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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

वायवीयसंहिता

॥ दशमोऽध्यायः ॥


ब्रह्माण्डस्थितिवर्णनम्
ब्रह्माण्डकी स्थिति, स्वरूप आदिका वर्णन


वायुरुवाच
पुरुषाधिष्ठितात्पूर्वमव्यक्तादीश्वराज्ञया ।
बुद्ध्यादयो विशेषान्ता विकाराश्चाभवन् क्रमात् ॥ १ ॥
वायु बोले-पहले ईश्वरकी आज्ञासे पुरुषसे समन्वित अव्यक्तसे बुद्धि आदिसे लेकर विशेषपर्यन्त सभी विकार क्रमश: उत्पन्न हुए ॥ १ ॥

ततस्तेभ्यो विकारेभ्यो रुद्रो विष्णुः पितामहः ।
कारणत्वेन सर्वेषां त्रयो देवाः प्रजज्ञिरे ॥ २ ॥
इसके बाद उन्हीं विकारोंसे रुद्र, विष्णु एवं पितामह-ये तीन जगत्कारणभूत देवता उत्पन्न हुए ॥ २ ॥

सर्वतो भुवनव्याप्तिशक्तिमव्याहतां क्वचित् ।
ज्ञानमप्रतिमं शश्वदैश्वर्यं चाणिमादिकम् ॥ ३ ॥
सृष्टिस्थितिलयाख्येषु कर्मसु त्रिषु हेतुताम् ।
प्रभुत्वेन सहैतेषां प्रसीदति महेश्वरः ॥ ४ ॥
कल्पान्तरे पुनस्तेषामस्पर्द्धा बुद्धिमोहिनाम् ।
सर्गरक्षालयाचारं प्रत्येकं प्रददौ च सः ॥ ५ ॥
तत्पश्चात् उन्होंने [ब्रह्मा आदिको] इस संसारमें सभी जगह व्याप्त रहनेवाली अप्रतिहत शक्ति, अप्रतिम ज्ञान, अणिमादि ऐश्वर्य और सृष्टि, स्थिति तथा लय इन तीन कार्योंका सामर्थ्य प्रदान किया, [इस प्रकार] उन ब्रह्मादि देवोंको प्रभुत्वसे [अनुगृहीत करते हुए उनपर महेश्वर प्रसन्न हुए । उन्होंने कल्पान्तरमें स्पर्धारहित तथा निभ्रन्ति बुद्धिवाले इन देवगणोंको सृष्टि, स्थिति एवं प्रलयका कार्य क्रमसे सौंपा ॥ ३-५ ॥

एते परस्परोत्पन्ना धारयन्ति परस्परम् ।
परस्परेण वर्धन्ते परस्परमनुव्रताः ॥ ६ ॥
ये [देवगण] परस्पर उत्पन्न होकर आपसमें एकदूसरेको धारण करते हैं और परस्पर एक-दूसरेका अनुवर्तन करते हुए वृद्धिको प्राप्त होते रहते हैं ॥ ६ ॥

क्वचिद्‌ब्रह्मा क्वचिद्‌विष्णुः क्वचिद्‌रुद्रः प्रशस्यते ।
नानेन तेषामाधिक्यमैश्वर्यं चातिरिच्यते ॥ ७ ॥
मूर्खा निन्दन्ति तान्वाग्भिः संरम्भाभिनिवेशिनः ।
यातुधाना भवन्त्येव पिशाचाश्च न संशयः ॥ ८ ॥
कभी ब्रह्मा, कभी विष्णु तथा कभी रुद्र प्रशंसित होते हैं, परंतु इससे उनके ऐश्वर्यकी न्यूनता अथवा अधिकता नहीं होती है । दुराग्रहसे युक्त मूर्खलोग वाणीसे उनकी निन्दा करते हैं और [उस अपराधके कारण वे [दूसरे जन्ममें] राक्षस और पिशाच होते हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ७-८ ॥

देवो गुणत्रयातीतश्चतुर्व्यूहो महेश्वरः ।
सकलः सकलाधारः शक्तेरुत्पत्तिकारणम् ॥ ९ ॥
सोऽयमात्मा त्रयस्यास्य प्रकृतेः पुरुषस्य च ।
लीलाकृतजगत्सृष्टिरीश्वरत्वे व्यवस्थितः ॥ १० ॥
वे चतुर्व्यूहरूप महेश्वर देव तीनों गुणोंसे परे, कलायुक्त, सबको धारण करने में समर्थ तथा शक्तिकी उत्पत्तिके कारण हैं । लीलामात्रसे जगत्की रचना करनेवाले वे शिवजी [ब्रह्मा आदि] तीनों देवताओं, प्रकृति तथा पुरुषके अधीश्वरके रूपमें विराजमान रहते हैं । ९-१० ॥

यः सर्वस्मात्परो नित्यो निष्कलः परमेश्वरः ।
स एव च तदाधारस्तदात्मा तदधिष्ठितः ॥ ११ ॥
तस्मान्महेश्वरश्चैव प्रकृतिः पुरुषस्तथा ।
सदाशिवो भवो विष्णुर्ब्रह्मा सर्वं शिवात्मकम् ॥ १२ ॥
जो परमेश्वर सबसे परे, नित्य तथा निष्कल हैं, वे ही सबके आधार, सबकी आत्मा तथा सभीमें अधिष्ठित हैं । अतः महेश्वर, प्रकृति पुरुष, सदाशिव, भव, विष्णु, ब्रह्मा-ये सभी शिवात्मक हैं ॥ ११-१२ ॥

प्रधानात्प्रथमं जज्ञे वृद्धिः ख्यातिर्मतिर्महान् ।
महत्तत्त्वस्य संक्षोभादहङ्कारस्त्रिधाऽभवत् ॥ १३ ॥
अहङ्‌कारश्च भूतानि तन्मात्राणीन्द्रियाणि च ।
वैकारिकादहङ्कारात्सत्त्वोद्रिक्तात्तु सात्त्विकः ॥ १४ ॥
प्रधानसे सर्वप्रथम बुद्धि, ख्याति, मति तथा महत्तत्त्व उत्पन्न हुए. पुनः महत्तत्त्वके संक्षोभसे तीन प्रकारका अहंकार उत्पन्न हुआ । पंचमहाभूत, पंचतन्मात्राएँ एवं इन्द्रियाँ-ये अहंकारसे उत्पन्न हुए । सत्त्वप्रधान उस वैकारिक अहंकारसे सात्त्विक सर्ग उत्पन्न हुआ ॥ १३-१४ ॥

वैकारिकः स सर्गस्तु युगपत्संप्रवर्तते ।
बुद्धीन्द्रियाणि पञ्चैव पञ्चकर्मेन्द्रियाणि च ॥ १५ ॥
एकादशं मनस्तत्र स्वगुणेनोभयात्मकम् ।
तमोयुक्तादहङ्काराद्भूततन्मात्रसंभवः ॥ १६ ॥
भूतानामादिभूतत्वाद्‌ भूतादिः कथ्यते तु सः ।
भूतादेः शब्दमात्रं स्यात्तत्र चाकाशसंभवः ॥ १७ ॥
आकाशात्स्पर्श उत्पन्नः स्पर्शाद्वायुसमुद्‌भवः ।
वायो रूपं ततस्तेजस्तेजसो रससंभवः ॥ १८ ॥
रसादापः समुत्पन्नास्तेभ्यो गन्धसमुद्भवः ।
गन्धाच्च पृथिवी जाता भूतेभ्योऽन्यच्चराचरम् ॥ १९ ॥
यह वैकारिक सर्ग एक साथ ही प्रवृत्त होता है । पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, इन दस इन्द्रियोंके अतिरिक्त ग्यारहवाँ मन भी एक इन्द्रिय है, जो अपने गुणोंसे कर्मेन्द्रिय एवं ज्ञानेन्द्रिय दोनों है-ये उत्पन्न हुए । तामस अहंकारसे महाभूतों तथा तन्मात्राओंकी उत्पत्ति हुई । पंचभूतोंसे पहले उत्पन्न होनेके कारण उसे भूतादि कहा जाता है । भूतादि अहंकारसे सर्वप्रथम शब्दतन्मात्राकी उत्पत्ति हुई, जिससे आकाश उत्पन्न हुआ । आकाशसे स्पर्श उत्पन्न हुआ, स्पर्शसे वायुकी उत्पत्ति हुई । वायुसे रूप, रूपसे तेज, तेजसे रस उत्पन्न हुआ । रससे जल उत्पन्न हुआ, जलसे गन्ध उत्पन्न हुआ और गन्धसे पृथ्वी उत्पन्न हुई और इन पंचभूतोंद्वारा अन्य चराचरकी उत्पत्ति हुई ॥ १५-१९ ॥

पुरुषाधिष्ठितत्वाच्च अव्यक्तानुग्रहेण च ।
महदादिविशेषान्ता ह्यण्डमुत्पादयन्ति ते ॥ २० ॥
तत्र कार्यं च करणं संसिद्धं ब्रह्मणो यदा ।
तदण्डे सुप्रवृद्धोऽभूत् क्षेत्रज्ञो ब्रह्मसंज्ञितः ॥ २१ ॥
वे पुरुषके अधिष्ठित होनेसे और अव्यक्तके अनुग्रहसे महत्तत्त्वसे लेकर विशेषपर्यन्त समस्त ब्रह्माण्डकी उत्पत्ति करते हैं । इस प्रकारका जब ब्रह्माजीका कार्य कारणभाव सिद्ध हो गया, तब उस अण्डमें ब्रह्मसंज्ञक क्षेत्रज्ञ वृद्धिको प्राप्त होने लगा ॥ २०-२१ ॥

स वै शरीरी प्रथमः स वै पुरुष उच्यते ।
आदिकर्ता स भूतानां ब्रह्माग्रे समवर्तत ॥ २२ ॥
वही प्रथम शरीरी है और उसीको पुरुष भी कहा जाता है । प्राणियोंके कर्ता वही ब्रह्मा सबसे पहले उत्पन्न हुए ॥ २२ ॥

तस्येश्वरस्य प्रतिमा ज्ञानवैराग्यलक्षणा ।
धर्मैश्वर्यकरी बुद्धिर्ब्राह्मी यज्ञेऽभिमानिनः ॥ २३ ॥
अव्यक्ताज्जायते तस्य मनसा यद्यदीप्सितम् ।
तदनन्तर क्षेत्राभिमानी उन ब्रह्माजीकी ज्ञान-वैराग्यसे युक्त, धर्मेश्वर्यप्रदायिनी, अतुलनीया ब्राह्मी बुद्धि उत्पन्न हुई । उन ब्रह्माजीने अपने मनमें जो-जो कामना की, वह सब अव्यक्त [प्रकृति] से उत्पन्न हुई । । २३-१/२ ॥

वशीकृतत्वात्त्रैगुण्यात्सापेक्षत्वात्स्वभावतः ॥ २४ ॥
त्रिधा विभज्य चात्मानं त्रैलोक्ये संप्रवर्तते ।
सृजते ग्रसते चैव वीक्षते च त्रिभिः स्वयम् ॥ २५ ॥
वे ब्रह्माजी स्वभावत: त्रिगुणके वशीभूत एवं [प्रकृतिके] सापेक्ष होनेके कारण अपनेको तीन रूपोंमें विभक्तकर त्रैलोक्यमें भलीभाँति अधिष्ठित होते हैं और इन तीनों रूपोंके द्वारा सृजन, पालन तथा संहार करते हैं ॥ २४-२५ ॥

चतुर्मुखस्तु ब्रह्मत्वे कालत्वे चान्तकः स्मृतः ।
सहस्रमूर्धा पुरुषस्तिस्रोऽवस्थाः स्वयंभुवः ॥ २६ ॥
वे सृष्टि करते समय चतुर्मुख ब्रह्मा, लयकालमें रुद्र तथा पालनकालमें सहस्र सिरवाले पुरुष विष्णु कहे गये हैं । स्वयम्भू परमात्माकी ये तीन अवस्थाएँ हैं ॥ २६ ॥

सत्त्वं रजश्च ब्रह्मा च कालत्वे च तमो रजः ।
विष्णुत्वे केवलं सत्त्वं गुणवृद्धिस्त्रिधा विभौ ॥ २७ ॥
ब्रह्मत्वे सृजते लोकान् कालत्वे संक्षिपत्यपि ।
पुरुषत्वेऽत्युदासीनः कर्म च त्रिविधं विभोः ॥ २८ ॥
उन विभुके ब्रह्मरूप धारण करनेमें सत्त्वगुण तथा रजोगुण, [संहारक] कालस्वरूप धारण करनेमें रजोगुण एवं तमोगुण तथा विष्णुरूप धारण करने में सत्त्वगुणको कारणता कही जाती है । ये गुणवृद्धिके तीन प्रकार हैं । ये ब्रह्माके रूपमें लोकोंकी रचना करते हैं, रुद्ररूपमें लोकोंका संहार करते हैं और पुरुष विष्णुरूपमें अत्यन्त उत्कृष्टरूपमें स्थित रहकर पालन करते हैं । यही उन विभुका तीन प्रकारका कर्म है ॥ २७-२८ ॥

एवं त्रिधा विभिन्नत्वाद्‌ ब्रह्मा त्रिगुण उच्यते ।
चतुर्धा प्रविभक्तत्वाच्चतुर्व्यूहः प्रकीर्तितः ॥ २९ ॥
इस प्रकार तीन रूपोंमें विभक्त होनेके कारण ब्रह्मा त्रिगुणात्मक कहे जाते हैं तथा चार भागोंमें विभक्त होनेके कारण वे चतुयूँह कहे जाते हैं ॥ २९ ॥

आदित्वादादिदेवोऽसावजातत्वादजः स्मृतः ।
पाति यस्मात्प्रजाः सर्वाः प्रजापतिरिति स्मृतः ॥ ३० ॥
वे सबके आदि होनेसे आदिदेव तथा अजन्मा होनेसे अज कहे गये हैं । वे सभी प्रजाओंकी रक्षा करते हैं, अतः प्रजापति कहे गये हैं ॥ ३० ॥

हिरण्मयस्तु यो मेरुस्तस्योल्बं सुमहात्मनः ।
गर्भोदकं समुद्राश्च जरायुश्चाऽपि पर्वताः ॥ ३१ ॥
तस्मिन्नण्डे त्विमे लोका अन्तर्विश्वमिदं जगत् ।
चन्द्रादित्यौ सनक्षत्रौ सग्रहौ सह वायुना ॥ ३२ ॥
सुवर्णमय जो मेरु पर्वत है, वह उन महात्माका गर्भाशय है, समुद्र उस गर्भका जल है तथा पर्वत जरायु हैं । उस अण्डमें ये लोक स्थित हैं, इसीके भीतर नक्षत्र, ग्रह वायुके सहित सूर्य तथा चन्द्रमा और यह सम्पूर्ण जगत् स्थित है ॥ ३१-३२ ॥

अद्भिर्दशगुणाभिस्तु बाह्यतोण्डं समावृतम् ।
आपो दशगुणेनैव तेजसा बहिरावृताः ॥ ३३ ॥
तेजो दशगुणेनैव वायुना बहिरावृतम् ।
आकाशेनावृतो वायुः खं च भूतादिनाऽऽवृतम् ॥ ३४ ॥
भूतादिर्महता तद्वदव्यक्तेनावृतो महान् ।
एतैरावरणैरण्डं सप्तभिर्बहिरावृतम् ॥ ३५ ॥
यह अण्ड बाहरसे अपने दस गुने परिमाणवाले जलसे व्याप्त है, जल बाहरसे अपनेसे दस गुने परिमाणवाले तेजसे व्याप्त है और तेज भी बाहरसे अपनेसे दस गुने परिमाणवाले वायुसे व्याप्त है, वायु आकाशसे आवृत हैऔर आकाश भूतादिसे आवृत है । भूतादि महान्से और महान् अव्यक्त तत्त्वसे आवृत है । इस प्रकार यह ब्रह्माण्ड बाहरसे इन सात आवरणोंसे घिरा हुआ है ॥ ३३-३५ ॥

एतदावृत्त्य चान्योन्यमष्टौ प्रकृतयः स्थिताः ।
सृष्टिपालनविध्वंसकर्मकर्त्र्यो द्विजोत्तमाः ॥ ३६ ॥
एवं परस्परोत्पन्ना धारयन्ति परस्परम् ।
आधाराधेयभावेन विकारास्तु विकारिषु ॥ ३७ ॥
ये आठ प्रकृतियाँ एक-दूसरेको आवृतकर स्थित हैं । हे ब्राह्मणो ! ये सृष्टि, पालन तथा संहारका कार्य करती रहती हैं । इस प्रकार ये एक-दूसरेसे उत्पन्न होकर एक-दूसरेको धारण करती हैं । इनका परस्पर आधारआधेयभावसे विकारियोंमें विकार होता है ॥ ३६-३७ ॥

कूर्मोङ्गानि यथा पूर्वं प्रसार्य्यर विनियच्छति ।
विकारांश्च तथाऽव्यक्तं सृष्ट्‍वा भूयो नियच्छति ॥ ३८ ॥
जिस प्रकार कछुआ पहले अपने अंगोंको फैलाकर पुनः समेट लेता है, उसी प्रकार अव्यक्त भी विकारोंकी सृष्टिकर उन्हें पुनः समेट लेता है ॥ ३८ ॥

अव्यक्तप्रभवं सर्वमानुलोम्येन जायते ।
प्राप्ते प्रलयकाले तु प्रतिलोम्येऽनुलीयते ॥ ३९ ॥
यह संसार अनुलोमक्रमसे अव्यक्तसे उत्पन्न होता है और प्रलयकाल उपस्थित होनेपर प्रतिलोम क्रमसे विलयको प्राप्त होता है ॥ ३९ ॥

गुणाः कालवशादेव भवन्ति विषमाः समाः ।
गुणसाम्ये लयो ज्ञेयो वैषम्ये सृष्टिरुच्यते ॥ ४० ॥
कालके प्रभावसे ही गुण सम और विषम होते हैं । गुणोंमें साम्यकी स्थितिमें लय समझना चाहिये और वैषम्यकी स्थितिमें सृष्टि कही जाती है ॥ ४० ॥

तदिदं ब्रह्मणो योनिरेतदण्डं घनं महत् ।
ब्रह्मणः क्षेत्रमुद्दिष्टं ब्रह्मा क्षेत्रज्ञ उच्यते ॥ ४१ ॥
इतीदृशानामण्डानां कोट्यो ज्ञेयाः सहस्रशः ।
सर्वगत्वात्प्रधानस्य तिर्यगूर्ध्वमधः स्थिताः ॥ ४२ ॥
यह घनीभूत महान् अण्ड ब्रह्माकी उत्पत्तिमें कारण है । यह ब्रह्मदेवका क्षेत्र कहा जाता है और ब्रह्मा क्षेत्रज्ञ कहे जाते हैं । इस प्रकारके हजारों ब्रह्माण्डसमूहोंको जानना चाहिये । प्रधानके सर्वत्र व्याप्त होनेसे ये ऊपरनीचे तथा तिरछे विद्यमान हैं । ४१-४२ ॥

तत्र तत्र चतुर्वक्त्रा ब्रह्माणो हरयो भवाः ।
सृष्टा प्रधानेन तथा लब्ध्वा शंभोस्तु सन्निधिम् ॥ ४३ ॥
उन सभी स्थानोंमें चतुर्मुख ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र स्थित हैं, जो शिवका सान्निध्य प्राप्त करके प्रधानके द्वारा सृजित किये गये हैं ॥ ४३ ॥

महेश्वरः परोव्यक्तादण्डमव्यक्तसंभवम् ।
अण्डाज्जज्ञे विभुर्ब्रह्मा लोकास्तेन कृतास्त्विमे ॥ ४४ ॥
महेश्वर अव्यक्तसे परे हैं । यह अण्ड अव्यक्तसे उत्पन्न हुआ है, अण्डसे विभु ब्रह्मा उत्पन्न हुए हैं और उन्होंने ही इन लोकोंकी रचना की है ॥ ४४ ॥

अबुद्धिपूर्वः कथितो मयैषः प्रधानसर्गः प्रथमः प्रवृतः ।
आत्यन्तिकश्च प्रलयोऽन्तकाले लीलाकृतः केवलमीश्वरस्य ॥ ४५ ॥
मैंने प्रथम प्रवृत्त हुई अबुद्धिपूर्वा प्रधान सृष्टिका वर्णन किया, जिसका अन्तकालमें आत्यन्तिक लय हो जाता है, यह चेष्टा ईश्वरकी लीलामात्र है ॥ ४५ ॥

यत्तत्स्मृतं कारणमप्रमेयं ब्रह्मा प्रधानं प्रकृतेः प्रसूतिः ।
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यं शुक्लं सुरक्तं पुरुषेण युक्तम् ॥ ४६ ॥
उत्पादकत्वाद्रजसोऽतिरेकाल्लोकस्य सन्तानविवृद्धिहेतून् ।
अष्टौ विकारानपि चादिकाले सृष्ट्‍वा समश्नाति तथान्तकाले ॥ ४७ ॥
वह जो ब्रह्म जगत्का प्रधान कारण, अप्रमेय, प्रकृतिका उत्पादक, आदि-मध्य-अन्तसे रहित, अनन्तवीर्य [सत्त्वगुणान्वित होनेपर] शुक्लवर्ण, [रजोगुणान्वित होनेसे] रक्तवर्ण तथा [सृष्टिकर्ता] पुरुषसे युक्त है । वह जगत्के उत्पादक रजोगुणकी अभिवृद्धिके द्वारा लोककी सन्तानपरम्पराकी वृद्धिमें हेतुभूत आठ विकारोंको सृष्टिके आदिकालमें उत्पन्न करता है और अन्त में उनका लय कर देता है ॥ ४६-४७ ॥

प्रकृत्यवस्थापितकारणानां या च स्थितिर्या च पुनः प्रवृत्तिः ।
तत्सर्वमप्राकृतवैभवस्य संकल्पमात्रेण महेश्वरस्य ॥ ४८ ॥
प्रकृतिद्वारा स्थापित किये गये कारणों की जो स्थिति एवं पुनः प्रवृत्ति है, वह सब अप्राकृत ऐश्वर्यवाले महेश्वरके संकल्पमात्रसे सम्भव होती है ॥ ४८ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां ब्रह्माण्डस्थितिवर्णनं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें ब्रह्माण्डस्थितिवर्णन नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १० ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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