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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

वायवीयसंहिता

॥ त्रयोदशोऽध्यायः ॥


ब्रह्मविष्णुसृष्टिकथनम्
कल्पभेदसे त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र)-के एक-दूसरेसे प्रादुर्भावका वर्णन


ऋषय ऊचुः
भवता कथिता सृष्टिर्भवस्य परमात्मनः ।
चतुर्मुखमुखात्तस्य संशयो नः प्रजायते ॥ १ ॥
ऋषि बोले-[हे वायुदेव !] आपने परमात्मा । शिवकी उत्पत्ति ब्रह्माजीके मुखसे बतायी, इस विषयमें हमलोगोंको संशय हो रहा है ॥ १ ॥

देवश्रेष्ठो विरूपाक्षो दीप्तः शूलधरो हरः ।
कालात्मा भगवान् रुद्रः कपर्दी नीललोहितः ॥ २ ॥
सब्रह्मकमिमं लोकं सविष्णुमपि पावकम् ।
यः संहरति संक्रुद्धो युगान्ते समुपस्थिते ॥ ३ ॥
यस्य ब्रह्मा च विष्णुश्च प्रणामं कुरुतो भयात् ।
लोकसंकोचकस्यास्य यस्य तौ वशवर्तिनौ ॥ ४ ॥
योऽयं देवः स्वकादङ्गाद् ब्रह्मविष्णू पुरासृजत् ।
स एव हि तयोर्नित्यं योगक्षेमकरः प्रभुः ॥ ५ ॥
स कथं भगवान् रुद्र आदिदेवः पुरातनः ।
पुत्रत्वमगमच्छंभुर्ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः ॥ ६ ॥
जो देवताओंमें श्रेष्ठ, विरूपाक्ष, दीप्तिमान्, शूल धारण करनेवाले, हर, कालात्मा, जटाधारी तथा नीललोहित हैं । जो भगवान् रुद्र युगान्तमें कुपित होकर ब्रह्मा, विष्णु तथा पावकसहित इस लोकका संहार करते हैं, जिन्हें ब्रह्मा तथा विष्णु भयसे नमस्कार करते हैं, सभी लोकोंका संहार करनेवाले जिन रुद्रके वशमें वे दोनों रहते हैं, जिन देवने पूर्वकालमें अपने शरीरसे ब्रह्मा तथा विष्णुको उत्पन्न किया और जो प्रभु उन दोनोंका नित्य योगक्षेम वहन करते हैं । वे आदिदेव पुरातन अव्यक्तजन्मा शम्भु भगवान् रुद्र ब्रह्माजीके पुत्र किस प्रकार हुए ? ॥ २-६ ॥

प्रजापतिश्च विष्णुश्च रुद्रस्यैतौ परस्परम् ।
सृष्टौ परस्परस्याङ्गादिति प्रागपि शुश्रुम ॥ ७ ॥
हमलोग पहले भी सुन चुके हैं कि रुद्रके शरीरसे ब्रह्मा और विष्णु एक-एक करके उत्पन्न हुए हैं ॥ ७ ॥

कथं पुनरशेषाणां भूतानां हेतुभूतयोः ।
गुणप्रधानभावेन प्रादुर्भावः परस्परात् ॥ ८ ॥
इतना ही नहीं, जब वे दोनों ही सृष्टिके हेतुभूत हैं, तब इनकी मुख्यता और गौणता एवं उत्तरोत्तर प्रादुर्भाव किस प्रकार कहा गया ? ॥ ८ ॥

नापृष्टं भवता किंचिन्नाश्रुतं च कथंचन ।
भगवच्छिष्यभूतेन भवता सकलं स्मृतम् ॥ ९ ॥
ऐसी कोई बात नहीं है, जो आपने ब्रह्मदेवसे न पूछी हो और कोई ऐसी बात नहीं है, जो आपने उनसे न सुनी हो । आप ब्रह्माजीके प्रधान शिष्य हैं, अतः सभी बातें आपको स्मरण भी हैं ॥ ९ ॥

तत्त्वं वद यथा ब्रह्मा मुनीनामवदद्विभुः ।
वयं श्रद्धालवस्तात श्रोतुमीश्वरसद्यशः ॥ १० ॥
हे तात ! जैसा सर्वव्यापी ब्रह्माने आपसे कहा है. उसे आप हम मुनियोंको बताइये, हमलोग ईश्वरका उत्तम चरित्र सुननेके लिये श्रद्धायुक्त हैं ॥ १० ॥

वायुरुवाच
स्थाने पृष्टमिदं विप्रा भवद्भिः प्रश्नकोविदैः ।
इदमेव पुरा पृष्टो मम प्राह पितामहः ॥ ११ ॥
तदहं सम्प्रवक्ष्यामि यथा रुद्रसमुद्‌भवः ।
यथा च पुनरुत्पत्तिर्ब्रह्मविष्ण्वोः परस्परम् ॥ १२ ॥
वायु बोले-हे विप्रो ! प्रश्न करनेमें प्रवीण आपलोगोंने यह उचित ही प्रश्न किया है । यही बात मैंने ब्रह्माजीसे भी पूछी थी, तब उन्होंने मुझे बताया था । जिस प्रकार रुद्रकी उत्पत्ति हुई तथा [उस कल्पमें पुनः] ब्रह्मा और विष्णुको परस्पर उत्पत्ति जिस प्रकार हुई, मैं वह सब आपलोगोंसे कहूँगा ॥ ११-१२ ॥

त्रयस्ते कारणात्मानो जाताः साक्षान्महेश्वरात् ।
चराचरस्य विश्वस्य सर्गस्थित्यन्तहेतवः ॥ १३ ॥
परमैश्वर्यसंयुक्ताः परमेश्वरभाविताः ।
तच्छक्त्याधिष्ठिता नित्यं तत्कार्यकरणक्षमाः ॥ १४ ॥
इस चराचर जगत्के सृष्टि, पालन तथा संहारके कारणभूत तीनों ही देवता साक्षात् महेश्वरसे उत्पन्न हुए हैं । वे परम ऐश्वर्यसे युक्त, परमेश्वरसे भावित तथा उनकी शक्तिसे अधिष्ठित होकर उनके कार्यको करने में सर्वथा समर्थ हैं ॥ १३-१४ ॥

पित्रा नियमिताः पूर्वं त्रयोपि त्रिषु कर्मसु ।
ब्रह्मा सर्गे हरिस्त्राणे रुद्रः संहरणे तथा ॥ १५ ॥
तथाप्यन्योन्यमात्सर्यादन्योन्यातिशयाशिनः ।
तपसा तोषयित्वा स्वं पितरं परमेश्वरम् ॥ १६ ॥
पितृरूप परमेश्वरने पूर्व कालमें इन तीनोंको तीन कार्योंमें नियुक्त किया है । ब्रह्माको सृजनके लिये, विष्णुको पालनके लिये तथा रुद्रको संहारके लिये नियुक्त किया है । फिर भी परस्पर मत्सरताके कारण वे अपने उत्पत्तिकर्ता परमेश्वरको तपस्यासे सन्तुष्टकर एकदूसरेसे अधिक सामर्थ्यकी अपेक्षा रखते हैं । १५-१६ ॥

लब्ध्वा सर्वात्मना तस्य प्रसादात्परमेष्ठिनः ।
ब्रह्मनारायणौ पूर्वं रुद्रः कल्पान्तरेऽसृजत् ॥ १७ ॥
कल्पान्तरे पुनर्ब्रह्मा रुद्रविष्णू जगन्मयः ।
विष्णुश्च भगवान् रुद्रं ब्रह्माणमसृजत्पुनः ॥ १८ ॥
नारायणं पुनर्ब्रह्मा ब्रह्माणमसृजत्पुनः ।
एवं कल्पेषु कल्पेषु ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ॥ १९ ॥
परस्परेण जायन्ते परस्परहितैषिणः ।
तत्तत्कल्पान्तवृत्तान्तमधिकृत्य महर्षिभिः ॥ २० ॥
प्रभावः कथ्यते तेषां परस्परसमुद्‌भवात् ।
शृणु तेषां कथां चित्रां पुण्यां पापप्रमोचिनीम् ॥ २१ ॥
कल्पे तत्पुरुषे वृत्तां ब्रह्मणः परमेष्ठिनः ।
उन परमेष्ठीको पूर्णरूपसे प्रसन्नता प्राप्तकर पूर्वकल्पमें रुद्रने ब्रह्मा और नारायणको उत्पन्न किया । पुनः किसी दूसरे कल्पमें जगन्मय ब्रह्माने रुद्र और विष्णुको उत्पन्न किया । इसी प्रकार किसी [अन्य] कल्पमें भगवान् विष्णुने रुद्र तथा ब्रह्माको उत्पन्न किया । पुनः किसी कल्पमें ब्रह्मा नारायणको और किसी कल्पमें रुद्रदेवने ब्रह्माको उत्पन्न किया है, इस प्रकार प्रतिकल्पमें ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर परस्पर हित करनेकी इच्छासे एक-दूसरेके द्वारा उत्पन्न होते रहते हैं । महर्षिगण उन-उन कल्पोंके वृत्तान्तको लेकर आपसमें समुद्‌भवकी दृष्टिसे उनके प्रभावका वर्णन करते हैं । अब आपलोग उनकी अद्‌भुत, पुण्यप्रद तथा पापनाशक कथाको सुनिये, जो परमेष्ठी ब्रह्माके तत्पुरुष नामक कल्पमें घटित हुई थी ॥ १७-२११/२ ॥

पुरा नारायणो नाम कल्पे वै मेघवाहने ॥ २२ ॥
दिव्यं वर्षसहस्रं तु मेघो भूत्वावहद्धराम् ।
तस्य भावं समालक्ष्य विष्णोर्विश्वजगद्‌गुरुः ॥ २३ ॥
सर्वः सर्वात्मभावेन प्रददौ शक्तिमव्ययाम् ।
शक्तिं लब्ध्वा तु सर्वात्मा शिवात्सर्वेश्वरात्तदा ॥ २४ ॥
ससर्ज भगावन् विष्णुर्विश्वं विश्वसृजा सह ।
पूर्वकालमें मेघवाहन नामक कल्पमें भगवान् नारायणने मेघ बनकर दिव्य सहस्रवर्षपर्यन्त पृथ्वीको धारण किया । तब उन विष्णुका भाव देखकर समस्त जगत्के गुरु सर्वात्मा शिवने उन्हें सर्वात्मभावके साथ अव्यय शक्ति दी । इस प्रकार सर्वेश्वर शिवसे शक्तिको प्राप्तकर सर्वात्मा भगवान् विष्णु ब्रह्माको साथ लेकर जगत्की रचना करने लगे ॥ २२-२४१/२ ॥

विष्णोस्तद्वैभवं दृष्ट्‍वा सृष्टस्तेन पितामहः ॥ २५ ॥
ईर्ष्यया परया ग्रस्तः प्रहसन्निदमब्रवीत् ।
गच्छ विष्णो मया ज्ञातं तव सर्गस्य कारणम् ।
आवयोरधिकश्चास्ति स रुद्रो नात्र संशयः ॥ २६ ॥
विष्णुके ऐश्वर्यको देखकर उन्हींसे उत्पन्न होनेपर भी महान् ईर्ष्यासे ग्रस्त ब्रह्माजीने हँसते हुए कहा-हे विष्णो ! अब चले जाओ, मैंने आपकी सृष्टिका कारण जान लिया । वे रुद्र हमदोनोंसे बढ़कर हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २५-२६ ॥

तस्य देवाधिदेवस्य प्रसादात्परमेष्ठिनः ।
स्रष्टा त्वं भगवानाद्यः पालकः परमार्थतः ॥ २७ ॥
अहं च तपसाराध्य रुद्रं त्रिदशनायकम् ।
त्वया सह जगत्सर्वं स्रक्ष्याम्यत्र न संशयः ॥ २८ ॥
उन्हीं देवाधिदेव परमात्माके परम अभीष्ट अनुग्रहसे आप भगवान् इस जगत्के आदि स्रष्टा और पालक हैं । तपसे मैं भी देवताओंके नायक रुद्रकी आराधनाकर आपके साथ सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि करूँगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २७-२८ ॥

एवं विष्णुमुपालभ्य भगवानब्जसम्भवः ।
एवं विज्ञापयामास तपसा प्राप्य शङ्करम् ॥ २९ ॥
भगवन् देवदेवेश विश्वेश्वर महेश्वर ।
तव वामाङ्गजो विष्णुर्दक्षिणा‍ङ्गभवो ह्यहम् ॥ ३० ॥
मया सह जगत्सर्वं तथाप्यसृजदच्युतः ।
स मत्सरादुपालब्धस्त्वदाश्रयबलान्मया ॥ ३१ ॥
मद्‌भावान्नाधिकस्तेऽति भावस्त्वयि महेश्वरे ।
त्वत्त एव समुत्पत्तिरावयोः सदृशी यतः ॥ ३२ ॥
तस्य भक्त्या यथापूर्वं प्रसादं कृतवानसि ।
तथा ममापि तत्सर्वं दातुमर्हसि शङ्कर ॥ ३३ ॥
इस प्रकार विष्णुको उलाहना देकर पायोनि भगवान् ब्रह्माजीने तपसे शिवजीका साक्षात्कार किया और वे इस प्रकार शंकरजीसे कहने लगे-हे भगवन् ! देवाधिदेव ! विश्वेश्वर ! हे महेश्वर ! बायें अंगसे विष्णु तथा दाहिने अंगसे मैं उत्पन्न हुआ हूँ तो भी मेरे साथ उत्पन्न होकर विष्णुने सारा जगत् उत्पन्न किया । इस समय मैंने भी आपके आश्रयके बलपर मत्सरतापूर्वक उनको तिरस्कृत किया । चूंकि हमदोनोंकी समान उत्पत्ति आपसे ही हुई है और आप महेश्वरमें उनकी भक्ति भी मेरी अपेक्षा अधिक नहीं है । इसलिये हे महेश्वर ! जिस प्रकार पूर्वमें आपने उनकी भक्तिके कारण उनपर अनुग्रह किया है, उसी प्रकार मुझपर अनुग्रह करके वह सब कुछ प्रदान कीजिये ॥ २९-३३ ॥

इति विज्ञापितस्तेन भगवान् भगनेत्रहा ।
न्यायेन वै ददौ सर्वं तस्यापि स घृणानिधिः ॥ ३४ ॥
इस प्रकार उनके द्वारा प्रार्थित दयानिधि भगनेत्रनाशक भगवान् शिवने न्यायत: उन्हें भी सारी शक्ति प्रदान की ॥ ३४ ॥

लब्ध्वैवमीश्वरादेव ब्रह्मा सर्वात्मतां क्षणात् ।
त्वरमाणोऽथ सङ्गम्य ददर्श पुरुषोत्तमम् ॥ ३५ ॥
क्षीरार्णवालये शुभ्रे विमाने सूर्यसंनिभे ।
हेमरत्नान्विते दिव्ये मनसा तेन निर्मिते ॥ ३६ ॥
अनन्तभोगशय्यायां शयानं पङ्‌कजेक्षणम् ।
चतुर्भुजमुदाराङ्गं सर्वाभरणभूषितम् ॥ ३७ ॥
शंखचक्रधरं सौम्यं चन्द्रबिंबसमाननम् ।
श्रीवत्सवक्षसं देवं प्रसन्नमधुरस्मितम् ॥ ३८ ॥
धरामृदुकरांभोजस्पर्शरक्तपदांबुजम् ।
क्षीरार्णवामृतमिव शयानं योगनिद्रया ॥ ३९ ॥
तमसा कालरुद्राख्यं रजसा कनकाण्डजम् ।
सत्त्वेन सर्वगं विष्णुं निर्गुणत्वे महेश्वरम् ॥ ४० ॥
तं दृष्ट्‍वा पुरुषं ब्रह्मा प्रगल्भमिदमब्रवीत् ।
ग्रसामि त्वामहं विष्णो त्वमात्मानं यथा पुरा ॥ ४१ ॥
इस प्रकार ब्रह्मदेवने क्षणमात्रमें शिवद्वारा सर्वात्मता प्राप्तकर शीघ्रतासे जाकर विष्णुको देखा । वहाँ क्षीरसागरके मध्यमें सूर्यके समान प्रकाशित, सुवर्ण-रत्नजटित और अपने मनसे उत्पन्न किये गये धवल तथा दिव्य विमानमें अनन्तनागकी शय्यापर शयन करते हुए कमलनयन, चार भुजाओंवाले, कोमल अोवाले, सभी आभूषणोंसे विभूषित, शंख-चक्र धारण किये हुए, सौम्य, चन्द्रबिम्बके समान मुखवाले, श्रीवत्सचिह्नसे शोभित वक्षःस्थलवाले, खिली हुई मधुर मुसकानसे युक्त, स्थलकमलके समान कोमल करकमलको अपने चरणकमलपर स्थित किये हुए, क्षीरसागरके [मन्थनसे उत्पन्न रत्नभूत] अमृतके समान, योगनिद्रामें शयन करते हुए तमोगुणसे कालरुद्र, रजोगुणसे हिरण्यगर्भ, सत्त्वगुणसे सर्वव्यापक विष्णु तथा निर्गुण होनेसे साक्षात् परमेश्वररूप उस पुरुष (विष्णु)-को देखकर ब्रह्माजीने साभिमान यह कहा-हे विष्णो ! जिस प्रकार पूर्व समयमें आपने मुझे ग्रस लिया था, उसी प्रकार मैं भी आपको ग्रसता हूँ ॥ ३५-४१ ॥

तस्य तद्वचनं श्रुत्वा प्रतिबुद्ध्य पितामहम् ।
उदैक्षत महाबाहुः स्मितमीषच्चकार च ॥ ४२ ॥
उनका वचन सुनकर महाबाहु विष्णुने जागकर ब्रह्माकी ओर देखा और थोड़ा-सा मुसकराने लगे ॥ ४२ ॥

तस्मिन्नवसरे विष्णुर्ग्रस्तस्तेन महात्मना ।
सृष्टश्च ब्रह्मणा सद्यो भ्रुवोर्मध्यादयत्नतः ॥ ४३ ॥
तस्मिन्नवसरे साक्षाद्भगवानिन्दुभूषणः ।
शक्तिं तयोरपि द्रष्टुमरूपो रूपमास्थितः ॥ ४४ ॥
उसी समय उन महात्मा ब्रह्माने विष्णुको ग्रस लिया, किंतु वे तत्काल ही ब्रह्माके भ्रूमध्यसे बिना यत्लके ही प्रकट हो गये । उस समय साक्षात् निराकार भगवान् चन्द्रमौलिने उन दोनोंकी शक्ति देखनेके लिये साकार रूप धारण कर लिया ॥ ४३-४४ ॥

प्रसादमतुलं कर्तुं पुरा दत्तवरस्तयोः ।
आगच्छत्तत्र यत्रेमौ ब्रह्मनारायणौ स्थितौ ॥ ४५ ॥
पूर्व समयमें उन्होंने दोनोंको ही वर प्रदान किया था, इसलिये उनपर अतुल अनुग्रह करनेके लिये वे वहाँ आये, जहाँ ये दोनों ब्रह्मा तथा विष्णु स्थित थे ॥ ४५ ॥

अथ तुष्टुवतुर्देवं प्रीतौ भीतौ च कौतुकात् ।
प्रणेमतुश्च बहुशो बहुमानेन दूरतः ॥ ४६ ॥
भवोपि भगवानेतावनुगृह्य पिनाकधृक् ।
सादरं पश्यतोरेव तयोरन्तरधीयत ॥ ४७ ॥
तब उनके इस कौतुकसे प्रसन्न एवं भयभीत वे दोनों दूरसे ही शिवकी स्तुति करने लगे और सम्मानपूर्वक उन्हें बारंबार प्रणाम करने लगे । पिनाकधारी भगवान् सदाशिव भी उनपर अनुग्रह करके उन दोनोंके आदरपूर्वक देखते-देखते अन्तर्धान हो गये ॥ ४६-४७ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां पूर्वखण्डे ब्रह्मविष्णुसृष्टिकथनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें ब्रह्माविष्णुसृष्टिकचन नामक तेरहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १३ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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