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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

वायवीयसंहिता

॥ नवमोऽध्यायः॥


सृष्टिपालनप्रलयकर्तृत्ववर्णनम्
सृष्टिके पालन एवं प्रलयकर्तृत्वका वर्णन


मुनय ऊचुः
कथं जगदिदं कृत्स्नं विधाय च निधाय च ।
आज्ञया परमां क्रीडां करोति परमेश्वरः ॥ १ ॥
मुनिगण बोले-[हे वायुदेव !] परमात्मा शिव किस प्रकारसे इस सम्पूर्ण जगत्का निर्माणकर पुनः इसे स्थापित करके अपनी शक्तिके साथ उत्तम क्रीड़ा करते हैं ? ॥ १ ॥

किं तत्प्रथमसंभूतं केनेदमखिलं ततम् ।
केना वा पुनरेवेदं ग्रस्यते पृथुकुक्षिणा ॥ २ ॥
यह संसार सर्वप्रथम किस प्रकारसे उत्पन्न हुआ, किसने इस सम्पूर्ण जगत्का विस्तार किया और विशाल उदरवाला कौन इसे बादमें ग्रास बना लेता है ? ॥ २ ॥

वायुरुवाच
शक्तिः प्रथमसम्भूता शान्त्यतीतपदोत्तरा ।
ततो माया ततोऽव्यक्तं शिवाच्छक्तिमतः प्रभोः ॥ ३ ॥
वायु बोले-सबसे पहले शक्तिकी उत्पत्ति हुई, इसके पश्चात् शान्त्यतीतपद उत्पन्न हुआ, तदनन्तर शक्तिमान् प्रभु शिवसे माया एवं अव्यक्त प्रकृति उत्पन्न हुई ॥ ३ ॥

शान्त्यतीतपदं शक्तेस्ततः शान्तिपदं क्रमात् ।
ततो विद्यापदं तस्मात्प्रतिष्ठापदसंभवः ॥ ४ ॥
निवृत्तिपदमुत्पन्नं प्रतिष्ठापदतः क्रमात् ।
एवमुक्ता समासेन सृष्टिरीश्वरचोदिता ॥ ५ ॥
[प्रथमोत्पन्न] शक्तिसे शान्त्यतीतपद, इसके पश्चात् शान्तिपद, तदनन्तर विद्यापद, उसके आगे प्रतिष्ठापद और उसके आगे निवृत्तिपद क्रमशः उत्पन्न हुए । इस प्रकार मैंने ईश्वरप्रेरित सृष्टिका वर्णन संक्षेपमें किया है ॥ ४-५ ॥

आनुलोम्यात्तथैतेषां प्रतिलोम्येन संहृतिः ।
अस्मात्पञ्चपदोद्दिष्टात्परः स्रष्टा समिष्यते ॥ ६ ॥
सृष्टिकी उत्पत्ति अनुलोम क्रमसे होती है और प्रतिलोम क्रमसे उसका संहार होता है । इन पाँच पदोंसे उपदिष्ट सृष्टिके अतिरिक्त एक स्रष्टा भी कहा जाता है ॥ ६ ॥

कलाभिः पञ्चभिर्व्याप्तं तस्माद्विश्वमिदं जगत् ।
अव्यक्तं कारणं यत्तदात्मना समनुष्ठितम् ॥ ७ ॥
महदादिविशेषान्तं सृजतीत्यपि संमतम् ।
किं तु तत्रापि कर्तृत्वं नाव्यक्तस्य न चात्मनः ॥ ८ ॥
अव्यक्त कारण जो पाँच कलाओंसे व्याप्त हैं तथा जिससे इस विश्वकी उत्पत्ति है और जो चेतनसे अधिष्ठित है, वह अव्यक्त महत्तत्त्वसे लेकर विशेषतत्त्वपर्यन्त इस संसारकी सृष्टि करता है-यह सर्वसम्मत है, फिर भी इसमें अव्यक्त तथा जीवका कर्तृत्व नहीं है ॥ ७-८ ॥

अचेतनत्वात्प्रकृतेरज्ञत्वात्पुरुषस्य च ।
प्रधानपरमाण्वादि यावत्किञ्चिदचेतनम् ॥ ९ ॥
प्रकृतिके अचेतन होनेसे और पुरुषके अज्ञानी होनेसे प्रधान, परमाणु आदि जो कुछ भी हैं, सभी अचेतन ही हैं ॥ ९ ॥

तत्कर्तृकं स्वयं दृष्टं बुद्धिमत्कारणं विना ।
जगच्च कर्तृसापेक्षं कार्यं सावयवं यतः ॥ १० ॥
उनका कर्ता कोई चेतन होना चाहिये, जो बुद्धिसे युक्त हो, इसके बिना कार्य-कारणभावकी संगति नहीं बैठती, क्योंकि यह जगत् कार्यरूप है, सावयव है और कर्तृसापेक्ष है ॥ १० ॥

तस्माच्छक्तः स्वतन्त्रो यः सर्वशक्तिश्च सर्ववित् ।
अनादिनिधनश्चायं महदैश्वर्यसंयुतः ॥ ११ ॥
स एव जगतः कर्ता महादेवो महेश्वराः ।
पाता हर्ता च सर्वस्य ततः पृथगनन्वयः ॥ १२ ॥
अतएव जो समर्थ, स्वतन्त्र, सर्वशक्तिमान्, सर्वज्ञ, आदि-अन्तसे परे और महान् ऐश्वर्यसे समन्वित हैं, वे महेश्वर महादेव ही सम्पूर्ण जगत्की रचना करनेवाले, पालन करनेवाले तथा संहार करनेवाले हैं और सबसे पृथक् तथा अन्वयरहित हैं ॥ ११-१२ ॥

परिणामः प्रधानस्य प्रवृत्तिः पुरुषस्य च ।
सर्वं सत्यव्रतस्यैव शासनेन प्रवर्तते ॥ १३ ॥
इतीयं शाश्वती निष्ठा सतां मनसि वर्तते ।
न चैनं पक्षमाश्रित्य वर्तते स्वल्पचेतनः ॥ १४ ॥
प्रधानका परिणाम तथा पुरुषकी प्रवृत्ति-यह सब कुछ उस सत्यव्रत [परमेश्वर]-के शासनसे ही प्रवर्तित होता है । सजनोंके मनमें यह शाश्वत निष्ठा बनी हुई है, किंतु अल्पबुद्धिवाला इस पक्षको ग्रहण नहीं कर पाता है ॥ १३-१४ ॥

यावदादिसमारंभो यावद्यः प्रलयो महान् ।
तावदप्येति सकलं ब्रह्मणः शरदां शतम् ॥ १५ ॥
जबसे इस सृष्टिका आरम्भ होता है और जबतक प्रलय होता है, तबतक ब्रादेवके पूरे सौ वर्ष व्यतीत हो जाते हैं ॥ १५ ॥

परमित्यायुषो नाम ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः ।
तत्पराख्यं तदर्धं च परार्द्धमभिधीयते ॥ १६ ॥
परार्द्धद्वयकालान्ते प्रलये समुपस्थिते ।
अव्यक्तमात्मनः कार्यमादायात्मनि तिष्ठति ॥ १७ ॥
अव्यक्तजन्मा ब्रह्माकी आयुका नाम 'पर' है । उस परके आधे भागको प्रथम परार्ध तथा द्वितीय भागको द्वितीय परार्ध कहते हैं । दोनों पराधोंके बीत जानेके बाद प्रलयके उपस्थित होनेपर अव्यक्त अपने कार्यभूत जगत्को लेकर अपने स्वरूपमें अवस्थित हो जाता है ॥ १६-१७ ॥

आत्मन्यवस्थितेऽव्यक्ते विकारे प्रतिसंहृते ।
साधर्म्येणाधितिष्ठेते प्रधानपुरुषावुभौ ॥ १८ ॥
अव्यक्तके स्वस्वरूपमें अवस्थित हो जानेपर तथा [जगद्प] विकारका प्रतिलोमक्रमसे विलय हो जानेपर प्रधान और पुरुष दोनों समान धर्मसे स्थित हो जाते हैं ॥ १८ ॥

तमः सत्त्वगुणावेतौ समत्वेन व्यवस्थितौ ।
अनुद्रिक्तावनन्तौ तावोतप्रोतौ परस्परम् ॥ १९ ॥
तब तम तथा सत्त्वगुण-ये दोनों समरूपमें स्थित रहते हैं । वे दोनों वृद्धि और न्यूनतासे रहित होकर परस्पर चेष्टाशून्य ओत-प्रोत रहते हैं । ॥ १९ ॥

गुणसाम्ये तदा तस्मिन्नविभागे तमोदये ।
शान्तवातैकनीरे च न प्राज्ञायत किंचन ॥ २० ॥
अप्रज्ञाते जगत्यस्मिन्नेक एव महेश्वरः ।
उपास्य रजनीं कृत्स्नां परां माहेश्वरीं ततः ॥ २१ ॥
प्रभातायां तु शर्वर्यां प्रधानपुरुषावुभौ ।
प्रविश्य क्षोभयामास मायायोगान्महेश्वरः ॥ २२ ॥
उस समय गुणोंकी साम्यावस्था होनेसे परस्पर वे अविभक्त थे तथा [सर्वत्र घनीभूत] अन्धकार व्याप्त था । वायु तथा जलकी गति शान्त थी और कुछ भी ज्ञात नहीं हो पा रहा था । उस समय जब संसारमें कुछ भी प्रतीत नहीं हो रहा था, तब एकमात्र महेश्वर ही विद्यमान थे । उन परमात्मा महेश्वरने उस सम्पूर्ण माहेश्वरी रात्रिको व्यतीत किया । रात्रिके अवसान तथा प्रभातके आगमनपर उन्होंने मायाके योगसे प्रधान तथा पुरुषमें प्रविष्ट होकर उनको क्षुब्ध कर दिया ॥ २०-२२ ॥

ततः पुनरशेषाणां भूतानां प्रभवाप्ययात् ।
अव्यक्तादभवत्सृष्टिराज्ञया परमेष्ठिनः ॥ २३ ॥
विश्वोत्तरोत्तरविचित्रमनोरथस्य
यस्यैकशक्तिशकले सकलः समाप्तः ।
आत्मानमध्वपतिमध्वविदो वदन्ति
तस्मै नमः सकललोकविलक्षणाय ॥ २४ ॥
इसके बाद परमेष्ठीकी आज्ञासे अव्यक्तसे पुनः उत्पत्ति और लयके निमित्त सभी प्राणियोंकी सृष्टि हुई । जिनकी इच्छाके द्वारा यह विचित्र विश्व उत्तरोत्तर उत्पन्न हुआ था, जिनकी शक्तिके मात्र एक अंशमें यह समस्त जगत् लयको प्राप्त हो जाता है । मोक्षमार्गको जाननेवाले लोग जिन्हें मोक्षमार्गका नियामक तथा आत्मस्वरूप बताते हैं, उन सर्वलोकविलक्षण [परमेश्वर]-को नमस्कार है ॥ २३-२४ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां पूर्वभागे सृष्टिपालनप्रलयकर्तृत्ववर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें सृष्टिपालन तथा प्रलयकर्तृत्ववर्णन नामक नवा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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