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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
वायवीयसंहिता
॥ षष्ठोऽध्यायः ॥ शिवतत्त्वज्ञानवर्णनम्
महेश्वरकी महत्ताका प्रतिपादन मुनय ऊचुः योऽयं पशुरिति प्रोक्तो यश्च पाश उदाहृतः । आभ्यां विलक्षणः कश्चित्कोऽयमस्ति तयोः पतिः ॥ १ ॥ मुनि बोले-[हे देव !] आपने पूर्वमें पशु तथा पाशके विषयमें बताया है, अब इन दोनोंसे विलक्षण तथा इनपर शासन करनेवाले किसी [तत्त्व] अर्थात् पशुपतिके विषयमें बताइये ॥ १ ॥ वायुरुवाच अस्ति कश्चिदपर्यन्तरमणीयगुणाश्रयः । पतिर्विश्वस्य निर्माता पशुपाशविमोचनः ॥ २ ॥ अभावे तस्य विश्वस्य सृष्टिरेषा कथं भवेत् । अचेतनत्वादज्ञानादनयोः पशुपाशयोः ॥ ३ ॥ प्रधानपरमाण्वादि यावत्किंचिदचेतनम् । तत्कर्तृकं स्वयं दृष्टं बुद्धिमत्कारणं विना ॥ ४ ॥ वायुदेवता कहते हैं-महर्षियो ! इस विश्वका निर्माण करनेवाला कोई पति है, जो अनन्त रमणीय गुणोंका आश्रय कहा गया है । वही पशुओंको पाशसे मुक्त करनेवाला है । उसके बिना संसारकी सृष्टि कैसे हो सकती है; क्योंकि पशु अज्ञानी और पाश अचेतन है । प्रधान परमाणु आदि जितने भी जड तत्त्व हैं, उन सबका कर्ता वह पति ही है-यह बात स्वयं समझमें आ जाती है । किसी बुद्धिमान् या चेतन कारणके विना इन जड तत्त्वोंका निर्माण कैसे सम्भव है ॥ २-४ ॥ जगच्च कर्तृसापेक्षं कार्यं सावयवं यतः । तस्मात्कार्यस्य कर्तृत्वं पत्युर्न पशुपाशयोः ॥ ५ ॥ यह जगत् कर्तृसापेक्ष है; क्योंकि [घटादिके समान] कार्य सावयव है । अतः कार्यका कर्ता ईश्वर ही हो सकता है, पशु और पाश नहीं ॥ ५ ॥ पशोरपि च कर्तृत्वं पत्युः प्रेरणपूर्वकम् । अयथाकरणज्ञानमन्धस्य गमनं यथा ॥ ६ ॥ आत्मानं च पृथङ्मत्वा प्रेरितारं ततः पृथक् । असौ जुष्टस्ततस्तेन ह्यमृतत्वाय कल्पते ॥ ७ ॥ पशु भी कर्ता होता है, किंतु वह ईश्वरकी प्रेरणासे ही होता है, उसका यह कर्तृत्व [दूसरेके आश्रयसे] अन्धेके चलनेके समान भ्रमात्मक होता है । यह जीव जब अपनेको प्रेरक ईश्वरसे भिन्न मानकर उसकी उपासना करता है, तब ईश्वरसे उपकृत हो जानेके कारण, वह अमृतत्वको प्राप्त कर लेता है ॥ ६-७ ॥ पशोः पाशस्य पत्युश्च तत्त्वतोऽस्ति पदं परम् । ब्रह्मवित् तद्विदित्वैव योनिमुक्तो भविष्यति ॥ ८ ॥ संयुक्तमेतद् द्वितयं क्षरमक्षरमेव च । व्यक्ताव्यक्तं बिभर्तीशो विश्वं विश्वविमोचकः ॥ ९ ॥ पशु पाश और पतिका जो वास्तवमें पृथक्-पृथक् स्वरूप है, उसे जानकर ही ब्रह्मवेत्ता पुरुष योनिसे मुक्त होता है । क्षर और अक्षर-ये दोनों एक-दूसरेसे संयुक्त होते हैं । पति या महेश्वर ही व्यक्ताव्यक्त जगत्का भरण-पोषण करते हैं । वे ही जगत्को बन्धनसे छुड़ानेवाले हैं । ८-९ ॥ भोक्ता भोग्यं प्रेरयिता मन्तव्यं त्रिविधं स्मृतम् । नातः परं विजानद्भिर्वेदितव्यं हि किंचनः ॥ १० ॥ भोक्ता, भोग्य और प्रेरक-ये तीन ही तत्त्व जाननेयोग्य हैं । विज्ञ पुरुषोंके लिये इनसे भिन्न दूसरी कोई वस्तु जाननेयोग्य नहीं है ॥ १० ॥ तिलेषु वा यथा तैलं दध्नि वा सर्पिरर्पितम् । यथापः स्रोतसि व्याप्ता यथारण्यां हुताशनः ॥ ११ ॥ एवमेव महात्मानमात्मन्यात्मविलक्षणम् । सत्येन तपसा चैव नित्ययुक्तोऽनुपश्यति ॥ १२ ॥ जिस प्रकार तिलमें तेल, दहीमें घृत, स्रोतमें जल तथा अरणिमें अग्नि व्याप्त रहती है, उसी प्रकार विलक्षण महान् आत्माको सत्य एवं तपसे नित्ययुक्त व्यक्ति अपनेमें सतत देखता है ॥ ११-१२ ॥ य एको जालवानीश ईशानीभिः स्वशक्तिभिः । सर्वांल्लोकानिमान् कृत्वा एक एव स ईशते ॥ १३ ॥ इन्द्रजालके समान एक ही ईश्वर वशमें करनेवाली अपनी माया शक्तियोंसे इन सभी लोकोंको वशमें करके अपना ऐश्वर्य-विस्तार करता है ॥ १३ ॥ एक एव तदा रुद्रो न द्वितीयोऽस्ति कश्चन । संसृज्य विश्वभुवनं गोप्ता ते संचुकोच यः ॥ १४ ॥ विश्वतश्चक्षुरेवायमुतायं विश्वतोमुखः । तथैव विश्वतोबाहुर्विश्वतः पादसंयुतः ॥ १५ ॥ सृष्टिके आरम्भमें एक ही रुद्रदेव विद्यमान रहते हैं, दूसरा कोई नहीं होता । वे ही इस जगत्की सृष्टि करके इसकी रक्षा करते हैं और अन्तमें सबका संहार कर डालते हैं । उनके सब ओर नेत्र हैं, सब ओर मुख हैं, सब ओर भुजाएँ हैं और सब ओर चरण हैं ॥ १४-१५ ॥ द्यावाभूमी च जनयन् देव एको महेश्वरः । स एव सर्वदेवानां प्रभवश्चोद्भवस्तथा ॥ १६ ॥ वे ही एक महेश्वर देव द्यौ तथा पृथ्वीको उत्पन्न करते हैं और वे ही सम्पूर्ण देवगणोंको उत्पन्न करते हैं तथा उनकी अभिवृद्धि करते हैं ॥ १६ ॥ हिरण्यगर्भं देवानां प्रथमं जनयेदयम् । विश्वस्मादधिको रुद्रो महर्षिरिति हि श्रुतिः ॥ १७ ॥ वेदाहमेतं पुरुषं महान्तममृतं ध्रुवम् । आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्संस्थितं प्रभुम् ॥ १८ ॥ अस्मान्नास्ति परं किंचिदपरं परमात्मनः । नाणीयोऽस्ति न च ज्यायस्तेन पूर्णमिदं जगत् ॥ १९ ॥ ये ही सबसे पहले देवताओंमें ब्रह्माजीको उत्पन्न करते हैं । श्रुति कहती है कि 'रुद्रदेव सबसे श्रेष्ठ महान् ऋषि हैं । मैं इन महान् अमृतस्वरूप अविनाशी पुरुष परमेश्वरको जानता हूँ । इनकी अंगकान्ति सूर्यके समान है । ये प्रभु अज्ञानान्धकारसे परे विराजमान हैं । ' इन परमात्मासे परे दूसरी कोई वस्तु नहीं है । इनसे अत्यन्त सूक्ष्म और इनसे अधिक महान् भी कुछ नहीं है । इनसे यह सारा जगत् परिपूर्ण है ॥ १७-१९ ॥ सर्वाननशिरोग्रीवः सर्वभूतगुहाशयः । सर्वव्यापी च भगवांस्तस्मात्सर्वगतः शिवः ॥ २० ॥ उन परमात्मा रुद्रके मुख, सिर और ग्रीवा सर्वत्र व्याप्त हैं, सभी प्राणियोंके हृदयस्थलमें वे स्थित हैं, वे सर्वव्यापी, सर्वगत, ऐश्वर्यशाली एवं शिवस्वरूप हैं ॥ २० ॥ सर्वतः पाणिपादोऽयं सर्वतोऽक्षिशिरोमुखः । सर्वतः श्रुतिमाँल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ २१ ॥ सर्वेन्द्रियगुणाभासः सर्वेन्द्रियविवर्जितः । सर्वस्य प्रभुरीशानः सर्वस्य शरणं सुहृत् ॥ २२ ॥ इनके सब ओर हाथ, पैर, नेत्र, मस्तक, मुख और कान हैं । ये लोकमें सबको व्याप्त करके स्थित हैं । ये सम्पूर्ण इन्द्रियोंके विषयोंको जाननेवाले हैं, परंतु वास्तवमें सब इन्द्रियोंसे रहित हैं । सबके स्वामी, शासक, शरणदाता और सुहद् हैं ॥ २१-२२ ॥ अचक्षुरपि यः पश्यत्यकर्णोऽपि शृणोति यः । सर्वं वेत्ति न वेत्तास्य तमाहुः पुरुषं परम् ॥ २३ ॥ अणोरणीयान्महतो महीयानयमव्ययः । गुहायां निहितश्चापि जन्तोरस्य महेश्वरः ॥ २४ ॥ ये नेत्रके बिना भी देखते हैं और कानके बिना भी सुनते हैं । ये सबको जानते हैं, किंतु इनको पूर्णरूपसे जाननेवाला कोई नहीं है । इन्हें परम पुरुष कहते हैं । ये अणुसे भी अत्यन्त अणु और महानसे भी परम महान हैं । ये अविनाशी महेश्वर इस जीवकी हृदय-गुफामें निवास करते हैं ॥ २३-२४ ॥ तमक्रतुं क्रतुप्रायं महिमातिशयान्वितम् । धातुः प्रसादादीशानं वीतशोकः प्रपश्यति ॥ २५ ॥ उस यज्ञरहित, यज्ञस्वरूप, अतिशय महिमावाले जगन्नियन्ता [परमात्मा]-को उसी परमात्माकी कृपासे शोकरहित हुआ पुरुष देख पाता है ॥ २५ ॥ वेदाहमेनमजरं पुराणं सर्वगं विभुम् । निरोधं जन्मनो यस्य वदन्ति ब्रह्मवादिनः ॥ २६ ॥ मैं उस जरारहित, सर्वव्यापी तथा सर्वज्ञ पुराणपुरुषको जानता हूँ, जिसके ध्यानसे जन्म, मरणादिका निरोध हो जाता है-ऐसा ब्रह्मवेत्ता लोग कहते हैं ॥ २६ ॥ एकोऽपि त्रीनिमाँल्लोकान् बहुधा शक्तियोगतः । विदधाति विचेत्यन्ते विश्वमादौ महेश्वरः ॥ २७ ॥ वे अकेले महेश्वर ही सर्वप्रथम अपनी शक्तिके साथ मिलकर बहुत प्रकारसे इन तीनों लोकोंकी सृष्टि करते हैं और अन्तमें उसका संहार भी करते हैं ॥ २७ ॥ विश्वधात्रीत्यजाख्या च शैवी चित्राकृतिः परा । तामजां लोहितां शुक्लां कृष्णामेकां त्वजः प्रजाम् ॥ २८ ॥ जनित्रीमनुशेतेऽन्यो जुषमाणः स्वरूपिणीम् । तामेवाजामजोऽन्यस्तु भक्तभोगां जहाति च ॥ २९ ॥ विश्वको धारण करनेवाली वह शैवी शक्ति अजा, चित्राकृति (अद्भुत स्वरूपा) एवं परा आदि नामोंसे पुकारी जाती है । जन्मरहिता उस रक्त-श्वेत-कृष्णवर्णा (सत्त्वरजस्तमोमयी) समष्टिरूपा, तथा प्रजाओंको उत्पन्न करनेवाली [मूल प्रकृति]-का सेवन वह अजन्मा (जीवात्मा) करता है और आत्मस्वरूपमें स्थिता भुक्तभोगा उस प्रकृतिका दूसरा पुरुष (परमात्मा) त्याग कर देता है ॥ २८-२९ ॥ द्वौ सुपर्णौ च सयुजौ समानं वृक्षमास्थितौ । एकोऽत्ति पिप्पलं स्वादु परोऽनश्नन् प्रपश्यति ॥ ३० ॥ वृक्षेस्मिन् पुरुषो मग्नो गुह्यमानश्च शोचति । जुष्टमन्यं यदा पश्येदीशं परमकारणम् ॥ ३१ ॥ तदास्य महिमानं च वीतशोकः सुखी भवेत् । एक साथ रहनेवाले दो पक्षी एक ही वृक्ष (शरीर)का आश्रय लेकर रहते हैं । उनमेंसे एक तो उस वृक्षके कर्मरूप फलोंका स्वाद ले-लेकर उपभोग करता है, किंतु दूसरा उस वृक्षके फलका उपभोग न करता हुआ केवल देखता रहता है । जीवात्मा इस वृक्षके प्रति आसक्तिमें डूबा हुआ है, अत: मोहित होकर शोक करता रहता है । वह जब कभी भगवत्कृपासे भक्तसेवित परम कारणरूप परमेश्वरका और उनकी महिमाका साक्षात्कार कर लेता है, तव शोकरहित हो सुखी हो जाता है ॥ ३०-३१-१/२ ॥ छन्दांसि यज्ञाः क्रतवो यद्भूतं भव्यमेव च ॥ ३२ ॥ मायी विश्वं सृजत्यस्मिन्निविष्टो मायया परः । मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् ॥ ३३ ॥ छन्द, यज्ञ, क्रतु तथा भूत, वर्तमान और भविष्य सम्पूर्ण विश्वको वह मायावी रचता है और मायासे ही उसमें प्रविष्ट होकर रहता है । प्रकृतिको ही माया समझना चाहिये और महेश्वर ही वह मायावी है ॥ ३२-३३ ॥ तस्यास्त्ववयवैरेव व्याप्तं सर्वमिदं जगत् । सूक्ष्मातिसूक्ष्ममीशानं कललस्यापि मध्यतः ॥ ३४ ॥ स्रष्टारमपि विश्वस्य वेष्टितारं च तस्य तु । शिवमेवेश्वरं ज्ञात्वा शान्तिमत्यन्तमृच्छति ॥ ३५ ॥ उस प्रकृतिके अवयवोंसे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है । [गर्भाशयके] मध्यमें स्थित कललमें विद्यमान बीजसे भी अधिक परमात्मा सूक्ष्म है । उस मंगलमय परमेश्वरको इस विश्वका स्रष्टा एवं परिचालक जानकर [साधक] परमशक्ति प्राप्त कर लेता है ॥ ३४-३५ ॥ स एव कालो गोप्ता च विश्वस्याधिपतिः प्रभुः । तं विश्वाधिपतिं ज्ञात्वा मृत्युपाशात्प्रमुच्यते ॥ ३६ ॥ घृतात्परं मण्डमिव सूक्ष्मं ज्ञात्वा स्थितं प्रभुम् । सर्वभूतेषु गूढं च सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ३७ ॥ वह परमेश्वर ही कालस्वरूप, रक्षक एवं विश्वका अधिपति है । उस विश्वाधिपतिको जानकर जीव कालपाशसे छुटकारा पा जाता है । घृतमें मण्डकी भाँति सूक्ष्म एवं सारे प्राणियोंके भीतर निगूढभावसे विद्यमान प्रभुको जानकर मनुष्य सभी पापोंसे छूट जाता है ॥ ३६-३७ ॥ एष एव परो देवो विश्वकर्मा महेश्वरः । हृदये संनिविष्टं तं ज्ञात्वैवामृतमश्नुते ॥ ३८ ॥ ये विश्वकर्मा महेश्वर ही परम देवता परमात्मा हैं, जो सबके हृदयमें विराजमान हैं । उन्हें जानकर ही पुरुष परमानन्दमय अमृतका अनुभव करता है ॥ ३८ ॥ यदा समस्तं न दिवा न रात्रिर्न सदप्यसत् । केवलः शिव एवैको यतः प्रज्ञा पुरातनी ॥ ३९ ॥ नैनमूर्ध्वं न तिर्यक्च न मध्यं पर्यजिग्रहत् । न तस्य प्रतिमा चास्ति यस्य नाम महद्यशः ॥ ४० ॥ अजातमिममेवैके बुद्धा जन्मनि भीरवः । रुद्रस्यास्य प्रपद्यन्ते रक्षार्थं दक्षिणं सुखम् ॥ ४१ ॥ जब दिन-रात, सत्-असत् कुछ भी-यह समस्त [जगत्प्रपंच] नहीं था, तब केवल एकमात्र शिव ही विद्यमान थे, उन्हींसे यह शाश्वती प्रज्ञा उत्पन्न होती है । ऊँचे, नीचे, तिरछे तथा मध्यमें कोई भी उन्हें पकड़ नहीं सकता । वे महान् यशवाले हैं तथा उनकी कोई तुलना नहीं है । जन्म [मृत्यु]-के भयसे आक्रान्त पुरुष उन अजन्मा तथा अद्वितीय भगवान् रुद्रको [तत्त्वतः] जानकर रक्षाके लिये उनके कल्याणमय स्वरूपकी शरण ग्रहण कर लेते हैं । । ३९-४१ ॥ द्वे अक्षरे ब्रह्मपरे त्वनन्ते समुदाहृते । विद्याविद्ये समाख्याते निहिते यत्र गूढवत् ॥ ४२ ॥ क्षरं त्वविद्या ह्यमृतं विद्येति परिगीयते । ते उभे ईशते यस्तु सोऽन्यः खलु महेश्वरः ॥ ४३ ॥ ब्रह्मासे भी श्रेष्ठ, असीम एवं अविनाशी परमात्मामें विद्या और अविद्या दोनों गूढभावसे स्थित हैं । विनाशशील जडवर्गको ही यहाँ अविद्या कहा गया है और अविनाशी जीवको विद्या नाम दिया गया है; जो उन दोनों विद्या और अविद्यापर शासन करते हैं, वे महेश्वर उनसे सर्वथा भिन्न-विलक्षण हैं । ४२-४३ ॥ एकैकं बहुधा जालं विकुर्वन्नेकवच्च यः । सर्वाधिपत्यं कुरुते सृष्ट्वा सर्वान् प्रतापवान् ॥ ४४ ॥ दिश ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् भासयन् भ्राजते स्वयम् । यो निःस्वभावादप्येको वरेण्यस्त्वधितिष्ठति ॥ ४५ ॥ ये प्रतापी महेश्वर इस जगत्में समष्टिभूत और इन्द्रियवर्गरूप एक-एक जालको अनेक प्रकारसे रचकर इसका विस्तार करते हैं । फिर अन्तमें संहार करके सबको अनेकसे एकमें परिणत कर देते हैं तथा पुनः सृष्टिकालमें सबकी पूर्ववत् रचना करके सबपर आधिपत्य करते हैं । जैसे सूर्य अकेला ही ऊपर-नीचे तथा अगल-बगलकी दिशाओंको प्रकाशित करता हुआ स्वयं भी देदीप्यमान होता है, उसी प्रकार ये भजनीय परमेश्वर अकेले ही समस्त कारणरूप पृथ्वी आदि तत्त्वोंका नियमन करते हैं । ४४-४५ ॥ स्वभाववाचकान् सर्वान् वाच्यांश्च परिणामयन् । गुणांश्च भोग्यभोक्तृत्वे तद्विश्वमधितिष्ठति ॥ ४६ ॥ वे ही वस्तुस्वरूप वाच्य एवं वाचकको [जगदूपमें परिणमित करते हुए] और गुणोंको भोक्ता तथा भोग्यके रूपमें परिणमित करते हुए संसारमें अधिष्ठित हैं ॥ ४६ ॥ ते वै गुह्योपनिषदि गूढं ब्रह्म परात्परम् । ब्रह्मयोनिं जगत्पूर्वं विदुर्देवा महर्षयः ॥ ४७ ॥ गुह्य उपनिषदोंमें गूढ रूपसे प्रतिपाद्य जगत्कर्ता तथा ब्रह्माजीको भी उत्पन्न करनेवाले उस परात्पर ब्रह्मको पहले देवगणों एवं महर्षियोंने जाना था ॥ ४७ ॥ भावग्राह्यमनीहाख्यं भावाभावकरं शिवम् । कलासर्गकरं देवं ये विदुस्ते जहुस्तनुम् ॥ ४८ ॥ स्वभावमेके मन्यन्ते कालमेके विमोहिताः । देवस्य महिमा ह्येष येनेदं भ्राम्यते जगत् ॥ ४९ ॥ श्रद्धा और भक्तिभावसे प्राप्त होनेयोग्य, आश्रयरहित कहे जानेवाले, जगत्की उत्पत्ति और संहार करनेवाले, कल्याण-स्वरूप एवं सोलह कलाओंकी रचना करनेवाले उन महादेवको जो जानते हैं, वे शरीरके बन्धनको सदाके लिये त्याग देते हैं अर्थात् जन्म-मृत्युके चक्करसे छूट जाते हैं । मोहमें पड़े हुए कुछ लोग उन्हें स्वभाव और कुछ लोग काल मानते हैं, यह उन परमात्माकी महिमा ही है, जिससे यह संसार भ्रमित है । ४८-४९ ॥ येनेदमावृतं नित्यं कालकालात्मना यतः । तेनेरितमिदं कर्म भूतैः सह विवर्तते ॥ ५० ॥ कालके भी कालस्वरूप जिन परमात्माने सारे जगत्को आवृत कर रखा है, उन्हींसे प्रेरित यह कर्म प्राणियोंके साथ प्रवृत्त होता है ॥ ५० ॥ तत्कर्म भूयशः कृत्वा विनिवृत्य च भूयशः । तत्त्वस्य सह तत्त्वेन योगं चापि समेत्य वै ॥ ५१ ॥ अष्टाभिश्च त्रिभिश्चैव द्वाभ्यां चैकेन वा पुनः । कालेनात्मगुणैश्चापि कृत्स्नमेव जगत् स्वयम् ॥ ५२ ॥ गुणैरारभ्य कर्माणि स्वभावादीनि योजयेत् । तेषामभावे नाशः स्यात्कृतस्यापि च कर्मणः ॥ ५३ ॥ कर्मक्षये पुनश्चान्यत्ततो याति स तत्त्वतः । स एवादिः स्वयं योगनिमित्तं भोक्तृभोगयोः ॥ ५४ ॥ वे परमात्मा [कला आदि] तत्त्वोंका सत्त्व [आदि गुणों] के साथ योग करके बारम्बार नानाविध कर्मोको सम्पन्नकर उनसे विनिवृत्त हो जाते हैं । [आकाश आदि] आठ मूर्तियों, [सत्त्वादि] तीनों गुणों, [विद्या अविद्या] दोनों शक्तियों अथवा एकमात्र [मूलप्रकृति] काल तथा [इच्छा आदि] आत्मगुणोंके द्वारा यह समस्त विश्व अभिव्याप्त है । [वह परमात्मा सत्त्वादि] गुणोंके द्वारा कर्मोकी परिकल्पनाकर उनसे स्वभाव आदिका योग करता है । उन [गुण एवं स्वाभावादिका]-का अभाव होनेपर किये गये कर्मका भी नाश हो जाता है । [प्राणियोंके] कर्मका क्षय होनेपर [परमेश्वर] पुनः अन्य [कर्म, स्वभावादि]की प्राप्ति कराता है । वह आदिपुरुष परमात्मा ही भोक्ता और भोगके [पारस्परिक] संयोगमें निमित्त बनता है ॥ ५१-५४ ॥ परस्त्रिकालादकलः स एव परमेश्वरः । सर्ववित् त्रिगुणाधीशो ब्रह्म साक्षात् परात्परः ॥ ५५ ॥ तं विश्वरूपमभवं भवमीड्यं प्रजापतिम् । देवदेवं जगत्पूज्यं स्वचित्तस्थमुपास्महे ॥ ५६ ॥ वे ही परमेश्वर तीनों कालोंसे परे, निष्कल, सर्वज्ञ. त्रिगुणाधीश्वर एवं साक्षात् परात्पर ब्रह्म हैं । सम्पूर्ण विश्व उन्हींका रूप है । वे सबकी उत्पत्तिके कारण होकर भी स्वयं अजन्मा हैं, स्तुतिके योग्य हैं, प्रजाओंके पालक, देवताओंके भी देवता और सम्पूर्ण जगतके लिये पूजनीय हैं । अपने हृदयमें विराजमान उन परमेश्वरकी हम उपासना करते हैं ॥ ५५-५६ ॥ कालादिभिः परो यस्मात्प्रपञ्चः परिवर्तते । धर्मावहं पापनुदं भोगेशं विश्वधाम च ॥ ५७ ॥ तमीश्वराणां परमं महेश्वरं तं देवतानां परमं च दैवतम् । पतिं पतीनां परमं परस्ताद् विदाम देवं भुवनेश्वरेश्वरम् ॥ ५८ ॥ जो काल आदिसे परे हैं, जिनसे यह समस्त प्रपंच प्रकट होता है, जो धर्मके पालक, पापके नाशक, भोगोंके स्वामी तथा सम्पूर्ण विश्वके धाम हैं, जो ईश्वरोंके भी परम महेश्वर, देवताओंके भी परम देवता तथा पतियोंके भी परम पति हैं, उन भुवनेश्वरोंके भी ईश्वर महादेवको हम सबसे परे जानते हैं ॥ ५७-५८ ॥ न तस्य विद्येत कार्यं कारणं च न विद्यते । न तत्समोऽधिकश्चापि क्वचिज्जगति दृश्यते ॥ ५९ ॥ परास्य विविधा शक्तिः श्रुतौ स्वाभाविकी श्रुता । ज्ञानं बलं क्रिया चैव याभ्यो विश्वमिदं कृतम् ॥ ६० ॥ उनके शरीररूप कार्य और इन्द्रिय तथा मनरूपी करण नहीं हैं, उनके समान और उनसे अधिक भी इस जगत्में कोई नहीं दिखायी देता । ज्ञान, बल और क्रियारूप उनकी स्वाभाविक पराशक्ति वेदोंमें नाना प्रकारकी सुनी गयी है । उन्हीं शक्तियोंसे इस सम्पूर्ण विश्वकी रचना हुई है । ५९-६० ॥ न तस्यास्ति पतिः कश्चिन्नैव लिङ्गं न चेशिता । कारणं कारणानां च स तेषामधिपाधिपः ॥ ६१ ॥ न चास्य जनिता कश्चिन्न च जन्म कुतश्चन । न जन्महेतवस्तद्वन्मलमायादिसंज्ञकाः ॥ ६२ ॥ स एकः सर्वभूतेषु गूढो व्याप्तश्च विश्वतः । सर्वभूतान्तरात्मा च धर्माध्यक्षः स कथ्यते ॥ ६३ ॥ उसका न कोई स्वामी है, न कोई निश्चित चिल है, न उसपर किसीका शासन है । वह समस्त कारणोंका कारण होता हुआ ही उनका अधीश्वर भी है । उनका न कोई जन्मदाता है, न जन्म है, न जन्मके माया-मलादि हेतु ही हैं । वह एक ही सम्पूर्ण विश्वमें, समस्त भूतोंमें गुह्यरूपसे व्याप्त है । वही सब भूतोंका अन्तरात्मा और धर्माध्यक्ष कहलाता है ॥ ६१-६३ ॥ सर्वभूताधिवासश्च साक्षी चेता च निर्गुणः । एको वशी निष्क्रियाणां बहूनां विवशात्मनाम् ॥ ६४ ॥ नित्यानामप्यसौ नित्यश्चेतनानां च चेतनः । एको बहूनां चाकामः कामानीशः प्रयच्छति ॥ ६५ ॥ वह सब भूतोंके अंदर बसा हुआ, [सबका द्रष्टा] साक्षी, चेतन और निर्गुण है । वह एक है, वशी है, अनेकों विवशात्मा निष्क्रिय पुरुषोंको वशमें रखनेवाला है । वह नित्योंका नित्य, चेतनोंका चेतन है । वह एक है, कामनारहित है और बहुतोंकी कामना पूर्ण करनेवाला ईश्वर है । । ६४-६५ ॥ सांख्ययोगाधिगम्यं यत् कारणं जगतां पतिम् । ज्ञात्वा देवं पशुः पाशैः सर्वैरेव विमुच्यते ॥ ६६ ॥ विश्वकृद् विश्ववित् स्वात्मयोनिज्ञः कालकृद् गुणी । प्रधानः क्षेत्रज्ञपतिर्गुणेशः पाशमोचकः ॥ ६७ ॥ सांख्य और योग अर्थात् ज्ञानयोग और निष्काम कर्मयोगसे प्राप्त करनेयोग्य सबके कारणरूप उन जगदीश्वर परमदेवको जानकर जीव सम्पूर्ण पाशों (बन्धनों)-से मुक्त हो जाता है । वे सम्पूर्ण विश्वके स्रष्टा, सर्वज्ञ, स्वयं ही अपने प्राकट्य के हेतु, ज्ञानस्वरूप, कालके भी स्रष्टा, सम्पूर्ण दिव्य गुणोंसे सम्पन्न, प्रकृति और जीवात्माके स्वामी, समस्त गुणोंके शासक तथा संसार-बन्धनसे छुड़ानेवाले हैं । ६६-६७ ॥ ब्रह्माणं विदधे पूर्वं वेदांश्चोपादिशत्स्वयम् । यो देवस्तमहं बुद्ध्वा स्वात्मबुद्धिप्रसादतः ॥ ६८ ॥ मुमुक्षुरस्मात् संसारात् प्रपद्ये शरणं शिवम् । जिन परमदेवने सबसे पहले ब्रह्माजीको उत्पन्न किया और स्वयं उन्हें वेदोंका ज्ञान दिया, अपने स्वरूपविषयक बुद्धिको प्रसन्न (निर्मल) करनेवाले उन परमेश्वर शिवको जानकर मैं इस संसारबन्धनसे छूटनेके लिये उनकी शरणमें जाता हूँ ॥ ६८ १/२ ॥ निष्फलं निष्क्रियं शान्तं निरवद्यं निरंजनम् ॥ ६९ ॥ अमृतस्य परं सेतुं दग्धेन्धनमिवानिलम् ॥ ७० ॥ निष्कल, निष्क्रिय, शान्त, निष्कलंक, निरंजन, अमृतस्वरूप मोक्षके परमसेतु तथा काष्ठके दग्ध हो जानेपर देदीप्यमान होनेवाली अग्निके समान निर्विकार ( परमेश्वर शिवकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ ॥ ६९-७० ॥ यदा चर्मवदाकाशं वेष्टयिष्यन्ति मानवाः । तदा शिवमविज्ञाय दुःखस्यान्तो भविष्यति ॥ ७१ ॥ यदि कोई आकाशको चमड़ेके समान [अपने शरीरमें] लपेट ले, तब वह शिवको बिना जाने अपना दुःख दूर कर सकता है अर्थात् शिवके ज्ञानके बिना दुःखका अन्त असम्भव है । ७१ ॥ तपःप्रभावाद्देवस्य प्रसादाच्च महर्षयः । आत्माश्रमोचितज्ञानं पवित्रं पापनाशनम् ॥ ७२ ॥ वेदान्ते परमं गुह्यं पुराकल्पप्रचोदितम् । ब्रह्मणो वदनाल्लब्धं मयेदं भाग्यगौरवात् ॥ ७३ ॥ हे महर्षियो ! अपनी तपस्याके प्रभाव और शिवके अनुग्रहसे संन्यासाश्रमोचित, पापनाशक, पवित्र, वेदान्तमें परम गुप्त और पूर्वकल्पमें कहे गये इस ज्ञानको मैंने अपने भाग्यके प्रभावसे ब्रह्माजीके मुखसे प्राप्त किया है ॥ ७२-७३ ॥ नाप्रशान्ताय दातव्यमेतज्ज्ञानमनुत्तमम् । न पुत्रायासुवृत्ताय नाशिष्याय च सर्वथा ॥ ७४ ॥ यह श्रेष्ठ ज्ञान न अस्थिर चित्तवाले व्यक्तिको, न सदाचारविहीन पुत्रको तथा न तो अयोग्य शिष्यको ही देना चाहिये ॥ ७४ ॥ यस्य देवे पराभक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ । तस्यैते कथिताह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ॥ ७५ ॥ अतश्च संक्षेपमिदं शृणुध्वं शिवः परस्तात्प्रकृतेश्च पुंसः । स सर्गकाले च करोति सर्वं संहारकाले पुनराददाति ॥ ७६ ॥ जिनकी परमदेव परमेश्वरमें परम भक्ति है, जैसे परमेश्वरमें है, वैसे ही गुरुमें भी है, उस महात्मा पुरुषके हृदयमें ही ये बताये हुए रहस्यमय अर्थ प्रकाशित होते हैं । अतः संक्षेपसे यह सिद्धान्तकी बात सुनो । भगवान् शिव प्रकृति और पुरुषसे परे हैं । वे ही सृष्टिकालमें जगत्को रचते और संहारकालमें पुनः सबको आत्मसात् कर लेते हैं ॥ ७५-७६ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां पूर्वखण्डे शिवतत्त्ववर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥६॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें शिवतत्त्वज्ञानवर्णन नामक छठा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |