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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
वायवीयसंहिता
॥ पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ उपमन्युचरितवर्णनम्
भगवान् शंकरका इन्द्ररूप धारण करके उपमन्युके भक्तिभावकी परीक्षा लेना, उन्हें क्षीरसागर आदि देकर बहुत-से वर देना और अपना पुत्र मानकर पार्वतीके हाथमें सौंपना, कृतार्थ हुए उपमन्युका अपनी माताके स्थानपर लौटना वायुरुवाच अथ सर्वे प्रदीप्ताङ्गा वैकुण्ठं प्रययुर्द्रुतम् । प्रणम्याहुश्च तत्सर्वं हरये देवसत्तमाः ॥ १ ॥ वायुदेव बोले-तदनन्तर [उपमन्युके तपसे] सन्तप्त होते हुए शरीरवाले सभी श्रेष्ठ देवता शीघ्र ही वैकुण्ठ पहुँचे और उन्होंने प्रणाम करके विष्णुको वह सब बताया ॥ १ ॥ श्रुत्वा तेषां तदा वाक्यं भगवान्पुरुषोत्तमः । किमिदं त्विति संचिन्त्य ज्ञात्वा तत्कारणं च सः ॥ २ ॥ जगाम मन्दरं तूर्णं महेश्वरदिदृक्षया ।। दृष्ट्वा देवं प्रणम्यैवं प्रोवाच सुकृताञ्जलिः ॥ ३ ॥ तब उनकी बात सुनकर वे भगवान् पुरुषोत्तम 'यह क्या है'-ऐसा सोचकर और उसका कारण जानकर महेश्वरके दर्शनकी इच्छासे शीघ्र ही मन्दर पर्वतपर गये तथा [वहाँ] शिवजीको देखकर उन्हें प्रणाम करके हाथ जोड़कर इस प्रकार कहने लगे- ॥ २-३ ॥ विष्णुरुवाच भगवन्ब्राह्मणः कश्चिदुपमन्युरिति श्रुतः । क्षीरार्थमदहत्सर्वं तपसा तन्निवारय ॥ ४ ॥ विष्णु बोले-हे भगवन् ! उपमन्यु-इस नामसे प्रसिद्ध कोई ब्राह्मण दूधके लिये [अपनी] तपस्यासे सबको जला रहा है, उसे रोकिये ॥ ४ ॥ वायुरुवाच इति श्रुत्वा वचो विष्णोः प्राह देवो महेश्वरः । शिशुं निवारयिष्यामि तत्त्वं गच्छ स्वमाश्रमम् ॥ ५ ॥ तच्छ्रुत्वा शंभुवचनं स विष्णुर्देववल्लभः । जगामाश्वास्य तान्सर्वान्स्वलोकममरादिकान् ॥ ६ ॥ वायुदेव बोले-विष्णुका यह वचन सुनकर भगवान् महेश्वरने कहा-मैं उस बालकको रोकूँगा, आप अपने लोकको जाइये । शिवजीका यह वचन सुनकर देवताओंके प्रिय वे विष्णु उन सभी देवताओंको आश्वासन देकर अपने लोकको चले गये ॥ ५-६ ॥ एतस्मिन्नन्तरे देवः पिनाकी परमेश्वरः । शक्रस्य रूपमास्थाय गन्तुं चक्रे मतिं ततः ॥ ७ ॥ अथ जगाम मुनेस्तु तपोवनं गजवरेण सितेन सदाशिवः । सह सुरासुरसिद्धमहोरगैरमरराजतनुं स्वयमास्थितः ॥ ८ ॥ तदनन्तर [भगवान् विष्णुके अनुरोध करनेपर] श्रीशिवजीने [पहले] इन्द्रका रूप धारण करके उपमन्युके पास जानेका विचार किया । फिर श्वेत ऐरावतपर आरूढ़ हो स्वयं देवराज इन्द्रका शरीर ग्रहण करके भगवान् सदाशिव देवता, असुर, सिद्ध तथा बड़े-बड़े नागोंके साथ उपमन्यु मुनिके तपोवनकी ओर चले ॥ ७-८ ॥ स वारणश्चारु तदा विभुं तं निवीज्य बालव्यजनेन दिव्यम् । दधार शच्या सहितं सुरेन्द्रं करेण वामेन सितातपत्रम् ॥ ९ ॥ रराज भगवान्सोमः शक्ररूपी सदाशिवः । तेनातपत्रेण यथा चन्द्रबिम्बेन मन्दरः ॥ १० ॥ उस समय वह ऐरावत दायीं सँडमें चैवर लेकर शचीसहित दिव्यरूपवाले देवराज इन्द्रको हवा कर रहा था और बायीं सैंडमें श्वेत छत्र लेकर उनपर लगाये चल रहा था । इन्द्रका रूप धारण किये उमासहित भगवान् सदाशिव उस श्वेत छत्रसे उसी तरह सुशोभित हो रहे थे, जैसे उदित हुए पूर्ण चन्द्रमण्डलसे मन्दराचल शोभायमान होता है ॥ ९-१० ॥ आस्थायैवं हि शक्रस्य स्वरूपं परमेश्वरः । जगामानुग्रहं कर्तुमुपमन्योस्तदाश्रमम् ॥ ११ ॥ इस तरह इन्द्रके स्वरूपका आश्रय ले परमेश्वर शिव उपमन्युके उस आश्रमपर [अपने उस भक्तपर] अनुग्रह करनेके लिये जा पहुँचे ॥ ११ ॥ तं दृष्ट्वा परमेशानं शक्ररूपधरं शिवम् । प्रणम्य शिरसा प्राह महामुनिवरः स्वयम् ॥ १२ ॥ इन्द्ररूपधारी परमेश्वर शिवको आया देख मुनियोंमेंश्रेष्ठ उपमन्यु मुनिने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा- ॥ १२ ॥ उपमन्युरुवाच पावितश्चाश्रमः सोऽयं मम देवेश्वर स्वयम् । प्राप्तो यत्त्वं जगन्नाथ भगवन्देवसत्तम ॥ १३ ॥ उपमन्यू बोले-'देवेश्वर ! जगन्नाथ ! भगवन् ! देवशिरोमणे ! आप स्वयं यहाँ पधारे, इससे मेरा यह आश्रम पवित्र हो गया' ॥ १३ ॥ वायुरुवाच एवमुक्त्वा स्थितं प्रेक्ष्य कृताञ्जलिपुटं द्विजम् । प्राह गंभीरया वाचा शक्ररूपधरो हरः ॥ १४ ॥ वायुदेव बोले-ऐसा कहकर हाथ जोड़े हुए खड़े उन द्विजकी ओर देखकर इन्द्ररूपधारी शिवजी गम्भीर वाणीमें कहने लगे- ॥ १४ ॥ शक्र उवाच तुष्टोऽस्मि ते वरं ब्रूहि तपसानेन सुव्रत । ददामि चेप्सितान्सर्वान् धौम्याग्रज महामुने ॥ १५ ॥ इन्द्ररूपधारी शिव बोले-उत्तम व्रतका पालन करनेवाले धौम्यके बड़े भैया महामुने उपमन्यो ! मैं तुम्हारी इस तपस्यासे बहुत संतुष्ट हूँ । तुम वर माँगो, मैं तुम्हें सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुएँ प्रदान करूंगा ॥ १५ ॥ वायुरुवाच एवमुक्तस्तदा तेन शक्रेण मुनिपुङ्गवः । वारयामि शिवे भक्तिमित्युवाच कृताञ्जलिः ॥ १६ ॥ तन्निशम्य हरिः प्राह मां न जानासि लेखपम् । त्रैलोक्याधिपतिं शक्रं सर्वदेवनमस्कृतम् ॥ १७ ॥ मद्भक्तो भव विप्रर्षे मामेवार्चय सर्वदा । ददामि सर्वं भद्रं ते त्यज रुद्रं च निर्गुणम् ॥ १८ ॥ रुद्रेण निर्गुणेनापि किं ते कार्यं भविष्यति । देवपङ्क्तिबहिर्भूतो यः पिशाचत्वमागतः ॥ १९ ॥ वायुदेवता कहते हैं-उन इन्द्रदेवके ऐसा कहनेपर उस समय मुनिप्रवर उपमन्युने हाथ जोड़कर कहा[भगवन् !] 'मैं भगवान् शिवकी भक्ति माँगता हूँ । ' यह सुनकर इन्द्रने कहा-'क्या तुम मुझे नहीं जानते ! मैं समस्त देवताओंका पालक और तीनों लोकोंका अधिपति इन्द्र हूँ । सब देवता मुझे नमस्कार करते हैं । ब्रह्मर्षे ! मेरे भक्त हो जाओ । सदा मेरी ही पूजा करो, तुम्हारा कल्याण हो । मैं तुम्हें सब कुछ दूंगा । निर्गुण रुद्रको त्याग दो । उस निर्गुण रुद्रसे तुम्हारा कौन-सा कार्य सिद्ध होगा, जो देवताओंकी पंक्तिसे बाहर होकर पिशाचभावको प्राप्त हो गया है । ' ॥ १६-१९ ॥ वायुरुवाच तच्छ्रुत्वा प्राह स मुनिर्जपन्पञ्चाक्षरं मनुम् । मन्यमानो धर्मविघ्नं प्राह तं कर्तुमागतम् ॥ २० ॥ वायुदेवता कहते हैं-यह सुनकर पंचाक्षर-मन्त्रका जप करते हुए वे मुनि उपमन्यु इन्द्रको अपने धर्ममें विघ्न डालनेके लिये आया हुआ जानकर बोले- ॥ २० ॥ उपमन्युरुवाच त्वयैवं कथितं सर्वं भवनिन्दारतेन वै । प्रसङ्गादेव देवस्य निर्गुणत्वं महात्मनः ॥ २१ ॥ उपमन्युने कहा-यद्यपि तुम भगवान् शिवकी निन्दामें तत्पर हो, तथापि इसी प्रसंगमें परमात्मा मादेवजीकी निर्गुणता बताकर तुमने स्वयं ही उनका सम्पूर्ण महत्त्व स्पष्टरूपसे कह दिया ॥ २१ ॥ त्वं न जानामि वै रुद्रं सर्वदेवेश्वरेश्वरम् । ब्रह्मविष्णुमहेशानां जनक प्रकृतेः परम् ॥ २२ ॥ सदसद्व्यक्तमव्यक्तं यमाहुर्ब्रह्मवादिनः । नित्यमेकमनेकं च वरं तस्माद् वृणोम्यहम् ॥ २३ ॥ हेतुवादविनिर्मुक्तं सांख्ययोगार्थदं परम् । उपासते यं तत्त्वज्ञा वरं तस्माद् वृणोम्यहम् ॥ २४ ॥ तुम नहीं जानते कि भगवान् रुद्र सम्पूर्ण देवेश्वरोंके भी ईश्वर हैं । ब्रह्मा, विष्णु और महेशके भी जनक हैं तथा प्रकृतिसे परे हैं । ब्रह्मवादी लोग उन्हींको सत्-असत्, व्यक्त-अव्यक्त, नित्य, एक और अनेक कहते हैं । अतः मैं उन्हींसे वर माँगूंगा । जो युक्तिवादसे परे तथा सांख्य और योगके सारभूत अर्थका ज्ञान प्रदान करनेवाले हैं, तत्त्वज्ञानी पुरुष उत्कृष्ट जानकर जिनकी उपासना करते हैं, उन भगवान् शिवसे ही मैं वर माँगूंगा ॥ २२-२४ ॥ नास्ति शंभोः परं तत्त्वं सर्वकारणकारणात् । ब्रह्मविष्ण्वादिदेवानां स्रष्टुर्गुणपराद्विभोः ॥ २५ ॥ बहुनात्र किमुक्तेन मयाद्यानुमितं महत् । भवान्तरे कृतं पापं श्रुता निन्दा भवस्य चेत् ॥ २६ ॥ समस्त कारणोंके भी कारण, ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओंकी सृष्टि करनेवाले, गुणोंसे परे तथा सर्वव्यापी शम्भुसे बढ़कर कोई तत्त्व नहीं है । अधिक कहनेसे क्या प्रयोजन, आज मैं सोचता हूँ कि मैंने पूर्वजन्ममें महान् पाप किया था, जो कि शिवकी निन्दा सुनी है ॥ २५-२६ ॥ श्रुत्वा निन्दां भवस्याथ तत्क्षणादेव सन्त्यजेत् । स्वदेहं तन्निहत्याशु शिवलोकं स गच्छति ॥ २७ ॥ आस्तां तावन्ममेच्छेयं क्षीरं प्रति सुराधम । निहत्य त्वां शिवास्त्रेण त्यजाम्येतं कलेवरम् ॥ २८ ॥ जो शिवकी निन्दा सुनते ही उसी क्षण उसे मारकर शीघ्र ही अपने शरीरको त्याग देता है, वह शिवलोक जाता है । देवाधम ! दूधके लिये जो मेरी इच्छा है, वह यों ही रह जाय; परंतु शिवास्त्रके द्वारा तुम्हारा वध करके मैं अपने इस शरीरको त्याग दूंगा ॥ २७-२८ ॥ वायुरुवाच एवमुक्त्वोपमन्युस्तं मर्तुं व्यवसितः स्वयम् । क्षीरे वाञ्छामपि त्यक्त्वा निहन्तुं शक्रमुद्यतः ॥ २९ ॥ भस्मादाय तदा घोरमघोरास्त्राभिमन्त्रितम् । विसृज्य शक्रमुद्दिश्य ननाद स मुनिस्तथा ॥ ३० ॥ स्मृत्वा शंभुपदद्वन्द्वं स्वदेहं दुग्धुमुद्यतः । आग्नेयीं धारणां बिभ्रदुपमन्युरवस्थितः ॥ ३१ ॥ वायुदेवता कहते हैं-ऐसा कहकर स्वयं मर जानेका निश्चय करके उपमन्यु दूधकी भी इच्छा छोड़कर इन्द्रका वध करनेके लिये उद्यत हो गये । उस समय अघोर अस्वसे अभिमन्त्रित घोर भस्मको लेकर मुनिने इन्द्रके उद्देश्यसे छोड़ दिया और बड़े जोरसे सिंहनाद किया । फिर शम्भुके युगल चरणारविन्दोंका चिन्तन करते हुए वे अपनी देहको दग्ध करनेके लिये उद्यत हो गये और आग्नेयी धारणा धारण करके स्थित हुए ॥ २९-३१ ॥ एवं व्यवसिते विप्रे भगवान् भगनेत्रहा । वारयामास सौम्येन धारणां तस्य योगिनः ॥ ३२ ॥ तद्विसृष्टमघोरास्त्रं नन्दीश्वरनियोगतः । जगृहे मध्यतः क्षिप्तं नन्दी शङ्करवल्लभः ॥ ३३ ॥ ब्राह्मण उपमन्यु जब इस प्रकार स्थित हुए, तब भगदेवताके नेत्रका नाश करनेवाले भगवान् शिवने योगी उपमन्युकी उस धारणाको अपनी सौम्यदृष्टिसे रोक दिया । उनके छोड़े हुए उस अघोरास्त्रको नन्दीश्वर शिवजीकी आज्ञासे शिववल्लभ नन्दीने बीच में ही पकड़ लिया ॥ ३२-३३ ॥ स्वं रूपमेव भगवानास्थाय परमेश्वरः । दर्शयामास विप्राय बालेन्दुकृतशेखरम् ॥ ३४ ॥ क्षीरार्णवसहस्रं च पीयूषार्णवमेव वा । दध्यादेरर्णवांश्चैव घृतोदार्णवमेव च ॥ ३५ ॥ फलार्णवं च बालस्य भक्ष्य भोज्यार्णवं तथा । अपूपानां गिरिं चैव दर्शयामास स प्रभुः ॥ ३६ ॥ तत्पश्चात् परमेश्वर भगवान् शिवने अपने बालेन्दुशेखररूपको धारण कर लिया और ब्राहाण उपमन्युको उसे दिखाया । इतना ही नहीं, उन प्रभुने उस मुनिको सहलों क्षीरसागर, सुधासागर, दधि आदिके सागर, घृतके समुद्र, फलसम्बन्धी रसके समुद्र तथा भक्ष्य-भोज्य पदार्थोंके समुद्रका दर्शन कराया और पूओंका पहाड़ खड़ा करके दिखा दिया ॥ ३४-३६ ॥ एवं स ददृशे देवो देव्या सार्धं वृषोपरि । गणेश्वरैस्त्रिशूलाद्यैर्दिव्यास्त्रैरपि संवृतः ॥ ३७ ॥ दिवि दुन्दुभयो नेदुः पुष्पवृष्टिः पपात च । विष्णुब्रह्मेन्द्रप्रमुखैर्देवैश्छन्ना दिशो दश ॥ ३८ ॥ इसी तरह देवी पार्वतीके साथ महादेवजी वहाँ वृषभपर आरूढ़ दिखायी दिये । वे अपने गणाध्यक्षों तथा त्रिशूल आदि दिव्यास्त्रोंसे घिरे हुए थे । देवलोकमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं, आकाशसे फूलोंकी वर्षा होने लगी तथा विष्णु, ब्रह्मा और इन्द्र आदि देवताओंसे दसों दिशाएँ आच्छादित हो गयीं ॥ ३७-३८ ॥ अथोपमन्युरानन्दसमुद्रोर्मिभिरावृतः । पपात दण्डवद्भूमौ भक्तिनम्रेण चेतसा ॥ ३९ ॥ एतस्मिन्समये तत्र सस्मितो भगवान्भवः । एह्येहीति तमाहूय मूर्ध्न्याघ्राय ददौ वरान् ॥ ४० ॥ उस समय उपमन्यु आनन्दसागरकी लहरोंसे घिरे हुए थे । वे भक्तिविनम्र चित्तसे पृथ्वीपर दण्डकी भाँति पड़ गये । इसी समय वहाँ मुसकराते हुए भगवान् शिवने 'यहाँ आओ, यहाँ आओ' कहकर उन्हें बुलाया और उनका मस्तक सूंघकर अनेक वर दिये ॥ ३९-४० ॥ शिव उवाच भक्ष्यभोज्यान्यथाकामं बान्धवैर्भुङ्क्ष्व सर्वदा । सुखी भव सदा दुःखान्निर्मुक्ता भक्तिमान्मम ॥ ४१ ॥ शिव बोले-वत्स ! तुम अपने भाई-बन्धुओंके साथ सदा इच्छानुसार भक्ष्य-भोज्य पदार्थोंका उपभोग करो । दुःखसे छूटकर सर्वदा सुखी रहो, तुम्हारे हृदयमें मेरे प्रति भक्ति सदा बनी रहे ॥ ४१ ॥ उपमन्यो महाभाग तवाम्बैषा हि पार्वती । मया पुत्रीकृतो ह्यद्य दत्तः क्षीरोदकार्णवः ॥ ४२ ॥ मधुनश्चार्णवश्चैव दध्यन्नार्णव एव च । आज्यौदनार्णवश्चैव फलाद्यर्णव एव च ॥ ४३ ॥ अपूपगिरयश्चैव भक्ष्यभोज्यार्णवस्तथा । एते दत्ता मया ते हि त्वं गृह्णीष्व महामुने ॥ ४४ ॥ महाभाग उपमन्यो ! ये पार्वतीदेवी तुम्हारी माता हैं । आज मैंने तुम्हें अपना पुत्र बना लिया और तुम्हारे लिये क्षीरसागर प्रदान किया । केवल दूधका ही नहीं, मधु, दही, अन्न, घी, भात तथा फल आदिके रसका भी समुद्र तुम्हें दे दिया । ये पूओंके पहाड़ तथा भक्ष्य-भोज्य पदार्थोके सागर मैंने तुम्हें समर्पित किये । महामुने ! ये सब ग्रहण करो ॥ ४२-४४ ॥ पिता तव महादेवो माता वै जगदम्बिका । अमरत्वं मया दत्तं गाणपत्यं च शाश्वतम् ॥ ४५ ॥ वरान्वरय सुप्रीत्या मनोऽभिलषितान्परान् । प्रसन्नोऽहं प्रदास्यामि नात्र कार्या विचारणा ॥ ४६ ॥ आजसे मैं महादेव तुम्हारा पिता हूँ और जगदम्बा उमा तुम्हारी माता है । मैंने तुम्हें अमरत्व तथा गणपतिका सनातन पद प्रदान किया । अब तुम्हारे मनमें जो दूसरीदूसरी अभिलाषाएँ हों, उन सबको तुम बड़ी प्रसन्नताके साथ वरके रूप में माँगो । मैं संतुष्ट हूँ । इसलिये वह सब दूँगा । इस विषयमें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये ॥ ४५-४६ ॥ वायुरुवाच एवमुक्त्वा महादेवः कराभ्यामुपगृह्य तम् । मूर्ध्न्याघ्राय सुतस्तेऽयमिति देव्यै न्यवेदयत् ॥ ४७ ॥ वायुदेव कहते हैं-ऐसा कहकर महादेवजीने उन्हें दोनों हाथोंसे पकड़कर हृदयसे लगा लिया और मस्तक सूंघकर यह कहते हुए देवीकी गोदमें दे दिया कि यह तुम्हारा पुत्र है ॥ ४७ ॥ देवी च गुहवत्प्रीत्या मूर्ध्नि तस्य कराम्बुजम् । विन्यस्य प्रददौ तस्मै कुमारपदमव्ययम् ॥ ४८ ॥ क्षीराब्धिरपि साकारः क्षीरं स्वादु करे दधत् । उपस्थाय ददौ पिण्डीभूतं क्षीरमनस्वरम् ॥ ४९ ॥ देवीने कार्तिकेयकी भाँति प्रेमपूर्वक उनके मस्तकपर अपना करकमल रखा और उन्हें अविनाशी कुमारपद प्रदान किया । क्षीरसागरने भी साकाररूप धारण करके उनके हाथमें अनश्वर पिण्डीभूत स्वादिष्ठ दूध समर्पित किया ॥ ४८-४९ ॥ योगैश्वर्यं सदा तुष्टिं ब्रह्मविद्यामनश्वराम् । समृद्धिं परमां तस्मै ददौ सन्तुष्टमानसः ॥ ५० ॥ तत्पश्चात् पार्वतीदेवीने संतुष्टचित्त हो उन्हें योगजनित ऐश्वर्य, सदा संतोष, अविनाशिनी ब्रह्मविद्या और उत्तम समृद्धि प्रदान की ॥ ५० ॥ अथ शंभुः प्रसन्नात्मा दृष्ट्वा तस्य तपो महः । पुनर्ददौ वरं दिव्यं मुनये ह्युपमन्यवे ॥ ५१ ॥ व्रतं पाशुपतं ज्ञानं व्रतयोगं च तत्त्वतः । ददौ तस्मै प्रवक्तृत्वपाटवं सुचिरं परम् ॥ ५२ ॥ तदनन्तर उनके तपोमय तेजको देखकर प्रसन्नचित्त हुए शम्भुने उपमन्यु मुनिको पुनः दिव्य वरदान दिया । पाशुपत-व्रत, पाशुपतज्ञान, तात्त्विक व्रतयोग तथा चिरकालतक उसके प्रवचनकी परम पटुता उन्हें प्रदान की ॥ ५१-५२ ॥ सोऽपि लब्ध्वा वरान्दिव्यान् कुमारत्वं च सर्वदा । तस्माच्छिवाच्च तस्याश्च शिवाया मुदितोऽभवत् ॥ ५३ ॥ ततः प्रसन्नचेतस्कः सुप्रणम्य कृञ्ताजलिः । ययाचे स वरं विप्रो देवदेवान्महेश्वरात् ॥ ५४ ॥ भगवान् शिव और शिवासे दिव्य वर तथा नित्य कुमारत्व पाकर वे प्रमुदित हो उठे । इसके बाद प्रसन्नचित्त हो प्रणाम करके हाथ जोड़ उन ब्राह्मण उपमन्युने देवदेव महेश्वरसे यह वर माँगा ॥ ५३-५४ ॥ उपमन्युरुवाच प्रसीद देवदेवेश प्रसीद परमेश्वर । स्वभक्तिं देहि परमां दिव्यामव्यभिचारिणीम् ॥ ५५ ॥ श्रद्धां देहि महादेव स्वसम्बन्धिषु मे सदा । स्वदास्यं परमं स्नेहं सान्निध्यं चैव सर्वदा ॥ ५६ ॥ उपमन्यु बोले-देवदेवेश्वर ! प्रसन्न होइये । परमेश्वर ! प्रसन्न होइये और मुझे अपनी परम दिव्य एवं अव्यभिचारिणी भक्ति दीजिये । महादेव ! अपने सम्बन्धियोंमें मेरी सदा श्रद्धा बनी रहनेका वर दीजिये ! साथ ही, अपना दासत्व, उत्कृष्ट स्नेह और नित्य सामीप्य प्रदान कीजिये ॥ ५५-५६ ॥ एवमुक्त्वा प्रसन्नात्मा हर्षगद्गदया गिरा । सतुष्टाव महादेवमुपमन्युर्द्विजोत्तमः ॥ ५७ ॥ ऐसा कहकर प्रसन्नचित्त हुए द्विजश्रेष्ठ उपमन्युने हर्षगद्गद वाणीद्वारा महादेवजीका स्तवन किया ॥ ५७ ॥ देवदेव महादेव शरणागतवत्सल । प्रसीद करुणासिन्धो साम्ब शङ्कर सर्वदा ॥ ५८ ॥ उपमन्यु बोले-देवदेव ! महादेव ! शरणागतवत्सल ! करुणासिन्धो ! साम्बसदाशिव ! आप सदा मुझपर प्रसन्न होइये ॥ ५८ ॥ वायुरुवाच एवमुक्तो महादेवः सर्वेषां च वरप्रदः । प्रत्युवाच प्रसन्नात्मोपमन्युं मुनिसत्तमम् ॥ ५९ ॥ वायुदेव कहते हैं-उनके ऐसा कहनेपर सवको वर देनेवाले प्रसन्नात्मा महादेवने मुनिवर उपमन्युको इस प्रकार उत्तर दिया ॥ ५९ ॥ शिव उवाच - वत्सोपमन्यो तुष्टोऽस्मि सर्वं दत्तं मया हि ते । दृढभक्तोऽसि विप्रर्षे मया जिज्ञासितो ह्यसि ॥ ६० ॥ अजरश्चामरश्चैव भव त्वं दुःखवर्जितः । यशस्वी तेजसा युक्तो दिव्यज्ञानसमन्वितः ॥ ६१ ॥ शिव बोले-वत्स उपमन्यो ! मैं तुमपर संतुष्ट हूँ । इसलिये मैंने तुम्हें सब कुछ दे दिया । ब्रह्मर्षे ! तुम मेरे सुदृढ़ भक्त हो; क्योंकि इस विषयमें मैंने तुम्हारी परीक्षा ले ली है । तुम अजर-अमर, दुःखरहित, यशस्वी, तेजस्वी और दिव्य ज्ञानसे सम्पन्न होओ ॥ ६०-६१ ॥ अक्षया बान्धवाश्चैव कुलं गोत्रं च ते सदा । भविष्यति द्विजश्रेष्ठ मयि भक्तिश्च शाश्वती ॥ ६२ ॥ सान्निध्यं चाश्रमे नित्यं करिष्यामि द्विजोत्तम । उपकंठं मम त्वं वै सानन्दं विहरिष्यसि ॥ ६३ ॥ द्विजश्रेष्ठ ! तुम्हारे बन्धु-बान्धव, कुल तथा गोत्र सदा अक्षय रहेंगे । मेरे प्रति तुम्हारी भक्ति सदा बनी रहेगी । विप्रवर ! मैं तुम्हारे आश्रममें नित्य निवास करूँगा । तुम मेरे पास सानन्द विचरोगे ॥ ६२-६३ ॥ एवमुक्त्वा स भगवान् सूर्यकोटिसमप्रभः । ईशानः स वरान्दत्त्वा तत्रैवान्तर्दधे हरः ॥ ६४ ॥ उपमन्युः प्रसन्नात्मा प्राप्य तस्माद्वराद्वरान् । जगाम जननीस्थानं सुखं प्रापाधिकं च सः ॥ ६५ ॥ ऐसा कहकर उपमन्यूको अभीष्ट वर दे करोड़ों सूर्योक समान तेजस्वी भगवान् महेश्वर वहीं अन्तर्धान हो गये । उन श्रेष्ठ परमेश्वरसे उत्तम वर पाकर उपमन्युका हृदय प्रसन्नतासे खिल उठा । उन्हें बहुत सुख मिला और वे अपनी जन्मदायिनी माताके स्थानपर चले गये ॥ ६४-६५ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे वैयासिक्यां चतुर्विंशतिसाहस्र्यां संहितायां तदन्तर्गतायां सप्तम्यां वायवीयसंहितायां पूर्वखण्डे उपमन्युचरितवर्णनं नाम पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३५ ॥ इस प्रकार व्यासविरचित चौबीस हजार श्लोकोंवाले श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहिताके पूर्वखण्डमें उपमन्युचरितवर्णन नामक पैंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३५ ॥ समाप्तोऽयं सप्तम्या वायवीयसंहितायाः पूर्वखण्डः ॥ ॥ सातवीं वायवीयसंहिताका पूर्वखण्ड पूर्ण हुआ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |