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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
वायवीयसंहिता
॥ द्वादशोऽध्यायः ॥ सृष्टिवर्णनम्
ब्रह्माजीकी मानसी सृष्टि, ब्रह्माजीकी मूर्छा, उनके मुखसे रुद्रदेवका प्राकट्य, सप्राण हुए ब्रह्माजीके द्वारा आठ नामोंसे महेश्वरकी स्तुति तथा रुद्रकी आज्ञासे ब्रह्माद्वारा सृष्टि-रचना वायुरुवाच सर्गं चिन्तयतस्तस्य तदा वै बुद्धिपूर्वकम् । प्रध्यानकाले मोहस्तु प्रादुर्भूतस्तमोमयः ॥ १ ॥ तमोमोहो महामोहस्तामिस्रश्चान्धसंज्ञितः । अविद्या पञ्चमी चैषा प्रादुर्भूता महात्मनः ॥ २ ॥ वायु बोले- इसके पश्चात् बुद्धिपूर्विका सृष्टिका चिन्तन करते हुए उन ब्रह्माजीको ध्यानकालमें तमोमय मोहकी प्राप्ति हुई । उस समय उन महात्मासे तम, मोह, महामोह, तामिस्र, अन्धतामित्र नामक पंचपर्वा अविद्या उत्पन्न हुई ॥ १-२ ॥ पञ्चधाऽवस्थितः सर्गो ध्यायतस्त्वभिमानिनः । सर्वतस्तमसातीव बीजकुम्भवदावृतः ॥ ३ ॥ उस समय उन अभिमानी ब्रह्माके ध्यान करते रहनेपर यह सर्ग पाँच प्रकारसे प्रकट हुआ, यह सभी ओरसे अन्धकारसे पूर्णतः उसी प्रकार व्याप्त था, जैसे कुम्भ बीजको आवृत किये रहता है ॥ ३ ॥ बहिरन्तश्चाप्रकाशः स्तब्धो निःसंज्ञ एव च । तस्मात्तेषां वृता बुद्धिर्मुखानि करणानि च ॥ ४ ॥ तस्मात्ते संवृतात्मानो नगा मुख्याः प्रकीर्तिताः । तं दृष्ट्वासाधकं ब्रह्मा प्रथमं सर्गमीदृशम् ॥ ५ ॥ अप्रसन्नमना भूत्वा द्वितीयं सोऽभ्यमन्यत । तस्याभिधायतः सर्गं तिर्यक्स्रोतोऽभ्यवर्तत ॥ ६ ॥ वह बाहर-भीतरसे प्रकाशरहित, निश्चल तथा संज्ञाहीन था, अत: उसमें होनेवालोंकी बुद्धि, मुख तथा इन्द्रियाँ-ये सब ढंके हुए थे । अतः आवृत स्वरूपवाले वे सब नग कहे गये और यह सर्ग मुख्य सर्ग कहलाया । तब इस प्रकारके उस प्रथम सर्गको अनुपयोगी देखकर ब्रह्मा अप्रसन्नमन होकर दूसरे सर्गका विचार करने लगे । तब उस सर्गका ध्यान करते हुए ब्रह्माका तिर्यक्स्रोत नामक सर्ग उत्पन्न हुआ ॥ ४-६ ॥ अन्तःप्रकाशास्तिर्यंच आवृताश्च बहिः पुनः । पश्वात्मानस्ततो जाता उत्पथग्राहिणश्च ते ॥ ७ ॥ वे पशु-पक्षी आदि भीतरसे प्रकाश (ज्ञान)-युक्त तथा बाहरसे अज्ञानयुक्त थे, अत: उन्होंने भी सन्मार्गको ग्रहण नहीं किया ॥ ७ ॥ तमप्यसाधकं ज्ञात्वा सर्गमन्यममन्यत । तदोर्ध्वस्रोतसो वृत्तो देवसर्गस्तु सात्त्विकः ॥ ८ ॥ ते सुखप्रीतिबहुला बहिरन्तश्च नावृताः । प्रकाशा बहिरन्तश्च स्वभावादेव संज्ञिताः ॥ ९ ॥ तब उसे भी अनुपयोगी समझकर वे दूसरे प्रकारकी सृष्टि करनेका विचार करने लगे । उन्होंने सत्त्वगुणयुक्त ऊर्ध्वस्रोत नामक देवसर्ग प्रारम्भ किया । वे देवता स्वभावसे ही सुख तथा प्रीतिसे परिपूर्ण, बाहर-भीतरसे अज्ञानरहित तथा ज्ञानसम्पन्न हुए ॥ ८-९ ॥ ततोऽभिध्यायतोऽव्यक्तादर्वाक्स्रोतस्तु साधकः । मनुष्यनामा सञ्जातः सर्गो दुःखसमुत्कटः ॥ १० ॥ प्रकाशाबहिरन्तस्ते तमोद्रिक्ता रजोऽधिकाः । पञ्चमोऽनुग्रहः सर्गश्चतुर्धा संव्यवस्थितः ॥ ११ ॥ विपर्ययेण शक्त्या च तुष्ट्या सिद्ध्या तथैव च । तेऽपरिग्राहिणः सर्वे संविभागरताः पुनः ॥ १२ ॥ इसके बाद ब्रह्माजीके ध्यान करते समय अव्यक्तसे अर्वाक्स्रोत (संसारकी ओर सृष्टिप्रवाहवाला), [पुरुषार्थोंको] सिद्ध करनेवाला किंतु महान् दु:खोंसे युक्त मनुष्य नामक सर्ग उत्पन्न हुआ । वे [मनुष्य] बाहर-भीतरसे ज्ञानयुक्त और तमोगुण तथा रजोगुणवाले थे । पाँचवाँ अनुग्रह नामक सर्ग विपर्यय, शक्ति, तुष्टि तथा सिद्धिके द्वारा चार प्रकारसे बँटा हुआ व्यवस्थित था । [इस सर्गके अन्तर्गत जिनकी उत्पत्ति हुई] वे सब अपरिग्रही, संविभागरत, खाने-पीनेवाले तथा शीलरहित भूत-प्रेत आदि कहे गये ॥ १०-१२ ॥ खादनाश्चाप्यशीलाश्च भूताद्याः परिकीर्तिताः । प्रथमो महतः सर्गो ब्रह्मणः परमेष्ठिनः ॥ १३ ॥ तन्मात्राणां द्वितीयस्तु भूतसर्गः स उच्यते । वैकारिकस्तृतीयस्तु सर्ग ऐन्द्रियकः स्मृतः ॥ १४ ॥ इत्येष प्रकृतेः सर्गः सम्भृतोऽबुद्धिपूर्वकः । मुख्यसर्गश्चतुर्थस्तु मुख्या वै स्थावराः स्मृताः ॥ १५ ॥ परमेष्ठी ब्रह्माका पहला सर्ग महत्तत्त्वका है । तन्मात्राओंका जो दूसरा सर्ग है, वह भूतसर्ग कहा जाता है । तीसरा वैकारिक सर्ग इन्द्रियोंका कहा गया है । प्रकृतिकी यह सृष्टि बुद्धिपूर्वक हुई, यह जो चौथा मुख्य सर्ग है, इसके अन्तर्गत मुख्य रूपसे स्थावर कहे गये हैं ॥ १३-१५ ॥ तिर्यक्स्रोतस्तु यः प्रोक्तस्तिर्यग्योनिः स पञ्चमः । तदूर्ध्वस्रोतसः षष्ठो देवसर्गस्तु स स्मृतः ॥ १६ ॥ तिर्यक् स्रोत नामक सर्ग पाँचवाँ है, जो तिर्यक योनियोंका सर्ग कहा गया है । जो ऊर्ध्वस्त्रोत नामक छठा सर्ग है, वह देवसर्ग कहा गया है ॥ १६ ॥ ततोऽर्वाक् स्रोतसां सर्गः सप्तमः स तु मानुषः । अष्टमोऽनुग्रहः सर्गः कौमारो नवमः स्मृतः ॥ १७ ॥ प्राकृताश्च त्रयः पूर्वे सर्गास्तेऽबुद्धिपूर्वकाः । बुद्धिपूर्वं प्रवर्तन्ते मुख्याद्याः पञ्च वैकृताः ॥ १८ ॥ इसके बाद जो सातवाँ अक्स्रिोत सर्ग है, वह मनुष्योंका सर्ग है । आठवाँ अनुग्रह सर्ग है तथा नौवाँ कौमार सर्ग कहा गया है । जो प्रथम तीन प्राकृत सर्ग हैं, वे अबुद्धिपूर्वक प्रवृत्त हुए हैं । मुख्य आदि पाँच वैकारिक सर्ग बुद्धिपूर्वक प्रवृत्त हुए हैं ॥ १७-१८ ॥ अग्रे ससर्ज वै ब्रह्मा मानसानात्मनः समान् । सनन्दं सनकं चैव विद्वांसञ्च सनातनम् ॥ १९ ॥ ऋभुं सनत्कुमारं च पूर्वमेव प्रजापतिः । सर्वे ते योगिनो ज्ञेया वीतरागा विमत्सराः ॥ २० ॥ ईश्वरासक्तमनसो न चक्रुः सृष्टये मतिम् । इसके अनन्तर प्रजापति ब्रह्माने सर्वप्रथम अपने ही समान मानसपुत्रों सनन्दन, सनक, विद्वान् सनातन, ऋभु और सनत्कुमारको उत्पन्न किया । उन सभीको योगी, वीतराग तथा अभिमानरहित जानना चाहिये । ईश्वरमें आसक्त मनवाले उन सबका मन सृष्टिकार्यमें नहीं लगा ॥ १९-२०१/२ ॥ तेषु सृष्ट्यनपेक्षेषु गतेषु सनकादिषु ॥ २१ ॥ स्रष्टुकामः पुनर्ब्रह्मा तताप परमं तपः । तस्यैवं तप्यमानस्य न किंचित्समवर्त्तत ॥ २२ ॥ ततो दीर्घेण कालेन दुःखात्क्रोधो व्यजायत । सृष्टिकी अपेक्षासे रहित उन सनक आदिके चले जानेपर सृष्टि करनेकी इच्छावाले ब्रह्माने महान् तप किया । इस प्रकार बहुत समयतक तप करते हुए ब्रह्माको जब कोई भी फल नहीं मिला, तब दुःखके कारण उन्हें क्रोध उत्पन्न हुआ ॥ २१-२२१/२ ॥ क्रोधाविष्टस्य नेत्राभ्यां प्रापतन्नश्रुबिन्दवः ॥ २३ ॥ ततस्तेभ्योऽश्रुबिन्दुभ्यो भूताः प्रेतास्तदाभवन् । सर्वांस्तानश्रुजान्दृष्ट्वा ब्रह्मात्मानमनिन्दत ॥ २४ ॥ तस्य तीव्राऽभवन्मूर्छा क्रोधामर्षसमुद्भवा । मूर्छितस्तु जहौ प्राणान्क्रोधाविष्टः प्रजापतिः ॥ २५ ॥ क्रोधसे आविष्ट उन ब्रह्माके नेत्रोंसे आँसूकी बूंदें गिरने लगीं, तब उन आँसूकी बूंदोंसे भूत-प्रेत उत्पन्न हुए । अपने आँसुओंसे उत्पन्न उन सभीको देखकर ब्रह्मदेवने अपनी निन्दा की । उस समय क्रोध और अमर्षके कारण उनको तीव्र मूर्छा आ गयी और मूछित तथा क्रोधाविष्ट प्रजापतिने अपने प्राण त्याग दिये ॥ २३-२५ ॥ ततः प्राणेश्वरो रुद्रो भगवान्नीललोहितः । प्रसादमतुलं कर्तुं प्रादुरासीत्प्रभोर्मुखात् ॥ २६ ॥ दशधा चैकधा चक्रे स्वात्मानं प्रभुरीश्वरः । ते तेनोक्ता महात्मानो दशधा चैकधा कृताः ॥ २७ ॥ यूयं सृष्टा मया वत्सा लोकानुग्रहकारणात् । तस्मात्सर्वस्य लोकस्य स्थापनाय हिताय च ॥ २८ ॥ प्रजासन्तानहेतोश्च प्रयतध्वमतन्द्रिताः । तब प्राणोंके अधिष्ठाता भगवान् नीललोहित रुद्र उनपर असीम कृपा करनेके लिये उन प्रभु ब्रह्माजीके मुखसे प्रकट हुए । उत्पन्न होकर उन सामर्थ्यशाली रुद्रने स्वयंको ग्यारह भागोंमें विभक्त कर लिया । तत्पश्चात् भगवान् शिवने उन एकादश रुद्रोंसे कहा-हे पुत्रो ! मैंने लोकके कल्याणके लिये तुमलोगोंकी सृष्टि की है, अतः तुमलोग समस्त लोकोंकी स्थापना, उनके कल्याण तथा प्रजासन्तानकी वृद्धिके लिये आलस्यरहित होकर प्रयत्न करो ॥ २६-२८-१/२ ॥ एवमुक्ताश्च रुरुदुर्दुद्रुवुश्च समन्ततः ॥ २९ ॥ रोदनाद् द्रावणाच्चैव ते रुद्रा नामतः स्मृताः । ये रुद्रास्ते खलु प्राणा ये प्राणास्ते महात्मकाः ॥ ३० ॥ तब इस प्रकार कहे गये वे सभी रुद्र रोने लगे और चारों ओर भागने लगे । रुदन करने और भागनेके कारण वे रुद्र नामसे प्रसिद्ध हुए । जो रुद्र हैं, वे ही प्राण हैं, जो प्राण हैं, वे ही महामना रुद्र हैं ॥ २९-३० ॥ ततो मृतस्य देवस्य ब्रह्मणः परमेष्ठिनः । घृणी ददौ पुनः प्राणान् ब्रह्मपुत्रो महेश्वरः ॥ ३१ ॥ इसके पश्चात् दयालु ब्रह्मपुत्र महेश्वरने मरे हुए परमेष्ठी ब्रह्मदेवको पुनः प्राण प्रदान किये ॥ ३१ ॥ प्रहृष्टवदनो रुद्रः प्राणप्रत्यागमाद्विभोः । अभ्यभाषत विश्वेशो ब्रह्माणं परमं वचः ॥ ३२ ॥ मा भैर्माभैर्महाभाग विरिञ्चे जगतां गुरो । मया ते प्राणिताः प्राणाः सुखमुत्तिष्ठ सुव्रत ॥ ३३ ॥ ब्रह्माजीके शरीरमें पुनः प्राणसंचार हो जानेसे प्रसन्नमुखवाले विश्वेश्वर रुद्र ब्रह्माजीसे उत्तम वचन कहने लगे-हे विरिचे ! हे जगद्गुरो ! हे महाभाग ! भय मत कीजिये, भय मत कीजिये । हे सुव्रत ! मैंने आपको प्राणदान दिया है, अत: सुखपूर्वक उठिये ॥ ३२-३३ ॥ स्वप्नानुभूतमिव तच्छ्रुत्वा वाक्यं मनोहरम् । हरं निरीक्ष्य शनकैर्नेत्रैः फुल्लाम्बुजप्रभैः ॥ ३४ ॥ तथा प्रत्यागतप्राणः स्निग्धगम्भीरया गिरा । उवाच वचनं ब्रह्मा तमुद्दिश्य कृताञ्जलिः ॥ ३५ ॥ त्वं हि दर्शनमात्रेण चानन्दयसि मे मनः । को भवान् विश्वमूर्त्या वा स्थित एकादशात्मकः ॥ ३६ ॥ इसके पश्चात् स्वप्नके अनुभवके समान उस मनोहर वाक्यको सुनकर विकसित कमलके समान नेत्रोंसे शिवजीकी ओर धीरे-धीरे देख करके लौटे हुए प्राणवाले ब्रह्मदेवने हाथ जोड़कर उन्हें उद्देश्य करके कोमल तथा गम्भीर वाणीमें कहा-आप अपने दर्शनमात्रसे मेरे मनको आह्लादित कर रहे हैं । आप कौन हैं, जो सम्पूर्ण जगत्के रूपमें स्थित हैं, क्या वे ही भगवान् आप ग्यारह रूपोंमें प्रकट हुए हैं ? ॥ ३४-३६ ॥ तस्य तद्वचनं श्रुत्वा व्याजहार महेश्वरः । स्पृशन् काराभ्यां ब्रह्माणं सुसुखाभ्यां सुरेश्वरः ॥ ३७ ॥ मां विद्धि परमात्मानं तव पुत्रत्वमागतम् । एते चैकादश रुद्रास्त्वां सुरक्षितुमागताः ॥ ३८ ॥ तस्मात्तीव्रामिमां मूर्छां विधूय मदनुग्रहात् । प्रबुद्धस्व यथापूर्वं प्रजा वै स्रष्टुमर्हसि ॥ ३९ ॥ उनके उस वचनको सुनकर देवताओंके स्वामी महेश्वरने अपने परम सुखद हाथोंसे ब्रह्माजीका स्पर्श करते हुए कहा- मुझ परमात्माको अपने पुत्ररूपमें आया हुआ समझिये और ये एकादश रुद्र आपकी रक्षाहेतु यहाँ आये हैं । अतः मेरे अनुग्रहसे इस तीव्र मूछाका त्याग करके जागिये और पूर्वकी भाँति प्रजाओंकी सृष्टि कीजिये ॥ ३७-३९ ॥ एवं भगवता प्रोक्तो ब्रह्मा प्रीतमना ह्यभूत् । नानाष्टकेन विश्वात्मा तुष्टाव परमेश्वरम् ॥ ४० ॥ भगवान् शंकरके ऐसा कहनेपर विश्वात्मा ब्रह्मा प्रसन्नचित्त हो गये और आठ नामों [-वाले स्तोत्र]से परमेश्वरकी स्तुति करने लगे ॥ ४० ॥ ब्रह्मोवाच नमस्ते भगवन् रुद्र भास्करामिततेजसे । नमो भवाय देवाय रसायाम्बुमयात्मने । शर्वाय क्षितिरूपाय नन्दीसुरभये नमः ॥ ४१ ॥ ईशाय वसवे तुभ्यं नमः स्पर्शमयात्मने । पशूनां पतये चैव पावकायातितेजसे । भीमाय व्योमरूपाय शब्दमात्राय ते नमः ॥ ४२ ॥ उग्रायोग्रस्वरूपाय यजमानात्मने नमः । महादेवाय सोमाय नमोऽस्त्वमृतमूर्तये ॥ ४३ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे भगवन् ! रुद्र ! अमित तेजस्वी, सूर्यमूर्ति आप ईशानको नमस्कार है । रसस्वरूप जलमय विग्रहवाले आप भवदेवताको नमस्कार है । सर्वदा गन्ध गुणसे समन्वित पृथ्वीरूपधारी आप शर्वको नमस्कार है । स्पर्शमय वसु [वायु]-रूपधारी, उग्रस्वरूप आप उग्रको नमस्कार है । यजमानमूर्ति आप पशुपतिको नमस्कार है । अतीव तेजोमय अग्निमूर्ति आप रुद्रको नमस्कार है । शब्दतन्मात्रासे युक्त आकाशमूर्ति आप भीमको नमस्कार है । सोमस्वरूप अमृतमूर्ति आप महादेव शिवजीको नमस्कार है ॥ ४१-४३ ॥ एवं स्तुत्वा महादेवं ब्रह्मा लोकपितामहः । प्रार्थयामास विश्वेशं गिरा प्रणतिपूर्वया ॥ ४४ ॥ भगवन् भूतभव्येश मम पुत्र महेश्वर । सृष्टिहेतोस्त्वमुत्पन्नो ममाङ्गेऽनङ्गनाशनः ॥ ४५ ॥ तस्मान्महति कार्येऽस्मिन् व्यापृतस्य जगत्प्रभो । सहायं कुरु सर्वत्र स्रष्टुमर्हसि सुप्रजाः ॥ ४६ ॥ इस प्रकार लोकपितामह ब्रह्मा विश्वेश्वर महादेवकी स्तुतिकर अत्यन्त विनीत वाणीसे उनकी प्रार्थना करने लगे । हे भगवन् ! हे भूतभव्येश ! हे मेरे पुत्र महेश्वर ! हे कामनाशक ! आप सृष्टिके निमित्त मेरे शरीरसे उत्पन्न हुए हैं । हे जगत्प्रभो ! इस महान् कार्यमें संलग्न मेरी सभी जगह श्रेष्ठ सहायता कीजिये और श्रेष्ठ प्रजाओंकी सृष्टि कीजिये ॥ ४४-४६ ॥ तेनैवं प्रार्थितो देवो रुद्रस्त्रिपुरमर्दनः । बाढमित्येव तां वाणीं प्रतिजग्राह शङ्करः ॥ ४७ ॥ ततः स भगवान् ब्रह्मा हृष्टं तमभिनन्द्य च । स्रष्टुं तेनाभ्यनुज्ञातस्तथान्याश्चासृजत्प्रजाः ॥ ४८ ॥ उनके द्वारा इस प्रकार प्रार्थित हुए त्रिपुरमर्दन शंकर रुद्रदेवने 'ठीक है'-ऐसा कहकर उनकी बात स्वीकार कर ली । इसके पश्चात् भगवान् ब्रह्मदेव उन हर्षित रुद्रका अभिनन्दन करके सृष्टि करनेके लिये उनकी आज्ञा लेकर अन्य प्रजाओंकी रचना करने लगे ॥ ४७-४८ ॥ मरीचिभृग्वङ्गिरसः पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम् । दक्षमत्रिं वसिष्ठं च सोऽसृजन्मनसैव च । पुरस्तादसृजद् ब्रह्मा धर्मं संकल्पमेव च ॥ ४९ ॥ ब्रह्माने मरीचि, भृगु, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, दक्ष, अत्रि, वसिष्ठको अपने मनसे उत्पन्न किया, फिर उन्होंने धर्म तथा संकल्पकी रचना की ॥ ४९ ॥ इत्येते ब्रह्मणः पुत्रा द्वादशादौ प्रकीर्तिताः । सह रुद्रेण संभूताः पुराणा गृहमेधिनः ॥ ५० ॥ सबसे पहले ब्रह्माजीके ये बारह पुत्र कहे गये हैं । ये सभी पुराणपुरुष और गृहस्थधर्मका पालन करनेवाले हैं, जो रुद्रके साथ उत्पन्न हुए हैं ॥ ५० ॥ तेषां द्वादश वंशाः स्युर्दिव्या देवगणान्विताः । प्रजावन्तः क्रियावन्तो महर्षिभिरलङ्कृताः ॥ ५१ ॥ अथ देवासुरान् पितॄन् मनुष्यांश्च चतुष्टयम् । सह रुद्रेण सिसृक्षुरंभस्येतानि वै विधिः ॥ ५२ ॥ देवगणोंसहित इनके बारह दिव्य वंश कहे गये हैं । वे सभी प्रजावान्, क्रियावान् तथा महर्षियोंसे विभूषित हैं । तत्पश्चात् जलमें स्थित हुए रुद्रसहित ब्रह्माजीने देवता, असुर, पितर तथा मनुष्य-इन चारोंको रचनेकी इच्छा की ॥ ५१-५२ ॥ स सृष्ट्यर्थं समाधाय ब्रह्मात्मानमयूयुजत् । मुखादजनयद्देवान् पितॄंश्चैवोपपक्षतः ॥ ५३ ॥ जघनादसुरान् सर्वान् प्रजनादपि मानुषान् । अवस्करे क्षुधाविष्टा राक्षसास्तस्य जज्ञिरे ॥ ५४ ॥ पुत्रास्तमोरजःप्राया बलिनस्ते निशाचराः । सर्पा यक्षास्तथा भूता गन्धर्वाः संप्रजज्ञिरे ॥ ५५ ॥ अतः सृष्टिके लिये ब्रह्माजीने समाधिस्थ होकर चित्तको एकाग्र किया । उन्होंने अपने मुखसे देवगणोंको, कक्षसे पितरोंको, जघनदेशसे सभी असुरोंको तथा शिश्नभागसे मनुष्योंको उत्पन्न किया । उनके गुदास्थानसे भूखे राक्षस उत्पन्न हुए । उनके वे पुत्र तमोगुण तथा रजोगुणसे समन्वित महाबली निशाचर हुए । इसी प्रकार सर्प, यक्ष, भूत तथा गन्धर्व उत्पन्न हुए । ५३-५५ ॥ वयांसि पक्षतः सृष्टाः पक्षिणो वक्षसोऽसृजत् । मुखतोऽजांस्तथा पार्श्वादुरगांश्च विनिर्ममे ॥ ५६ ॥ पद्भ्यां चाश्वान्समातङ्गान् शरभान् गवयान् मृगान् । उष्ट्रानश्वतरांश्चैव न्यङ्कूनन्याश्च जातयः ॥ ५७ ॥ उन्होंने पक्षभागसे शब्द करनेवाले पक्षियोंको तथा अन्य पक्षियोंको छातीसे उत्पन्न किया, मुखसे अजोंको तथा पार्श्वस्थानसे सर्पोको उत्पन्न किया । उन्होंने पैरसे घोड़े, हाथी, शरभ, गवय, मृग, ऊँट, खच्चर, बारहसिंघा तथा अन्य पशु जातियोंको उत्पन्न किया ॥ ५६-५७ ॥ औषध्यः फलमूलानि रोमभ्यस्तस्य जज्ञिरे । गायत्रीं च ऋचं चैव त्रिवृत्साम रथन्तरम् ॥ ५८ ॥ अग्निष्टोमं च यज्ञानां निर्ममे प्रथमान्मुखात् । यजूंषि त्रैष्टुभं छन्दः स्तोमं पञ्चदशं तथा ॥ ५९ ॥ बृहत्साम तथोक्थं च दक्षिणादसृजन्मुखात् । सामानि जगतीछन्दः स्तोमं सप्तदशं तथा ॥ ६० ॥ वैरूप्यमतिरात्रं च पश्चिमादसृजन् मुखात् । एकविंशमथर्वाणमाप्तोर्यामाणमेव च ॥ ६१ ॥ अनुष्टुभं स वैराजमुत्तरादसृजन्मुखात् । उच्चावचानि भूतानि गात्रेभ्यस्तस्य जज्ञिरे ॥ ६२ ॥ रोमावलियोंसे ओषधियों और फल-मूलोंका प्राकट्य हुआ । ब्रह्माजीके पूर्ववर्ती मुखसे गायत्री छन्द, ऋग्वेद, त्रिवृत् स्तोम, रथन्तर साम तथा अग्निष्टोम नामक यज्ञकी उत्पत्ति हुई । उनके दक्षिण मुखसे यजुर्वेद, त्रिष्टुप् छन्द, पंचदश स्तोम,बृहत्साम और उक्थ नामक यज्ञकी उत्पत्ति हुई । उन्होंने अपने पश्चिम मुखसे सामवेद, जगती छन्द, सप्तदश स्तोम,वैरूप्य साम और अतिरात्र नामक यज्ञको प्रकट किया । उनके उत्तरवर्ती मुखसे एकविंश स्तोम, अथर्ववेद, आप्तोर्याम नामक याग, अनुष्टुप्छन्द और वैराज नामक सामका प्रादुर्भाव हुआ । उनके अंगोंसे और भी बहुत-से छोटे-बड़े प्राणी उत्पन्न हुए । ५८-६२ ॥ यक्षाः पिशाचा गन्धर्वास्तथैवाप्सरसां गणाः । नरकिन्नररक्षांसि वयः पशुमृगोरगाः ॥ ६३ ॥ अव्ययं चैव यदिदं स्थाणुं स्थावरजङ्गमम् । तेषां वै यानि कर्माणि प्राक्सृष्टानि प्रपेदिरे ॥ ६४ ॥ तान्येव ते प्रपद्यन्ते सृज्यमानाः पुनः पुनः । हिंस्राहिंस्रे मृदु क्रूरे धर्माधर्मावृतानृते ॥ ६५ ॥ तद्भाविताः प्रपद्यन्ते तस्मात्तत्तस्य रोचते । उन्होंने यक्ष, पिशाच, गन्धर्व, अप्सराओंके समुदाय, मनुष्य, किंनर, राक्षस, पक्षी, पशु, मृग और सर्प आदि सम्पूर्ण नित्य एवं अनित्य स्थावर-जंगम जगत्की रचना की । उनमेंसे जिन्होंने जैसे-जैसे कर्म पूर्वकल्पोंमें अपनाये थे, पुन: पुन: सृष्टि होनेपर उन्होंने फिर उन्हीं कर्मोको अपनाया । [नूतन सृष्टि होनेपर भी वे प्राणी] अपनी पूर्वभावनासे भावित होकर हिंसा-अहिंसासे युक्त मृदुकठोर, धर्म-अधर्म तथा सत्य और मिथ्या कर्मको अपनाते हैं । क्योंकि पहलेकी वासनाके अनुकूल कर्म ही उन्हें अच्छे लगते हैं ॥ ६३-६५-१/२ ॥ महाभूतेषु नानात्वमिन्द्रियार्थेषु मुक्तिषु ॥ ६६ ॥ विनियोगं च भूतानां धातैव व्यदधत्स्वयम् । नामरूपं च भूतानां प्राकृतानां प्रपञ्चनम् ॥ ६७ ॥ वेदशब्देभ्य एवादौ निर्ममेऽसौ पितामहः । आर्षाणि चैव नामानि याश्च वेदेषु वृत्तयः ॥ ६८ ॥ इस प्रकार विधाताने ही स्वयं इन्द्रियोंके विषय, भूत और शरीर आदिमें विभिन्नता एवं व्यवहारकी सृष्टि की है । उन पितामहने कल्पके आरम्भमें देवता आदि प्राणियोंके नाम, रूप तथा कार्य-विस्तारको वेदोक्त वर्णनके अनुसार ही निश्चित किया । ऋषियोंके नाम तथा जीविका-साधक कर्म भी उन्होंने वेदोंके अनुसार ही निर्दिष्ट किये ॥ ६६-६८ ॥ शर्वर्यन्ते प्रसूतानां तान्येवैभ्यो ददावजः । यथर्तावृतुलिङ्गानि नानारूपाणि पर्यये ॥ ६९ ॥ दृश्यन्ते तानि तान्येव तथा भावा युगादिषु । इत्येष कारणोद्भूतो लोकसर्गः स्वयंभुवः ॥ ७० ॥ अपनी रात्रिके व्यतीत होनेपर अजन्मा ब्रह्माने स्वरचित प्राणियोंको वे ही नाम और कर्म दिये, जो पूर्वकल्पमें उन्हें प्राप्त थे । जिस प्रकार भिन्न-भिन्न ऋतुओंके पुनः पुनः आनेपर उनके चिहल और नाम-रूप आदि पूर्ववत् रहते हैं, उसी प्रकार युगादिकालमें भी उनके पूर्वभाव ही दृष्टिगोचर होते हैं । इस प्रकार स्वयम्भू ब्रह्माजीकी लोकसृष्टि उन्हींके विभिन्न अंगोंसे प्रकट हुई है । ६९-७० ॥ महदाद्यो विशेषान्तो विकारः प्रकृतेः स्वयम् । चन्द्रसूर्यप्रभाजुष्टो ग्रहनक्षत्रमण्डितः ॥ ७१ ॥ नदीभिश्च समुद्रैश्च पर्वतैश्च स मण्डितः । परैश्च विविधै रम्यैः स्फीतैर्जनपदैस्तथा ॥ ७२ ॥ महत्से लेकर विशेषपर्यन्त सब कुछ प्रकृतिका विकार है । यह प्राकृत जगत् चन्द्रमा और सूर्यकी प्रभासे उद्भासित, ग्रह और नक्षत्रोंसे मण्डित, नदियों, पर्वतों तथा समुद्रोंसे अलंकृत और भाँति-भौतिके रमणीय नगरों एवं समृद्धिशाली जनपदोंसे सुशोभित है । [इसीको ब्रह्माजीका वन या ब्रह्मवृक्ष कहते हैं] ॥ ७१-७२ ॥ तस्मिन् ब्रह्मवनेऽव्यक्तो ब्रह्मा चरति सर्ववित् । अव्यक्तबीजप्रभव ईश्वरानुग्रहे स्थितः ॥ ७३ ॥ बुद्धिस्कन्धमहाशाख इन्द्रियान्तरकोटरः । महाभूतप्रमाणश्च विशेषामलपल्लवः ॥ ७४ ॥ धर्माधर्मसुपुष्पाढ्यः सुखदुःखफलोदयः । आजीव्यः सर्वभूतानां ब्रह्मवृक्षः सनातनः ॥ ७५ ॥ उस ब्रह्मवनमें अव्यक्त एवं सर्वज्ञ ब्रह्मा विचरते हैं । वह सनातन ब्रह्मवृक्ष अव्यक्तरूपी बीजसे प्रकट एवं ईश्वरके अनुग्रहपर स्थित है । बुद्धि इसका तना और बड़ी-बड़ी डालियाँ है । इन्द्रियाँ भीतरके खोखले हैं । महाभूत इसकी सीमा हैं । विशेष पदार्थ इसके निर्मल पत्ते हैं । धर्म और अधर्म इसके सुन्दर फूल हैं । इसमें सुख और दुःखरूपी फल लगते हैं तथा यह सम्पूर्ण भूतोंके जीवनका सहारा है ॥ ७३-७५ ॥ द्यां मूर्धानं तस्य विप्रा वदन्ति खं वै नाभिं चन्द्रसूर्यौ च नेत्रे । दिशः श्रोत्रे चरणौ च क्षितिं च सोऽचिन्त्यात्मा सर्वभूतप्रणेता ॥ ७६ ॥ वक्त्रात्तस्य ब्रह्मणाः संप्रसूताः तद्वक्षसः क्षत्रियाः पूर्वभागात् । वैश्या उरुभ्यां तस्य पद्भ्यां च शूद्राः सर्वे वर्णा गात्रतः संप्रसूताः ॥ ७७ ॥ ब्राह्मणलोग घुलोकको उनका मस्तक, आकाशको नाभि, चन्द्रमा और सूर्यको नेत्र, दिशाओंको कान और पृथ्वीको उनके पैर बताते हैं । वे अचिन्त्यस्वरूप महेश्वर ही सब भूतोंके निर्माता हैं । उनके मुखसे ब्राह्मण प्रकट हुए हैं । वक्षःस्थलके ऊपरी भागसे क्षत्रियोंकी उत्पत्ति हुई है, दोनों जाँघोंसे वैश्य और पैरोंसे शूद्र उत्पन्न हुए हैं । इस प्रकार उनके अंगोंसे ही सम्पूर्ण वर्णोंका प्रादुर्भाव हुआ है । । ७६-७७ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां पूर्वखण्डे सृष्टिवर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें सृष्टिवर्णन नामक बारहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १२ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |