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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
वायवीयसंहिता
॥ सप्तमोऽध्यायः ॥ कालमहिमवर्णनम्
कालकी महिमाका वर्णन मुनय ऊचुः कालादुत्पद्यते सर्वं कालदेव विपद्यते । न कालनिरपेक्षं हि क्वचित्किञ्चन विद्यते ॥ १ ॥ मुनिगण बोले-कालसे ही सब कुछ उत्पन्न होता है और कालसे ही सब कुछ नष्ट हो जाता है । कालके बिना कहीं कुछ भी नहीं होता है ॥ १ ॥ यदास्यान्तर्गतं विश्वं शश्वत्संसारमण्डलम् । सर्गसंहृतिमुद्राभ्यां चक्रवत्परिवर्तते ॥ २ ॥ यह सारा संसारमण्डल कालके मुख में वर्तमान रहकर उत्पत्ति तथा प्रलयरूप लक्षणोंसे लक्षित चक्रकी भौति निरन्तर घूमता रहता है ॥ २ ॥ ब्रह्मा हरिश्च रुद्रश्च तथान्ये च सुरासुराः । यत्कृतां नियतिं प्राप्य प्रभवो नातिवर्तितुम् ॥ ३ ॥ भूतभव्यभविष्याद्यैर्विभज्य जरयन् प्रजाः । अतिप्रभुरिति स्वैरं वर्ततेऽतिभयङ्करः ॥ ४ ॥ ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा अन्य देवता एवं असुर जिसके द्वारा बनाये गये नियमको प्राप्तकर उसका उल्लंघन करनेमें सर्वथा असमर्थ हैं, अत्यन्त भयानक वह काल भूत, भविष्य, वर्तमान आदि रूपोंमें अपनेको विभक्तकर प्रजाओंको क्षीण करता हुआ सर्वसमर्थ होकर स्वच्छन्दतापूर्वक व्यवहार करता रहता है ॥ ३-४ ॥ क एष भगवान् कालः कस्य वा वशवर्त्ययम् । क एवास्य वशे न स्यात्कथयैतद्विचक्षण ॥ ५ ॥ यह भगवत्स्वरूप काल कौन है, यह किसके अधीन रहनेवाला है और कौन इसके वशमें नहीं है ? हे विचक्षण ! इसे बताइये ॥ ५ ॥ वायुरुवाच कालकाष्ठानिमेषादिकलाकलितविग्रहम् । कालात्मेति समाख्यातं तेजो माहेश्वरं परम् ॥ ६ ॥ यदलंघ्यमशेषस्य स्थावरस्य चरस्य च । नियोगरूपमीशस्य बलं विश्वनियामकम् ॥ ७ ॥ वायु बोले-कला, काष्ठा, निमेष आदि इकाइयोंसे घटित मूर्तस्वरूप धारण करनेवाला महेश्वरका परम तेज ही कालात्मा कहा गया है, जिसका उल्लंघन समस्त स्थावर तथा जंगम रूपवाला कोई भी [प्राणी] नहीं कर सकता । वह ईश्वरका आदेशरूप है और विश्वको अपने वशमें रखनेवाला ईश्वरका [साक्षात्] बल है । ६-७ ॥ तस्यांशांशमयी शक्तिः कालात्मनि महात्मनि । ततो निष्क्रम्य संक्रान्ता विसृष्टाग्नेरिवायसी ॥ ८ ॥ तस्मात्कालवशे विश्वं न स विश्ववशे स्थितः । शिवस्य तु वशे कालो न कालस्य वशे शिवः ॥ ९ ॥ यतोऽप्रतिहतं शार्वं तेजः काले प्रतिष्ठितम् । महती तेन कालस्य मर्यादा हि दुरत्यया ॥ १० ॥ उन परमेश्वरकी अंशांशरूपा शक्ति उनसे निकलकर महिमामय कालात्मामें उसी प्रकार संक्रान्त हो गयी है, जिस प्रकार दाहिका शक्ति अग्निसे निकलकर लोहेमें संक्रान्त हो जाती है । इसलिये सम्पूर्ण जगत् तो कालके वशमें है, पर काल विश्वके वशमें नहीं है और वह काल शिवके वशमें है, किंतु शिव कालके वशमें नहीं हैं । शिवजीका अप्रतिहत तेज कालमें सन्निविष्ट है, इसलिये कालकी महान् मर्यादा मिटायी नहीं जा सकती ॥ ८-१० ॥ कालं प्रज्ञाविशेषेण कोऽतिवर्तितुमर्हति । कालेन तु कृतं कर्म न कश्चिदतिवर्तते ॥ ११ ॥ अपनी विशिष्ट बुद्धिसे भी भला कौन कालका अतिक्रमण करने में समर्थ है । कोई भी कालके द्वारा किये गये कर्मको नहीं मिटा सकता है ॥ ११ ॥ एकच्छत्रां महीं कृत्स्नां ये पराक्रम्य शासति । तेऽपि नैवातिवर्तन्ते कालवेलामिवाब्धयः ॥ १२ ॥ जो पराक्रम करके सम्पूर्ण पृथ्वीपर एकछत्र शासन करते हैं, वे भी कालकी मर्यादाको नहीं मिटा सकते, जैसे तटकी मर्यादाको सागर नहीं मिटा सकते ॥ १२ ॥ ये निगृह्येन्द्रियग्रामं जयन्ति सकलं जगत् । न जयन्त्यपि ते कालं कालो जयति तानपि ॥ १३ ॥ आयुर्वेदविदो वैद्याः त्वनुष्ठितरसायनाः । न मृत्युमतिवर्तन्ते कालो हि दुरतिक्रमः ॥ १४ ॥ जो लोग इन्द्रियोंको वशमें करके सारे संसारको जीत लेते हैं, वे भी कालको नहीं जीत पाते, अपितु काल ही उन्हें जीत लेता है । आयुर्वेदके ज्ञाता और रसायनका प्रयोग करनेवाले वैद्य भी मृत्युको नहीं टाल सकते हैं; क्योंकि काल दुरतिक्रम है ॥ १३-१४ ॥ श्रिया रूपेण शीलेन बलेन च कुलेन च । अन्यच्चिन्तयते जन्तुः कालोऽन्यत्कुरुते बलात् ॥ १५ ॥ श्री (धन), रूप, शील, बल और कुलके द्वारा [समृद्ध] प्राणी कुछ और सोचता है, किंतु काल बलपूर्वक कुछ और ही कर देता है ॥ १५ ॥ अप्रियैश्च प्रियैश्चैव ह्यचिन्तितगमागमैः । संयोजयति भूतानि वियोजयति चेश्वरः ॥ १६ ॥ वह सामर्थ्यशाली काल प्रिय और अप्रिय घटनाओंके अकल्पित समागमके द्वारा कभी प्राणियोंका संयोग और कभी वियोग प्राप्त कराता रहता है ॥ १६ ॥ यदैव दुःखितः कश्चित्तदैव सुखितः परः । दुर्विज्ञेयस्वभावस्य कालास्याहो विचित्रता ॥ १७ ॥ जिस समय कोई दुखी रहता है, उसी समय कोई दूसरा सुखी रहता है । अहो ! कठिनतासे जाननेयोग्य स्वभाववाले कालकी कैसी विचित्रता है ! ॥ १७ ॥ यो युवा स भवेद् वृद्धो यो बलीयान्स दुर्बलः । यः श्रीमान्सोऽपि निःश्रीकः कालश्चित्रगतिर्द्विजा ॥ १८ ॥ नाभिजात्यं न वै शीलं न बलं न च नैपुणम् । भवेत्कार्याय पर्याप्तं कालश्च ह्यनिरोधकः ॥ १९ ॥ जो युवा है, वह वृद्ध हो जाता है, जो बलवान् है, वह दुर्बल हो जाता है और जो श्रीसम्पन्न है, वह निर्धन भी हो सकता है । हे ब्राह्मणो ! कालकी गति बड़ी विचित्र है । कालके प्रतिकूल होनेपर कुलीनता, शील, सामर्थ्य तथा कुशलता-ये कोई भी गुण कार्यसिद्धिमें सफलता नहीं दे पाते ॥ १८-१९ ॥ । ये सनाथाश्च दातारो गीतवाद्यैरुपस्थिताः । ये चानाथाः परान्नादाः कालस्तेषु समक्रियः ॥ २० ॥ जो प्राणी सनाथ हैं, दानशील हैं और जिनका मनोरंजन गीत-वाद्यादिके द्वारा किया जाता है, वे लोग और जो अनाथ हैं तथा दूसरोंके द्वारा दिये गये अन्नका भोजन करते हैं-उन सभीके प्रति काल समान व्यवहारवाला होता है ॥ २० ॥ फलन्त्यकाले न रसायनानि सम्यक्प्रयुक्तान्यपि चौषधानि । तान्येव कालेन समाहृतानि सिद्धिं प्रयान्त्याशु सुखं दिशन्ति ॥ २१ ॥ नाकालतोऽयं म्रियते जायते वा नाकालतः पुष्टिमग्र्यामुपैति । नाकालतः सुखितं दुःखितं वा नाकालिकं वस्तु समस्ति किंचित् ॥ २२ ॥ असमयमें अच्छी तरहसे प्रयोगमें लाये गये रसायन तथा औषध कारगर नहीं होते हैं, किंतु समयसे दिये जानेपर वे ही सफल होते हैं तथा सुख प्रदान करते हैं । यह जीव बिना समयके न मरता है, न जन्म ही लेता है और न उत्तम पोषण ही प्राप्त करता है । बिना कालके कोई सुखी अथवा दुखी भी नहीं होता है । [इस संसारमें] कोई वस्तु ऐसी नहीं है, जो अकालिक हो ॥ २१-२२ ॥ कालेन शीतः प्रतिवाति वातः कालेन वृष्टिर्जलदानुपैति । कालेन चोष्मा प्रशमं प्रयाति कालेन सर्वं सफलत्वमेति ॥ २३ ॥ समयसे ही ठण्डी हवा चलती है, समयसे ही मेघोंसे वर्षा होती है और समयसे ही गर्मी शान्त होती है, कालसे ही सब कुछ सफल होता है ॥ २३ ॥ कालश्च सर्वस्य भवस्य हेतुः कालेन सस्यानि भवन्ति नित्यम् । कालेन सस्यानि लयं प्रयान्ति कालेन संजीवति जीवलोकः ॥ २४ ॥ काल ही सभीकी उत्पत्तिका कारण है । समयपर ही फसलें होती हैं और समयपर ही फसलें कटती हैं, कालसे ही सब लोग जीवित रहते हैं ॥ २४ ॥ इत्थं कालात्मनस्तत्त्वं यो विजानाति तत्त्वतः । कालात्मानमतिक्रम्य कालातीतं स पश्यति ॥ २५ ॥ इस प्रकार जो कालात्माके तात्त्विक स्वरूपको यथार्थरूपसे जानता है, वह कालात्माका अतिक्रमणकर कालसे परे निर्गुण परमेश्वरका दर्शन कर लेता है । ॥ २५ ॥ न यस्य कालो न च बन्धमुक्ती न यः पुमान्न प्रकृतिर्न विश्वम् । विचित्ररूपाय शिवाय तस्मै नमःपरस्मै परमेश्वराय ॥ २६ ॥ जिसका न काल है, न बन्धन है और न मुक्ति है; जो न पुरुष है, न प्रकृति है तथा न विश्व है-उस विचित्र रूपवाले परात्पर परमेश्वर शिवको नमस्कार है । ॥ २६ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां पूर्वखण्डे कालमहिमवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः॥७॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें कालमहिमवर्णन नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |