त्रके तात्पर्यका उपदेश करते हैं [जिसके फलस्वरूप वह] 'मैं परिपूर्ण शिव ही हूँ' इस प्रकारकी निश्चल भावनावाला हो जाता है ॥ २९ ॥ अनुगृह्य समाधिं च स्वदास्यस्पन्दरूपिणीः । रव्यादिकर्म्मसामर्थ्यरूपाः सिद्धीरनर्गलाः ॥ ३० ॥ आयुःक्षये पद्मयोनेः पुनरावृत्तिवर्जिताम् । मुक्तिं च परमां तस्मै प्रयच्छति जगद्गुरुः ॥ ३१ ॥ उसे वे अनुगृहीत करके निश्चल समाधि देते हैं । अपने प्रति दास्यभावकी फलस्वरूपा तथा सूर्य आदिके कार्य करनेकी शक्तिरूपा ऐसी सिद्धियाँ प्रदान करते हैं, जो कहीं अवरुद्ध नहीं होतीं । साथ ही वे जगद्गुरु शंकर उस यतिको वह परम मुक्ति देते हैं, जो ब्रह्माजीकी आयु समाप्त होनेपर भी पुनरावृत्तिके चक्करसे दूर रहती है ॥ ३०-३१ ॥ एतदेव पदं तस्मात्सर्वैश्वर्यं समष्टिमत् । मुक्तिघंटापथं चेति वेदान्तानां विनिश्चयः ॥ ३२ ॥ अतः यही समष्टिमान् सम्पूर्ण ऐश्वर्यसे युक्त पद है और यही मोक्षका राजमार्ग है, ऐसा वेदान्तशास्त्रका निश्चय है ॥ ३२ ॥ मुमूर्षोस्तस्य मन्दस्य यतेः सत्सम्प्रदायिनः । यतयः सानुकूलत्वात्तिष्ठेयुः परित स्तदा ॥ ३३ ॥ ततः सर्वे च ते तत्र प्रणवादीन्यनुक्रमात् । उपदिश्य च वाक्यानि तात्पर्यं च समाहिताः ॥ ३४ ॥ वर्णयेयुः स्फुटं प्रीत्या शिवं संस्मारयन्सदा । निर्गुणं परमज्योतिः प्रणम्य विलयावधि ॥ ३५ ॥ जिस समय यति मरणासन्न हो शरीरसे शिथिल हो जाय, उस समय श्रेष्ठ सम्प्रदायवाले दूसरे यति अनुकूलताकी भावना ले उसके चारों ओर खड़े हो जायें । वे सब वहाँ क्रमशः प्रणव आदि वाक्योंका उपदेश दे उनके तात्पर्यका सावधानी और प्रसन्नताके साथ सुस्पष्ट वर्णन करें तथा जबतक उसके प्राणोंका लय न हो जाय तबतक निर्गुण परमज्योति:स्वरूप सदाशिवका उसे निरन्तर स्मरण कराते रहें ॥ ३३-३५ ॥ एतेषां सममेवात्र संस्कारक्रम उच्यते । असंस्कृतशरीराणां दौर्गत्यं नैव जायते ॥ ३६ ॥ संन्यस्य सर्वकर्माणि शिवाश्रयपरा यतः । देहं दूषयतस्तेषां राज्ञो राष्ट्रं च नश्यति ॥ ३७ ॥ तद्ग्रामवासिनस्तेऽपि भवेयुर्भृशदुःखिनः । तद्दोषपरिहाराय विधानं चैवमुच्यते ॥ ३८ ॥ सब यतियोंका यहाँ समानरूपसे संस्कार-क्रम बताया जाता है । संन्यासी सब कर्मोका त्याग करके भगवान् शिवका आश्रय ग्रहण कर लेते हैं । इसलिये उनके शरीरका दाहसंस्कार नहीं होता और उसके न होनेसे उनकी दुर्गति नहीं होती । संन्यासीके शरीरको दूषित करनेवाले राजाका राज्य नष्ट हो जाता है । उसके गाँवोंमें रहनेवाले लोग अत्यन्त दुखी हो जाते हैं । इसलिये उस दोषका परिहार करनेके लिये शान्तिका विधान बताया जाता है ॥ ३६-३८ ॥ स तु नम हरिण्याय चेत्यारभ्य विनम्रधीः । नम आमीवत्केभ्यान्तं तत्काले प्रजपेन्मनुम् ॥ ३९ ॥ ओमित्यन्ते जपन् देवयजनं पूरयेत्ततः । ततः शान्तिर्भवेत्तस्य दोषस्य हि मुनीश्वर ॥ ४० ॥ उस समय 'नम इरिण्याय' से लेकर 'नम अमीवकेभ्यः' तकके मन्त्रका विनीतचित्त होकर जप करे । फिर अन्तमें ओंकारका जप करते हुए मिट्टीसे देवयजनकी पूर्ति करे । मुनीश्वर ! ऐसा करनेसे उस दोषकी शान्ति हो जाती है । ३९-४० ॥ पुत्रादयो यथा न्यायं कुर्युः संस्कारमुत्तमम् । वच्मि तत्कृपया विप्र सावधानतया शृणु ॥ ४१ ॥ [अब संन्यासीके शबके संस्कारकी विधि बताते हैं । ] पुत्र या शिष्य आदिको चाहिये कि यतिके शरीरका यथोचित रीतिसे उत्तम संस्कार करे । हे ब्रह्मन् ! मैं कृपापूर्वक संस्कारकी विधि बता रहा हूँ. सावधान होकर सुनो ॥ ४१ ॥ अभ्यर्च्य स्नाप्य शुद्धोदैरभ्यर्च्य कुसुमादिभिः । श्रीरुद्रचमकाभ्यां च रुद्रसूक्तेन च क्रमात् ॥ ४२ ॥ शंखं च पुरतः स्थाप्य तज्जलेनाभिषिच्य च । पुष्पं निधाय शिरसि प्रणवेन प्रमार्जयेत् ॥ ४३ ॥ पहले यतिके शरीरको शुद्ध जलसे नहलाकर पुष्प आदिसे उसकी पूजा करे । पूजनके समय श्रीरुद्रसम्बन्धी चमकाध्याय और नमकाध्यायका पाठ करके रुद्रसूक्तका उच्चारण करे । उसके आगे शंखकी स्थापना करके शंखस्थ जलसे यतिके शरीरका अभिषेक करे । सिरपर पुष्प रखकर प्रणवद्वारा उसका मार्जन करे ॥ ४२-४३ ॥ कौपीनादीनि सन्त्यज्य पुनरन्यानि धारयेत् । भस्मनोद्धूलयेत्तस्य सर्वाङ्गं विधिना ततः ॥ ४४ ॥ त्रिपुण्ड्रं च विधानेन तिलकं चन्दनेन च । विरच्य पुष्पैर्मालाभिरलङ्कुर्यात्कलेवरम् ॥ ४५ ॥ पहलेके कौपीन आदिको हटाकर दूसरे नवीन कौपीन आदि धारण कराये । फिर विधिपूर्वक उसके सारे अंगोंमें भस्म लगाये । विधिवत् त्रिपुण्ड्र लगाकर चन्दनद्वारा तिलक करे । फिर फूलों और मालाओंसे उसके शरीरको अलंकृत करे ॥ ४४-४५ ॥ उरः कण्डशिरोबाहुप्रकोष्ठश्रुतिषु क्रमात् । रुद्राक्षमालाभरणैरलङ्कुर्याच्च मन्त्रतः ॥ ४६ ॥ सुधूपितं समुत्थाप्य शिक्योपरि निधाय च । पंचब्रह्ममये रम्ये रथे संस्थापयेत्तनुम् ॥ ४७ ॥ छाती, कण्ठ, मस्तक, बाँह, कलाई और कानोंमें क्रमशः रुद्राक्षकी मालाके आभूषण मन्त्रोच्चारणपूर्वक धारण कराकर उन सब अंगोंको सुशोभित करे । फिर धूप देकर उस शरीरको उठाये और विमानके ऊपर रखकर ईशानादि पंचब्रह्ममय रमणीय रथपर स्थापित करे ॥ ४६-४७ ॥ ओमाद्यैः पंचभिर्ब्रह्ममन्त्रैः सद्यादिभिः क्र्मात् । सुगंधकुसुमैर्माल्यैरलङ्कुर्याद्रथं च तम् ॥ ४८ ॥ नृत्यवाद्यैर्ब्राह्मणानां वेदघोषैश्च सर्वतः । ग्रामं प्रदक्षिणीकृत्य गच्छेत्प्रेतं तमुद्वहन् ॥ ४९ ॥ आदिमें ओंकारसे युक्त पाँच सद्योजातादि ब्रह्ममन्त्रोंका उच्चारण करके सुगन्धित पुष्पों और मालाओंसे उस रथको सुसज्जित करे । फिर नृत्य, वाद्य तथा ब्राह्मणोंके वेदमन्त्रोच्चारणकी ध्वनिके साथ ग्रामकी सभी ओरसे प्रदक्षिणा करते हुए उस प्रेतको बाहर ले जाय ॥ ४८-४९ ॥ ततस्ते यतिनः सर्वे तथा प्राच्यामथापि वा । उदीच्यं पुण्यदेशे तु पुण्यवृक्षसमीपतः ॥ ५० ॥ खनित्वा देवयजनं दण्डमात्रप्रमाणतः । तदनन्तर साथ गये हुए वे सब यति गाँवके पूर्व या उत्तरदिशामें पवित्र स्थानमें किसी पवित्र वृक्षके निकट देवयजन (गड्ढा) खोदें । उसकी लम्बाई संन्यासीके दण्डके बराबर ही होनी चाहिये ॥ ५०-१/२ ॥ प्रणवव्याहृतिभ्यां च प्रोक्ष्य चास्तीर्य च क्रमात् ॥ ५१ ॥ शमीपत्रैश्च कुसुमैरुत्तराग्रं तदूर्ध्वतः । आस्तीर्य दर्भांस्तत्पीठं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥ ५२ ॥ प्रणवेन ब्रह्मभिश्च पञ्चगव्येन तां तनुम् । प्रोक्ष्याभिषिच्य रौद्रेण सूक्तेन प्रणवेन च ॥ ५३ ॥ शंखतोयेनाभिषिच्य मूर्ध्नि पुष्पं विनिःक्षिपेत् । तद्गतस्यानुकूलोऽसौ शिवस्मरणतत्परः ॥ ५४ ॥ फिर प्रणव तथा व्याहृति-मन्त्रोंसे उस स्थानका प्रोक्षण करके वहाँ क्रमशः शमीके पत्र और फूल बिछाये । उनके ऊपर उत्तराग्र कुश बिछाकर उसपर योगपीठ रखे । उसके ऊपर पहले कुश बिछाये, कुशोंके ऊपर मृगचर्म तथा उसके भी ऊपर वस्त्र बिछाकर प्रणवसहित सद्योजातादि पंचब्रह्ममन्त्रोंका पाठ करते हुए पंचगव्यद्वारा उस शवका प्रोक्षण करे । तत्पश्चात् रुद्रसूक्त एवं प्रणवका उच्चारण करते हुए शंखके जलसे उसका अभिषेक करके उसके मस्तकपर फूल डाले । वहाँ गये हुए शिष्य आदि संस्कारकर्ता पुरुष मृत यतिके प्रति अनुकूल भाव रखते हुए शिवका चिन्तन करते रहें । ५१-५४ ॥ ओमित्यथ समुद्धृत्य स्वस्तिवाचनपूर्वकम् । गर्ते योगासने स्थाप्य प्राङ्मुखं स्याद्यथा तथा ॥ ५५ ॥ तदनन्तर ॐकारका उच्चारण और स्वस्तिवाचन करके उस शवको उठाकर गड्ठेके भीतर योगासनपर इस तरह बिठाये, जिससे उसका मुख पूर्व-दिशाकी ओर रहे ॥ ५५ ॥ गंधपुष्पैरलङ्कृत्य धूपगुग्गुलुना ततः । विष्णो हव्यमिति प्रोच्य रक्षस्वेति वदन् ददेत् ॥ ५६ ॥ दण्डं दक्षिणहस्ते तु वामे दद्यात्कमण्डलुम् । प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो मन्त्रेण सोदकम् ॥ ५७ ॥ फिर चन्दन-पुष्पसे अलंकृत करके उसे धूप और गुग्गुलकी सुगन्ध दे । इसके बाद 'विष्णो ! हव्यमिदं रक्षस्व' ऐसा कहकर उसके दाहिने हाथमें दण्ड दे और 'प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो०' (शु० यजु० २३ । ६५) इस मन्त्रको पढ़कर बायें हाथमें जलसहित कमण्डलु अर्पित करे ॥ ५६-५७ ॥ ब्रह्मजज्ञानं प्रथममितिमन्त्रेण मस्तके । स्पृशञ्जप्त्वा रुद्रसूक्तं भुवोर्मध्ये स्पृशञ्जपेत् ॥ ५८ ॥ मानो महान्तमित्यादिचतुर्भिर्मस्तकं ततः । नालिकेरेण निर्भिद्यादवटं पूरयेत्ततः ॥ ५९ ॥ फिर 'ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं०' (शु० यजु० १३ । ३) इस मन्त्रसे उसके मस्तकका स्पर्श करके दोनों भाँहोंके स्पर्शपूर्वक रुद्रसूक्तका जप करे । तत्पश्चात् 'मा नो महान्तमुत०' (शु० यजु० १६ । १५) इत्यादि चार मन्त्रोंको पढ़कर नारियलके द्वारा यतिके शवके मस्तकका भेदन करे । इसके बाद उस गड्ढेको पाट दे ॥ ५८-५९ ॥ त्रैपंचभिर्ब्रह्मभिः स्पृष्ट्वा जपेत् स्थलमनन्यधीः । यो देवानामुपक्रम्य यः परः स महेश्वरः ॥ ६० ॥ इति जप्त्वा महादेवं सांबं संसारभेषजम् । सर्वज्ञमपराधीनं सर्वानुग्रहकारकम् ॥ ६१ ॥ फिर उस स्थानका स्पर्श करके अनन्यचित्तसे पाँच ब्रह्ममन्त्रोंका जप करे । तदनन्तर 'यो देवानां प्रथमं पुरस्तात्' (१० । ३)-से लेकर 'तस्य प्रकृतिलीनस्य यः परः स महेश्वरः । ' (१० । ८) तक [महानारायणोपनिषद्के] मन्त्रोंका जप करके संसाररूपी रोगके भेषज, सर्वज्ञ, स्वतन्त्र तथा सबपर अनुग्रह करनेवाले उमासहित महादेवजीका चिन्तन एवं पूजन करे ॥ ६०-६१ ॥ एकारत्निसमुत्सेधमरत्निद्वयविस्तृतम् । मृदा पीठं प्रकल्प्याथ गोपयेनोपलेपयेत् ॥ ६२ ॥ चतुरस्रं च तन्मध्ये गंधाक्षतसमन्वितेः । सुगंधकुसुमैर्बिल्वैस्तुलस्या च समर्चयेत् ॥ ६३ ॥ [पूजनकी विधि यों है-] एक हाथ ऊँचे और दो हाथ लम्बे-चौड़े एक पीठका मिडीके द्वारा निर्माण करे । फिर उसे गोबरसे लीपे । वह पीठ चौकोर होना चाहिये । उसके मध्यभागमें [उमा-महेश्वरको स्थापित करके] गन्ध, अक्षत, सुगन्धित पुष्प, बिल्वपत्र और तुलसीदलोंसे उनकी पूजा करे ॥ ६२-६३ ॥ प्रणवेन ततो ददयाद् धूपदीपौ पयो हविः । दत्त्वा प्रदक्षिणीकृत्य नमस्कुर्याच्च पंचधा ॥ ६४ ॥ तत्पश्चात् प्रणवसे धूप और दीप निवेदन करे । फिर दूध और हविष्यका नैवेद्य लगाकर पाँच बार परिक्रमा करके नमस्कार करे ॥ ६४ ॥ प्रणवं द्वादशावृत्त्या संजप्य प्रणमेत्ततः । दिग्विदिक् क्रमतो दद्याद् ब्रह्मर्ध्यं प्रणवेन च ॥ ६५ ॥ फिर बारह बार प्रणवका जप करके प्रणाम करे । तदनन्तर (ब्रह्मीभूत यतिकी तृप्तिके लिये नारायणपूजन, बलिदान, घृतदीपदानका संकल्प करके गर्तके ऊपर मृण्मय लिंग बनाकर पुरुषसूक्तसे पूजा करके घृतमिश्रित पायसकी बलि दे । घीका दीप जला पायसबलिको जलमें डाल दे) तत्पश्चात् दिशाविदिशाओंके क्रमसे प्रणवके उच्चारणपूर्वक 'ॐ ब्रह्मणे नमः' इस मन्त्रसे [ब्रह्मीभूत] यतिके लिये शंखसे आठ बार अय॑जल दे ॥ ६५ ॥ एवं दशाहपर्यन्तं विधिस्ते समुदाहृतः । यतीनां मुनिवर्याथैकादशाहविधिं शृणु ॥ ६६ ॥ इस प्रकार दस दिनोंतक करता रहे । मुनिश्रेष्ठ ! यह दशाहतककी विधि तुम्हें बतायी गयी । अब यतियोंके एकादशाहकी विधि सुनो ॥ ६६ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे षष्ठ्यां कैलाससंहितायां यतीनान्मरणानन्तरदशाहपर्यन्तकृत्यवर्णनन्नामैकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत छठी कैलाससंहितामें यतियोंके मरणकालके अनन्तर दशाहपर्यन्त कृत्यवर्णन नामक इक्कीसवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २१ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |