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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

वायवीयसंहिता

॥ चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ॥


उपमन्युतपोवर्णनम्
उपमन्युका गोदुग्धके लिये हठ तथा माताकी आज्ञासे शिवोपासनामें संलग्न होना


ऋषय ऊचुः
धौम्याग्रजेन शिशुना क्षीरार्थं हि तपः कृतम् ।
तस्मात् क्षीरार्णवो दत्तस्तस्मै देवेन शूलिना ॥ १ ॥
स कथं शिशुको लेभे शिवशास्त्रप्रवक्तृताम् ।
कथं वा शिवसद्‌भावं ज्ञात्वा तपसि निष्ठितः ॥ २ ॥
कथं च लब्धविज्ञानस्तपश्चरणपर्वणि ।
रुद्राग्नेर्यत्परं वीर्यं लभे भस्म स्वरक्षकम् ॥ ३ ॥
ऋषियोंने पूछा-प्रभो ! धौम्यके बड़े भाई उपमन्यु जब छोटे बालक थे, तब उन्होंने दूधके लिये तपस्या की थी और भगवान् शिवने प्रसन्न होकर उन्हें क्षीरसागर प्रदान किया था । परंतु शैशवावस्थामें उन्हें शिवशास्त्रके प्रवचनकी शक्ति कैसे प्राप्त हुई अथवा वे कैसे शिवके सत्स्वरूपको जानकर तपस्यामें निरत हुए ? तपश्चरणके पर्वमें उन्हें भस्मके विज्ञानकी प्राप्ति कैसे हुई, जिससे जो रुद्राग्निका उत्तम वीर्य है, उस आत्मरक्षक भस्मको उन्होंने प्राप्त किया ? ॥ १-३ ॥

वायुरुवाच
वायुदेवने कहा-महर्षियो ! जिन्होंने वह तप किया था, वे उपमन्यु कोई साधारण बालक नहीं थे, परम बुद्धिमान् मुनिवर व्याघ्रपादके पुत्र थे । उन्हें जन्मान्तरमें ही सिद्धि प्राप्त हो चुकी थी । परंतु किसी कारणवश वे अपने पदसे च्युत हो गये-योगभ्रष्ट हो गये । अत: भाग्यवश उन्म लेकर वे मुनिकुमार हुए ॥ ४-५ ॥

न ह्येष शिशुकः कश्चित्प्राकृतः कृतवांस्तपः ।
मुनिवर्यस्य तनयो व्याघ्रपादस्य धीमतः ॥ ४ ॥
जन्मान्तरेण संसिद्धः केनापि खलु हेतुना ।
स्वपदप्रच्युतो दिष्ट्या प्राप्तो मुनिकुमारताम् ॥ ५ ॥
दुग्धकी कामनासे उपमन्युकी जो तपस्यामें प्रवृत्ति हुई, वह भविष्यमें प्राप्त होनेवाले महादेवजीके अनुग्रहमें मानो द्वार अर्थात् माध्यम बन गयी ॥ ६ ॥

महादेवप्रसादस्य भाग्यापन्नस्य भाविनः ।
दुग्धाभिलाषप्रभवद्वारतामगमत्तपः ॥ ६ ॥
उसके फलस्वरूप भगवान् शंकरने उपमन्युको दुग्धका समुद्र देनेके साथ-साथ अपने भक्तोंमें वरिष्ठता और शाश्वत कुमारभाव भी प्रदान किया ॥ ७ ॥

अतः सर्वगणेशत्वं कुमारत्वं च शाश्वतम् ।
सह दुग्धाब्धिना तस्मै प्रददौ शङ्करः स्वयम् ॥ ७ ॥
विद्वज्जन जिस शक्तिमय उत्कृष्ट ज्ञानको स्कन्दके द्वारा उपदिष्ट बतलाते हैं, उस ज्ञानको उपमन्युने साक्षात् भगवान् शिवके अनुग्रहसे प्राप्त किया था ॥ ८ ॥

तस्य ज्ञानागमोप्यस्य प्रसादादेव शाङ्करात् ।
कौमारं हि परं साक्षाज्ज्ञानं शक्तिमयं विदुः ॥ ८ ॥
जिस प्रकार महासागरके सदृश ज्ञानराशिसे सम्पन्न कुमार कार्तिकेयके मुखसे नन्दीने शिवशास्त्रके प्रवचनका अधिकार प्राप्त किया था, वैसे ही उपमन्युने भी [भगवान् शिवसे] शिवशास्त्रके प्रवचनका अधिकार प्राप्त कर लिया ॥ ९ ॥

शिवशास्त्रप्रवक्तृत्वमपि तस्य हि तत्कृतम् ।
कुमारो मुनितो लब्धज्ञानाब्धिरिव नन्दनः ॥ ९ ॥
उपमन्युके द्वारा दुग्धके लिये हठ करनेपर उनकी माताने शोकवश जो बात कही थी, वही उनकी शिवज्ञानप्राप्तिमें कारण प्रतीत होती है ॥ १० ॥

दृष्टं तु कारणं तस्य शिवज्ञानसमन्वये ।
स्वमातृवचनं साक्षाच्छोकजं क्षीरकारणात् ॥ १० ॥
कदाचित्क्षीरमत्यल्पं पीतवान्मातुलाश्रमे ।
ईर्ष्यया मातुलसुतं सन्तृप्तक्षीरमुत्तमम् ॥ ११ ॥
पीत्वा स्थितं यथाकामं दृष्ट्‍वा वै मातुलात्मजम् ।
उपमन्युर्व्याघ्रपादिः प्रीत्या प्रोवाच मातरम् ॥ १२ ॥
एक समयकी बात है, अपने मामाके आश्रममें उन्हें पीनेके लिये बहुत थोड़ा दूध मिला । उनके मामाका बेटा अपनी इच्छाके अनुसार गरम-गरम उत्तम दूध पीकर उनके सामने खड़ा था । मातुलपुत्रको इस अवस्थामें देखकर व्याघ्रपादकुमार उपमन्युके मनमें ईर्ष्या हुई और वे अपनी माँके पास जाकर बड़े प्रेमसे बोले- ॥ ११-१२ ॥

उपमन्युरुवाच
मातर्मातर्महाभागे मम देहि तपस्विनि ।
गव्यं क्षीरमतिस्वादु नाल्पमुष्णं पिबाम्यहम् ॥ १३ ॥
उपमन्युने कहा-'मातः ! महाभागे ! तपस्विनि ! मुझे अत्यन्त स्वादिष्ट गरम-गरम गायका दूध दो । मैं थोड़ा-सा नहीं पीऊँगा । ' ॥ १३ ॥

वायुरुवाच
तच्छ्रुत्वा पुत्रवचनं तन्माता च तपस्विनी ।
व्याघ्रपादस्य महिषी दुःखमापत्तदा च सा ॥ १४ ॥
उपलाल्याथ सुप्रीत्या पुत्रमालिङ्ग्य सादरम् ।
दुःखिता विललापाथ स्मृत्वा नैर्धन्यमात्मनः ॥ १५ ॥
बेटेकी यह बात सुनकर व्याघ्रपादकी पत्नी तपस्विनी माताके मनमें उस समय बड़ा दुःख हुआ । उसने पुत्रको बड़े आदरके साथ छातीसे लगा लिया और प्रेमपूर्वक लाड़-प्यार करके अपनी निर्धनताका स्मरण हो आनेसे वह दुखी हो विलाप करने लगी ॥ १४-१५ ॥

स्मृत्वा स्मृत्वा पुनः क्षीरमुपमन्युः स बालकः ।
देहि देहीति तामाह रुद्रन्भूयो महाद्युतिः ॥ १६ ॥
तद् हठं सा परिज्ञाय द्विजपत्नी तपस्विनी ।
शान्तये तद् हठस्याथ शुभोपायमरीरचत् ॥ १७ ॥
महातेजस्वी चालक उपमन्यु बारंबार दूधको याद करके रोते हुए मातासे कहने लगे-'माँ ! दूध दो, दूध दो । ' बालकके उस हठको जानकर उस तपस्विनी ब्राह्मण-पत्नीने उसके हठके निवारणके लिये एक सुन्दर उपाय किया ॥ १६-१७ ॥

उञ्छवृत्त्यार्जितान्बीजान्स्वयं दृष्ट्‍वा च सा तदा ।
बीजपिष्टमथालोड्य तोयेन कलभाषिणी ॥ १८ ॥
एह्येहि मम पुत्रेति सामपूर्वं ततः सुतम् ।
आलिङ्ग्यादाय दुःखार्ता प्रददौ कृत्रिमं पयः ॥ १९ ॥
उसने स्वयं उञ्छ-वृत्तिसे कुछ बीजोंका संग्रह किया था । उन बीजोंको देखकर उस मधुरभाषिणीने तत्काल उठा लिया और पीसकर पानीमें घोल दिया । फिर मीठी वाणीमें बोली-'आओ, आओ मेरे लाल !' यों कह बालकको शान्त करके हृदयसे लगा लिया और दुःखसे पीड़ित हो उसने कृत्रिम दूध उसके हाथमें दे दिया ॥ १८-१९ ॥

पीत्वा च कृत्रिमं क्षीरं मात्रां दत्तं स बालकः ।
नैतत्क्षीरमिति प्राह मातरं चातिविह्वलः ॥ २० ॥
दुःखिता सा तदा प्राह संप्रेक्ष्याघ्राय मूर्धनि ।
समार्ज्य नेत्र पुत्रस्य कराभ्यां कमलायते ॥ २१ ॥
माताके दिये हुए उस बनावटी दूधको पीकर बालक अत्यन्त व्याकुल हो उठा और बोला-'माँ ! यह दूध नहीं है । ' तब वह बहुत दुखी हो गयी और बेटेका मस्तक सूंघकर अपने दोनों हाथोंसे उसके कमलसदृश नेत्रोंको पोंछती हुई कहने लगी ॥ २०-२१ ॥

जनन्युवाच
तटिनी रत्नपूर्णास्ताः स्वर्गपातालगोचराः ।
भाग्यहीना न पश्यन्ति भक्तिहीनाश्च ये शिवे ॥ २२ ॥
राज्यं स्वर्गं च मोक्षं च भोजनं क्षीरसंभवम् ।
न लभन्ते प्रियाण्येषां न तुष्यति यदा शिवः ॥ २३ ॥
भवप्रसादजं सर्वं नान्यद्देवप्रसादजम् ।
अन्यदेवेषु निरता दुःखार्ता विभ्रमन्ति च ॥ २४ ॥
माता बोली-जो लोग भाग्यहीन तथा शिवजीके प्रति भक्तिरहित हैं, वे स्वर्ग-पातालमें गोचर होनेवाली रत्नोंसे परिपूर्ण नदियोंको नहीं देख पाते हैं । शिवजी जबतक लोगोंपर प्रसन्न नहीं होते हैं, वे तबतक राज्य, स्वर्ग, मोक्ष तथा दुग्धसे बना हुआ भोजन-इन प्रिय वस्तुओंको प्राप्त नहीं कर पाते हैं । सब कुछ शिवजीकी कृपासे प्राप्त होता है, वह किसी दूसरे देवताकी कृपासे प्राप्त नहीं होता है । अन्य देवताओंमें आसक्त लोग दु:खसे पीड़ित होकर भटकते रहते हैं ॥ २२-२४ ॥

क्षीरं तत्र कुतोऽस्माकं वने निवसतां सदा ।
क्व दुग्धसाधनं वत्स क्व वयं वनवासिनः ॥ २५ ॥
सदा वनमें निवास करनेवाले हमलोगोंको दूध कहाँसे मिलेगा ? हे वत्स ! कहाँ दुग्धकी उपलब्धि और कहाँ हम वनवासी ! ॥ २५ ॥

कृत्स्नाभावेन दारिद्र्यान्मया ते भाग्यहीनया ।
मिथ्यादुग्धमिदं दत्तं पिष्टमालोड्य वारिणा ॥ २६ ॥
जननी बोली-'बेटा ! अपने पास सभी वस्तुओंका अभाव होनेके कारण दरिद्रतावश मुझ अभागिनीने पीसे हुए बीजोंको पानीमें घोलकर यह तुम्हें कृत्रिम दूध दिया था ॥ २६ ॥

त्वं मातुलगृहे स्वल्पं पीत्वा स्वादु पयः शृतम् ।
ज्ञात्वा स्वादु त्वया पीतं तज्जातीयमनुस्मरन् ॥ २७ ॥
तुमने मामाके घरमें पकाये हुए स्वादिष्ट थोड़ेसे दूधको पीकर [कृत्रिम दूधको भी] उसीके समान स्मरण करके स्वादिष्ट जानकर इसे भी पी लिया ॥ २७ ॥

दत्तं न पय इत्युक्त्वा रुदन् दुःखीकरोषि माम् ।
प्रसादेन विना शंभो पयस्तव न विद्यते ॥ २८ ॥
तुम 'दूध नहीं दिया' ऐसा कहकर रोते हुए मुझे बारंबार दुखी करते हो । किंतु भगवान् शिवकी कृपाके बिना तुम्हारे लिये कहीं दूध नहीं है ॥ २८ ॥

पादपङ्‌कजयोस्तस्य साम्बस्य सगणस्य च ।
भक्त्या समर्पितं यत्तत्कारणं सर्वसम्पदाम् ॥ २९ ॥
अधुना वसुदोऽस्माभिर्महादेवो न पूजितः ।
सकामानां यथाकामं यथोक्तफलदायकः ॥ ३० ॥
भक्तिपूर्वक माता पार्वती और अनुचरोंसहित भगवान् शिवके चरणारविन्दोंमें जो कुछ समर्पित किया गया हो, वही सम्पूर्ण सम्पत्तियोंका कारण होता है । महादेवजी ही धन देनेवाले हैं । इस समय हम लोगोंने उनकी आराधना नहीं की है । वे भगवान् ही सकाम पुरुषोंको उनकी इच्छाके अनुसार फल देनेवाले हैं । २९-३० ॥

धनान्युद्दिश्य नास्माभिरितः प्रागर्चितः शिवः ।
अतो दरिद्राः संजाता वयं तस्मान्न ते पयः ॥ ३१ ॥
पूर्वजन्मनि यद्दत्तं शिवमुद्दिश्य वै सुतः ।
तदेव लभ्यते नान्यद् विष्णुमुद्दिश्य वा प्रभुम् ॥ ३२ ॥
हम लोगोंने आजसे पहले कभी भी धनकी कामनासे भगवान् शिवकी पूजा नहीं की है । इसीलिये हम दरिद्र हो गये और यही कारण है कि तुम्हारे लिये दूध नहीं मिल रहा है । बेटा ! पूर्वजन्ममें भगवान् शिव अथवा विष्णुके उद्देश्यसे जो कुछ दिया जाता है, वही वर्तमान जन्ममें मिलता है, दूसरा कुछ नहीं'* ॥ ३१-३२ ॥

वायुरुवाच
इति मातृवचः श्रुत्वा तथ्यं शोकादिसूचकम् ।
बालोऽप्यनुतपन्नन्तः प्रगल्भमिदमब्रवीत् ॥ ३३ ॥
वायुदेव बोले-वह बालक इस प्रकार माताके शोकसूचक यथार्थ कथनको सुनकर मनमें सन्ताप करता हुआ यह गम्भीर वचन कहने लगा ॥ ३३ ॥

उपमन्युरुवाच
शोकेनालमितो मातः सांबो यद्यस्ति शङ्करः ।
त्यज शोकं महाभागे सर्वं भद्रं भविष्यति ॥ ३४ ॥
शृणु मातर्वचो मेऽद्य महादेवोऽस्ति चेत् क्वचित् ।
चिराद्वा ह्यचिराद्वापि क्षीरोदं साधयाम्यहम् ॥ ३५ ॥
उपमन्यु बोले-माँ ! यदि माता पार्वतीसहित भगवान् शिव विद्यमान हैं, तब आजसे शोक करना व्यर्थ है । महाभागे ! अब शोक छोड़ो, सब मंगलमय ही होगा । माँ ! आज मेरी बात सुन लो । यदि कहीं महादेवजी हैं तो मैं देरसे या जल्दी ही उनसे क्षीरसागर माँग लाऊँगा ॥ ३४-३५ ॥

वायुरुवाच
इति श्रुत्वा वचस्तस्य बालकस्य महामतेः ।
प्रत्युवाच तदा माता सुप्रसन्ना मनस्विनी ॥ ३६ ॥
वायुदेवता कहते हैं-उस महाबुद्धिमान् बालककी वह बात सुनकर उसकी मनस्विनी माता उस समय बहुत प्रसन्न हुई और यों बोली- ॥ ३६ ॥

मातोवाच
शुभं विचारितं तात त्वया मत्प्रीतिवर्धनम् ।
विलंबं मा कृथास्त्वं हि भज साम्बं सदाशिवम् ॥ ३७ ॥
माताने कहा-बेटा ! तुमने बहुत अच्छा विचार किया है । तुम्हारा यह विचार मेरी प्रसन्नताको बढ़ानेवाला है । अब तुम देर न लगाओ । साम्ब सदाशिवका भजन करो ॥ ३७ ॥

सर्वस्मादधिकोऽस्त्येव शिवः परमकारणम् ।
तत्कृतं हि जगत्सर्वं ब्रह्माद्यास्तस्य किङ्कराः ॥ ३८ ॥
तत्प्रसादकृतैश्वर्या दासास्तस्य वयं प्रभोः ।
तं विनान्यं न जानीमः शङ्करं लोकशङ्करम् ॥ ३९ ॥
परम कारण शिव सबसे बढ़कर हैं, सम्पूर्ण जगत् उन्हींका बनाया हुआ है और ब्रह्मा आदि [देवता] उन्हीं प्रभुके किंकर तथा उनसे प्राप्त ऐश्वर्यवाले हैं । हमलोग भी उन्हींके अनुचर हैं । संसारका कल्याण करनेवाले शंकरके अतिरिक्त अन्य किसीको हम नहीं जानते ॥ ३८-३९ ॥

अन्यान् देवान् परित्यज्य कर्मणा मनसा गिरा ।
तमेव साम्बं सगणं भज भावपुरः सरम् ॥ ४० ॥
तस्य देवाधिदेवस्य शिवस्य वरदायिनः ।
साक्षान्नमः शिवायेति मन्त्रोऽयं वाचकः स्मृतः ॥ ४१ ॥
सप्तकोटिमहामन्त्राः सर्वे सप्रणवाः परे ।
तस्मिन्नेव विलीयन्ते पुनस्तस्माद्विनिर्गताः ॥ ४२ ॥
अन्य देवताओंको छोड़कर मन, वाणी और क्रियाद्वारा भक्तिभावके साथ पार्षदगणोंसहित उन्हीं साम्ब सदाशिवका भजन करो । 'नमः शिवाय' यह मन्त्र उन देवाधिदेव वरदायक शिवका साक्षात् वाचक माना गया है । प्रणवसहित जो दूसरे सात करोड़ महामन्त्र हैं, वे सब इसीमें लीन होते हैं और फिर इसीसे प्रकट होते हैं । ४०-४२ ॥

सप्रसादाश्च ते मन्त्राः स्वाधिकाराद्यपेक्षया ।
सर्वाधिकारस्त्वेकोऽयं मन्त्र एवेश्वराज्ञया ॥ ४३ ॥
यथा निकृष्टानुत्कृष्टान्सर्वानप्यात्मनः शिवः ।
क्षमते रक्षितुं तद्वन्मन्त्रोऽयमपि सर्वदा ॥ ४४ ॥
वे सभी मन्त्र अपने-अपने अधिकारके अनुरूप ही फल प्रदान करने में समर्थ हैं, अर्थात् जो मन्त्र जिस कामनाकी सिद्धिके लिये अधिकृत हैं, वे उसीको फलीभूत कर पाने में समर्थ होते हैं, परंतु यह एकमात्र मन्त्र भगवान् शिवकी आज्ञासे सर्वाधिकारसम्पन्न होनेके कारण सभी कामनाओंको फलीभूत करनेमें समर्थ है । जिस प्रकार भगवान् शिव पापी या पुण्यात्मा-किसीकी भी रक्षा या उद्धार करने में सक्षम हैं, उसी प्रकार यह मन्त्र भी प्रत्येक समय प्रत्येक व्यक्तिकी रक्षा में समर्थ है ॥ ४३-४४ ॥

प्रबलश्च तथा ह्येष मन्त्रो मन्त्रान्तरादपि ।
सर्वरक्षाक्षमोऽप्येष नापरः कश्चिदिष्यते ॥ ४५ ॥
तस्मान्मन्त्रान्तरांस्त्यक्त्वा पञ्चाक्षरपरो भव ।
तस्मिन् जिह्वान्तरगते न किंचिदिह दुर्लभम् ॥ ४६ ॥
यह मन्त्र दूसरे सभी मन्त्रोंसे प्रबल है । यही सबकी रक्षा करने में समर्थ है; अतः दूसरेकी इच्छा नहीं करनी चाहिये । इसलिये तुम दूसरे मन्त्रोंको त्यागकर केवल पंचाक्षरके जपमें लग जाओ । इस मन्त्रके जिह्मपर आते ही यहाँ कुछ भी दुर्लभ नहीं रह जाता है । ४५-४६ ॥

अघोरास्त्रं च शैवानां रक्षाहेतुरनुत्तमम् ।
तच्च तत्प्रभवं मत्वा तत्परो भव नान्यथा ॥ ४७ ॥
यह शिवभक्तोंकी रक्षाका हेतुभूत सर्वश्रेष्ठ अघोरास्त्र ही है, इस [अस्त्र]-को उसी मन्त्रसे उत्पन्न हुआ मानकर तुम उस मन्त्रमें निरत हो जाओ, इसके विपरीत मत होओ ॥ ४७ ॥

भस्मेदं तु मया लब्धं पितुरेव तवोत्तमम् ।
विरजानलसंसिद्धं महाव्यापन्निवारणम् ॥ ४८ ॥
मन्त्रं च ते मया दत्तं गृहाण मदनुज्ञया ।
अनेनैवाशु जप्तेन रक्षा तव भविष्यति ॥ ४९ ॥
यह उत्तम भस्म जिसे मैंने तुम्हारे पिताजीसे ही प्राप्त किया है, यह विरजा होमकी अग्निसे सिद्ध हुआ है, अत: बड़ी-से-बड़ी आपत्तियोंका निवारण करनेवाला है । मैंने तुम्हें जो पंचाक्षरमन्त्र बताया है, उसको मेरी आज्ञासे ग्रहण करो । इसके जपसे ही शीघ्र तुम्हारी रक्षा होगी ॥ ४८-४९ ॥

वायुरुवाच
एवं मात्रा समादिश्य शिवमस्त्वित्युदीर्य च ।
विसृष्टस्तद्वचो मूर्ध्नि कुर्वन्नेव तदा मुनिः ॥ ५० ॥
तां प्रणम्यैवमुक्त्वा च तपः कर्तुं प्रचक्रमे ।
तमाह च तदा माता शुभं कुर्वन्तु ते सुराः ॥ ५१ ॥
वायुदेवता कहते हैं-इस प्रकार आज्ञा देकर और 'तुम्हारा कल्याण हो' ऐसा कहकर माताने पुत्रको बिदा किया । मुनि उपमन्युने उस आज्ञाको शिरोधार्य करके उसके चरणों में प्रणाम किया और ऐसा ही करूँगा-यह कहकर तपस्याके लिये जानेकी तैयारी की । उस समय माताने आशीर्वाद देते हुए कहा-'सब देवता तुम्हारा मंगल करें' । ५०-५१ ॥

अनुज्ञातस्तया तत्र तपस्तेपे स दुश्चरम् ।
हिमवत्पर्वतं प्राप्य वायुभक्षः समाहितः ॥ ५२ ॥
अष्टेष्टकाभिः प्रासादं कृत्वा लिङ्गं च मृण्मयम् ।
तत्रावाह्य महादेवं सम्बं सगणमव्ययम् ॥ ५३ ॥
भक्त्या पञ्चाक्षरेणैव पुत्रैः पुष्पैर्वनोद्भवैः ।
समभ्यर्च्य चिरं कालं चचार परमं तपः ॥ ५४ ॥
माताकी आज्ञा पाकर उस बालकने दुष्कर तपस्या आरम्भ की । हिमालयपर्वतके एक शिखरपर जाकर उपमन्यु एकाग्रचित्त हो केवल वायु पीकर रहने लगे । उन्होंने आठ ईंटोंका एक मन्दिर बनाकर उसमें मिट्टीके शिवलिंगकी स्थापना की । उसमें माता पार्वती तथा गणोंसहित अविनाशी महादेवजीका आवाहन करके भक्तिभावसे पंचाक्षरमन्त्रद्वारा ही बनके पत्र-पुष्प आदि उपचारोंसे उनकी पूजा करते हुए वे चिरकालतक उत्तम तपस्यामें लगे रहे ॥ ५२-५४ ॥

ततस्तपश्चरत्तं तं बालमेकाकिनं कृशम् ।
उपमन्युं द्विजवरं शिवसंसक्तमानसम् ॥ ५५ ॥
पुरा मरीचिना शप्ताः केचिन्मुनिपिशाचकाः ।
संपीड्य राक्षसैर्भावैस्तपसोविघ्नमाचरन् ॥ ५६ ॥
उन एकाकी कृशकाय बालक द्विजवर उपमन्युको शिवमें मन लगाकर तपस्या करते देख पूर्वकालमें मरीचिके शापसे पिशाचभावको प्राप्त हुए कुछ मुनियोंने अपने राक्षसस्वभावसे उन्हें सताना और उनके तपमें विघ्न डालना आरम्भ किया ॥ ५५-५६ ॥

स च तैः पीड्यमानोऽपि तपः कुर्वन्कथञ्चन ।
सदा नमः शिवायेति क्रोशति स्मार्तनादवत् ॥ ५७ ॥
तन्नादश्रवणादेव तपसो विघ्नकारिणः ।
ते तं बालं समुत्सृज्य मुनयः समुपाचरन् ॥ ५८ ॥
तपसा तस्य विप्रस्य चोपमन्योर्महात्मनः ।
चराचरं च मुनयः प्रदीपितमभूज्जगत् ॥ ५९ ॥
उनके द्वारा सताये जानेपर भी उपमन्यु किसी प्रकार तपमें लगे रहे और सदा 'नमः शिवाय' का आर्तनादकी भाँति जोर-जोरसे उच्चारण करते रहे । उस शब्दको सुनते ही उनकी तपस्यामें विघ्न डालनेवाले वे मुनि उस बालकको सताना छोड़कर उसकी सेवा करने लगे । हे मुनियो ! ब्राह्मणवालक महात्मा उपमन्युकी उस तपस्यासे सम्पूर्ण चराचर जगत् संतप्त हो उठा ॥ ५७-५९ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां पूर्वखण्डे उपमन्युतपोवर्णनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३४ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत सातवीं वायवीयसंहितामें पूर्वखण्डमें उपमन्युतपोवर्णन नामक चौंतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३४ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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