![]() |
॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
वायवीयसंहिता
॥ षोडशोऽध्यायः ॥ देवीशक्त्युद्भवो
महादेवजीके शरीरसे देवीका प्राकट्य और देवीके भ्रूमध्यभागसे शक्तिका प्रादुर्भाव वायुरुवाच अथ देवो महादेवो महाजलदनादया । वाचा मधुरगंभीरशिवदश्लक्ष्णवर्णया ॥ १ ॥ अर्थसंपन्नपदया राजलक्षणयुक्तया । अशेषविषयारंभरक्षाविमलदक्षया ॥ २ ॥ मनोहरतरोदारमधुरस्मितपूर्वया । संबभाषेसुसंपीतो विश्वकर्माणमीश्वरः ॥ ३ ॥ वायुदेव बोले-इसके पश्चात् प्रभु महादेवजी महामेधकी गर्जनाके समान मधुर-गम्भीर, मंगलदायिनी एवं कोमल वर्णीवाली, अर्थयुक्त पदोंवाली, नृपोचित अनुशासनभावसे युक्त, अपने समस्त कथनीय विषयोंकी रक्षा करते हुए उनकी निर्दोष तथा निपुण प्रस्तुति करनेवाली, अतिशय मनोहर, उदार तथा मधुर मुसकानयुक्त वाणीमें अत्यन्त प्रसन्न होकर ब्रह्माजीसे कहने लगे- ॥ १-३ ॥ ईश्वर उवाच वत्स वत्स महाभाग मम पुत्र पितामह । ज्ञातमेव मया सर्वं तव वाक्यस्य गौरवम् ॥ ४ ॥ प्रजानामेव वृद्ध्यर्थं तपस्तप्तं त्वयाधुना । तपसानेन तुष्टोऽस्मि ददामि च तवेप्सितम् ॥ ५ ॥ ईश्वर बोले-हे वत्स ! हे महाभाग ! हे मेरे पुत्र पितामह ! मैंने तुम्हारी बातके सारे महत्त्वको जान लिया है । मैं तुम्हारी इस तपस्यासे सन्तुष्ट हूँ, क्योंकि तुमने प्रजाओंकी वृद्धिके लिये यह तप किया है, मैं तुम्हें अभीष्ट वर प्रदान करता हूँ ॥ ४-५ ॥ इत्युक्त्वा परमोदारं स्वभावमधुरं वचः । ससर्ज वपुषो भागाद्देवीं देववरो हरः ॥ ६ ॥ यामाहुर्ब्रह्मविद्वांसो देवीं दिव्यगुणान्विताम् । परस्य परमां शक्तिं भवस्य परमात्मनः ॥ ७ ॥ यस्यां न खलु विद्यन्ते जन्म मृत्युजरादयः । या भवानी भवस्याङ्गात्समाविरभवत्किल ॥ ८ ॥ यस्या वाचो निवर्तन्ते मनसा चेन्द्रियैः सह । सा भर्तुर्वपुषो भागाज्जातेव समदृश्यत ॥ ९ ॥ या सा जगदिदं कृत्स्नं महिम्ना व्याप्य तिष्ठति । शरीरिणीव सा देवी विचित्रं समलक्ष्यत ॥ १० ॥ सर्वं जगदिदं चैषा संमोहयति मायया । ईश्वरात्सैव जाताऽभूदजाता परमार्थतः ॥ ११ ॥ न यस्याः परमो भावः सुराणामपि गोचरः । विश्वामरेश्वरी चैव विभक्ता भर्तुरङ्गतः ॥ १२ ॥ इस प्रकार परम उदार तथा स्वभावतः मधुर वचन कहकर देवताओंमें श्रेष्ठ महादेवने अपने शरीरके [वाम] भागसे देवीको प्रकट किया । जिन दिव्य गुणसम्पन्न देवीको ब्रह्मवेत्ता लोग परात्पर परमात्मा शिवकी पराशक्ति कहते हैं, जिनमें जन्म, मृत्यु, जरा आदि नहीं हैं, वे भवानी शिवजीके अंगसे उत्पन्न हुई, जिन्हें न जानकर मन एवं इन्द्रियोंके साथ वाणी लौट आती है, वे अपने स्वामीके देहभागसे उत्पन्न हुई-सी दिखायी पड़ी, जो अपनी महिमासे इस सम्पूर्ण संसारको व्याप्त करके विराजमान हैं, वे देवी शरीरधारीकी भाँति विचित्ररूपसे दिखायी पड़ी, जो कि अपनी मायासे इस सारे जगत्को मोहित करती हैं, परमार्थकी दृष्टिसे अजन्मा होनेपर भी वे ही ईश्वरसे प्रकट हुईं । जिनका परम भाव देवताओंको भी ज्ञात नहीं है, वे ही समस्त देवताओंकी अधीश्वरी अपने पतिके शरीरसे प्रकट हुई ॥ ६-१२ ॥ तां दृष्ट्वा परमेशानीं सर्वलोकमहेश्वरीम् । सर्वज्ञां सर्वगां सूक्ष्मां सदसद्व्यक्तिवर्जिताम् ॥ १३ ॥ परमां निखिलं भासा भासयन्तीमिदं जगत् । प्रणिपत्य महादेवीं प्रार्थयामास वै विराट् ॥ १४ ॥ सर्वव्यापिनी, सूक्ष्मा, सत्-असत् अभिव्यक्तिसे रहित, परमा और अपनी प्रभासे सम्पूर्ण जगतको प्रकाशित करनेवाली तथा सब कुछ जाननेवाली सर्वलोकमहेश्वरी परमेशानी महादेवीको देखकर प्रणाम करके विराट [ब्रह्माजी]-ने उनसे इस प्रकार प्रार्थना की- ॥ १३-१४ ॥ ब्रह्मोवाच देवि देवेन सृष्टोऽहमादौ सर्वजगन्मयि । प्रजासर्गे नियुक्तश्च सृजामि सकलं जगत् ॥ १५ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे देवि ! हे सर्वजगन्मयि ! महादेवजीने सबसे पहले मुझे उत्पन्न किया और प्रजाकी सृष्टिके कार्यमें लगाया, तभीसे मैं समस्त जगत्की सृष्टि कर रहा हूँ ॥ १५ ॥ मनसा निर्मिताः सर्वे देवि देवादयो मया । न वृद्धिमुपगच्छन्ति सृज्यमानाः पुनः पुनः ॥ १६ ॥ मिथुनप्रभवामेव कृत्वा सृष्टिमतः परम् । संवर्धयितुमिच्छामि सर्वा एव मम प्रजाः ॥ १७ ॥ न निर्गतं पुरा त्वत्तो नारीणां कुलमव्ययम् । तेन नारीकुलं स्रष्टुं शक्तिर्मम न विद्यते ॥ १८ ॥ हे देवि ! मेरे द्वारा मानसिक संकल्पसे रचे गये देवता आदि सभी लोग बारंबार सृष्टि करनेपर भी बढ़ नहीं रहे हैं । अतः अब मैं मैथुनी सृष्टि करके ही अपनी सभी प्रजाओंकी वृद्धि करना चाहता हूँ । [हे देवि !] आपसे पहले नारीकुलका प्रादुर्भाव नहीं हुआ है, इसलिये नारीकुलकी सृष्टि करनेके लिये मुझमें शक्ति नहीं है ॥ १६-१८ ॥ सर्वासामेव शक्तीनां त्वत्तः खलु समुद्भवः । तस्मात्सर्वत्र सर्वेषां सर्वशक्तिप्रदायिनीम् ॥ १९ ॥ त्वामेव वरदां मायां प्रार्थयामि सुरेश्वरीम् । चराचरविवृद्ध्यर्थमंशेनैकेन सर्वगे ॥ २० ॥ दक्षस्य मम पुत्रस्य पुत्री भव भवार्दिनि । सम्पूर्ण शक्तियोंका प्राकट्य आपसे ही होता है, अतः सर्वत्र सबको सब प्रकारकी शक्ति देनेवाली तथा वर प्रदान करनेवाली आप मायारूपिणी देवेश्वरीसे प्रार्थना करता हूँ । हे सर्वगे ! हे संसारभयका नाश करनेवाली ! चराचर जगत्की वृद्धिके लिये अपने एक अंशसे आप मेरे पुत्र दक्षकी कन्याके रूपमें जन्म लें ॥ १९-२० १/२ ॥ एवं सा याचिता देवी ब्रह्मणा ब्रह्मयोनिना ॥ २१ ॥ शक्तिमेकां भ्रुवोर्मध्यात् ससर्जात्मसमप्रभाम् । ब्रह्मयोनि ब्रह्माके इस प्रकार याचना करनेपर देवी रुद्राणीने अपनी भौंहोंके मध्यभागसे अपने ही समान कान्तिमयी एक शक्ति प्रकट की ॥ २१ १/२ ॥ तामाह प्रहसन् प्रेक्ष्य देवदेववरो हरः ॥ २२ ॥ उसे देखकर देवेश्वर हरने हँसते हुए कहा-तुम अपनी तपस्यासे ब्रह्माकी आराधनाकर उनका अभीष्ट पूरा करो ॥ २२ ॥ ब्रह्माणं तपसाराध्य कुरु तस्य यथेप्सितम् । तामाज्ञां परमेशस्य शिरसा प्रतिगृह्य सा ॥ २३ ॥ ब्रह्मणो वचनाद्देवी दक्षस्य दुहिताऽभवत् । दत्त्वैवमतुलां शक्तिं ब्रह्मणे ब्रह्मरूपिणीम् ॥ २४ ॥ विवेश देहं देवस्य देवश्चान्तरधीयत । परमेश्वरकी आज्ञाको शिरोधार्य करके वे देवी ब्रह्माजीकी प्रार्थनाके अनुसार दक्षकी पुत्री हो गयीं । इस प्रकार ब्रह्माजीको ब्रह्मरूपिणी अनुपम शक्ति देकर वे महादेवजीके शरीरमें प्रविष्ट हो गयीं और [तब] महादेवजी भी अन्तर्धान हो गये ॥ २३-२४ १/२ ॥ तदाप्रभृति लोकेऽस्मिन् स्त्रियां भोगः प्रतिष्ठितः ॥ २५ ॥ प्रजासृष्टिश्च विप्रेन्द्रा मैथुनेन प्रवर्तते । ब्रह्मापि प्राप सानन्दं सन्तोषं मुनिपुङ्गवाः ॥ २६ ॥ तभीसे इस जगतमें स्त्रीजातिमें भोग प्रतिष्ठित हुआ और हे विप्रेन्द्रो ! मैथुनद्वारा प्रजाकी सृष्टि होने लगी । हे मुनिवरो ! इससे ब्रह्माजीको भी आनन्द और सन्तोष प्राप्त हुआ ॥ २५-२६ ॥ एतद्वः सर्वमाख्यातं देव्याः शक्तिसमुद्भवम् । पुण्यवृद्धिकरं श्राव्यं भूतसर्गानुषङ्गतः ॥ २७ ॥ य इदं कीर्तयेन्नित्यं देव्याः शक्तिसमुद्भवम् । पुण्यं सर्वमवाप्नोति पुत्रांश्च लभते शुभान् ॥ २८ ॥ प्राणियोंके सृष्टिप्रसंगमें मैंने देवीसे शक्तिके प्रादुर्भावका यह सारा आख्यान आपलोगोंको सुनाया, जो कि पुण्यकी वृद्धि करनेवाला तथा सुनानेयोग्य है । जो प्रतिदिन देवीसे शक्तिके प्रादुर्भावकी इस कथाका कीर्तन करता है, उसे सब प्रकारका पुण्य प्राप्त होता है तथा शुभ लक्षणवाले पुत्रोंकी प्राप्ति होती है ॥ २७-२८ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायांपूर्वखण्डे देवीशक्त्युद्भवो नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें देवीसे शक्तिका उद्भव नामक सोलहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १६ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |