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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
वायवीयसंहिता
॥ पञ्चदशोऽध्यायः ॥ शिवशिवास्तुतिवर्णनम्
अर्धनारीश्वररूपमें प्रकट शिवकी ब्रह्माजीद्वारा स्तुति वायुरुवाच यदा पुनः प्रजाः सृष्टा न व्यवर्धन्त वेधसः । तदा मैथुनजां सृष्टिं ब्रह्मा कर्तुममन्यत ॥ १ ॥ न निर्गतं पुरा यस्मान्नारीणां कुलमीश्वरात् । तेन मैथुनजां सृष्टिं न शशाक पितामहः ॥ २ ॥ वायुदेव बोले-जब ब्रह्माजीद्वारा रची गयी प्रजाओंका पुन: विस्तार नहीं हुआ, तब ब्रह्माजीने मैथुनी सृष्टि करनेका विचार किया । पूर्व समयमें तबतक स्त्रियोंका कुल ईश्वरसे उत्पन्न नहीं हुआ था, इस कारणसे ब्रह्माजी मैथुनी सृष्टि नहीं कर सके ॥ १-२ ॥ ततः स विदधे बुद्धिमर्थनिश्चयगामिनीम् । प्रजानमेव वृद्ध्यर्थं प्रष्टव्यः परमेश्वर ॥ ३ ॥ प्रसादेन विना तस्य न वर्धेरन्निमाः प्रजाः । एवं संचिन्त्य विश्वात्मा तपः कर्तुं प्रचक्रमे ॥ ४ ॥ उसके बाद ब्रह्माजीको अपना कार्य सिद्ध करनेवाली बुद्धि उत्पन्न हुई कि प्रजाओंकी वृद्धिके लिये परमेश्वरसे पूछना चाहिये; क्योंकि उनके अनुग्रहके बिना इन प्रजाओंकी वृद्धि नहीं हो सकती-ऐसा विचारकर विश्वात्मा ब्रह्माजीने तप करनेका निश्चय किया ॥ ३-४ ॥ तदाद्या परमा शक्तिरनन्ता लोकभाविनी । आद्या सूक्ष्मतरा शुद्धा भावगम्या मनोहरा ॥ ५ ॥ निर्गुणा निष्प्रपञ्चा च निष्कला निरुपप्लवा । निरन्तररता नित्या नित्यमीश्वरपार्श्वगा ॥ ६ ॥ तया परमया शक्त्या भगवन्तं त्रियम्बकम् । संचिन्त्य हृदये ब्रह्मा तताप परमं तपः ॥ ७ ॥ तब जो आद्या, अनन्ता, लोकभाविनी, आदिशक्ति, अत्यन्त सूक्ष्म, शुद्ध, भावगम्य, मनोहर, निर्गुण, प्रपंचरहित, निष्कल, उपद्रवरहित, सदा तत्पर रहनेवाली, नित्य तथा सर्वदा ईश्वरके पास रहनेवाली हैं, उन परम शक्तिसे संवलित भगवान् शिवका मनमें चिन्तन करके ब्रह्माजी कठोर तप करने लगे ॥ ५-७ ॥ तीव्रेण तपसा तस्य युक्तस्य परमेष्ठिनः । अचिरेणैव कालेन पिता संप्रतुतोष ह ॥ ८ ॥ ततः केनचिदंशेन मूर्तिमाविश्य कामपि । अर्धनारीश्वरो भूत्वा ययौ देवः स्वयं हरः ॥ ९ ॥ तब कठोर तपमें लीन उन ब्रह्मापर शिवजी थोड़े ही समयमें सन्तुष्ट हो गये । इसके बाद अपने अनिर्वचनीय अंशसे किसी अद्भुत मूर्ति में प्रविष्ट हो अर्धनारीश्वररूप धारणकर शिवजी स्वयं ब्रह्माजीके समीप गये ॥ ८-९ ॥ तं दृष्ट्वा परमं देवं तमसः परमव्ययम् । अद्वितीयमनिर्देश्यमदृश्यमकृतात्मभिः॥ १० ॥ सर्वलोकविधातारं सर्वलोकेश्वरेश्वरम् । सर्वलोकविधायिन्या शक्त्या परमया युतम् ॥ ११ ॥ अप्रतर्क्यमनाभासममेयमजरं ध्रुवम् । अचलं निर्गुणं शान्तमनन्तमहिमास्पदम् ॥ १२ ॥ सर्वगं सर्वदं सर्वसदसद्व्यक्तिवर्जितम् । सर्वोपमाननिर्मुक्तं शरण्यं शाश्वतं शिवम् ॥ १३ ॥ प्रणम्य दण्डवद् ब्रह्मा समुत्थाय कृताञ्जलिः । श्रद्धाविनयसंपन्नैः श्राव्यैः संस्करसंयुतैः ॥ १४ ॥ यथार्थयुक्तसर्वार्थैर्वेदार्थपरिबृंहितैः । तुष्टाव देवं देवीं च सूक्तैः सूक्ष्मार्थगोचरैः ॥ १५ ॥ तमसे परे, अविनाशी, अद्वितीय, अनिर्देश्य, पापियोंके लिये अदृश्य, सभी लोकॉके विधाता, सभी लोकोंके ईश्वरके भी ईश्वर, सर्वलोकविधायिनी परम शक्तिसे समन्वित, अप्रतयं, प्रत्यक्षके अविषय, अप्रमेय, अजर, ध्रुव, अचल, निर्गुण, शान्त, अनन्त महिमासे युक्त, सर्वगामी, सर्वदाता, सत्-असत् अभिव्यक्तिसे रहित, सभी उपमानोंसे रहित, शरण्य तथा शाश्वत उन परमदेव शिवजीको ब्रह्माजीने देखा, [तब वे] उठकर हाथ जोड़कर दण्डवत् प्रणाम करके श्रद्धा-विनयसे सम्पन्न, सुनानेयोग्य, संस्कार तथा यथार्थतासे युक्त, सम्पूर्ण अर्थोंसे समन्वित, वेदार्थसे परिबंहित, सूक्ष्म अर्थोंसे परिपूर्ण सूक्तोंसे शिव तथा पार्वतीकी स्तुति करने लगे ॥ १०-१५ ॥ ब्रह्मोवाच जय देव महादेव जयेश्वर महेश्वर । जय सर्वगुण श्रेष्ठ जय सर्वसुराधिप ॥ १६ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे देव ! आपकी जय हो, हे महादेव ! आपकी जय हो । हे ईश्वर ! हे महेश्वर ! आपकी जय हो, सर्वगुणश्रेष्ठ ! आपकी जय हो, हे सभी देवताओंके अधीश्वर ! आपकी जय हो ॥ १६ ॥ जय प्रकृति कल्याणि जय प्रकृतिनायिके । जय प्रकृतिदूरे त्वं जय प्रकृतिसुन्दरि ॥ १७ ॥ हे प्रकृतिकल्याणि ! आपकी जय हो, हे प्रकृतिनायिके ! आपकी जय हो । हे प्रकृतिदूरे ! आपकी जय हो, हे प्रकृतिसुन्दरि ! आपकी जय हो ॥ १७ ॥ जयामोघमहामाय जयामोघ मनोरथ । जयामोघमहालील जयामोघमहाबल ॥ १८ ॥ जय विश्वजगन्मातर्जय विश्वजगन्मये । जय विश्वजगद्धात्रि जय विश्वजगत्सखि ॥ १९ ॥ जय शाश्वतिकैश्वर्ये जय शाश्वतिकालय । जय शाश्वतिकाकार जय शाश्वतिकानुग ॥ २० ॥ हे अमोघ महामायावाले ! आपकी जय हो, हे अमोघ मनोरथवाले ! आपकी जय हो । हे अमोघ महालीला करनेवाले ! आपकी जय हो । हे अमोष महाबलवाले ! आपकी जय हो । हे विश्वजगन्मातः ! आपकी जय हो, हे विश्वजगन्मयि ! आपकी जय हो । हे विश्वजगद्धात्रि ! आपकी जय हो, हे विश्वजगत्सखि ! आपकी जय हो । हे शाश्वत ऐश्वर्यवाले ! आपकी जय हो । हे शाश्वतस्थानवाले ! आपकी जय हो, हे शाश्वत आकारवाले ! आपकी जय हो । हे शाश्वत अनुगमन किये जानेवाले ! आपकी जय हो ॥ १८-२० ॥ जयात्मत्रयनिर्मात्रि जयात्मत्रयपालिनि । जयात्मत्रयसंहर्त्रि जयात्मत्रयनायिके ॥ २१ ॥ जयावलोकनायत्त जगत्कारणबृंहण । जयोपेक्षाकटाक्षोत्थहुतभुग्भुक्तभौतिक ॥ २२ ॥ [ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वररूप] तीनों आत्माओंका निर्माण करनेवाली ! आपकी जय हो, तीनों आत्माओंका पालन करनेवाली ! आपकी जय हो, तीनों आत्माओंका संहार करनेवाली ! आपकी जय हो, तीनों आत्माओंकी नायिकारूपिणि ! आपकी जय हो । अपने अवलोकनमात्रसे जगत्कार्यक कारणभूत [अव्यक्तादिका] उपबृंहण (विस्तार) करनेवाले ! आपकी जय हो, उपेक्षापूर्वक अपने कटाक्षोंसे उत्पन्न अग्निद्वारा [प्रलयकालमें] समस्त भौतिक पदार्थोंको भस्म करनेवाले ! आपकी जय हो ॥ २१-२२ ॥ जय देवाद्यविज्ञेये स्वात्मसूक्ष्मदृशोज्ज्वले । जय स्थूलात्मशक्त्येशेजय व्याप्तचराचरे ॥ २३ ॥ हे देवता आदिसे भी ज्ञात न होनेवाली ! हे आत्मतत्त्वके सूक्ष्म विज्ञानसे प्रकाशित होनेवाली ! आपकी जय हो । हे स्थूल आत्मशक्तिसे जगत्को नियन्त्रित करनेवाली ! आपकी जय हो । हे [अपने स्वरूपसे] चराचरको व्याप्त करनेवाली ! आपकी जय हो ॥ २३ ॥ जय नामैकविन्यस्तविश्वतत्त्वसमुच्चय । जयासुरशिरोनिष्ठ श्रेष्ठानुगकदंबक ॥ २४ ॥ जयोपाश्रितसंरक्षासंविधानपटीयसि । जयोन्मूलितसंसारविषवृक्षाङ्कुरोद्गमे ॥ २५ ॥ सारे ब्रह्माण्डके तत्त्वसमुच्चयको अनेक तथा एक रूप होकर धारण करनेवाले ! आपकी जय हो । असुरोंके मस्तकोंपर [मानो] आरूढ़ हुए उत्तम भक्तवृन्दवाले ! आपकी जय हो । अपनी उपासना करनेवाले भक्तोंकी रक्षामें अतिशय सामर्थ्यवाली ! आपकी जय हो । संसाररूपी विषवृक्षके उगनेवाले अंकुरोंका उन्मूलन करनेवाली ! आपकी जय हो ॥ २४-२५ ॥ जय प्रादेशिकैश्वर्यवीर्यशौर्यविजृम्भण । जय विश्वबहिर्भूत निरस्तपरवैभव ॥ २६ ॥ जय प्रणीतपञ्चार्थप्रयोगपरमामृत । जय पञ्चार्थविज्ञानसुधास्तोत्रस्वरूपिणि ॥ २७ ॥ अपने भक्तजनोंके ऐश्वर्य, वीर्य तथा शौर्यको विकसित करनेवाले ! आपकी जय हो । विश्वसे बहिर्भूत तथा अपने वैभवसे दूसरोंके वैभवोंको तिरस्कृत करनेवाले ! आपकी जय हो । पंचविध मोक्षरूप पुरुषार्थके प्रयोगद्वारा परमानन्दमय अमृतकी प्राप्ति करानेवाले ! आपकी जय हो । पंचविध पुरुषार्थके विज्ञानरूपी अमृतकी स्रोतस्वरूपिणि ! आपकी जय हो ॥ २६-२७ ॥ जयातिघोरसंसारमहारोगभिषग्वर । जयानादिमलाज्ञानतमःपटलचन्द्रिके ॥ २८ ॥ जय त्रिपुरकालाग्ने जय त्रिपुरभैरवि । जय त्रिगुणनिर्मुक्ते जय त्रिगुणमर्दिनि ॥ २९ ॥ अत्यन्त घोर संसाररूपी महारोगको दूर करनेवाले श्रेष्ठ वैद्य ! आपकी जय हो । अनादिकालसे होनेवाले पाप-अज्ञानरूपी अन्धकारको हरण करनेके लिये चन्द्रिकारूपिणि ! आपकी जय हो । हे त्रिपुरका विनाश करनेके लिये कालाग्निस्वरूप ! आपकी जय हो । हे त्रिपुरभैरवि ! आपकी जय हो । हे त्रिगुणनिर्मुक्ते ! आपकी जय हो, हे त्रिगुणमर्दिनि ! आपकी जय हो ॥ २८-२९ ॥ जय प्रथमसर्वज्ञ जय सर्वप्रबोधिके । जय प्रचुरदिव्याङ्ग जय प्रार्थितदायिनि ॥ ३० ॥ हे आदि सर्वज्ञ ! आपकी जय हो, हे सर्वप्रबोधिके ! आपकी जय हो, आपकी जय हो । हे अत्यन्त मनोहर अंगोंवाले ! आपकी जय हो, हे प्रार्थित वस्तु प्रदान करनेवाली ! आपकी जय हो ॥ ३० ॥ क्व देव ते परं धाम क्व च तुच्छं च नो वचः । तथापि भगवन् भक्त्या प्रलपन्तं क्षमस्व माम् ॥ ३१ ॥ विज्ञाप्यैवंविधैः सूक्तैर्विश्वकर्मा चतुर्मुखः । नमश्चकार रुद्राय रद्राण्यै च मुहुर्मुहुः ॥ ३२ ॥ हे देव ! कहाँ आपका उत्कृष्ट धाम और कहाँ हमारी तुच्छ वाणी, फिर भी हे भगवन् ! भक्तिसे प्रलाप करते हुए मुझको क्षमा करें । विश्वविधाता चतुर्मुख ब्रह्माने इस प्रकारके सूक्तोंसे प्रार्थना करके रुद्र तथा रुद्राणीको बारंबार नमस्कार किया ॥ ३१-३२ ॥ इदं स्तोत्रवरं पुण्यं ब्रह्मणा समुदीरितम् । अर्धनारीश्वरं नाम शिवयोर्हर्षवर्धनम् ॥ ३३ ॥ य इदं कीर्तयेद्भक्त्या यस्य कस्यापि काङ्क्षया । स तत्फलमवाप्नोति शिवयोः प्रीतिकारणात् ॥ ३४ ॥ सकलभुवनभूतभावनाभ्यांजननविनाशविहीनविग्रहाभ्याम् । नरवरयुवतीवपुर्धराभ्यां सततमहं प्रणतोस्मि शङ्कराभ्याम् ॥ ३५ ॥ ब्राजीद्वारा कथित अर्धनारीश्वर नामक यह श्रेष्ठ स्तोत्र पुण्य देनेवाला है और शिव तथा पार्वतीके हर्षको बढ़ानेवाला है । जो कोई भक्तिभावसे जिस किसी भी वस्तुकी कामनासे इसका पाठ करता है, वह शिव एवं पार्वतीको प्रसन्न करनेके कारण उस फलको प्राप्त कर लेता है । समस्त भुवनोंके प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाले, जन्म और मृत्युसे रहित विग्रहवाले, श्रेष्ठ नर और नारीका देह धारण करनेवाले शिव और शिवाको मैं निरन्तर प्रणाम करता हूँ ॥ ३३-३५ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां ००पूर्वख्ण्डे शिवशिवास्तुतिवर्णनं नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥१५॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें शिवशिवास्तुतिवर्णन नामक पन्द्रहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १५ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |